राजधानी दिल्ली में जगमगाते इंडिया गेट के पास की एक सरकारी इमारत के एक कोने की ओट लिए सांवली सी लड़की बैठी थी. रात के 10 बज रहे थे. खंभों पर चमकती एलईडी लाइटों में गंदे, फटे कपड़े, बिखरे बाल, धूलमिट्टी लगे चेहरे के बीच उस की सिर्फ दोनों आंखों में गजब की चमक दिख रही थी.
उस की आंखों की बारबार घूमती पुतलियों को देख कर कोई भी उस की चंचलता, चपलता और चतुराई के साथ जिज्ञासा और जरूरतों का अंदाजा लगा सकता था. हालांकि, साधारण देह, छोटी कदकाठी की वह दुबलीपतली कमजोर सी दिख रही थी.
उस की पसरी दोनों टांगों के बगल में जमीन पर छोटे से पौलीथिन के टुकड़े पर 3-4 माह का छोटा बच्चा लेटा बोतल से दूध पी रहा था. वह सामने सड़क पर आतीजाती गाडि़यों की चमकदार हेडलाइटों से दिख जाता था. जब कभी तेज रोशनी उस बच्चे पर पड़ती तो बोतल का निप्पल उस के मुंह से छूट जाता था और वह रोने लगता था.
लड़की गाड़ी वाले को अपनी भाषा में कोसती हुई गुस्से में बोतल का निप्पल फिर से बच्चे के मुंह में ठूंस देती थी. ऐसा वह कुछ मिनटों में ही कई बार कर चुकी थी.
कुछ देर में ही बच्चे ने तो हद ही कर दी. उस का रोना बंद ही नहीं हो पा रहा था. गुस्से में उस ने उसे अपनी गोद में लिया और अपना दूध पिलाने की कोशिश करने लगी. फिर भी बच्चा चुप होने के बजाय रोए जा रहा था. लड़की ने दूसरे हाथ से वहीं पड़ी बोतल को उठा कर देखा. उस में दूध खत्म हो चुका था.
लड़की बड़बड़ाई, ‘‘इतनी रात में दूध किधर मिलेगा…’’
सामने सड़क के दूसरी ओर नजर उठा कर देखा. चायवाला दुकान बंद कर जा चुका था, लेकिन दुकान के पीछे थोड़ी चहलपहल नजर आ रही थी. दुकान के 2 नौकरों का वही घर था. वे वहीं रहते थे. दुकान की छत पर सोते थे.
लड़की की आंखों में चमक आ गई. वह एक हाथ से बच्चे को गोद में पकड़े दूसरे हाथ में दूध की बोतल लिए सड़क पर उन के पास चली गई. वे अपने लिए छोटे सिलेंडर पर रोटियां सेंक रहे थे. भगोने में पके भोजन की खुशबू फैल रही थी.
खैर, लड़की ने कुछ बोले बगैर दूध की बोतल उन के आगे कर दी. आटे की लोई बेलता हुआ नौकर बोल पड़ा, ‘‘देख, इसी को कहते हैं, दानेदाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम.’’
…और फिर वहां से उठ कर अपने बरतनों के बीच से एक दूध की बोतल निकाल लाया. राजस्थानी भाषा में बोला और बोतल उसे पकड़ा दी.
‘‘कुछ देर पहले ही कार से एक बच्चे ने यह फेंक दी थी. उस में दूध भरा था, इसलिए मैं ने उठा कर रख ली. देखो इस के काम आ गया.’’ नौकर बोला.
लड़की ने भी तुरंत बोतल ली और उस की निप्पल वहीं रखे पानी से धोई और रोते बच्चे के मुंह में लगा दी. बच्चा चुप हो गया. लड़की उसे गोद में ले कर वहीं बैठ गई.
तवे की रोटी को गैस की आंच में सेंकता हुआ अपने दूसरे नौकर दोस्त से बोला, ‘‘अच्छा किया भाई, तूने बहुत ही अच्छा काम किया आज. लेकिन इस का मरद कहां है, इसे छोड़ दिया क्या?’’
‘‘पता नहीं क्या हुआ है इस के साथ, लेकिन ये लड़की पिछले 2 दिनों से यहीं सड़क के उस पार म्यूजियम की दीवार के साथ रह रही है. मैं इस की बोली कुछकुछ समझता हूं. राजस्थान की आदिवासी लगती है,’’ नौकर बोला.
