ठकाठक ठक, ठकाठक ठक, ठकाठक ठक. रात के साढ़े 12 बजे थे. लखनऊ मेल टे्रन तेजी से लखनऊ की ओर जा रही थी. डब्बे के सभी यात्री सोए हुए पर मीनाक्षी की आंखों में नींद कहां? उस का दिमाग तो अतीत की पटरियों पर असीमित गति से दौड़ रहा था. उसे लगता था जैसे वर्षों पुरानी बेडि़यों के बंधन आज अचानक टूट गए हों.

50 वर्षीया मीनाक्षी दिल्ली में सरकारी सेवा में एक उच्च पद पर आसीन है. सैकड़ों बार कभी सरकारी कामकाज के सिलसिले में तो कभी अपने निजी कार्यवश टे्रन में सफर कर चुकी है. लेकिन आज की यात्रा उन सभी यात्राओं से कितनी भिन्न थी.

‘चाय, चाय, चाय गरम,’ आवाज सुन कर, मीनाक्षी का ध्यान टूटा तो देखा, टे्रन बरेली स्टेशन पर खड़ी है. बरेली? हां, बरेली ही तो है. 30 साल पुराने बरेली और आज के बरेली स्टेशन में लेशमात्र भी फर्क नहीं आया था. वही चायचाय की पुकार, वही लाल कमीज में भागतेदौड़ते कुली और वही यात्रियों की भगदड़.

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‘एक कप चाय देना,’ जैसे स्वप्न में ही मीनाक्षी ने कहा. वही बेस्वाद कढ़ी हुई बासी चाय, वही कसैला सा स्वाद. हां, कुल्हड़ की जगह लिचपिचे से प्लास्टिक के गिलास ने जरूर ले ली थी.

कहीं कुछ भी तो नहीं बदला था. पर इन 30 वर्षों में मीनाक्षी में जरूर बहुत बदलाव आ गया था. मां के डर से बालों में बहुत सारा तेल लगा कर एक चोटी बनाने वाली मीनाक्षी के बाल आज सिल्वी के सधे हाथों से कटे उस के कंधों पर झूल रहे थे. 30 वर्ष पहले की दबीसहमी, इकहरे बदन की वह लड़की आज आत्मविश्वास से भरपूर एक गौरवशाली महिला थी. चाय का गिलास हाथ में पकड़ेपकड़े दिमाग फिर अतीत की ओर चल पड़ा था…

‘मम्मी, आज सुषमा का जन्मदिन है, उस ने अपने घर बुलाया है. मैं जाऊं?’

‘सुषमा? कौन सुषमा?’ मां का रोबदार स्वर कानों में गूंजा तो मीनाक्षी सहम सी गई थी.

‘मेरी क्लास में पढ़ती है, आज उस का जन्मदिन है,’ मुंह से अटकअटक कर शब्द निकले थे.

‘कौनकौन आ रहा है?’ मां ने पत्रिका से सिर उठाए बगैर ही पूछा था.

‘यह तो पता नहीं पर मम्मी, मैं जल्दी ही आ जाऊंगी,’ आशा बंधती देख मीनाक्षी ने जल्दीजल्दी कहा था.

‘उस के घर में और कौनकौन हैं?’

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‘उस की मम्मी, और भाई. पापा तो ट्रांसफर हो कर इलाहाबाद चले गए हैं. ये लोग भी अगले शनिवार को जा रहे हैं.’

‘भाई बड़ा है या छोटा?’

‘भाई उस से 2 साल बड़ा है.’

‘तुम नहीं जाओगी किसी सुषमावुशमा के यहां,’ मां के स्वर में दृढ़ता थी.

‘पर क्यों, मम्मी? वे लोग अब इलाहाबाद चले जाएंगे. मैं उस से अब कभी मिल भी नहीं पाऊंगी,’ मीनाक्षी ने साहस जुटा कर कहा था.

‘बेकार बहस मत करो. जा कर पढ़ाई करो.’

‘पर मम्मी, सुषमा मेरा इंतजार कर रही होगी.’

‘कह दिया न एक बार, बड़ों का कहना मानना भी सीखो कभी.’

मां ने पत्रिका से सिर उठा कर जब उसे घूर कर देखा तो वह कितना सहम गई थी. चुपचाप अपने कमरे में अर्थशास्त्र की किताब खोल कर बैठ गई थी. खुली किताब पर कितनी ही देर तक टपटप आंसू गिरते रहे थे.

