ऐक्सिडैंट की बात सुन ताऊजी भागे चले आए. थोड़ी देर बाद मैं ने कहा, ‘‘ताऊजी, आशा को सूचित कर दीजिए. मैं उस से मिलना चाहता हूं.’’
क्षणभर को ताऊजी चौंक गए थे, फिर बोले, ‘‘क्या, बहुत तकलीफ है?’’
जी चाह रहा था, ताऊजी से झगड़ा करूं, मगर लिहाज का मारा मैं चुप था. बारबार मन में आता कि ताऊजी से पूछूं कि उन्होंने आशा का अपमान क्यों किया था? क्यों मुझे इस आग में ढकेल दिया?
ताऊजी मेरे जख्मी शरीर को सहलाते हुए बोले, ‘‘कुशल, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’
अचानक मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘मैं आशा से मिलना चाहता हूं.’’
‘‘लेकिन उस से तो तुम्हारा कोई रिश्ता ही नहीं है. तुम्हीं ने तो
कहा था.’’
‘‘हां, मैं ने कहा था और अब भी मैं ही कह रहा हूं कि उस से रिश्ता बांधना चाहता हूं.’
‘‘वह तो विधवा है, भला उस से तुम्हारा रिश्ता कैसे?’’
‘‘क्या विधवा का पुनर्विवाह नहीं हो सकता?’’
‘‘हो क्यों नहीं सकता, मैं तो हमेशा इस पक्ष में रहा हूं.’’
‘‘तो फिर आप आशा के खिलाफ क्यों हैं?’’
‘‘क्योंकि तुम इस पक्ष में कभी नहीं रहे. तुम अपनी मां से इतनी नफरत करते हो. जानते हो न उस का कारण क्या है? उस का पुनर्विवाह ही इस घृणा का कारण है. जो इंसान अपनी मां के साथ न्याय नहीं कर पाया, वह अपनी पत्नी से इंसाफ कैसे करेगा?’’
मैं ने हिम्मत कर के कुछ कहना चाहा, मगर तब तक ताऊजी जा चुके थे. मैं सोचने लगा, क्यों ताऊजी आशा को मुझ से दूर करना चाहते हैं? किस अपराध की सजा देना चाहते हैं?
तभी कंधे पर किसी ने हाथ रखा. मुड़ कर देखा, आशा ही तो सामने खड़ी थी.
‘‘यह क्या हो गया?’’ उस ने हैरानी से पूछा.
मेरा जी चाहा कि उस की गोद में समा कर सारी वेदना से मुक्ति पा लूं. लेकिन वह पास बैठी ही नहीं, थोड़ी देर सामने बैठ कर चली गई.
एक दिन आशा का पीछा करते मैं ने उस का घर देख लिया. दूसरे दिन सुबहसवेरे उस का द्वार खटखटा दिया. वह मुझे सामने पा कर हैरान रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘नाराज मत होना. नाश्ता करने आया हूं.’’
‘‘मैं यहां अकेली रहती हूं, कोई क्या सोचेगा. आप यहां क्यों चले आए?’’
‘‘तुम भी तो मेरे पास चली आती थीं, मैं ने तो कभी मना नहीं किया.’’
‘‘वह मेरी भूल थी. मेरा पागलपन था.’’
‘‘और यह मेरा पागलपन है. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं तुम्हारे साथ एक रिश्ता बांधना चाहता हूं. चाहता हूं, तुम हमेशा मेरी आंखों के सामने रहो,’’ समीप जा कर मैं ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘तुम से पहले मेरा जीवन आराम से चल रहा था, कहीं कोई हलचल न थी. मुझे ज्यादा नहीं चाहिए. बस, थोड़ा सा ही प्यार दे दो. देखो आशा, मैं तुम्हारे किसी भी अधिकार में हस्तक्षेप नहीं करूंगा. तुम अगर अपने दिवंगत पति के साथ मुझे बांटना न चाहो, तो मत बांटो.’’
‘‘जानते हो, मुझे अभी भी पागलपन के दौरे पड़ते हैं,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली.
‘‘पागल लोग बैंक में इतनी अच्छी तरह काम नहीं कर सकते. तुम पागल नहीं हो. तुम पागल नहीं…’’
मेरे हाथ से बांह छुड़ा कर वह भीतर चली गई.
मैं भी तेज कदमों से उस के पीछेपीछे गया और तनिक ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मुझे जो कहना था, कह दिया. अब चलता हूं, नाश्ता फिर किसी दिन.’’