‘‘और क्या जानता है इस के बारे में?’’ दूसरे नौकर ने कुछ और जानने की जिज्ञासा दिखाई.
‘‘पूछता हूं,’’ कहता हुआ पहले वाले नौकर ने लड़की की ओर देख कर उस की बोली में पूछा, ‘‘खाना खाया?’’
लड़की ने नहीं में सिर हिला दिया.
‘‘रोटी खाएगी. चिकन भी है. दूं खाएगी?’’
‘‘तू तो ऐसे बोल रहा है जैसे उसे चिकन पता हो… अरे बोल न कि मुर्गा बना है.’’
‘‘हां, सही बोला दोस्त!’’ पहला नौकर बोला और लड़की की ओर दयाभरी नजर से देखा. उसे लड़की की हालत और हुलिया देख कर तरस आ गया.
लड़की चुपचाप कभी उसे देख रही थी तो कभी उस की नजरें रोटी और भगोने में रखे चिकन पर भी घूम रही थीं. नौकर समझ गया. उस के कहे बगैर उस ने 3 रोटी और एक कटोरे में थोड़ा चिकन निकाल कर दे दिया. रोटियां मोटीमोटी थीं. लड़की ने अंगुली से 2 रोटी का इशारा किया.
नौकर ने कागज की प्लेट में 2 रोटियां और एक कटोरे में 2 पीस चिकन के साथ ग्रेवी दे दी. लड़की रोटी और चिकन ले कर वहीं बैठ कर खाने लगी. उसे खाता देख दोनों दोस्त एकदूसरे को देख मुसकराए और फिर बची रोटियां पकाने में जुट गए. पहले नौकर ने लड़की से उसी दौरान उस के मरद के बारे में पूछ लिया.
लड़की ने बताया उस की शादी नहीं हुई है, लेकिन जिस के साथ साल भर से रह रही थी, वह सिरोही में उसी के गांव के पास वाले गांव में रहता था. वही उस का मरद है. उस से प्रेम करती है. लड़की ने बताया कि उस का मरद एक महीना पहले दिल्ली आया था. उसी से मिलने वह भी दिल्ली आ गई है.
वह भी पहली बार ही दिल्ली आया है. यह बता कर लड़की चिंतित हो गई. अपने बच्चे की ओर देखने लगी. उस की आंखों में पानी आ गया.
दोनों ने कहा, ‘‘अरे मत रोओ, हम लोगों से जितना बन पड़ेगा, हम तुम्हारी मदद करेंगे. कल दिन में तुम्हारे रहने, खानेपीने का इंतजाम करवा देंगे. 3 टाइम यहां खाना देने वाला आता है, तुम उस से अपना खाना ले लेना. हम लोग बच्चे का दूध दे देंगे. उधर ही सरकारी नहानेधोने की जगह है. बच्चे की देखरेख भी जरूरी है. उधर तुम्हारी तरह और भी लोग रहते हैं. डरना नहीं…एक डंडा साथ में रखना… आवारा कुत्ते घूमते रहते हैं उन्हें भगाते रहना.’’
खाना खाने के बाद वह लड़की कुछ सामान्य हुई. फिर उस से बातचीत की तो पता चला कि उस की तरह आदिवासी समाज की कम उम्र की तमाम लड़कियां दापा प्रथा के तहत अपने मरद का चुनाव कर लेती हैं और फिर उस के साथ बिना शादी के पतिपत्नी की तरह रहती हैं.
इस तरह सिरोही इलाके में आदिवासी समाज के हर दूसरे घर में नाबालिग लड़कियां मां बन रही हैं. इस से होने वाली मौत के खतरे से वे सभी एकदम अनजान रहती हैं.
यह सब गांवों के लड़केलड़कियों में अपनी मरजी के जीवनसाथी चुनने और शादी से पहले लिवइन रिलेशनशिप की परंपरा के कारण हो रहा है.
वहां न केवल मनपसंद जीवनसाथी चुनने का अधिकार है, बल्कि कुछ महीने और सालों तक साथ रहने की छूट है. यहां तक कि बच्चे पैदा करने पर भी किसी को कोई शिकायत नहीं है.
