न करें सेना का इस्तेमाल

लड़ाई की लाठियां बजाना आसान है पर देशों के लिए लड़ाई उतनी ही महंगी होती है जितनी 2 किसानों के लिए जो खेत की हदबंदी पर झगड़ रहे हों. भारतीय सेना पर देश को भरोसा है पर यह भरोसा तभी तक कायम रह सकता है जब तक देश सेना को खासा पैसा देता रहे. खाली पेटों से लड़ाइयां नहीं लड़ी जातीं. देश की जातिप्रथा का छिपा मतलब हमेशा यही रहा है कि पिछड़ों व दलितों को हमेशा खाली हाथ रखो ताकि वे कभी भी पंडों, बनियों, राजपूतों के खिलाफ न खड़े हो सकें.

भारत पाकिस्तान दोनों की सेनाओं के साथ यही हाल है. पाकिस्तान के पास भारत से कम पैसा है पर उसे लगातार अमेरिका, सऊदी अरब, चीन से पैसा मिलता आया है. भारत के नेताओं की अकड़ कुछ ज्यादा रही है और इसलिए सैनिक सहायता हमेशा न के बराबर मिली है. सेना के लिए देश को पेट काट कर सामान खरीदना पड़ा है और अगर राफेल हवाई जहाज यूपीए सरकार ने पहले नहीं खरीदे और मोदी सरकार ने भी आखिर में फैसला किया तो इसलिए कि पैसा दिख नहीं रहा था.

सेना की अपनी जानकारी के हिसाब से पिछले 1 साल में वायु सेना ने अरबों रुपए की लागत के 16 हवाईजहाज दुर्घटनाओं में तकनीकी खराबियों की वजह से खो दिए. इन में 2 मिग बाइसन, 2 जगुआर, 2 मिग 27, मिराज हैलीकौप्टर, 2 हौक, कई ट्रांसपोर्ट हवाईजहाज शामिल हैं. इतने हवाईजहाजों का गिरना और उन में सैनिकों का बिना युद्ध के मरना एक खतरे की घंटी है. मिगों को तो उड़ते ताबूत कहा जाने लगा है. ये रूसी विमान बनावट में ही कमजोर हैं पर चूंकि दूसरे देशों से अच्छे मिल ही नहीं रहे, इन्हें खरीदना पड़ रहा है.

भारत पुराने हवाई जहाज कैरियर व पनडुब्बियां ही खरीद पा रहा है. अब पुराने मिग 29 खरीदने की बात चल रही है. सैनिकों की राइफलें पुरानी हैं. अभी अमेठी में राइफल कारखाने का उद्घाटन करते हुए नरेंद्र मोदी ने यह बात मानी है. सैनिकों के वेतनों व पैंशनों का मामला अटका रहता है. उन्हें अच्छा खाना नहीं मिल पाता. छावनियों की शक्लों को देखें तो पता लग जाएगा कि ज्यादातर बिल्डिंगें अंगरेजों के जमाने की हैं.

एक गरीब देश के लिए सेना पर खर्चा करना आसान नहीं है. उत्तर कोरिया ने इसी वजह से अमेरिका से समझौता किया. जर्मनी और जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जम कर विकास किया क्योंकि सेना पर खर्च नहीं किया. हमारे यहां सोशल मीडिया पर हल्ला मचाया जा रहा है मार दो, जला दो, खात्मा कर दो, बिना यह सोचे कि इस की कीमत क्या है. मोदी कहते हैं घर में घुसघुस कर मारेंगे, पर किसलिए और किस कीमत पर.

हम देश में गाय को बचाने पर ज्यादा खर्च करने लगे हैं, मंदिरों, कुंभों, आश्रमों, पूजाओं पर भयंकर खर्च कर रहे हैं पर सेना के लिए जेब खाली है. अगर जेब में पैसे नहीं, जो पाकिस्तान के पास भी नहीं, तो लोगों का खयाल रखें. उन्हें लड़ाई के लिए न उकसा कर काम के लिए तैयार करें. सरकार अपनी फाइलों की सुरक्षा करे, धर्म की सुरक्षा के नाम पर सेना का इस्तेमाल करना बंद कर दे तो ठीक रहे.

उत्तर प्रदेश, बिहार और लोकसभा चुनाव साल 2019 के आम चुनाव बिहार व उत्तर प्रदेश के लिए काफी अहमियत रखते हैं. देश के सब से ज्यादा गरीब यहीं बसते हैं और गंगा नदी के बावजूद सदियों से उन की बीमारी, गरीबी, भूख, टूटे मकानों में कोई फर्क नहीं आया है. पगपग पर बिखरे मंदिरों के बावजूद यहां के लोगों की फटेहाल हालत दूर से दिख जाती है.

