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रश्मि की बोलती बंद हो गई. समय से पहले क्यों इतना समझदार हो गया स्वरूप? रात का भोजन देख कर नन्हे स्वरूप के मस्तिष्क से छोटी बहन वाला विषय निकल गया. पर रश्मि जानती है यह भूलना और याद आना चलता ही रहेगा. हो सकता है बड़ा होने पर रश्मि स्वरूप को बहन न होने का सही कारण बता भी दे लेकिन जब तक वह इसी तरह जीने का आदी नहीं हो जाता, रश्मि को इस प्रसंग का सामना करना ही होगा.

मनपसंद व्यंजन पा कर स्वरूप चटखारे लेले कर खा रहा था, ‘‘कितना अच्छा खाना है. सलाद भी बहुत अच्छा है. मां, आप रोज जल्दी घर आ जाया करो.’’

रश्मि का मन कमजोर पड़ने लगा. मन हुआ कल ही त्यागपत्र भेज दे, नहीं चाहिए यह दो कौड़ी की नौकरी, जिस के कारण उस के लाड़ले को मनपसंद खाना भी नसीब नहीं होता.

‘‘चलो मां, लूडो खेलते हैं,’’ स्वरूप हाथमुंह धो आया था.

‘‘थोड़ी देर तक पिता के संग खेलो, मैं चौका संभाल कर आती हूं,’’ रश्मि ने बरतन समेटते हुए कहा.

ऐसा नहीं कि केवल सतीश की तनख्वाह से गृहस्थी नहीं चलेगी लेकिन घर में स्वयं उस की तनख्वाह का महत्त्व भी कम नहीं. रोज तरहतरह का खाना, स्वरूप के लिए विभिन्न शौकिया खर्चे, उस के कानवैंट स्कूल का खर्चा आदि मिला कर कोई कम रुपयों की जरूरत नहीं पड़ती. अभी तो अपना मकान भी नहीं. फिर वास्तविकता यह है कि प्रतिदिन हर समय मां घर में दिखेगी तो मां के प्रति उस का आकर्षण कम हो जाएगा. इसी तरह रोज ही अच्छा भोजन मिलेगा तो उस भोजन का महत्त्व भी उस के लिए कम हो जाएगा. जैसेजैसे स्वरूप बड़ा होगा उस की अपनी दुनिया विकसित होती जाएगी. मां के आंचल से निकल कर पढ़ाई- लिखाई, खेलकूद और दोस्तों में व्यस्त हो जाएगा. उस समय रश्मि अकेली पड़ जाएगी. इस से यही बेहतर है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ेगा.

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सब काम निबटा कर रश्मि की आंखें थकावट से बोझिल होने लगीं. निद्रित पुत्र के ऊपर चादर डाल कर वह सतीश की ओर मुड़ी.

‘‘कभी मेरा भी ध्यान कर लिया करो. हमेशा बेटे में ही रमी रहती हो,’’ सतीश ने रश्मि का हाथ थामा.

‘‘जरा याद करो तुम्हारी मां ने भी कभी तुम्हारा इतना ही ध्यान रखा था,’’ रश्मि ने शरारत से कहा.

‘‘वह उम्र तो गई, अब तो हमें तुम्हारा ध्यान चाहिए.’’

‘‘अच्छा, यह लो ध्यान,’’ रश्मि पति से लिपट गई.

सुबह उठ कर, सब को चाय दे कर रश्मि ने स्वरूप के स्कूल का टिफिन तैयार किया. फिर दूध गरम कर के उसे उठाने चली.

‘‘ऊं, ऊं, अभी नहीं,’’ स्वरूप ने चादर तान ली.

‘‘नहीं बेटा, और नहीं सोते. देखो, सुबह हो गई है.’’

‘‘नहीं, बस मुझे सोना है,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

आखिर 15 मिनट तक समझाने- बुझाने के बाद उस ने बेमन से बिस्तर छोड़ा. पर ब्रश करने, कपड़े पहनने व दूध पीने के बीच वह बारबार जा कर फिर से चादर ओढ़ कर लेट जाता और मनाने के बाद ही उठता. अंत में बैग कंधे पर डाले सतीश का हाथ पकड़े वह बस स्टाप की ओर रवाना हुआ तो रश्मि ने चैन की सांस ली. बिस्तर संवारना है, खाना बनाना, नाश्ता बनाना, नहाना फिर तैयार हो कर दफ्तर जाना है. रश्मि झटपट हाथ चलाने लगी. कपड़ों का ढेर बड़ा होता जा रहा है. 2 दिन से समय ही नहीं मिल रहा. आज शाम को आ कर अवश्य धोएगी.

‘‘कभी तो आंगन में झाड़ू लगा दिया कर रश्मि,’’ सब्जी छौंकते हुए रश्मि के कान में सास की आवाज पड़ी. कमरों के सामने अहाते के भीतर लंबाचौड़ा आंगन है, पक्के फर्श वाला. झाड़ू लगाने में 15-20 मिनट लग जाना मामूली बात है.

‘‘आप ही बताओ अम्मां, किस समय लगाऊं?’’

‘‘अब यह भी कोई समस्या है? जो दफ्तर जाती हैं क्या वे झाड़ू नहीं लगातीं?’’

रश्मि चुप हो गई. बहस में कुछ नहीं रखा. सब्जी में पानी डाल कर वह कपड़े निकालने लगी.

मांजी अब भी बोले जा रही थीं, ‘‘करने वाले बहुत कुछ करते हैं. स्वेटर बनाते हैं, पापड़बड़ी अचार, डालते हैं, कशीदाकारी करते हैं…’’

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बदन पर पानी डालते हुए रश्मि सोच रही थी, ‘आज जा कर सब से पहले मार्च के महीने का ड्यूटी चार्ट बनाना है.’

‘‘अम्मां, जमादार आए तो उसे 2 रुपए दे कर आंगन में झाड़ू लगवा लेना,’’ रश्मि ने सास को आवाज दी.

‘‘सुन, मेरे लिए एक जोड़ी चप्पल ले आना.’’

‘‘ठीक है, अम्मां,’’ कंघी कर के रश्मि ने लिपस्टिक लगाई.

‘‘वह सामने अंगूठे और पीछे पट्टी वाली चप्पल.’’

रश्मि ने भौंहें सिकोड़ीं, सास किसी खास डिजाइन के बारे में कह रही थीं.

‘‘अरे, वैसी ही जैसी स्वीटी की नानी ने पहनी थी, हलके पीले से रंग की.’’

‘‘अम्मां, मैं शाम को समझ लूंगी और कल चप्पल ला दूंगी.’’

रश्मि टिफिन पैक करने लगी. परांठा भी पैक कर लिया. नाश्ता करने का समय नहीं था.

‘‘मेरे ब्लाउज के जो बटन टूटे थे, लगा दिए हैं?’’

‘‘ओह,’’ रश्मि को याद आया, ‘‘शाम को लगा दूंगी.’’खट्टा-मीठा

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