दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- मध्यांतर भी नहीं हुआ अभी: भाग 2
देर तक एकदूसरे के सामने बैठे हम अपने बीते कल और अकेले आज पर आंसू बहाते रहे, न उस ने मुझे चुप कराना चाहा और न मैं ने ही उसे रोका.
काफी समय बीत गया. जब लगा मन हलका हो गया तब हाथ उठा कर चंद्रा का सिर थपथपा दिया मैं ने.
‘‘बस करो, अब और कितना रोओगी?’’
रोतेरोते हंस पड़ी चंद्रा. आंखें पोंछ अपना पर्स खोला और मेरे लिए लाया ढोकला मुझे दिखाया.
‘‘जरा सा चखना चाहोगे, मुंह का स्वाद अच्छा हो जाएगा.’’
लगा, बरसों पीछे लौट गया हूं. आज भी हम जवान ही हैं...जब आंखों में हजारोंलाखों सपने थे. हर किसी की मुट्ठी बंद थी. कौन जाने हाथ की लकीरों में क्या होगा. अनजान थे हम अपने भविष्य को ले कर और अनजाने रहने में ही कितना सुख था. आज सबकुछ सामने है, कुछ भी ढकाछिपा नहीं. पीछे लौट जाना चाहते हैं हम.
‘‘मन नहीं हो रहा चंद्रा...भूख भी नहीं लग रही.’’
‘‘तो सो जाओ, रात के 9 बज गए हैं.’’
‘‘तुम होस्टल चली जातीं तो आराम से सो पातीं.’’
‘‘यहां क्या परेशानी है मुझे? पुराना साथी सामने है, पुरानी यादों का अपना ही मजा है, तुम क्या जानो.’’
‘‘मैं कैसे न जानूं, सारी समझदारी क्या आज भी तुम्हारी जेब में है?’’
मेरे शब्दों पर पुन: चौंक उठी चंद्रा. मुझे ठीक से लिटा कर मुझ पर लिहाफ ओढ़ातेओढ़ाते उस के हाथ रुक गए.
‘‘झगड़ा करना चाहते हो क्या?’’
‘‘इस में नया क्या है? बरसों पहले जब हम अलग हुए थे तब भी तो एक झगड़ा हुआ था न हमारे बीच.’’