Family Story, लेखिका – सुमिता शर्मा

‘‘राघव, तू बहू को घर कब लाएगा?’’ शंभू चाचा ने खटिया पर लेटेलेटे ही सवाल किया.

शंभू चाचा को अनसुना करते हुए राघव तेजी से पुराना कपड़ा ले कर आंगन में खड़ी अपनी मोटरसाइकिल पोंछने लगा.

‘‘सब पर बोझ बन कर बैठे हैं. न घर बसाया, न परिवार. अब पराई औरतों की खबर न रखेंगे, तो भला और क्या करेंगे. अपनी पत्नी को एक बार मायके भेजने के बाद आज तक खोजखबर तक नहीं ली, अब सब की बहुओं की जानकारी चाहिए…’’ बड़बड़ाते हुए मोटरसाइकिल साफ कर के राघव नौकरी पर चला गया.

शंभू चाचा अपनी इस अनदेखी पर मुसकरा कर चुप रह गए.

शायद शंभू चाचा का यही एकमात्र प्रायश्चित था. कभी शंभू चाचा की कही बात पत्थर की लकीर मानी जाती थी. उन के वचन की लोग गारंटी लेते थे. कहते थे कि बंदूक की गोली बदल सकती है, पर शंभू चाचा की बोली नहीं.

किसे पता था कि यही आन एक दिन शंभू चाचा की जिंदगी को यों तहसनहस कर देगी. अब फौज से रिटायर हो चुके शंभू चाचा की जगह पराई इच्छा पर रहने वाले बो?ा से ज्यादा नहीं थी परिवार में. वे जब तक खर्च करते थे, तब तक जरूरी थे और धीरेधीरे कब गैरजरूरी हो गए, वे खुद ही नहीं जान पाए.

शंभू चाचा को न शादीशुदा कह सकते थे, न ही कुंआरा. गृहस्थी होते हुए भी वे गृहस्थ न थे. उन का कमरा बस सफाई के नाम पर खुलता और बंद होता. दीवार पर टंगी उन के ब्याह की एकमात्र ब्लैक ऐंड ह्वाइट तसवीर ही थी.

चाची से जुड़ी राघव की तो बड़ी धुंधली सी यादें थीं. उन्हें उस ने कभी अपने घर में नहीं देखा था.

शंभू चाचा की जिम्मेदारी संभालना और उन की रोटीपानी करना सब को बोझ लगता, पर चाचा को कोई कभी बोझ न लगा. वे हरसिंगार के पेड़ के नीचे पड़े टिन के शैड के नीचे ही लेटते थे. उन की खटिया ही उन की दुनिया थी.

रात को जब राघव घर लौटा, तो शंभू चाचा ने उसे अपने पास बुला लिया और सम?ाते हुए कहा, ‘‘लल्ला, बात मान ले और गुस्सा थूक कर बहू को घर ले आ.’’

राघव ने गुस्से से दांत पीसते हुए कहा, ‘‘भुगत तो रहा हूं आप की बात मान कर. अगर उस दिन मंडप से उठ जाता, तो आज मजे से दूसरा ब्याह कर चैन से जी रहा होता. समझ भी कौन रहा है मुझे… आप… जिन का घरद्वार कभी बसा ही नहीं.’’

‘‘आज सही चोट किए हो भतीजे,’’ लौहपुरुष माने जाने वाले शंभू चाचा सिर झुकाए, आंखें आंसुओं से सजाए बैठे थे.

‘‘वह क्या है कि हम नहीं चाहते, इस आंगन में एक दूसरा शंभू और बने. अगर तुम्हें किसी की अधब्याही लड़की छोड़ना मर्दानगी लग रहा था, तो न मानते हमारी बात. कौन सा हम ने दुनाली लगा दी थी तुम्हारी कनपटी पर…’’ कहतेकहते शंभू चाचा उस पल में भीतर और बाहर दोनों ओर से मोमबत्ती से पिघलने लगे.

