प्रियंका गुप्ता चाय वाली. अब आप पूछेंगे कि इस में क्या खास बात है? खास बात यह है कि बिहार की राजधानी पटना में महिला कालेज के सामने पूर्णिया जिले की रहने वाली प्रियंका गुप्ता टपरी पर चाय तो बेचती है, पर अगर उस की पढ़ाईलिखाई की बात करें तो वह बीएचयू, बनारस से इकोनौमिक्स से ग्रेजुएशन कर चुकी है.

प्रियंका गुप्ता 2 साल तक पटना में रह कर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रही थी. जब उसे लगा कि वह किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठ नहीं पाएगी, क्योंकि सालों से किसी भी प्रतियोगिता में बैठने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है और बिहार समेत पूरे देश में नौकरी की रिक्तियां ही नहीं निकल रही हैं, तब उसे अनुभव हुआ कि समय खराब करने से कोई फायदा नहीं. तो वह बिना समय गंवाए अपनेआप को चाय बेचने के लिए तैयार कर पाई.

पर प्रियंका गुप्ता को बैंक में चक्कर लगाने के बाद भी 30,000 रुपए तक का लोन नहीं मिल पाया. लिहाजा, वह अपने एक दोस्त से उधार ले कर महिला कालेज के सामने चाय की दुकान लगाने लगी.

जब से एक पढ़ीलिखी लड़की ने चाय की दुकान की शुरुआत की, तब से मीडिया वाले खासकर सोशल मीडिया पर अपना चैनल चलाने वालों का उस के मुंह में माइक घुसेड़ कर इंटरव्यू लेने वालों का तांता लगने लगा. सारे मीडिया वाले बड़े गर्व से चिल्लाचिल्ला कर बताने लगे कि देखो, एक पढ़ीलिखी लड़की ने चाय की टपरी लगाई है.

अरे भाई, प्रियंका गुप्ता को एक अदना सी नौकरी नहीं मिल पाई, तो वह चाय बेचने को मजबूर हो गई. किसी भी लड़केलड़की को ग्रेजुएशन तक पढ़ने में तकरीबन 15 साल बीत जाते हैं. अगर उस के बाद भी नौकरी नहीं मिली, तो उन की 15 साल की तपस्या बेकार चली जाती है. यह सब मीडिया वाले क्यों नहीं बताते हैं?

यह क्यों नहीं बताया जा रहा है कि यह प्रियंका गुप्ता की नाकामी नहीं, बल्कि मोदी सरकार की नाकामी है, जो अब ऊंची डिगरी वालों से भी चायपकौड़े बिकवा रही है? देशभर में सरकारी नौकरियों को खत्म किया जा रहा है. इस बात को मीडिया जगत में जगह नहीं दी जा रही है.

जब देश के पढ़ेलिखे बेरोजगार नौजवानों को रोजगार नहीं दिया जाता है, तो चायपकौड़े बेचने का नैरेटिव सैट किया जाता है, ताकि नौजवान नौकरी से डाइवर्ट हो कर फालतू के रोजीरोजगार कर सड़कों पर खाक छानें और जब चुनाव का समय आए तो उन से रामलला के नारे लगवाए जाएं, मंदिरमसजिद के नाम पर अंधभक्ति कराई जाए.

सब से बड़ा सवाल यह है कि जब चाय की दुकान ही लगानी है, तो इतनी बड़ी डिगरी की क्या जरूरत है? दरअसल, देश में रोजगार की कमी हो गई है. दिनोंदिन बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है. पढ़ेलिखे लोग नौकरी के लिए मारेमारे फिर रहे हैं. उन में निराशा बढ़ती जा रही है.

इस सब के बावजूद मीडिया इस बारे में ज्यादा गंभीरता से बात नहीं कर रहा है. वह जानता है, अगर विरोध करेगा भी, तो अंधभक्तों द्वारा देशद्रोही होने का सर्टिफिकेट दिया जा सकता है.

