लेखिका-Er. Asha Sharma
‘‘सुबहउठते ही सब से पहले हाथों में अपने करम की लकीरों के दर्शन करने चाहिए.’’ मां की यह बात मंजूड़ी के दिमाग में ऐसी फिट बैठी हुई है कि हर सुबह नींद खुलने के साथ ही उस के दोनों हाथ मसल कर अपनेआप ही आंखों के सामने आ जाते हैं. यह अलग बात है कि मंजूड़ी को इन में आज तक किसी देव के दर्शन नहीं हुए. अपने करम की लकीरों से सदा ही शिकायत रही है उसे. और हो भी क्यों नहीं… दिन उगने के साथ ही उसे रोजमर्रा की छोटीछोटी जरूरतों के लिए भी जूझना पड़ता है… समस्या एक हो तो गिनाए भी… यहां तो अंबार लगा है…
उठते ही सब से पहले समस्या आती है फारिग होने की… बस्ती की बाकी लड़कियों के साथ उसे भी किसी की पी कर खाली की गई ठंडे की बोतल ले कर मुंह अंधेरे ही निकलना पड़ता है… अगर किसी दिन जरा भी आलस कर गई तो दिन भर की छुट्टी… अंधेरा होने तक पेट दबाते ही रहो…
इस के बाद बारी आती है नहानेधोने की… तो रोज न सही लेकिन कभीकभी तो नहानाधोना भी पड़ता ही है… यूं तो सड़क के किनारे बिछी मोटी पाइपलाइन से जगहजगह रिसता पानी इस काम को आसान बना देता है. जब वह छोटी थी तो मां के कमठाणे पर जाने के बाद कितनी ही
देर तक इस पानी से खेलती रहती थी. लेकिन एक दिन… जब वह नहा रही थी तब मुकेसिया उसे घूरने लगा था… पहली बार मां ने बांह
पकड़ के उसे कहा था ‘‘ओट में नहाया कर…’’ उस दिन के बाद वह ओट में ही नहाती है. जी हां! ओट…
मां ने लकड़ी की चार डंडियां रोप कर… पुराने टाट और अपनी धोती बांध कर नहाने के लिए ओट तो बना रखी थी लेकिन वहां नहाना भी कहां आसान था… एक बड़ी परात में छोटा सा पाटा रख कर उस पर किसी तरह बैठ कर नहाओ अखरता तो बहुत है लेकिन क्या करें…
मां कहती है, ‘‘विधाता के लिखे करम तो भोगने ही पड़ेंगे.’’
पीने के लिए पानी का जुगाड़ करना भी एक बड़ी समस्या है. मैल से चिक्कट हुए कुछ प्लास्टिक के खाली कनस्तर झुग्गी के बाहर पड़े हैं. टूटी हुई पाइपलाइन से लोटालोटा भर के इन में दिन भर के लिए पीने का पानी भरना है… मां ने तो यह काम उसी के जिम्मे डाल रखा है… खुद तो बापड़ी दिन उगे उठने के साथ ही चूल्हे में सिर दे देती है… न दे तो करे भी क्या… 5 औलादें और 2 खुद… 7 मिनखों के लिए टिक्कड़ सेकतेसेकते ही सूरज सिर पर आ जाता है…
8 बजतेबजते तो दोनों धणीलुगाई अपने टिफिन ले कर काम पर चले जाते हैं… जो दिन ढले आते हैं तो थक के एकदम चूर… बाप तो एकआध पौव्वा चढ़ा कर अपनी थकान उतारने का झूठा बिलम करता है लेकिन मां बेचारी क्या करे… सूखे होंठों की पापड़ी को गीली जीभ फिरा कर नरम करती है और फिर से चूल्हे में सिर दे देती है… ईटों की तगारी सिर पर ढोतेढोते खोपड़ी के बाल घिस गए बेचारी के…
‘‘अरे मंजूड़ी, सूरज सिर पर नाचण लाग रियो है… इब तो उठ जा मरजाणी… बेगी सी मैडमजी को काम सलटा के आज्या… मैं और तेरो बापू जा रिया हां… और सुण, मुकेसिया नै ज्यादा मुंह मत लगाया कर… छुट्टा सांड हो रखा है आजकल…’’ मां ने जूट सिली पानी की बोतल प्लास्टिक की थैली में रखते हुए कहा तो मंजूड़ी ने अपनी खाट छोड़ी और अंगड़ाई लेने लगी. झुग्गी में पड़ेपड़े ही बाहर देखा. रामूड़ा अपनी खाट पर नहीं दिखा. उस का प्लाटिक का थैला भी अपनी ठौर नहीं था.
