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जाने और कितनी देर ऋचा अपने ही खयालों में उलझी रहती यदि पिताजी का करुण चेहरा और उस से भी अधिक करुण स्वर उसे चौंका न देता, ‘क्या बात है, ऋचा? हम तुम्हारी भलाई के लिए कितने प्रयत्न करते हैं, पर पता नहीं क्यों तुम अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने पर तुली रहती हो.’

‘क्या हुआ, पिताजी?’ ऋचा हैरान स्वर में पूछने लगी.

‘तुम्हें अजित से यह कहने की क्या जरूरत थी कि तुम कांटेक्ट लैंसों का प्रयोग करती हो?’

‘मैं ने जानबूझ कर नहीं कहा था, पिताजी. ऐसे ही बात से बात निकल आई थी. फिर मैं ने छिपाना ठीक नहीं समझा.’

‘तुम नहीं जानतीं, तुम ने क्या कह दिया. अब वे लोग कह रहे हैं कि हम ने यह बात छिपा कर उन्हें अंधेरे में रखा,’ पिताजी दुखी स्वर में बोले.

‘पर विवाह तो निश्चित हो चुका है, सगाई हो चुकी है. अब उन का इरादा क्या है?’ मां ने परेशान हो कर पूछा था, जो जाने कब वहां आ कर खड़ी हो गई थीं.

‘कहते हैं कि वे हमारी छोटी बेटी पूर्णिमा को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं. पर मैं ने कहा कि बड़ी से पहले छोटी का विवाह हो ऐसी हमारे घर की रीति नहीं है. फिर भी घर में सलाह कर के बताऊंगा. लेकिन बताना क्या है, हमारी बेटियों को क्या उन्होंने पैर की जूतियां समझ रखा है कि अगर बड़ी ठीक न आई तो छोटी पहन ली,’  वह क्रोधित स्वर में बोले.

‘इस में इतना नाराज होने की बात नहीं है, पिताजी. यदि उन्हें पूर्णिमा पसंद है तो आप उस का विवाह कर दीजिए. मैं तो वैसे भी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं,’ ऋचा ने क्षणांश में ही मानो निर्णय ले लिया.

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