कुछ समय पहले ही देशभर के नौजवानों द्वारा रेलवे की परीक्षा की गलत नीतियों का विरोध किया गया था. पटना और लखनऊ से ले कर दिल्ली तक इस का असर पड़ा था. जानबूझ कर कोचिंग संस्थानों को भी आंदोलन भड़काने का आरोप लगाया गया था.

आखिर लाखों रुपए कोचिंग संस्थानों से कमाने वाले शिक्षकों की रौनक लड़केलड़कियों से ही हो पाती है. लेकिन नौकरी नहीं निकलने के चलते उन के बिजनैस पर बुरा असर पड़ रहा है. लड़केलड़कियां भी कोचिंग सैंटरों में दाखिला लेने से पहले सौ बार सोचते हैं.

आज के गरीब तबके के लड़केलड़कियां किसी भी काम को करने से पहले अपने मांबाप की माली हैसियत का भी जरूर खयाल रखते हैं. ज्यादातर लड़केलड़कियां बेकार में पैसा बरबाद नहीं करना चाहते हैं. वे कोचिंग भी तभी करना पसंद करते हैं, जब नौकरी के इश्तिहार आने शुरू होते हैं. तभी वे पढ़ने की रणनीति भी बना पाते हैं.

क्या प्रियंका गुप्ता दुनिया की पहली महिला हैं, जो चाय की टपरी चला रही है? फिर जो पहले से औरतें और लड़कियां चाय बेचने पर मजबूर हैं, उन्हें पब्लिसिटी क्यों नहीं मिल रही है? जो औरतें और लड़कियां चाय बेचने पर मजबूर हुई हैं, उन की खोजखबर क्यों नहीं की जा रही है? वे आखिर किन हालात में ऐसा करने को मजबूर हुई हैं या हो रही हैं?

दरअसल, आज वर्तमान सरकार द्वारा नौकरी के लिए रिक्तियां निकालनी कम कर दी गई हैं और सरकारी संस्थाओं को निजीकरण की ओर धकेला जा रहा है. जबकि एक समय ऐसा था, जब निजी संस्थानों का सरकारीकरण किया जाता था, ताकि सरकार ज्यादा से ज्यादा रोजगार पैदा कर सके. तब लोगों को लगता था कि पढ़लिख लेने के बाद कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी.

वे लोग भले ही प्रतियोगिता परीक्षा में कामयाबी हासिल नहीं कर पाते थे, लेकिन फिर भी वे खुद को चायपकौड़े बेचने के लिए अपनेआप को तैयार नहीं कर पाते थे. बेरोजगार रहने पर कोई अच्छा सा कारोबार करने के बारे में सोचते थे.

लेकिन आज नौकरी की रिक्तियां नहीं निकलने के चलते ज्यादातर बेरोजगार प्रियंका गुप्ता की तरह ही निराश और हताश हैं. कुछ लोग निराशा में छोटेमोटे कामधंधे करने के लिए राजी हो रहे हैं, पर शौक से ऐसा करने वालों की तादाद न के बराबर है.

इस के बावजूद मीडिया का एक धड़ा यह बताने पर आमादा है कि पढ़ेलिखे लोग चायपकौड़े बेचने के लिए बड़े शौक से राजी हैं. दरअसल, जब से मीडिया के एक धड़े ने मोदी मौडल पर काम करना शुरू कर दिया है, तब से कुछ लोगों द्वारा यह सलाह दी जा रही है कि पढ़ेलिखे भी चायपकौड़े बेच सकते हैं.

अब पढ़ेलिखे लोग चायपकौड़े बेचने लगेंगे, तो कम पढ़ेलिखे लोग कौन सा धंधा करेंगे? क्या उन के हकों को नहीं मारा जा रहा है? लिहाजा, पत्रकारों और मीडिया वालों द्वारा बेरोजगारों की समस्याओं को प्रमुखता देने की जरूरत है.

समाज के बुद्धिजीवी वर्ग, सामाजिक चिंतन करने वालों को भी इस समस्या के प्रति सोचने की सख्त जरूरत है, वरना आने वाले समय में इन नौजवानों की बेरोजगारी की समस्या से देश में बड़ा संकट पैदा हो सकता है.

धीरज कुमार

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