ये भी पढ़ें- Romantic Story: सुख की गारंटी
‘बेचारा रामूड़ा, मुंह अंधेरे ही कांच प्लास्टिक की खाली बोतलें चुगने निकल जाता है… न जाए तो क्या करे… यहां भी तो चुगने वालों में होड़ लगी रहती है… जो सोए… सो खोए… कुछ कचरा बीन लाएगा तो 10-20 रुपल्ली हाथ में आ जाएगी… रुपए मुट्ठी में दबा के कैसा धन्ना सेठ समझने लगता है खुद को…’ सोच कर मंजूड़ी मुसकरा दी.
16 साल की मंजूड़ी भले ही झुग्गी में रहती है… बेशक उस की जिंदगी में सौ अभाव हैं… लेकिन आंखों में सपने तो आम लड़कियों की तरह ही हैं न… बारबार खुद को दर्पण में देखना… तरहतरह से बाल काढ़ना… सस्ती ही सही लेकिन नाखूनों पर पालिश की परत चढ़ाना… लिपस्टिक न सही… 2-5 रुपए की संतरे वाली कुल्फी से ही अपने होंठों को रंग कर खुद पर इतराना… ये सब भला किसी विशेष सामाजिक स्तर की लड़कियों के लिए आरक्षित थोड़े ही हैं… मंजूड़ी को भी सपने देखने का उतना ही अधिकार है जितना किसी भी सामान्य किशोरी को… उस का मन भी बारिश में भीगभीग कर गीत गाने को होता है… जैसे फिल्मों में हीरोइन गाती है… सफेद झीनी साड़ी पहने के… उसे भी सर्दी में चाय के साथ गरमगरम समोसे और गरमी में ठंडीठंडी कुल्फी आइसक्रीम खाने को दिल करता है…
अरे हां, चाय और आइसक्रीम से याद आया. अभी पिछले सप्ताह की ही तो बात है. ननिहाल से बिरजू मामा आए थे. मां ने छोटी बहन नानकी को 10 का नोट दे कर दूध लाने भेजा था. दूध वाली थड़ी पर एक बच्चा अपनी मां के साथ आइसक्रीम ले कर खा रहा था. नानकी का भी दिल मचल गया. उस ने उस 10 रुपए की कुल्फी खरीद ली और मजे से चुस्की मारने लगी. उधर चाय का पानी दूध के इंतजार में उबल रहा था और उधर ननकी का कोई अतापता ही नहीं… मां ने बापू को देखने भेजा तो पीछेपीछे मंजूड़ी भी आ गई. बापू ने नानकी को कुल्फी चूसते देखा तो ताव खौल गया… रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले के लिए 10 के नोट की कीमत क्या होती है यह सिर्फ वही समझ सकता है…
तमतमाए बापू ने मां की गाली के साथ एक जोरदार डूक नानकी की पीठ पर धर दिया. कुल्फी छूट कर मिट्टी में गिर गई. नानकी ने पलट कर देखा तो डर का एक साया उस की आंखों में उतर आया लेकिन अगले ही पल उसे कुल्फी का ध्यान आया. उस ने कुल्फी को उठाया… अपनी फ्रौक से पोंछी और फिर से उसे चूसनेचाटने लगी.. ‘‘बेचारी नानकी…’’ मंजूड़ी को उस पर दया आ गई. उस ने बहन के बालों में हाथ फेरा और झुग्गी से बाहर आ गई.
बस्ती में कुछ चूल्हे अभी भी सुलग रहे हैं. दीनू काका कीकर की छांव में बैठे बीड़ी फूंक रहे हैं… सरबती ताई खाट पर पड़ी खांस रही है… बिमली का छोरा झुग्गी के बाहर रखी 2 ईंटों पर अपना सुबह का पहला काम निपटा रहा है… 2 पिल्ले उस के निबटने के इंतजार में आसपास मंडरा रहे हैं… एक तरफ 3-4 बच्चे धींगामस्ती कर रहे हैं. मुकेस अपनी औटो साफ कर रहा है… उस के एफएम पर तेज गाने बज रहे हैं. मुकेस ने उस की तरफ देखा और मुसकरा कर अपनी बाईं आंख दबा दी. मंजूड़ी सकपका कर झुग्गी के भीतर आ गई.
