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कुछ दिन से मन में बड़ी उथल- पुथल है. मन में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है जिसे मैं कोई नाम नहीं दे पा रहा हूं. उदासी और खुशी के बीच की अवस्था को क्या कहा जाता है समझ नहीं पा रहा हूं. शायद, स्तब्ध सा हूं, कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हूं. चाहूं तो खुश हो सकता हूं क्योंकि उदास होने की भी कोई खास वजह मेरे पास नहीं है.

‘‘क्या बात है पापा, आप चुपचाप से हैं?’’

‘‘नहीं तो, ऐसा तो कुछ नहीं…बस, यही सोच रहा हूं कि पानीपत जाऊं या नहीं.’’

‘‘सवाल ही पैदा नहीं होता. चाचीचाचा ने एक बार भी ढंग से नहीं बुलाया. हम क्या बेकार बैठे हैं जो सारे काम छोड़ कर वहां जा बैठें…इज्जत करना तो उन्हें आता ही नहीं है और बेइज्जती कराने का हमें कोई शौक नहीं है.’’

‘‘मैं उस बेवकूफ के बारे में नहीं सोच रहा. वह तो नासमझ है.’’

‘‘नासमझ हैं तो इतने चुस्त हैं अगर समझदार होते तो पता नहीं क्याक्या कर जाते…पापा, आप मान क्यों नहीं जाते कि आप के भाई ने आप की अच्छाई का पूरापूरा फायदा उठाया है. बच्चों को पढ़ाना था तो आप के पास छोड़ दिया. आज वे चार पैसे कमाने लगे तो उन की आंखें ही पलट गईं.’’

‘‘मुझे खुशी है इस बात की. छोटे से शहर में रह कर वह बच्चों को कैसे पढ़ातालिखाता, सो यहां होस्टल में डाल दिया.’’

‘‘और घर का खाना खाने के लिए महीने में 15 दिन वे हमारे घर पर रहते थे. कभी भी आ धमकते थे.’’

‘‘तो क्या हुआ बेटा, उन के ताऊ का घर था न. उन के पिता का बड़ा भाई हूं मैं. अगर मेरे घर पर मेरे भाई के बच्चे कुछ दिन रह कर खापी गए तो ऐसी क्या कमी आ गई हमारे राशनपानी में? क्या हम गरीब हो गए?’’

‘‘पापा, आप भी जानते हैं कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं. किसी को खिलाने से कोई गरीब नहीं हो जाता, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. सवाल यह नहीं है कि वे हमारे घर पर रहे और हमारे घर को पूरे अधिकार से इस्तेमाल करते रहे. सवाल यह है कि दोनों बच्चे लंदन से वापस आए और हम से मिले तक नहीं. दोनों की शादी हो गई, उन्होंने हमें शामिल तक नहीं किया और अब गृहभोज कर रहे हैं तब हमें बुला लिया. यह भी नहीं कहा कि 1-2 दिन पहले चले आएं. बस, कह दिया…रात के 8 बजे पार्टी दे रहे हैं… आप सब आ जाना. पापा, यहां से उन के शहर की दूरी कितने घंटे की है, यह आप जानते हैं न. कहां रहेंगे हम वहां? रात 9 बजे खाना खाने के बाद हम कहां जाएंगे?’’

‘‘उस के घर पर रहेंगे और कहां रहेंगे. कैसे बेमतलब के सवाल कर रहे हो तुम सब. तुम्हारी मां भी इसी सवाल पर अटकी हुई है और तुम भी. हमारे घर पर जब कोई आता है तो रात को कहां रहता है?’’

‘‘हमारे घर पर जो भी आता है, वह हमारे सिरआंखों पर रहता है, हमारे दिल में रहता है और हमारे घर में शादी जैसा उत्सव जब होता है तब हम बड़े प्यार से चाचाचाची को बुला कर अपनी हर रस्म में उन्हें शामिल करते हैं. मां हर काम में चाचीचाचा को स्थान देती हैं. मेहमानों को बिस्तर पर सुलाते हैं और खुद जमीन पर सोेते हैं हम लोग.’’

दनदनाता हुआ चला गया अजय. मैं समझ रहा हूं अजय के मनोभाव. अजय उन्हें अपना भाई समझता था. नरेन और महेन को चचेरा भाई समझा कब था जो उसे तकलीफ न होती. अजय की शादी जब हुई तो नईनवेली भाभी के आगेपीछे हरपल डोलते रहते थे नरेन और महेन.