अगर रेल से सफर कर रहे हों तो गांव के बाद गांव और शहर के बाद शहर कूड़े के बीच बेतरतीब मकान दिखेंगे और उन के बीच आदमी जानवरों की तरह रहते दिखेंगे. ये राज्य वही हैं जहां से मुगलों ने 250 साल राज किया. इन्हीं 2 राज्यों का गुणगान हर शास्त्र में है पर इन की गरीबी यहां से आने वाले प्रधानमंत्रियों, मंत्रियों, राष्ट्रपतियों के होते दूर नहीं हुई. वजह साफ है. ये दोनों राज्य गलत नेताओं को चुनते रहे हैं और जब भी उन्होंने सही नेता चुन लिया तो वह बिगड़ते देर नहीं लगाता.

यह बिगड़ना भ्रष्टाचार नहीं है. भ्रष्टाचार से तो थोड़ा सा नुकसान होता है, कुछ सौ करोड़ों का. असल नुकसान उस निकम्मेपन से होता है जो यहां के नेता अपने लोगों पर थोपते हैं. चुनाव में जो भी जीते उस से यही उम्मीद की जाती है कि वह नौकरी लगवा दे, ठेका दिलवा दे. इस के लिए उस की पूजा की जाती है, जैसे गंगा जमुना मैयाओं की की जाती है. मेहनत करना न नेता जानते हैं, न बताना चाहते हैं. घोर ब्राह्मणवादी सोच इतनी गहरी है कि चाहे समाजवादी लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल हो या अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी या फिर मायावती की बहुजन समाज पार्टी, सब को मंदिरों और पूजा की लगी रहती है.

नरेंद्र मोदी ने गुजरात छोड़ कर यों ही बनारस को चुनाव लड़ने के लिए नहीं अपनाया है. यहीं तो बिहार व उत्तर प्रदेश का दिल है जो आज भी पुरानी सोच, जातिवाद, पाखंड का जहरीला खून दोनों राज्यों में बहाता है. न भाजपा, न कांग्रेस इस सोच या इस तरह की राजनीति को बदलने की बात भी कर रही हैं जो यहां के लोगों को बदबूदार दलदल से निकालने की हो. उलटे भाजपा तो फिर अयोध्या में राम मंदिर का मामला उठा कर दलदल में धकेलने की बात कर रही है.

इन दोनों राज्यों ने पिछले 20-25 सालों में कई तरह की सरकारें देखी हैं पर सब का रवैया एक ही सा है. इन्हीं दोनों राज्यों के लोग दुनियाभर में जा कर नाम और पैसा कमाते हैं पर यहां अपने देश, अपने राज्य में नेताओं की सड़ी सोच की वजह से सड़ी जिंदगी जीने को मजबूर हैं. ये नेता लखनऊ और पटना में ही नहीं हैं, हर गांव में हैं. एक और चुनाव इन दोनों राज्यों की हालत नहीं बदलेगा. अगर यही लोग रहे तो पक्का है कि तीर्थों का उद्धार होगा, जनता को पाताल में ही जगह मिलेगी.

जनता का समय

23 मई को जनता का फैसला सुनाए जाने तक कम से कम सरकारी विज्ञापनों के खोखले वादों से तो छुटकारा मिलेगा. चुनाव आयोग की आदर्श आचार संहिता लागू होने के पहले के सप्ताहों में सरकार ने जिस तरह विज्ञापनबाजी की है वह अभूतपूर्व है. उस ने समाचारपत्रों में एक एक दिन में 10-10, 12-12 पृष्ठों के विज्ञापन छपवा कर जनता पर मानसिक प्रहार किया है. विरोधी दलों के पास तो सरकारी खजाना नहीं था,  सो, वे बेचारे मन मसोस कर रह गए.

अब 60 दिनों तक जो सरकारी शांति रहेगी, वह जनता को मौका देगी कि वह, क्या सही था क्या गलत था, का फैसला कर सके. 2014 में हिंदूवादी लहर बनाने के साथ ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’, ‘15 लाख रुपए खाते में आएंगे’, ‘भ्रष्टाचारमुक्त भारत बनाएंगे’, ‘सब का साथ सब का विकास’ आदि नारों और नरेंद्र मोदी के नए तरीके के धुआंधारी भाषणों के बल पर जीत कर आई भारतीय जनता पार्टी से जनता को उम्मीदें थीं. भाजपा के कट्टर हिंदू तेवरों से जो डरे थे वे भी एक नए तरह के बेहतर शासन की उम्मीद कर रहे थे.

चुनाव आयोग के मौडल कोड औफ कंडक्ट लागू होने के बाद के ये 60 दिन तय करेंगे कि 2019 में अब जनता का फैसला क्या है? जनता हमेशा सही होती है, यह जरूरी नहीं. जनता ने खुशी खुशी से हमारे ही देश में भी और कई दूसरे देशों में भी बेईमानों, झूठों, विघटनकारियों को चुना है. कितने ही परिपक्व लोकतंत्र गलत नेताओं के हाथों में सौंपे जा चुके हैं. कितने ही देशों में जनता ने तानाशाहों को खुशी खुशी वोट दिया है. जनता ने धार्मिक, देशप्रेम, बराबरी के नारों में उलझ कर गलत सरकारें बनाई हैं.