‘‘छुट्टा सांड कहीं का, मां कहती है मुकेसिये को मुंह मत लगाना… ससुरा ये तो अंगअंग लग चुका…’’ मंजूड़ी बुदबुदाई और फिर से खाट पर पसर गई. हाथ छाती पर चला गया. 10-10 के कुछ नोट अभी भी चोली में दबे पड़े हैं.
3 साल पहले की ही बात है. मंजूड़ी मैडमजी के घर साफसफाई कर के आई ही थी. तावड़े ने भी आज धार ही रखी थी लाय बरसाने की. मंजूड़ी अपनी लूगड़ी को पानी में निचोड़ कर लाई और गीली को ही ओढ़ कर खाट पर पसर गई थी. थोड़ी देर में लूगड़ी का पानी सूख गया. वह फिर से बाहर निकली उसे भिगोने के लिए. तभी मुकेस सामने आ गया.
‘‘क्या बात है! बहुत गरमी चढ़ी है क्या?’’ मुकेस बोला.
‘‘गरमी कहां? मैं तो ठंड से कांप रही हूं.’’ मंजूड़ी ने तमक कर कहा.
‘‘अरे ठंड तो तुझे मैं बताता हूं… मेरे साथ आ…’’ मुकेस उस का हाथ पकड़ कर अपनी झुग्गी में ले गया. झुग्गी सचमुच ठंडी टीप हो रही थी. कूलर जो लगा था… मगर बिजली? मंजूड़ी ने देखा कि उस ने बिजली के खंभे पर अंकुड़ा डाल रखा है. मुकेस ने मंजूड़ी को खाट पर लिटा दिया और खुद भी बगल में सो गया. मुकेस उस पर छाने की कोशिश करने लगा. मंजूड़ी ने विरोध किया लेकिन उस का विरोध थोथा साबित हुआ और मुकेस ने उसे परोट ही लिया. जैसे कभीकभी बापू उस की मां को परोट लेता है… अब एक झुग्गी में इतने मिनख साथ सोएंगे तो फिर परदा कहां रहेगा.
मंजूड़ी की आंखें मूंदने लगी थी. जब आंख खुली तो मुकेस पैंट पहन रहा था. उस ने भी अपने कपड़े ठीक किए और खाट से नीचे उतर गई.
‘‘जब कभी गरमी ज्यादा लगे तो कूलर की हवा खाने आ आना…’’ कहते हुए मुकेस ने
10-10 के 3-4 नोट उस की मुट्ठी में ठूंस दिए थे. वही नोट आज भी उस की चोली में कड़कड़ा रहे हैं.
‘‘आज तुम सब को कुल्फी खिलाऊंगी.’’ नोट सहेजती मंजूड़ी भाईबहनों को जगाने लगी.
मंजूड़ी को आज मैडमजी के घर जाने में देर हो गई. वह फटाफट उन के काम निपटाने लगी. तभी मैडमजी कालेज के लिए तैयार हो कर कमरे से बाहर निकली. और दिन तो वह उन को रात के बासी गाउन में ही देखती है. लेकिन आज…
काली सलवार और लाल कुरता… मैचिंग चप्पल… कंधे पर झूलता पर्स और हाथ में पकड़ा मोबाइल… कानों में लटके झुमके अलग से लकदक कर रहे थे… मंजूड़ी देखती ही रह गई. आंखों में ‘‘काश’’ वाली एक चमक सी उभरी और फिर धीरेधीरे मंद पड़ती गई.
‘‘आज बहुत देर कर दी मंजू. मैं तो निकल रही हूं… तू भी फटाफट काम निबटा दे… साहब को भी जाना है…’’ कहती हुई मैडमजी ने कार की चाबी उठाई और बाहर निकल गई. मंजूड़ी अपने काम में लग गई लेकिन आंखों के सामने अभी भी हीरोइन सी सजीधजी मैडमजी ही घूम रही थीं.
