उत्तर प्रदेश के चुनाव अब सही पटरी पर आते दिख रहे हैं. जो पिछड़े और दलित नेता पिछले 7 सालों में पाखंड और छुआछूत की दैवीय ताकतों में भरोसा करने वाले संघ की राजनीतिक ब्रांच भारतीय जनता पार्टी में थोक में अपने सताए हुए, गरीब, बेचारे, फटेहाल, आधे भूखों को पाखंड के खेल में ?ोंक रहे थे, वे अब समाजवादी पार्टी में लौट रहे हैं.
यह कहना गलत होगा कि यह पलायन अजय बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ की काम करने की पौलिसी के खिलाफ है. यह फेरबदल इस अहसास का नतीजा है कि भारतीय जनता पार्टी तो सिर्फ और सिर्फ मंदिर और पाखंडों के इर्दगिर्द घूमने वाली है जो दानदक्षिणा, पूजापाठ, स्नानों, तीर्थयात्राओं में भरोसा करती है, आम मजदूर, किसान, कारीगर, छोटे दुकानदारों के लिए नहीं.
ऊपर से कांग्रेस का नारा कि लड़की हूं, लड़ सकती हूं, काफी जोर का है क्योंकि पाखंड के ठेकेदारों के हिसाब से लड़की सिर्फ भोग की चीज है जिसे पिता, पति या बेटे के इशारों पर चलना चाहिए और जिस का काम बच्चे पैदा करना, पालना, घर चलाना, पंडों की तनधन से सेवा करना और फिर भी यातना सहना है. लड़ सकती हूं का नारा कांग्रेस को सीटें चाहे न दिलाए वह भारतीय जनता पार्टी के अंधभक्तों की औरतों को सिर उठाने की ताकत दे सकता है. भारतीय जनता पार्टी अब बलात्कार का राजनीतिक फायदा नहीं उठा सकती.
राम मंदिर और काशी कौरीडोर पिछड़ों को सम्मान न दिए जाने और औरतों को पैर की जूती सम?ाने की आदत में बेमतलब के हो गए हैं. उत्तर प्रदेश जो देश की राजनीतिक जान है, अगर कहीं हाथ से फिसल गया तो 100 साल से पौराणिक राज के सपने देख रहे लोगों को बड़ा धक्का लगेगा.
वैसे चंद नेताओं के इधर से उधर हो जाने पर कुछ ज्यादा नहीं होता. पश्चिम बंगाल चुनाव में अमित शाह ने थोक में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को भारतीय जनता पार्टी में शामिल करा लिया था और नरेंद्र मोदी खुले मंचों पर ‘दीदी ओ दीदी…’, ‘2 मई दीदी गई’ का नारा लगाते रहे पर चुनाव परिणाम कुछ और थे. उत्तर प्रदेश में नेता अपने मतलबों से भाजपा से नहीं छिटक रहे हैं, उन्हें जमीनी हकीकत का अहसास है. उत्तर प्रदेश हो या देश का कोईर् भी हिस्सा, देश का विकास सिर्फ मंदिरों तक है. और इन मंदिरों में भी जातिगत भेदभाव है. जहां पिछड़ों को उन के अपने छोटे देवता या गणेश और हनुमान पकड़ाए गए हैं, दलितों को भैरव जैसे. विष्णु, राम और महाभारत वाले कृष्ण ऊंची जातियों के लिए रिजर्व कर दिए गए हैं. ये मंदिर ही हैं जो आरक्षण की जरूरत को मजबूत करते हैं, उस आरक्षण की जिसे खत्म करने के लिए सरकारें जीजान से लगी हैं. उन्होंने सरकार में साराकाम ठेके पर कराना शुरू कर दिया है और सरकारी कारखाने निजी कंपनियों को बेच डाले जहां आरक्षण का कानून नहीं चलता.
भारतीय जनता पार्टी छोड़ने वाले नेताओं ने अपनी जान और राजनीतिक कल पर बड़ा दांव खेला है. वे जानते हैं कि उन के खिलाफ जांचें शुरू हो सकती हैं और उन्हें लालू प्रसाद यादव की तरह जेल में ठूंसा जा सकता है. पर जैसे लालू प्रसाद यादव ने अपनी जनता के हित के लिए सम?ौता नहीं किया, उम्मीद करें कि जो आज पाखंड की राजनीति छोड़ रहे हैं, जिस भी पार्टी में जाएं, कुछ बनाने की राजनीति करें. देश को तरक्की की राह पर ले जाने में बड़ी मेहनत करनी है. सब को बराबरी का स्तर देना आसान नहीं है. एक पीढ़ी में तो कुछ न होगा क्योंकि 800 साल तक का बौद्ध धर्म का, जो पौराणिक धर्म से ज्यादा खुला था, आज नामोनिशान नहीं है.