राघव पहली बार शंभू चाचा का यह रूप देख कर पसीज उठा और उन्हें सीने से लगाते हुए बोला, ‘‘बुरा मत मानो चाचा, मेरा आप का दिल दुखाने का मन नहीं था. 6 फुटा फौजी, जिस ने दुश्मन की गोली से खौफ न खाया, वह मेरी बोली से दहल गया?’’

‘‘रघुआ, मुझे भी तेरी चाची बड़ी प्यारी थी, पर उस में बड़ी ऐंठ थी और मु?ा में अपनी बात की टेक थी. मैं सरवन कुमार तो बन गया अपनी मां का, पर तेरी चाची का पति न बन पाया. बस, अपनी बात का धन ही हाथ लगा मेरे.

‘‘वह होती तो हम एकदूजे का सहारा होते, हमारा परिवार होता. आज बुढ़ापे की दहलीज छूने जा रहा हूं, मगर क्या जिंदगी है मेरी, दूसरों पर बोझ हूं,’’ शंभू चाचा के दिल का फोड़ा आज राघव के सामने फूटा था. मवाद ज्वालामुखी के लावे सा बह रहा था.

राघव ने सपने में भी नहीं सोचा था कि हंसमुख और चंचल नदी से बहने वाले शंभू चाचा के मन की तलहटी में दुख की इतनी गाद जमा होगी. उस ने उन्हें जीभर कर रो लेने दिया.

शंभू चाचा के मन का ज्वार अब मंद पड़ चुका था. वे खुद को काबू कर के बोले, ‘‘रघुआ, जो गलती मैं ने की है, उसे तू मत दोहराना बेटा…’’

‘‘गलती… कैसी गलती चाचा?’’ राघव ने हैरानी से पूछा.

शंभू चाचा उस पल में न जाने कितने बरसों पीछे लौट गए. वे शून्य में देखते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी शादीशुदा जिंदगी की रत्तीरत्ती सी बात अपनी मां को बताया करता था. आज्ञाकारिता के बेताल ने कभी भी मेरी पीठ से उतरना मंजूर नहीं किया.

‘‘मेरी मां ने मुझे इतना प्यार दिया, मुझ पर इतना ज्यादा हक जमाया कि मुझे अपनी छाया से बाहर निकलने ही नहीं दिया. मां की जिद में तेरी चाची को देशनिकाला दे दिया. अगर मां को समझाया होता तो आज अमरबेल सा दूसरों की गृहस्थी पर न पल रहा होता. वह घर में होती, तो आज तेरे भाईबहन तेरे जितने होते.

‘‘जीवनसाथी की जरूरत इस उम्र में सब से ज्यादा होती है. समय रहते आंखें खोल ले. उस ने जो चाहा सो किया, जो दिखाया सो देखा, यह भांप ही नहीं पाया कि उस के लिए भी मेरा कुछ फर्ज है, जिसे आगपानी की कसमें खा कर अपने साथ ले कर आया हूं. तू खुद ही देख ले कि अब कौन मेरा है और मैं किस का हूं.’’

राघव ने शंभू चाचा को कस कर अपनी बांहों में भींच लिया और उन्हीं की चारपाई पर लेट गया. गृहस्थी का दर्द चाचा के चेहरे की लकीरों में किसी नदी के भंवर सा घूम रहा था.

राघव धीरे से बोला, ‘‘चाचा…’’

‘‘बोल…’’

‘‘दादीदादा तो कब के गुजर गए, तो यह चाची को न लाने की भीष्म प्रतिज्ञा आप कब तक निभाओगे? ले क्यों नहीं आते?’’

‘‘वह भी तो निभा रही है रघुआ, न जाने जिंदा है भी कि नहीं…’’ शंभू चाचा आसमान की ओर ताकते हुए बोले.

अगली सुबह शंभू चाचा देर तक सोए रहे. आंगन में चहलपहल कम थी. राघव की मोटरसाइकिल भी अपनी जगह पर थी.