दोनों बच्चे एमबीए कर के अच्छी कंपनियों में लग गए और वहीं से लंदन चले गए. जब जा चुके थे तब हमें पता चला. विदेश जाते समय मिल कर भी नहीं गए. सुना है वे लाखों रुपए साल का कमा रहे हैं…मुझे भी खुशी होती है सुन कर, पर क्या करूं अपने भाई की अक्ल का जिसे रिश्ते का मान रखना कभी आया ही नहीं.  एकएक पैसा दांत से कैसे पकड़ा जाता है, उस ने पता नहीं कहां से सीखा है. एक ही मां के बच्चे हैं हम, पर उस की और मेरी नीयत में जमीनआसमान का अंतर है. रिश्तों को ताक पर रख कर पैसा बचाना मुझे कभी नहीं आया. सीख भी नहीं पाया क्योंकि मेरी पत्नी ने कभी मुझे ऐसा नहीं करने दिया. नरेनमहेन को अजय जैसा ही मानती रही मेरी पत्नी. पूरे 6 साल वे दोनों हमारे पास रहे और इन 6 सालों में न जाने कितने तीजत्योहार आए. जैसा कपड़ा शुभा अजय के लिए लाती वैसा ही नरेन, महेन का भी लाती. घर का बजट बनता था तो उस में नरेनमहेन का हिस्सा भी होता था. कई बार अजय की जरूरत काट कर हम उन की जरूरत देखा करते थे.

हमारी एक ही औलाद थी लेकिन हम ने सदा 3 बेटों को पालापोसा. वे दोनों इस तरह हमें भूल जाएंगे, सोचा ही नहीं था. भूल जाने से मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि उन्होंने मेरा कर्ज नहीं चुकाया. सदा देने वाले मेरे हाथ आज भी कुछ देते ही उन्हें, पर जरा सा नाता तो रखें वे लोग. इस तरह बिसरा दिया है हमें जैसे हम जिंदा ही नहीं हैं.  शुभा भी दुखी सी लग रही है.   बातबात पर खीज उठती है. जानता हूं उसे बच्चों की याद आ रही है. किसी न किसी बहाने से उन का नाम ले रही है, खुल कर कुछ कहती नहीं है पर जानता हूं नरेनमहेन से मिलने को उस का मन छटपटा रहा है. दोनों ने एक बार फोन पर भी बात नहीं की. अपनी बड़ी मां से कुछ देर बतिया लेते तो क्या फर्क पड़ जाता.

‘‘कितना सफेद हो गया है इन दोनों का खून. विदेश जा कर क्या इंसान इतना पत्थर हो जाता है?’’

‘‘विदेश को दोष क्यों दे रही हो. मेरा अपना भाई तो देशी है न. क्या वह पत्थर नहीं है?’’

‘‘पत्थर नहीं, इसे कहते हैं प्रैक्टिकल होना. आज सब इतने ज्यादा मतलबी हो गए हैं कि हम जैसा भावुक इंसान बस ठगा सा रह जाता है. हम लोग प्रैक्टिकल नहीं हैं न इसीलिए बड़ी जल्दी बेवकूफ बन जाते हैं.’’

‘‘क्या करें हम? हमारा दिल यह कैसे भूल जाए कि रिश्तों के बिना मनुष्य कितना अपाहिज, कितना बेसहारा है. जहां दो हाथ काम आते हैं वहां रुपएपैसे काम नहीं आ सकते.’’

‘‘आप यह ज्ञान मुझे क्यों समझा रहे हैं? रिश्तों को निभाने में मैं ने कभी कोई कंजूसी नहीं की.’’

‘‘इसलिए कि अगर एक इंसान बेवकूफी करे तो जरूरी नहीं कि हम भी वही गलती करें. जीवन के कुछ पल इतने मूल्यवान होते हैं जो बस एक ही बार जीवन में आते हैं. उन्हें दोहराया नहीं जा सकता. गया पल चला जाता है…पीछे यादें रह जाती हैं, कड़वी या मीठी.

‘‘नरेनमहेन हमारे बच्चे हैं. हम यह क्यों न सोचें कि वे मासूम हैं, जिन्हें रिश्ता निभाना ही नहीं आया. हम तो समझदार हैं. उन का सुखी परिवार देखने की मेरी तीव्र इच्छा है जिसे मैं दबा नहीं पा रहा हूं. अजय का गुस्सा भी जायज है. मैं मानता हूं शुभा, पर तुम्हीं सोचो, हफ्ते भर में दोनों लौट भी जाएंगे. फिर मिलें न मिलें. कौन जाने हमारी जीवनयात्रा कब समाप्त हो जाए.’’

मेरा स्वर अचकचा सा गया. मैं दिल का मरीज हूं. आधे से ज्यादा हिस्सा काम ही नहीं कर रहा. कब धड़कना बंद कर दे क्या पता. मैं दोनों बच्चों से बहुत प्यार करता हूं. चाहता हूं उन की नईनई बसी गृहस्थी देख लूं. उन बच्चियों का क्या कुसूर. उन्हें मेरे बारे में क्या पता कि मैं कौन हूं. उन के ताऊताई उन से कितनाममत्व रखते हैं, उन्हें तभी पता चलेगा जब वे देखेंगी हमें और हमारा आशीर्वाद पाएंगी.

‘‘बस, मैं जाना चाहता हूं. वह मेरे भाई का घर है. वहीं रात काट कर सुबह वापस आ जाऊंगा. नहीं रहूंगा वहां अगर उस ने नहीं चाहा तो…फुजूल मानअपमान का सवाल मत उठाओ. मुझे जाने दो. इस उम्र में यह कैसा व्यर्थ का अहं.’’

‘‘रात में सोएंगे कहां. 3 बैडरूम का उन का घर है. 2 में बच्चे और 1 में देवरदेवरानी सो जाएंगे.’’

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