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लेखक- परशीश

मुझे याद है, एक बार मैं फ्लू की चपेट में आ गई थी. शेखर ने बिना देर किए दवा मंगा दी थी, पर मैं जानबूझ कर अपने को बीमार दिखा कर बिस्तर पर ही पड़ी रही थी. शेखर ने तुरंत मायके से मेरी छोटी बहन सुलू को बुला लिया था. मैं चाहती थी कि शेखर नीरू के रवि की तरह ही मेरी तीमारदारी करे, मेरे स्वास्थ्य के बारे में बारबार पूछे, मनाए, हंसाए, मगर ऐसा कुछ न हुआ. बीमारी आई और भाग गई.

इतना ही नहीं, शेखर स्वयं बीमार पड़ता तो इस बात की मुझ से कभी अपेक्षा नहीं करता कि मैं उस की सेवाटहल में लगी रहूं. मैं जानबूझ कर उस के पास बैठ भी जाऊं तो मुझे जबरन उठा कर किसी काम में लगवा देता या अपने दफ्तरी हिसाब के जोड़तोड़ में लग जाता. ऐसी स्थिति में मैं गुस्से से उबल पड़ती. अगर कभी रवि बीमार होता तो उस की डाक्टर सिर्फ नीरू होती.

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‘‘मैं रवि को पा कर कभी निराश नहीं होऊंगी, दीदी,’’ नीरू अकसर कहती, ‘‘उसे हमेशा मेरी चिंता सताती रहती है. मैं अगर चाहूं तो भी लापरवाह नहीं हो सकती. पहले ही वह टोक देगा. कभीकभी उस की याददाश्त पर मैं दंग हो जाती हूं. लगता है, जैसे वह डायरी या कैलेंडर हो.’’

याददाश्त के मामले में भी शेखर बिलकुल कोरा है. अगर कहीं जाने का कार्यक्रम बने तो वह अधिकतर भूल ही जाता है. सोचती हूं कि किसी दिन वह कहीं मुझे ही न भूल जाए.

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