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‘‘अरे पगली, तुम मांबेटी न होती तो शायद मैं इस जिंदगी को इस तरह न जी पाता. इस जिंदगी पर सीनियर सिटिजन का ठप्पा लगाए निराशावादी जीवन जी रहा होता. तुम लोगों को मैं ने नहीं गढ़ा है, बल्कि तुम लोगों ने मुझे गढ़ा है. तुम्हारे कौशल का नटखट मेरी आंखों में बस गया है बेटा.’’

आरती ने तृप्ति की लंबी सांस ली. वह पिता जैसा प्यार देने वाले ससुर थे, उन्हीं के सहारे वह जी रही थी. अगर उन का सहारा न होता तो मांबेटी मांबाप के यहां आश्रित बन कर बेचारी की तरह जी रही होतीं. इन्हीं की वजह से आज वे सिर ऊंचा कर के जी रही थीं वरना नदी के टापू की तरह कणकण बिखर गई होतीं.

उगते सूरज की किरणों के बीच आराधना बालकनी में खड़ी हो कर कौफी पीती. विश्वंभर प्रसाद मौर्निंग वाक से वापस आते तो आराधना दरवाजा खोल कर उन के सीने से लग जाती, ‘‘गुड मौर्निंग दादू.’’

विश्वंभर प्रसाद दोनों हाथों से आराधना को गोद में उठा लेते. 80 साल के होने के बावजूद उन में अभी जवानों वाली ताकत थी. आराधना झटपट गोद से उतर कर सख्त लहजे में कहती, ‘‘दादादी, बिहैव योर एज.’’

‘‘अभी तो मैं जवान हूं. कालेज के दिनों में क्रिकेट खेलता था, मेरा हाइयेस्ट सिक्सर्स का रेकार्ड है.’’

ऐसा ही लगभग रोज होता था. सुबह जल्दी उठ कर विश्वंभर प्रसाद मौर्निंग वाक के लिए निकल जाते थे. पौने 7 बजे के फोन की घंटी बजती, जिस का मतलब था वह 10 मिनट के अंदर आने वाले हैं. आरती कहती, ‘‘अरू, जल्दी कर दादाजी के आने का समय हो गया है. जूस तैयार कर के टेबल पर प्लेट लगा.’’

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