‘काउंसलिंग’ की तारीख नजदीक आती जा रही है. घर में तूफान आया हुआ है, पुलक सब को मनाने की कोशिश में लगी हुई है लेकिन वे टस से मस होने को तैयार नहीं हैं. लड़की को इंजीनियर बनाने के लिए होस्टल भेज कर पढ़ाना कोई तुक नहीं है.
‘लड़की को इंजीनियर बना कर करना क्या है? नौकरी करानी है? साल 2 साल में शादी कर के अपना घर बसाएगी,’ दादाजी का तर्क है.
‘बेटा, इतनी ऊंची पढ़ाई करना, लड़के वाले सपने देखना कोई बुद्धिमानी नहीं. अब देख, तेरी मां ने भी तो आई.आई.एम. से एम.बी.ए. किया. क्या फायदा हुआ? एक सीट बरबाद हुई न? कोई लड़का आता, उस पर नौकरी करता तो सही इस्तेमाल होता उस सीट का. तू तो बी.एससी. कर के कालिज जाने का शौक पूरा कर ले,’ सिद्धांत ने बड़े प्यार से पुलक का सिर सहलाया.
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तरंग ने सब सुना. उन्हें लगा, जैसे आरे से चीर कर रख दिया सिद्धांत के तर्क ने. खुद चोर ही लुटे हुए से प्रश्न कर रहा था. विवाह के 22 साल बीत चुके हैं. आज तक कभी उन्होंने सिद्धांत की कोई बात काटी नहीं है. तर्कवितर्क नहीं किया है. आज भी चुप लगा गईं. सहसा यादों की डोर थामे वह 24 साल पहले के अतीत में पहुंच गईं. आई.आई.एम. से तरंग के प्रवेश का कार्ड आने के बाद पापा परेशान थे.
‘क्या करूं कल्पना, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं. लड़की के रास्ते की रुकावट बनना नहीं चाहता और उस पर उसे चलाने का साधन जुटाने की राह नहीं दिख रही. शान से सिर ऊंचा हो रहा है और शर्म से डूब मरने को मन कर रहा है,’ पापा सचमुच परेशान थे.