ये हकीकत है राजस्थान के उदयपुर, सिरोही, पाली और प्रतापगढ़ जैसे जिलों की, जहां 12-13 साल की उम्र में लड़कियां दापा प्रथा के तहत अपनी पसंद का दूल्हा चुन लेती हैं. पारिवारिक और सामाजिक रीतिरिवाज से शादी होने से पहले ही 15-16 साल की उम्र में ही मां भी बन जाती हैं. यह प्रथा गरासिया जनजाति में तो आम है.
खेलनेकूदने की उम्र की लड़कियां अपनी गोद में बच्चा संभालती रहती हैं. ऐसी सैकड़ों लड़कियों की उम्र से पहले किशोरावस्था में ही गर्भवती होने के कारण प्रसव के दौरान ही मौत हो चुकी है. शिक्षा, जागरूकता से कोसों दूर गरासिया जनजाति की ये लड़कियां पुरानी परंपराओं को ही किस्मत मान बैठी हैं.
इन जिलो के गांवों की यह स्थिति बेहद चिंताजनक बन चुकी है. ऐसी सैकड़ों लड़कियों ने मीडिया से बातचीत में अपनी अनंत समस्याएं गिनाईं, जबकि इसे ले कर शासनप्रशासन चुप है.
सिरोही जिले की पिंडवाड़ा तहसील से लगा आदिवासी गांव रानीदरा है. झोपड़ीनुमा बने एक अधपक्के मकान के बाहर एक लड़की गोद में एक बच्चे को लिए उसे खिला रही थी, जबकि आसपास 5-7 साल के कुछ दूसरे बच्चे भी खेल रहे थे. एक रिपोर्टर जैसे ही उस के पास गया, खेल रहे बच्चों के साथ लड़की भी खेतों की ओर दौड़ पड़ी.
रिपोर्टर ने उसे आवाज दे कर बुलाया. तभी उस घर से अधेड़ उम्र का आदमी बाहर निकला. रिपोर्टर का नामठिकाना जानने के बाद उस के वहां आने का कारण पूछा. फिर बताया कि खेतों की तरफ भागी लड़की उस के बेटे की बहू महती है. उस की गोद में खेलने वाला 8 महीने का बच्चा उस का पोता है. व्यक्ति ने महती को आवाज दे कर बुलाया.
महती ने बातचीत में बताया कि करीब डेढ़ साल पहले उसे मनोहर (18) बहुत पसंद था और वह अपनी मरजी से उस के साथ रहने लगी थी. मनोहर उसे गांव के एक मेले में मिला था. वहीं उस की जानपहचान हुई थी. मनोहर आसपास की खदानों में पत्थर काटने का काम करता है. बच्चे की मां बनने के बाद उस की मंदिर में शादी करवा दी गई. सामाजिक रीतिरिवाज कुछ नहीं हुआ.
अपने बारे में महती ने बताया कि वह अनपढ़ है. स्कूल को उस ने दूर से ही देखा है. उस के गांव की लड़कियां स्कूल नहीं जातीं. बताया कि स्कूल में मास्टर उन बच्चों से बहुत काम करवाते हैं और मना करने पर बहुत पीटते हैं, जो उस के आदिवासी समाज के होते हैं. यह सब उस ने गांव के ही लोगों से सुना है.
अपने और पति के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बता पाई. किंतु जब उस से कम उम्र में बच्चे की मां बनने के बारे पूछा गया, तब उस ने तपाक से कहा कि मां बनना कोई गलत है क्या? और फिर वह शरमाती हुई चली गई.
उस के ससुर और गांव के दूसरे बुजुर्गों से ही मालूम हुआ कि 70-80 घरों वाले इस रानीदरा गांव में मात्र 10-12 पुरुष ही जिंदा बचे हैं. अधिकतर औरतें विधवा हो चुकी हैं.
इस का कारण उन्होंने बताया कि यहां पत्थरों से जुड़ा काम करने के कारण अधिकतर मर्द खतरनाक बीमारी के शिकार हो जाते हैं. उस बारे में और अधिक जानकारी जुटाने पर पता चला कि इलाके में पत्थरों की खदानों के कारण लोग सिलिकोसिस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं.
रानीदरा से ही करीब 6 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव लोटाना है. यहां की लगभग पूरी आबादी आदिवासियों की है. इस गांव की उपसरपंच भी एक महिला है. गांव की कम उम्र में लड़कियों के मां बनने के बारे में जब उन से पूछा गया, तब उन्हें आश्चर्य हुआ कि उन से यह सवाल क्यों पूछा जा रहा है.