‘‘मेमसाब, चाय के पैसे दे दो. टे्रन चलने वाली है,’’ चाय वाले की आवाज सुन कर मीनाक्षी फिर वर्तमान में लौट आई थी. इटली से लाए हुए विशुद्ध चमड़े के बैग से 5 रुपए का सिक्का निकाल कर उस ने चाय वाले को दिया तो उस का ध्यान लाल नेल पौलिश से रंगे अपने नाखूनों पर चला गया. मां का वह कठोर अनुशासन क्या उसे ऐेसे गाढ़े रंग की नेल पौलिश लगाने की अनुमति देता? उस कठोर अनुशासन के माहौल में पुस्तकों की दुनिया से बाहर निकलने की मीनाक्षी की कभी हिम्मत ही नहीं हुई थी. मार्शल, रौबिंस और कींस की अर्थशास्त्र की परिभाषाओं के बाहर भी एक दुनिया है, उस का पता उसे तब चला जब उस का चयन इंडियन इकानौमिक सर्विस में हो गया. तब से आज तक, उस ने मुड़ कर पीछे नहीं देखा था. मां का 5 साल पहले निधन हो गया था.

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इतने सालों के बाद सुषमा जब उसे कुछ दिन पहले फेसबुक पर मिल गई तो उस की खुशी का ठिकाना न रहा. कितनी देर तक दोनों ने फोन पर बातें की थीं. सुषमा की शादी हो गई थी, 2 बेटियां भी थीं. मीनाक्षी ने तो न शादी की थी न ही करने का इरादा था. वह तो अपने काम की दुनिया में ही शायद खुश थी.

कल सुबह जब सुषमा का फोन आया तो मीनाक्षी को खयाल आया कि उस की बेटी की शादी का कार्ड भी तो आया था जो मेज की दराज में डाल कर वह भूल गई थी.

‘‘क्या? तू अभी तक दिल्ली में ही बैठी है? आज शाम को लेडीज संगीत है, कल शादी है. कब पहुंच रही है?’’

‘‘नहीं सुषमा, मैं नहीं आ पाऊंगी. दफ्तर में जरूरी मीटिंग है.’’

‘‘मीटिंग गई भाड़ में. मेरे घर में पहली शादी है और तू नहीं आएगी?’’ सुषमा ने क्रोध दिखाया तो मीनाक्षी ने उसे टालने को कह दिया, ‘‘अच्छा, देखती हूं.’’

‘‘देखनावेखना कुछ नहीं. बस, आ जा,’’ कह कर सुषमा ने फोन काट दिया.

मीनाक्षी फिर फाइलें देखने में लग गई. उसे पता था कि शादी और मीटिंग में किसे प्राथमिकता देनी है. वर्षों के कठोर अनुशासन ने उस की सोच को ऐसा ही बना दिया था. पर काम करने में दिल नहीं लगा तो चपरासी को हुक्म दिया, ‘ये सब फाइलें कार में रख दो. मैं घर जा रही हूं.’

पर पता नहीं क्यों, घर पहुंचतेपहुंचते जैसे दिल में एक कशमकश सी शुरू हो गई. क्या उसे लखनऊ जाना चाहिए? पर मीटिंग का क्या होगा? क्या जिंदगी सिर्फ दफ्तर की फाइलों और घर की चारदीवारी में ही सीमित है? रिश्तों का इस में कोई स्थान नहीं है?

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उस के मन में यह अंतर्द्वंद्व चल ही रहा था कि नीचे के फ्लैट से कुछ शोर सा सुनाई दिया.

‘‘तू कहीं नहीं जाएगी. मैं ने कह दिया न,’’ पड़ोसिन मिसेज गुप्ता अपनी 16 वर्षीय बेटी कनुप्रिया से कह रही थीं.

‘‘क्यों, क्यों न जाऊं? पूजा मेरा इंतजार कर रही होगी.’’

‘‘मुझे नापसंद है यह तेरी पूजावूजा.’’

‘‘नहीं पसंद तो मैं क्या करूं? मैं ने कब कहा कि आप उस से दोस्ती कर लीजिए,’’ कनुप्रिया ने पलट कर जवाब दिया था, ‘‘उस का आज बर्थडे है. मुझे तो वहां जाना ही है,’’ कनुप्रिया के जवाब में ढिठाई थी.

