कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘आप के पास उस का जो पता था, वह गलत था. शहर की एक  झोंपड़पट्टी का उस ने जो पता दिया था, वह फर्जी निकला. वह कहीं और रहती थी.

‘‘अब यह बिलकुल आईने की तरफ साफ हो चुका है कि इस अपहरण में उस का ही हाथ है, तभी तो आप के जेवरात और बैंक खाते के बारे में बदमाशों को गहरी जानकारी थी.’’

पुलिस अब अगली कार्यवाही में जुट गई थी. उस ने अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया था.

मिनट घंटों में और घंटे दिन में बदल रहे थे. पुलिस भी पास के जिलों के जंगलपहाड़ों तक में खाक छान रही थी. 2 दिन बीत चुके थे और अभी तक गुडि़या का कोई सुराग, कोई अतापता नहीं था.

शाम के समय वनिता के पास फिर से बदमाशों का फोन आया. वह उलटे उन्हें ही डांटने लगी, ‘‘मैं रुपए ले कर बैठी हूं और तुम यहांवहां घूम रहे हो. मैं शाम को शहर के बौर्डर पर बागडि़या टैक्सटाइल फैक्टरी के पास बने आउट हाउस में अटैची ले कर अपनी एक सहेली के साथ रहूंगी.

‘‘और हां, तुम भी पुलिस को कुछ न बताना और मेरी बेटी को छोड़ कर रुपए ले जाना.’’

‘अरे, पुलिस को कुछ न बताने की बात तो मेरी थी.’

‘‘और, मु झे भी अपनी इज्जत प्यारी है, इसलिए कह रही हूं.’’

शहर के उस एरिया में एक पुराना इंडस्ट्रियल ऐस्टेट था जिस में पुरानी खंडहर उजाड़ फैक्टिरियां थीं. वनिता ने अपनी गाड़ी निकाली और सुमन के साथ अटैची ले कर बैठ गई.

कई एकड़ में फैली उस फैक्टरी में कोई आताजाता नहीं था. उस के ठीक नीचे नाला बह रहा था. वे दोनों वहीं एक दीवार की ओट में बैठ गईं, जहां से चारों तरफ का मंजर दिखता था.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...