पहले तो वह हंसी, फिर इस बारे में बात करने से ही इनकार कर दिया. वह न तो अपने बारे में और न ही अपने मर्द के बारे में कुछ बता पाई. जबकि वह खुद लिवइन रिलेशन में रहने के बाद कम उम्र में मां बनी थी.
उसी दौरान मोटरसाइकिल पर कम उम्र का एक जोड़ा वहां से गुजरा. पीछे बैठी लड़की की गोद में छोटा बच्चा किलक रहा था. रिपोर्टर ने अपनी गाड़ी से उन का पीछा किया. आवाज देने पर उन्होंने बाइक रोकी. दोनों पिंडवाड़ा बाजार से सब्जी खरीद कर लौट रहे थे.
लड़की ने अपना नाम सोनिया बताया. उस की उम्र 14 साल सुन कर रिपोर्टर चौंक गया, क्योंकि उस की गोद में बच्चा ही करीब डेढ़ साल का था. इस का मतलब था वह 12 साल की उम्र में ही गर्भवती हो गई थी.
उस का पति भी 20 साल का था, जिस के साथ उस की शादी बच्चा पैदा होने के बाद हुई थी. जब वह गर्भवती हुई थी, तब उसे काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था. बीमार रहती थी. कभी पेट दर्द तो कभी कमजोरी. डाक्टर बताता था कि उस की देह में खून नहीं है. बच्चे के जन्म के समय तो उस की तबीयत काफी बिगड़ गई थी. अब वह खुश है क्योंकि उस का बेटा डेढ़ साल का हो चुका है.
उसी गांव की एक औरत ने बताया कि उस की 16 साल की बेटी मां बनने वाली है. उस ने अपनी पसंद का लड़का देखा है, जिस के साथ बगैर शादी किए रहने के बाद गर्भवती हो गई है.
कुछ दिन पहले ही मायके आई है. करीब उस की उम्र की बहू 4 माह के बच्चे की मां बन चुकी है. उस ने अपनी पसंद का लड़का चुना था. दोनों ने कुछ दिनों तक अपनेअपने जीवनसाथी के साथ रहने के बाद गर्भवती होने पर मंदिर में जा कर शादी कर ली थी.
आदिवासी इलाके में सैकड़ों सालों से दापा प्रथा चली आ रही है. उस के मुताबिक लड़की ही अपनी पसंद का लड़का तलाशती है. पसंद आने पर दोनों परिवारों की सहमति से बगैर शादी किए कुछ महीनों और सालों तक साथ रहते हैं. इस के पीछे दोनों में प्रजनन क्षमता का परीक्षण करना होता है.
वहां सात फेरों वाली शादी या किसी तरह का मांगलिक आयोजन जरूरी नहीं होता है. साल भर में आदिवासी समाज के 4-5 स्नेह मिलन कार्यक्रम होते हैं. उन में आदिवासी समाज के लड़के और लड़कियों को अपने पसंद का जीवनसाथी चुनने की छूट होती है. लड़कियां किशोर उम्र 12 से 15 साल की होती हैं. लड़के भी उन के हमउम्र ही होते हैं.
कई रातदिन कार्यक्रम में साथ बिताने के बाद ये अपना हमसफर चुन लेते हैं. इस के बाद लिवइन में रहना शुरू कर देते हैं. इस रिलेशनशिप को ले कर घर व समाज में भी कोई आपत्ति नहीं करता है. जल्द ही वे यौन संबंध बना लेते हैं और लड़की गर्भधारण कर लेती है.
सामान्य तौर पर लड़की 13-14 साल की उम्र में ही गर्भवती हो जाती है. यह उस के भविष्य के जीवन का एक शुभ संकेत और संदेश माना जाता है. घर वाले निश्चिंत हो जाते हैं कि उन की बेटी का परिवार बन गया.
इस समाज को उस कानून से कोई लेनादेना नहीं है, जिसे सरकार ने शादी के लिए बनाया है. जैसे लड़की की उम्र 18 और लड़का 21 साल का हो, तभी वे बालिग होंगे और शादी कर पाएंगे. या फिर लिवइन में रह सकेंगे. इस के नहीं मानने के कारण आदिवासी इलाके में किशोरावस्था में गर्भवती होने से जुड़ी सेहत संबंधी समस्या लगातार बढ़ती जा रही है.