मीनाक्षी के मन में एक खलबली सी मच गई और चाहेअनचाहे वह कान लगा कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘मुझे नापसंद आवे है यह तेरा सहेलीपन. वो छोरी ठीक ना है. तू उस के घर ना जावेगी, बस, मैं ने कह दिया,’’ मिसेज गुप्ता ने गुस्से में कहा.

‘‘क्यों, क्या खराबी है उस में?’’ कनुप्रिया ने फिर सवाल दागा.

‘‘ऐ छोरी, जबान लड़ावे है? कान खोल के सुन ले. जो छोरी मुझे पसंद ना है, तू उस से दोस्ती ना रख सके है.’’

जैसेजैसे कनुप्रिया और उस की मां की तकरार बढ़ रही थी, मीनाक्षी के दिल में घबराहट का तूफान सा उठ रहा था.

50 वर्षीया प्रौढ़ा का दिल फिर 16 वर्षीया किशोरी की तरह धड़कने लगा था, साथ ही लगा कि पड़ोसियों की घरेलू बातें सुनना अच्छी बात नहीं है. वह उठ कर खिड़की बंद करने लगी तो कनुप्रिया की आवाज फिर कानों में पड़ी.?

‘‘लड़कों को तो छोड़ो, अब लड़कियों से दोस्ती करने के लिए भी मांबाप से परमीशन लेनी पड़ेगी क्या? भैया को तो आप कुछ कहती नहीं हैं.’’

मीनाक्षी के दिल में धुकधुक होने लगी. क्या कनुप्रिया अपनी सहेली के घर जाएगी या फिर वह भी अपने कमरे में जा कर अर्थशास्त्र की किताब के पन्नों को आंसुओं से भिगोएगी? कनुप्रिया को जाना ही चाहिए. कनुप्रिया जरूर जाएगी, उस का बागी दिल कह रहा था. पर नहीं, बेचारी कनु मां से बगावत कैसे करेगी? मां नाराज हो गई तो? पर मां भी तो अत्याचार कर रही है. सोचसोच कर मीनाक्षी के दिमाग में हथौड़े बजने लगे थे.

हीरो पुक के स्टार्ट होने की आवाज ने मीनाक्षी को जैसे सोते से जगा दिया. ऐक्सिलरेटर की घूंघूंघूं, ऊंऊंऊं …कनुप्रिया पूजा से मिलने चली गई थी. आज की पीढ़ी कितनी भिन्न है, कितनी दबंग है. क्या मीनाक्षी कभी अपनी किसी सहेली के घर जा पाई थी? अर्थशास्त्र की पुस्तकों के बाद दफ्तर की फाइलें ही उस की नियति बन गई थी. पेपर, नोट्स, नोटिंग्स, लक्ष्य, लक्ष्य और लक्ष्य, क्या इन सब के बाहर भी कोई दुनिया है? सोचतेसोचते कब शाम हो गई, पता ही नहीं चला. नीचे कनुप्रिया वापस आ गई थी. साथ में, शायद पूजा भी थी.

दोनों की खिलखिलाहट भरी हंसी सुन कर मीनाक्षी के दिल में एक टीस सी उठी. कर्तव्य, काम और ड्यूटी के आगे भी एक दुनिया है जिस में जीतेजागते इंसान रहते हैं. अचानक यह एहसास बहुत तेज हो गया और फिर जैसे घने बादल छंट गए. उस का हाथ फोन की ओर बढ़ गया, ‘‘हैलो, सुपर ट्रैवल्स? एक टिकट लखनऊ का आज रात का, किसी भी क्लास में, फौरन भेज दीजिए. समय कम है, क्या आप का आदमी मुझे टिकट स्टेशन पर ही दे सकता है?’’ और मीनाक्षी ने अपनी अटैची पैक करनी शुरू कर दी.

‘‘हां, मेमसाब, कुली चाहिए?’’ लखनऊ स्टेशन पर कुली पूछ रहा था.

आखिरकार, मीनाक्षी लखनऊ पहुंच गई, दिल्ली से लखनऊ की यात्रा पूरी हुई या उस के जीवन की नई यात्रा शुरू हुई? यह सोचते हुए वह आगे बढ़ गई.

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