लेखक- गजाला जलील
‘‘रजा साहब बाकायदा मेरा रिश्ता ले कर तुम्हारी अम्मा के पास जाएंगे. तुम्हारी अम्मा को राजी कर लेंगे, पर पहले तुम्हारी मंजूरी जरूरी है.’’
मैं उन के कदमों में झुक गई. उन्होंने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. मेरे तड़पते दिल व प्यासी रूह को जैसे सुकून मिल गया. हम दोनों रोज मिलने लगे पर दुनिया से छिप कर. मैं तो अपने महबूब को पा कर जैसे पागल हो गई थी. सब से बड़ी खुशी की बात यह थी कि उन्होंने अपनी मोहब्बत का इजहार शादी के पैगाम के बाद किया था. वह कहते थे, ‘‘सुहाना, मैं तुम्हें दुनिया की हर खुशी देना चाहता हूं.’’
और मैं कहती, ‘‘बस थोड़ा सा इंतजार मेरे महबूब.’’
‘‘जैसी तुम्हारी मरजी.’’ कह कर वह चुप हो जाते.
अब हालात बदल गए थे. मैं औफिस में उन के करीब रहती, हमारे बीच में बहुत से फैसले हो गए थे. मां की आंखों की रोशनी चली गई थी. हमारी मोहब्बत तूफान की तरह बढ़ रही थी. मैं अपनी मां की नसीहत, अपनी मर्यादा भूल कर सारी हदें पार कर गई. औफिस के बाद हम काफी वक्त साथ गुजारते. इमरान साहब ने मुझे कीमती जेवर, महंगे तोहफे और कार देनी चाही, पर मैं ने यह कह कर इनकार कर दिया कि ये सब मैं शादी के बाद कबूल करूंगी.
मैं ने उन पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया. एक गरीब लड़की को ऐसा खूबसूरत और चाहने वाला मर्द मिले तो वह कहां खुद पर काबू रख सकती है. मैं शमा की तरह पिघलती रही, लोकलाज सब भुला बैठी.
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