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Writer- लीला रूपायन

तो साहब, मुसीबत आ ही गई. इधर परिवार बढ़ा, उधर वृद्धावस्था बढ़ी. हम ने अपनेआप को बिलकुल ढीला छोड़ दिया. सोचा, जो कुछ किसी को करना है, करने दो. अच्छा लगेगा तो हंस देंगे, बुरा लगेगा तो चुप बैठ जाएंगे. हमारी इस दरियादिली से पति समेत सारा परिवार बहुत खुश था. बेटेबहुएं कुछ भी करें, हम और उत्साह बढ़ाते. हुआ यह कि सब हमारे आगेपीछे घूमने लगे. हमारे बिना किसी के गले के नीचे निवाला ही नहीं उतरता था. हम घर में न हों तो किसी का मन ही नहीं लगता था. हम ने घर की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और पति के साथ घूमने की, पति को खुश करने की पूरी आजादी उन्हें दे दी थी. नौकरों से सब काम वक्त पर करवाती और सब की पसंद का खयाल रखती. हमारा खयाल था, यही तरीका है जिस से हम, सब को पसंद आएंगे. प्रभाव अच्छा ही पड़ा. हमारी पूछ बढ़ गई. हम ने सोचा, लोग यों ही वृद्धावस्था को बदनाम करते हैं. उन्हें वृद्ध बन कर रहना ही नहीं आता. कोई हमें देखे, हम कितने सुखी हैं. सोचती हूं, वृद्धावस्था में कितना प्यार मिलता है. कमबख्त 10 साल पहले क्यों नहीं आ गया.

हमारे व्यवहार और नीति से हमारे बेटे बेहद खुश थे. वे बाहर जाते तो अपनी बीवियों को कह कर जाते, ‘‘अजी सुनती हो, मां को अब आराम करने दो. थक जाएंगी तो तबीयत बिगड़ जाएगी. मां को फलों का रस जरूर पिला देना.’’ और हमारी बहुएं सारा दिन हमारी वह देखभाल करतीं कि हमारा मन गदगद हो जाता. ‘सोचती, ‘हमारी सास भी अपनी आंखों से देख लेतीं कि फूहड़ बहू सास बन कर कितनी सुघड़ हो गई है.’ हमारा परिवार बढ़ने लगा. हम ने सोचा, अब फिर समय है मोरचा जीतने का. अपनी बढ़ती वृद्धावस्था को बालाए ताक रख कर हम ने फिर से अपनी मोरचाबंदी संभाल ली. बहू से कहती, ‘‘मेहनत कम करो, अपना खयाल अधिक रखो.’’ थोड़ा नौकरों को डांटती, थोड़ा बेटे को समझाती, ‘‘इस समय जच्चा को सेवा और ताकत की जरूरत है. अभी से लापरवाही होगी तो सारी जिंदगी की गाड़ी कैसे खिंचेगी?’’ और हम ने बेटे के हाथ में एक लंबी सूची थमा दी. मोरचा फिर हमारे हाथ रहा. बेटे ने सोचा, मां बहू का कितना खयाल रखती हैं.

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