महिला रोग विशेषज्ञ के अनुसार किसी भी महिला को गर्भधारण की सही उम्र 20 साल या इस से अधिक ठीक रहती है. किशोरावस्था में गर्भधारण मां और बच्चे दोनों के लिए घातक होता है.
गांवों में ऐसी मांओं की देखभाल मुख्य तौर पर दाइयों की सलाह पर निर्भर करती है. उन के अनुसार ही गर्भवती औरतों की देखभाल प्रसव और उस के कुछ दिनों बाद तक की जाती है.
यही कारण है कि आदिवासी इलाके में पोषण की बड़ी समस्या है. ऐसे में किशोरावस्था में गर्भधारण करने वाली लड़कियों के गर्भ में पलने वाले बच्चों पर खतरा बढ़ जाता है. उस का उचित विकास नहीं हो पाता है.
ऐसे लोगों के घर अभी भी कच्चे हैं, अधिकतर नाबालिग लड़के स्कूल जाने के बजाय शुरू से ही पत्थर की खदानों में काम करने लगते हैं. उन्हें भी इस का पता नहीं चल पाता है कि उस की पत्नी या साथ रह रही लड़की की तबीयत बिगड़ गई तो अस्पताल ले जाएं. उन की आमदनी भी इतनी नहीं होती कि वे इलाज पर खर्च कर पाएं.
अब सोनिया के पति रमेश को ही लें. वह मजदूरी करता है. खेतों में काम कर महीने में 10-12 हजार कमा पाता है. आनेजाने के लिए उस ने पुरानी बाइक ले रखी है. पत्नी भी साथ में मजदूरी करती है. दोनों मिल कर किसी तरह से घर का खर्च निकाल पाते हैं.
ऐसे गांवों में बच्चे और मांओं का कोई रिकौर्ड नहीं है. शादियों के दफ्तर में तो इन के रिकौर्ड होते ही नहीं हैं. यहां तक कि पैदा होने वाले बच्चे का भी किसी सरकारी संस्था में रजिस्ट्रैशन नहीं करवाया जाता है. इन की संख्या रानीदर, लोटाना, नादिया, वारकी खेड़ा, गरट, मोरस, वरली, भूला, पंच देवल, ठंडी बेरी आदि गांवों में अधिक है.
बहरहाल, प्रशासन और कानून का जो पक्ष है, वह इन के किसी काम का नहीं है. पूर्व सीडब्ल्यूसी सदस्य बी.के. गुप्ता के अनुसार चाइल्ड मैरिज एक्ट और पोक्सो के प्रावधान तभी लागू होते हैं, जब कोई शिकायत प्रशासन या पुलिस तक पहुंचे या फिर पुलिस या प्रशासन की नजर में कोई मामला आ जाए. जब शिकायत नहीं होती तो सरकारी सहायता भी ऐसी लड़कियों को नहीं मिल पाती.
उन के पैरेंट्स पढ़ेलिखे नहीं होते और वे परंपरा के नाम पर अपने बच्चों को साथ रहने की अनुमति देते हैं. फिर चाहे शादी हो या बिना शादी साथ रहें. खुद 13 से 15 साल की उम्र में ही साथ रहने की वजह से बच्चे भी स्कूल नहीं जाते. ऐसे में अर्ली चाइल्ड प्रेग्नेंसी के नुकसान का इन्हें पता ही नहीं है.
आदिवासी नेता रतन लाल गासिया की शिकायत सरकार से है. उन का कहना है कि कम उम्र में मां बनी इन लड़कियों को ले कर सरकार के पास कोई जानकारी ही नहीं है, जबकि सिरोही, उदयपुर, प्रतापगढ़ और पाली जिलों के आदिवासी इलाके में ऐसी हजारों लड़कियां हैं.
कम उम्र में प्रेग्नेंट हो जाने के चलते इन किशोरियों को कमजोरी, खून की कमी, कुपोषण और कई सैक्सुअल बीमारियों का सामना करना पड़ता है. कई बार इन किशोरियों की डिलीवरी के दौरान जान तक भी चली जाती है.
यह एक गंभीर समस्या है. गैरसरकारी संस्थाओं को आगे बढ़ कर इन इलाकों में जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है. साथ ही प्रशासन को भी अपनी कुंभकर्णी नींद से जागना होगा वरना यह समस्या जटिल होती जाएगी.