जनकदेव जनक  समय ही एक ऐसा साथी है, जो अच्छे और बुरे दिनों में इनसान के साथ रहता है. चाहे अमीर हो या गरीब, राजा हो या रंक, वह सब को अपने आगोश में लिए घूमता है, मगर जिस का भी समय पूरा हो जाता है, उसे यमराज के हवाले कर हमेशा के लिए अलविदा कह देता है. ठीक वैसे ही एक दिन 28 साल के एक नौजवान अमर की मां के साथ हुआ. 55 साल की उस की मां की उम्र मरने की तो नहीं थी, लेकिन घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि ठीक से वह उस का इलाज करा सके. फिर भी जब तक सांस है, तब तक आस है. अमर ने एक डाक्टर से उस का इलाज कराया. अमर अपनी मां के मरने से बहुत आहत हुआ, इसलिए कि उस की मां का अंतिम संस्कार उस के लिए एक समस्या बनी हुई थी, क्योंकि वह अपनी बिरादरी से छांट दिया गया था. मां की अर्थी को कंधा देने वाला उस के सिवा कोई नहीं था. संयुक्त परिवार होने के बावजूद अमर अपने घर पर अकेला मर्द सदस्य था.

उस के पिता की मौत 5 साल पहले हो चुकी थी, जबकि घर के दूसरे सदस्य उस के चाचा जितेंद्र कोलकाता में रहते थे. घर पर उस के साथ चाची मंजू देवी व उन की 3 बेटियां सोनी, पार्वती व कंचन थीं, जो कि 16, 17 व 18 साल की थीं.  अमर ने अपनी मां के मरने की खबर जब मोबाइल से अपने चाचा को दी, तो उन्होंने कहा, गाडि़यों की हड़ताल के चलते मैं समय से घर नहीं पहुंच सकता, इसलिए तुम भाभी का अंतिम संस्कार जल्द कर देना. मेरे इंतजार में लाश को घर में रखना ठीक नहीं है. चाचा की इस बात से अमर को गहरा सदमा पहुंचा. वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा. उस के बाद वह गांव के सूर्यभान पहलवान और अपने पट्टीदारों के घर पहुंचा.

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