कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

सहसा सुकांत को फाइलों के नीचे एक किताब सी नजर आई. खींच कर निकाला तो देखा कि यह तो वही डायरी है जो उस ने बाबूजी को वहां से आते समय दी थी. सुकांत अपनी उत्सुकता न रोक पाया. फाइलें बंद कर दी और डायरी हाथ में लिए नीचे आ गया. लगभग आधी डायरी भरी हुई थी, जिसे वह आराम से पढ़ना चाहता था. डायरी का पहला पृष्ठ बाबूजी ने हवाई जहाज में ही लिखा था:

19 जनवरी : बेटे, सुकांत, मैं जानता हूं, तुम नहीं चाहते थे कि मैं अकेले रहने के लिए भारत वापस जाऊं. लेकिन मेरे लिए तुम्हारा सुखी जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण है. मैं तो बीता समय हूं, आने वाला कल तुम हो. मेरे यहां होने से तुम्हारी गृहस्थी में जो दरार पड़ती जा रही थी, वह मेरे लिए शर्म की बात थी. क्या मैं इतना अक्षम हूं कि अपने इस अकेले जीवन का बोझ भी नहीं उठा सकता?

22 जनवरी : वापस तो आ गया हूं, सुकांत, लेकिन घर मानो काटने को दौड़ रहा है. तुम्हारी मां के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता यहां. पड़ोस के योगेश साहब ने अपना नौकर भेज कर साफसफाई तो करवा दी है, खाना भी भिजवाया है, किंतु जीवन की आवश्यकताएं क्या केवल यही हैं?

25 जनवरी : सुकांत, बहुत याद आ रही है तुम्हारी. इस तरह अकेले रहना कितना कठिन है, यह रह कर ही जान सका हूं. इच्छा होती है कि वापस लौट जाऊं, किंतु शांता को मेरा वहां रहना पसंद नहीं. क्या करूं? कुछ सोच नहीं पाता. बहू में अपनी एक बेटी पाने का सपना था मेरा, जो नियति ने पूरा नहीं होने दिया.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...