3-4 दिन बाद जब मंजूड़ी सफाई करने मैडमजी के कमरे में गई तो देखा कि ड्रैसिंग टेबल पर उन के वही झुमके रखे थे. उस ने उन्हें उठाया और अपने कानों से लगा कर देखा… फिर गरदन इधरउधर घुमाई… खुद ही खुद पर मुग्ध हो गई… कुछ देर यों ही खुद को निहारती रही… तभी शीशे में साहबजी की छवि देख कर वह अचकचा गई और झुमके वापस रख दिए.
‘‘तुझे पसंद है क्या?’’ साहब ने प्रेम से पूछा. मंजूड़ी ने कोई जवाब नहीं दिया.
‘‘ये ले, पहन ले… विनी के पास तो ऐसे बहुत से हैं.’’ साहबजी उस के बहुत पास आ गए थे. इतने पास कि पंखे की हवा से उन के शरीर पर छिड़का हुआ पाउडर उड़ कर मंजूड़ी की कुर्ती पर बिखरने लगा. साहबजी ने वे झुमके जबरदस्ती उस के हाथों में थमा दिए. इसी बहाने उस के हाथों को ऊपर तक और फिर कुछ नीचे भी… गले और छाती तक… मसल दिया था साहब ने… एक बार तो मंजूड़ी अचकचा गई लेकिन फिर उस ने झुमके ले लिए. झुमकों की ये कीमत ज्यादा नहीं लगी उसे.
एक मूक समझौता हो गया… साहबजी… मुकेस… और मंजूड़ी… सब एकदूसरे की जरूरतें पूरी करने लगे. आजकल मंजूड़ी काफी खुश नजर आती है. दिन भर गुनगुनाती रहती है. और तो और विनी मैडम के घर भी जानबूझ कर देरी से जाने लगी है. बस, उस का घर में घुसना और विनी का निकलना… लगभग साथसाथ ही होता है… कभीकभी मुकेस की झुग्गी में ठंडी हवा खाने भी चली जाती है.
‘‘आज ये कुल्फी किस ने खाई रे?’’ मां ने झुग्गी के बाहर से चूसी हुई कुल्फी की डंडियां उठाते हुए पूछा.
‘‘मंजूड़ी लाई थी…’’ नानकी ने पोल खोल दी तो मां ने मंजूड़ी को सवालिया निगाहों से घूरा.
‘‘आज रास्ते में 20 का नोट पड़ा मिला था… उसी से खरीद…’’ मंजूड़ी साफ झूठ बोल गई लेकिन मन ही मन डर भी गई थी कि कहीं मां यह झूठ पकड़ न ले… मंजूड़ी अतिरिक्त सतर्क हो गई.
‘‘मंजूड़ी यह नई फैसन की लाल चोली कहां से आई तेरे पास? एक दिन मां ने कड़कते हुए पूछा था.’’
‘‘इन मांओं के पास भी जाने कैसी चील की सी नजर होती है… कुछ भी नहीं छिपता इन से…’’ मंजूड़ी अपनी लूगड़ी में ब्रा को छिपाने की कोशिश करने लगी.
‘‘अरे बता तो… किस ने दी है?’’ मां ने उस की लूगड़ी परे फेंक दी. मंजूड़ी चुप.
‘‘मां हूं तेरी… बरस खाए हैं मैं ने… तेरी वाली उमर भोग चुकी हूं… देख छोरी, सहीसही बता… किस रास्ते जा रही है तू…’’ मां ने उस के कंधे झिंझोड़ दिए. मंजूड़ी पूरी हिल गई… नहीं हिली तो सिर्फ उस की जुबान.
‘‘देख मंजूड़ी, हम ठहरी लुगाई जात… मरद का मैल भी हमें ही ढोना पड़ता है… मुकेसिए और तेरे साहबजी जैसे लोगों के चक्कर में मत आ जाना… और ये प्रेमप्यार का तो सोचना भी मत… यह सब हमारे भाग में नहीं लिखा होता…’’ मां थोड़ी नरम पड़ी तो मंजूड़ी का भी हौंसला बढ़ा.
