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बंबई से आए इस पत्र ने मेरा दिमाग खराब कर दिया है. दोपहर को पत्र आया था, तब प्रदीप दफ्तर में थे. अब रात के 9 बज गए हैं. मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या किया जाए.

फाड़ कर फेंक दूं इसे? डाक विभाग पर दोष लगाना बड़ा सरल है. बाद में कभी प्रदीप या उन की मां ने इस विषय को उठाया तो मैं कह दूंगी कि वह पत्र मुझे कभी मिला ही नहीं.

या फिर प्रदीप से सीधी बात कर ली जाए. जैसेतैसे उन्हें छुट्टी मिली है. छुट्टी यात्रा भत्ता ले कर वह दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं. सिर्फ हम दोनों. बंगलौर, ऊटी, त्रिवेंद्रम, कोवलम और कन्याकुमारी. पिछले कई दिनों से तैयारियां चल रही हैं और परसों सुबह की गाड़ी से हमें रवाना हो जाना है. प्रदीप को इस पत्र के बारे में बताया तो संभव है कि हमारे पिछले 2 वर्ष के वैवाहिक जीवन में प्रथम बार यह यात्रा कार्यक्रम स्थगित हो जाए.

फिर मन इस मानवीय आधार पर पूरे प्रसंग की विवेचना करने लगा. प्रदीप की मां मेरी सास हैं. सास और मां में क्या अंतर है? कुछ भी तो नहीं. उन की बाईं टांग में प्लास्टर चढ़ा है. स्नानागार में फिसल गईं. टखने और घुटने की हड्डियों में दरार आ गई है. गनीमत हुई कि वे टूटी नहीं. उन्हें 3 सप्ताह तक बिस्तर पर विश्राम करने की सलाह दी गई है.

घर पर कौन है? प्रदीप के पिता, छोटा भाई और सीमा. अरे, सीमा कहां है? उस का तो पिछले वर्ष विवाह हो गया. पत्र में लिखा है कि सीमा को बुलाने के लिए दिल्ली फोन किया था पर उस की सास ने अनुमति नहीं दी. सीमा की ननद अपना पहला जापा करने मायके आई हुई है. सास का गठिया परेशान कर रहा है. उधर सीमा का पति किसी विभागीय परीक्षा के लिए तैयारी कर रहा है.

प्रदीप के भाई ने पत्र लिखा है. मांजी ने ही लिखवाया है. यह भी लिखा है कि घर के कामकाज में बड़ी दिक्कत हो रही है. नौकरानी भी छुट्टी कर गई है.

घर की इस दुर्दशा का वर्णन पढ़ कर मेरा अंतर द्रवित हो गया. मैं ने सोचा, संकट के समय अपने बच्चे ही तो काम आते हैं. मांजी चाहती हैं कि मैं उन की सेवा के लिए औरंगाबाद से बंबई आ जाऊं. पर शालीनता या संकोचवश उन्होंने लिखवाया नहीं. उन्हें पता है कि हम लोग 2 सप्ताह की छुट्टी ले कर घूमने जा रहे हैं.

एक मन किया, छुट्टी का सदुपयोग दक्षिण भारत की यात्रा नहीं, संकटग्रस्त परिवार की सेवा कर के किया जाए. पर तभी मन कसैला सा हो गया. शादी के पहले वर्ष में मेरे साथ मांजी ने जो व्यवहार किया था उस की कटु स्मृति आज तक मुझे छटपटाती है.

तब प्रदीप बंबई में ही नियुक्त थे. मैं अपने सासससुर के साथ ही रह रही थी. एक दिन नासिक से पिताजी का पत्र आया था. लिखा था कि कौशल्या बीमार है. उसे टायफाइड हुआ और बाद में पीलिया. डाक्टरों ने 4 हफ्ते पूर्ण विश्राम की सलाह दी है. वह बेहद परेशान है. पर मैं और तेरा छोटा भाई उस की देखभाल कर लेते हैं. खाना पकाने में दिक्कत होती है. पर पेट भरने के लिए कुछ कच्चापक्का बना ही लेते हैं. कभी दूध, डबलरोटी ले लेते हैं, कभी बाजार से छोलेभठूरे ले आते हैं.

पत्र पढ़ कर मेरी आंखों में आंसू आ गए. घर की ऐसी दुर्दशा. मेरा दिल किया कि मैं उड़ कर नासिक पहुंच जाऊं. शादी के बाद, पूरे 1 वर्ष में केवल रक्षाबंधन पर मैं 1 दिन के लिए अपने घर गई थी. प्रदीप साथ में थे.

मैं ने मांजी से घर जाने के लिए कहा तो वह संवेदनशून्य स्वर में बोलीं, ‘शादी के बाद लड़की को बातबेबात मायके जाना शोभा नहीं देता. उसे तो सिर्फ एक बार, और वह भी किसी त्योहार पर ही मां के घर जाना चाहिए.’

‘मांजी, मां को पीलिया हो गया है. घर में…’

‘बहू, घर में यह मामूली हारीबीमारी तो चलती रहती है. इस तरह छोटेमोटे बहाने से मायके की तरफ लपकना अच्छा लगता है?’ मांजी ने विद्रूप स्वर में ताना कसा.

‘पर भाई और पिताजी को ठीक से खाना नहीं मिल रहा है…’

‘देखो बहू, उस घर को भूल जाओ. अब तो तुम्हारा घर यह है. तुम्हारा पहला फर्ज बनता है हम लोगों की सेवा.’

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