‘‘कुशल,’’ आशा ने पुकारा, परंतु मैं रुका नहीं.
मैं शाम तक बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पाया. मुझे फिर सामने पा कर आशा एक बार फिर तनाव से भर उठी. पर खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आइए. बैठिए. मैं चाय ले कर आती हूं…’’
‘‘नहीं, तुम मेरे पास बैठो, चाय की इच्छा नहीं है.’’
आशा मेरे पास बैठ गई. मैं अपने विषय में सबकुछ बताता रहा और वह सुनती रही.
‘‘तुम्हीं कहो, अगर मैं तुम से शादी करना चाहूं तो गलत क्या है? 25 साल पहले अगर ताऊजी मेरी मां का पुनर्विवाह करा सकते थे, तो अब तुम नया जीवन आरंभ क्यों नहीं कर सकतीं?’’
‘‘आप के साथ जो हुआ, वह मां के पुनर्विवाह की वजह से ही हुआ न? आप अपनी मां का सम्मान नहीं कर पाते, उन के पति को अपना पिता स्वीकार नहीं करते. इस अवस्था में आप मेरा सम्मान कैसे करेंगे?
‘‘अगर आप पुनर्विवाह को बुरा नहीं मानते तो पहले अपनी मां का सम्मान कीजिए, उन से नाता जोडि़ए.’’
मैं आशा की दलील पर खामोश था. उस की दलील में दम था और उस का तुरंत कोई तोड़ मेरी समझ में न आया. आशा के मोह में बंधा, बस, इतना ही कह पाया, ‘‘अगर तुम चाहती हो, तो उन लोगों से नाता जोड़ने में मुझे कोई परेशानी नहीं है.’’
‘‘मेरी इच्छा पर ही ऐसा क्यों…क्या आप अपने मन से ऐसा नहीं चाहते?’’
‘‘मैं ने कहा न कि मैं इतना तरस चुका हूं कि कोई इच्छा अब जिंदा नहीं रही. मां ने जो भी किया, हो सकता है, उस की गृहस्थी के लिए वही अच्छा हो. यह सच ही है कि अतीत के भरोसे जीवन नहीं कटता और न ही मरने वाले के साथ इंसान मर ही सकता है. जो भी हुआ होगा, शायद अच्छे के लिए ही हुआ होगा, मगर इस सारे झमेले में मैं तो कहीं का नहीं रहा.’’
मेरे कंधे पर पड़ा शौल सरक गया था. एकाएक आशा बोली, ‘‘अरे, आप की बांह अभी भी…’’
‘‘हां, 3 हफ्ते का प्लास्टर है न.’’ मुझे ऐसा लगा, जैसे उस ने कुछ नया ही देख लिया, झट पास आ कर उस ने शौल मेरी पीठ से भी सरका दी, ‘‘आप के कपड़ों पर तो खून के धब्बे हैं.’’
फिर वह डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘इतनी तकलीफ में भी आप मेरे पास चले आते हैं?’’
‘‘दर्द कम करने ही तो आता हूं. तुम छूती हो तो….’’
‘‘ऐसा क्या है मेरे छूने में?’’
‘‘वह सबकुछ है जो मुझ जैसे इंसान को चाहिए. मगर यह सत्य है, इसे वासना नहीं कहा जा सकता, जैसा शायद ताऊजी ने समझा था.’’
बांह का प्लास्टर खुलने को 2 हफ्ते बाकी थे. इस दौरान आशा ने मुझे संभाल लिया था. वह हर शाम मेरे घर आती और भोजन का सारा प्रबंध करती.
जिस दिन मैं ने प्लास्टर कटवाया, उस दिन सीधा आशा के पास ही चला गया. मुझे स्वस्थ पा कर उस की आंखें भर आईं.
सहसा आशा को छाती से लगा कर मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए. वह मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. आशा के स्पर्श में एक अपनापन था, एक विश्वास था.
प्लास्टर के खुलते ही मैं अस्पताल जाने लगा, मेरी दिनचर्या फिर से शुरू हो गई. एक दिन ताऊजी मिलने चले आए. उन्होंने ही बताया कि मेरी मां के दूसरे पति को दिल का दौरा पड़ा है. तीनों बच्चे अमेरिका में हैं और ऐसी हालत में वह अकेली है. वे सोचते हुए से बोले, ‘‘कुशल, तुम्हें अपने पिता से मिलना चाहिए.’’