‘‘तू तो मेरी वाली उमर भोग चुकी है न मां, जानती ही होगी कि अच्छा खानेपीने, पहननेओढ़ने और सैरसपाटे की कितनी हूंस उठती है मन में… अब न तो मेरा बाप कोई धन्ना सेठ है जो मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर देगा और न ही हमारी इतनी औकात है कि हम पढ़लिख कर विनी मैडम जैसे कमाएं और उड़ाएं… ज्यादा क्या होगा… 2-4 घर और पकड़ लूंगी… लेकिन उतने भर से क्या हो जाएगा… तो ञ्चया मार लें अपने मन को? यों ही रोतेबिसूरते निकाल में अपनी उमर? तूने तो बरस खाए हैं न… तू ही कोई इज्जत वाला रास्ता बता जिस से मेरे सपने पूरे हो सकें.’’ मंजूड़ी जैसेजैसे बोल रही थी वैसेवैसे मां के माथे पर लकीरें बढ़ती जा रही थी.
‘‘अरे करमजली, किस रास्ते पर चल पड़ी है तू… ये मरद जात बड़ी काइयां होती हैं… तू इन के लिए बिस्तर की चादर सी है… नई बिछाते ही पुरानी को उतार फेंकेंगे… कल को कहीं कोई रोगमरज लग गया तो दवादारू तो छोड़… देखने तक भी नहीं आएंगे ये… अरे हमारे पास चरित्तर के अलावा और है ही क्या…’’ मां उस के सिर में ठोला दे कर फुंफकारी. मंजूड़ी सर झुकाए खड़ी रही. मां उसे इसी हालत में छोड़ कर काम पर निकल गई.
4 दिन हो गए. मंजूड़ी काम पर नहीं गई. मुकेस भी कई बार उस के आसपास मंडराया लेकिन
उस ने उस की तरफ देखा तक नहीं… नानकी 2 दिन से कुल्फी के लिए रिरिया रही है. रामूड़े की जांघ उस के नेकर में से झांकने लगी है… खुद उस की आंखों के सामने विनी मैडमजी जैसे झुमके… बिंदी और क्रीम पाउडर घूम रहे हैं. मंजूड़ी चरित्र और इज्जत की परिभाषा में उलझती ही जा रही है.
‘‘इज्जत… इज्जत… इज्जत, चाटूं क्या इस थोथे चरित्तर को… क्या हो जाता है इज्जत को जब मुंह अंधेरे मोट्यारों के सामने नाड़ा खोल कर बैठना पड़ता है… कहां छिप जाता है चरित्तर जब खुले में आंख मींच के नहाना पड़ता है… कहां चली जाती है लाजशरम जब रात में मांबापू के बीच में सांस दबा के सोने का नाटक करना पड़ता है…’’ मंजूड़ी खुद को मथने लगी. विचारों के दही में से निष्कर्ष का मक्खन अलग होने लगा.
‘‘अगर कभी साहबजी ने मेरे साथ जबरदस्ती की होती तो? तो क्या होता… मैं अपनी इज्जत की खातिर दूसरा घर देखती… लेकिन एक बार तो लुट ही गई होती न… तो फिर? क्या हर बार लुटने के बाद घर बदलती? लेकिन कब तक? और तब न इज्जत बचती और न ही हाथ में दो रुपल्ली आती… तो फिर अब जब यह सब मेरी मर्जी से हो रहा है तो इस में क्या गलत है? क्या चरित्तर की ठेकेदारी सिर्फ हम लुगाइयों की है… साहबजी या मुकेसिये पर तो कोई उंगली नहीं उठाएगा… जब वो मेरे जरिए अपना मलब साध रहे हैं तो फिर मैं ही क्यों इज्जत की टोकरी ढोती फिरूं… मैं भी क्यों नहीं उन के जरिए अपना मतलब साधूं… कोई न कोई बीच का रास्ता जरूर होगा…’’ रात भर विचारती मंजूड़ी के मन की गुत्थी सुबह होने तक लगभग सुलझ ही आई थी.
आज मां के जागने से पहले ही मंजूड़ी उठ गई… सुबह का काम निबटाया… हाथमुंह धोया… अपने कपड़े ठीक किए… काम पर निकल पड़ी… रास्ते में दवाई की दुकान पर ठिठकी… आसपास देखा… घोड़े की फोटो वाला पैकेट खरीद कर चोली में ठूंस लिया… सधे हुए कदमों से चल दी मंजूड़ी… अनजान मंजिल के नए रास्तों पर…