आज 3 दिन हो गए, शंभू चाचा ने राघव की शक्ल तक नहीं देखी थी. भाभियां भी नाराज रहती थीं. सब को उन के खाली कमरे की जरूरत थी, पर उन्होंने किसी को नहीं सौंपा था.

पूरे 5 दिन के बाद राघव के मैले कपड़े तार पर टंगे देख कर शंभू चाचा को राहत मिली.

‘‘अरे रघुआ, बहू ले आया क्या?’’ शंभू चाचा ने ऊंची आवाज में पूछा.

‘‘हां, चाचा,’’ राघव बाहर आते हुए बोला. उस के पीछे बहू भी चली आ रही थी. उस ने धीरे से आंगन की बत्ती जला दी.

शंभू चाचा को बरसों बाद भी कोने की भीड़ में वह चेहरा न जाने क्यों दिखने लगा, थोड़ी चांदी के साथ.

‘‘शायद बहू के आने की खुशी में बौरा गया हूं मैं,’’ शंभू चाचा ने अपने सिर पर खुद ही चपत लगाते हुए कहा.

‘‘चाचा, जरा अपने कमरे की चाभी दीजिए,’’ राघव उन के पैर छूते हुए बोला, ‘‘बहू को मुंहदिखाई चाहिए.’’

‘‘क्यों नहीं, आज तू ने मेरी बात मान कर मुझे बेमोल खरीद लिया.’’

मगर, यह क्या… बहू तो शंभू चाचा के पैर छू कर सीधे रसोईघर में लौट गई. वे आराम करने के लिए अपनी खटिया खोजने लगे. न मिलने पर बाहर ही चबूतरे पर बैठ गए.

देर रात राघव ने शंभू चाचा को खाने के लिए आवाज लगाई, तब पाया कि उन के कमरे की बत्ती जल रही थी. खिले हुए हरसिंगार की महक आज उस बंद कमरे की सीलन निकाल कर आसपास छाई हुई थी.

चांद की छनती रोशनी में साड़ी पहने एक अजनबी आकृति थाली लिए शंभू चाचा की ओर बढ़ी. वे घबरा कर कमरे की ओर उलटे पैर लौट पड़े.

कमरे में बल्ब की रोशनी में पाया कि यह आकृति राघव की बहू की नहीं, बल्कि उन की पत्नी ब्रजेश कुमारी की थी. बरसों बाद इस तरह सामना होने पर वे कुछ न कह पाए. आंसू दोनों ओर थे.

‘‘खाइए न…’’ यह आवाज सुन कर शंभू चाचा वर्तमान में लौटे. आंगन में हाथ धोते हुए उन्होंने जोर से आवाज लगाई, ‘‘रघुआ…’’

‘‘क्या बात है चाचा…’’ राघव शर्ट पहनता हुआ आया.

‘‘बहू नहीं लाया क्या…?’’

‘‘लाया हूं न चाचा… आप की भी और अपनी दादी की भी. उस दिन आप की बातें और आप की सूनी आंखों ने मुझे विरह की बड़ी दुखद तसवीर दिखाई, तब मैं ने कसम खाई कि दुलहन के साथ चाची की भी वापसी होगी.’’

‘आप मुझ में खुद को देख रहे थे, तो क्या मैं आप में खुद को नहीं देख सकता… इतिहास नहीं दोहराया जाएगा,’ खुद से इतना कह कर राघव अपनी ससुराल निकल गया था उस दिन.

‘‘पता तो मालूम था चाचा मुझे, पर चाची इतने बरसों बाद दुलहन के साथ मुझे देख कर पहले तो पहचान ही न पाईं, पर जब पहचान लिया, तब लिपट कर खूब रोईं, तो एक लंबे अरसे का मवाद बह गया.

‘‘बस, हम भी अड़ कर बैठ गए और तभी माने, जब हम ने उन से वचन ले लिया हमारे साथ चलने का. अब उस कमरे में उस की मालकिन का स्वागत कीजिए. अब हम अधब्याहे नहीं हैं.’’

जीवनसाथी के साथ का जगमग दीया उन दोनों के विरह का अंधेरा दूर कर चुका था.

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