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श्रेया यौवन के नशे में चूर थी और पुरुष साहचर्य की कामना करती रहती थी जो विवाह से पूर्व संभव न था. लेकिन अमित के साथ सट कर बैठना, उस के साथ घूमनाफिरना सब बहुत लुभावना लगता था.

उसे अपनी बहन की आंखों में देखते हुए भय लगता था क्योंकि उन आंखों में अनेक संशयभरे प्रश्न होते थे जिन का उस के पास कोईर् जवाब नहीं होता था. वह कभी भी अपनी दीदी से आंख मिला कर बात नहीं कर पाती थी.

स्वरा सब देख, समझ रही थी. उसे आश्चर्य भी होता था और दुख भी. आश्चर्य अमित के रवैए पर था, वह पत्नी को कम से कम समय देता, खानेपीने में अरुचि दिखाता, उस के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से स्वरा अनभिज्ञ नहीं थी. दुख इस बात का था कि उस की प्यारी छोटी बहन उसे ही धोखा दे रही थी.

दिनप्रतिदिन श्रेया और अमित की नजदीकियां बढ़ती जा रहीं थी. अब उन्हें इस बात की कोई भी चिंता नहीं होती थी कि स्वरा शाम की चाय पर उन की प्रतीक्षा कर रही होगी. वे दोनों तो घूमतेफिरते रात्रि के 8 बजे से पूर्व कभी भी घर नहीं पहुंचते थे. स्वरा जब भी अमित से देरी का कारण पूछती तो उत्तर श्रेया देती, ‘‘हां दीदी, जीजू तो समय पर लेने के लिए आ गए थे किंतु मेरा मन कुल्फी खाने का कर रहा था और मार्केट वहां से दूर भी बहुत है. अब समय तो लगता ही है न.’’ और कभी कौफी का बहाना, कभी ट्रैफिक का बहाना. स्वरा इन सब बातों का मतलब समझती थी. ‘‘और चाय,’’ वह धीमे से पूछती.

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