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लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘सिंगल...’’ मकान के अधेड़ मालिक ने प्रीति के पेट पर उड़ती नजर डाल कर कहा और कुछ सोचते हुए अंदर चला गया. थोड़ी देर बाद वह आया और बोला, ‘‘जी बात कुछ ऐसी है कि अभी हमारा कमरा खाली नहीं है और हम उसे किराए पर देने वाले भी नहीं हैं. अजी, हमारे भी बच्चे हैं, आप जैसी लड़कियों को देख कर उन पर गलत असर पड़ेगा,’’ मकान मालिक कहता जा रहा था.

यह सब सुनने से पहले वह बहरी क्यों नहीं हो गई थी. प्रीति उस के मकान से बाहर निकल आई थी.

यह किन लोगों के बीच रही है वह, क्या इन लोगों के मन में कोई संवेदना बाकी नहीं रह गई है या ये सिर्फ स्त्री जाति का मजाक बनाना जानते हैं, परेशान हो उठी थी प्रीति.

पर अजनबी शहर में रात गुजारने के लिए उसे कोई छत तो चाहिए ही थी. सो, उस ने हार कर एक होटल की शरण ली.

नई जगह, नए लोग और मानसिक प्रताड़ना से गुजरते हुए प्रीति से बैंक के कामों में भी गलतियां होने लगीं. उसे परेशान देख उस की एक सहकर्मी ने उस की परेशानी का कारण पूछा.

‘‘वो... अरे कुछ नहीं मालती, वो... जरा मकान नहीं मिल पा रहा है. फिलहाल एक होटल में रह रही हूं. होटल काफी महंगा तो पड़ता है ही, साथ ही साथ एक अलग माहौल भी रहता है होटलों का,’’ प्रीति ने बात बनाई.

‘‘अरे बस, इतनी सी बात. चल मेरे एक जानने वाले का यहीं पास में मकान है, मैं आज ही शाम को तेरी बात और मुलाकात करा देती हूं,’’ मालती ने कहा.

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