हरदयाल अपनी योजना और भी विस्तार में समझाता, लेकिन तभी चौधरी साहब ने उसे टोक कर मुख्य मुद्दे पर बात करना जरूरी समझा.
आने वालों में अध्यापक ज्ञानेंद्र, वकील सुरेंद्रनाथ, सरपंच मोतीलाल, नेता ज्वालाप्रसाद और रमन उपस्थित थे. हरदयाल एक दूसरे सिलसिले में वहां आया था.
बात रमन ने ही शुरू की, ‘‘चौधरी साहब, अब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा है. हम ने पूरे जिले की नाका चुंगियों का ठेका लिया है. ट्रैफिक से चुंगी वसूल करते हैं. 10 प्रतिशत पार्टी के दफ्तर को देते हैं…’’
‘‘रुकिए, सारी बातें समझदारी के साथ स्पष्ट करनी चाहिए. ऐसा करते हैं, हरदयालजी, आप सब 11 तारीख को हम से मिलना, जो भी उचित होगा, तय कर लेंगे,’’ चौधरी साहब ने रमन की बात बीच में ही काट दी.
हरदयाल चुपचाप उठ कर बाहर चला गया.
‘‘अरे भाई, तुम लोगों में इतनी भी बुद्धि नहीं है कि कोई अन्य बाहरी आदमी बैठा है. ठीक है, आगे कहो.’’
‘‘आगे क्या कहें? 20 प्रतिशत आप के खाते में डाल देते हैं. 20 प्रतिशत सरकारी कामकाज के लिए, खानेपिलाने के लिए रख छोड़ते हैं. बकाया 50 प्रतिशत में हम 4 लोग भागीदार हैं.’’
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‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या? वह ज्ञानीशंकर का लड़का नर्मदा अकड़ रहा है. 100-50 लड़के इकट्ठे कर लिए हैं और लड़नेमरने को आमादा है.’’
‘‘ठीक है, ठीक है, कुछ फूल उसे भी भेंट कर दो.’’
‘‘नहीं, चौधरी साहब, वह हरिश्चंद्र की औलाद बनता है. ऐसे लेनेदेने से तो नहीं टूटेगा. और भी जलील करेगा सब के आगे.’’
‘‘चांदी का जूता बहुत भारी होता है, नरेंद्रजी.’’
‘‘चौधरी साहब, नर्मदा अक्खड़- मिजाज और सनकी नौजवान है. उस ने अपना बहुमत बना लिया है. तब तो एक ही उपाय है. उसे साफ कर दिया जाए.’’
‘‘छि:छि:, कैसी छोटी बातें करते हो. ऐसे सनकी और जिद्दी आदमियों की हमें बहुत जरूरत है. मैं कल तहसील आऊंगा खुद नर्मदा से बातें करूंगा. और कुछ?’’
अध्यापक ज्ञानेंद्र ने अपनी बात कही, ‘‘चौधरी साहब, हम ने जिले के परमिट आप की राय के अनुसार ही वितरित किए थे. सेठ भगवानदास को सीमेंट का परमिट दिया गया. मुंशी प्यारेलाल भजनलाल फर्म को मिट्टी का तेल, गोवर्धनप्रसाद को सौफ्ट कोक, अली मुहम्मद को गैस आदि के ठेके दिए गए. हम ने वसूली के लिए चक्कर भी लगाए, लेकिन अधिकांश ने कहा कि उन्होंने अपना धन आप को दे दिया है. यदि ऐसा है तो हमारा हिस्सा दिलवा दीजिए.’’
‘‘देखो, मास्टर ज्ञानेंद्रजी. जब तुम एक निजी पाठशाला में मास्टरी करते थे तो चेहरे पर झुर्रियां थीं, आंखों में गड्ढे थे और कुरतापाजामा में पैबंद लगे थे. तुम्हारी पत्नी क्षयरोग की मरीज लगती थी और बच्चे ऐसे लगते थे जैसे सीधे अनाथाश्रम से आए हों.
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‘‘तुम 350 रुपए और मुट्ठीभर इज्जत ले कर बीमार जिंदगी से लड़ रहे थे. मैं ने तुम्हें सड़क से उठा कर मकान में रखा, मकान में दुकान लगवाई, दुकान में चक्की लगवाई, चक्की की कमाई से तुम्हारी रोटियां चल रही हैं.
‘‘चुनाव में तुम्हें विधान सभा का सदस्य बनाने के लिए 1 लाख रुपए खर्च किए हमारे 2 आदमी किशन और रमेश चुनाव युद्ध में काम आ गए. हम ने उन्हें तालाब में फिंकवा कर मामला रफादफा कर दिया. तुम अच्छे वोटों से जीते, तुम्हारा नाम भी हुआ.
‘‘अब रही हिसाबकिताब की बात. भाई मास्टर, पहले मुझे अपने 1 लाख रुपए निकालने हैं. 20-20 हजार रुपए मृत व्यक्तियों के रिश्तेदारों को देने हैं. अभी तो सिर्फ 80 हजार ही वसूल हुए हैं. आप लोग 60 हजार रुपए का प्रबंध कर के मुझे दिलवा दो. फिर चाहो तो मेरा हिस्सा भी तुम खा जाना.
‘‘गांधी, नेहरू जैसे बड़े नेता भी तो चुपचाप सब देखते थे. हिस्सेपट्टे से दूर रहते थे. मेरे पास तो ईमानदारी की कमाई ही बहुत है,’’ चौधरी साहब ने पैर सोफे से नीचे लटका दिए.
‘‘चौधरी साहब, यह तो ठीक है कि अब मेरा पक्का मकान है, लोगबाग इज्जत से देखते हैं, सेहत सुधर गई है, लेकिन राजनीति से इस का कुछ लेनादेना नहीं है.