भारत का लोकतंत्र कोई अलग नहीं है. यहां का मतदाता जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण, पैसे, रिश्वत के आधार पर वोट देता है. ज्यादातर मामलों में उसे मालूम ही नहीं है कि सही क्या है, गलत क्या है. जनता की राय सही हो, यह कोई गारंटी नहीं है. वहीं, इस के अलावा कोई और उपाय भी नहीं है सरकारें बनाने का. राजाओं के दिन लद गए हैं और सभी लड़ाकू राजा अच्छे प्रबंधक साबित नहीं होते.

अच्छे वक्ता अच्छे शासक नहीं होते. अच्छे शासक पूरी बात साफ शब्दों में कह सकें, जरूरी नहीं. जनता को तो उसी आधार पर वोट देना होगा जो वह सुनेगी, देखेगी या महसूस करेगी. ये 60 दिन जनता के लिए मनन करने के हैं. पर जनता में सही फैसला लेने की क्षमता हो, यह जरूरी नहीं.

भाजपाई तीर…

भारतीय जनता पार्टी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन होने के बाद भी उन पार्टियों पर ऐसे तीर नहीं छोड़ रही जैसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर छोड़ रही है. जिन्हें जातिवादी और विभाजक कह कह कर गालियां दी जाती थीं उन पर भाजपा की ट्रौल फौज चुप है और रातदिन केवल राहुल गांधी और सोनिया गांधी का मखौल उड़ाने की कोशिशें हो रही हैं. हालांकि, ये कोशिशें अब अपने खिसकते समर्थकों को बचाने के लिए हैं, दूसरों को भाजपा में लाने के लिए नहीं.

मायावती और अखिलेश का प्रभाव केवल उत्तर प्रदेश में है. दलित होने के कारण दूसरे राज्यों में मायावती इक्कादुक्का विधायकों या कौर्पोरेशनों में 5-7 पार्षदों को ही जिता पाती हैं. देशभर के दलितों में वे गहरी पैठ नहीं बना पाईं. दूसरे राज्यों में दलित या तो राज्य तक सीमित रहने वाली पार्टी को वोट देते हैं या फिर कांग्रेस से जुड़े हैं.

उत्तर प्रदेश में दम ठोकने वाली समाजवादी पार्टी का भी यही हाल है. मुलायम सिंह ने कभी इसे उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं फैलाया और उन का समर्थन कई राज्यों में कांग्रेस के साथ है, तो कई राज्यों में किसी स्थानीय पार्टी के साथ.

उत्तर प्रदेश अकेला राज्य है जहां दलितों व पिछड़ों की पार्टियां हैं और दोनों ने कईकई बार राज भी किया है. प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता में या उस के करीब भी आए अरसा हो चुका है.

मायावती और अखिलेश यादव के खिलाफ सोशल मीडियाई मोर्चा न खोलना भाजपा के लिए संकट पैदा करेगा क्योंकि 80 सीटों पर मुख्य मुकाबला तो उन्हीं के गठबंधन से है. चुनावी नतीजों के बाद उन्हीं से मिलना न पड़े, इस के लिए उन पर हमला न किया जाए, चुनावी जंग में यह भी संभव नहीं है.

यह देश ऐसा है जहां वक्त पर गधे को बाप बनाना बुद्धिमानी मानी जाती है और जहां पौराणिक गाथाओं में दुश्मनों को पटाना या वक्त पर जी हुजूरी करना धर्मयुत है. अमृतमंथन में भी यही हुआ था जिस में विष्णु के 2 अवतार बने थे- कश्यप व मोहिनी. तीसरे अवतार शिव ने जहर पिया था. अब जहां अवतारों ने पहले दस्युओं के साथ काम करने पर और बाद में उन्हें धोखा देने पर मुहर लगा दी हो, वहां उन को हजारों साल बाद पूजने वाले कैसे गलत हो सकते हैं?

सत्ता के अमृतमंथन में कब, किस की जरूरत पड़ जाए, यह नहीं कहा जा सकता. इसलिए मायावती और अखिलेश यादव फिलहाल भाजपा की ट्रौल आर्मी की गोलियों से बचे हैं. आने वाले दिनों में पता चलेगा कि मोहिनी अवतार बन कर अमृत का घड़ा धोखे से छीन कर कैसे देवताओं के हाथों में आता है. पुराणों में ब्लूप्रिंट तैयार है.

बेरोजगारी बेलगाम?

राष्ट्रीय सैंपल सर्वे औफिस आजकल विवादों के तूफान में घिरा है क्योंकि उस की रिपोर्ट, जिसे मोदी सरकार जारी करने से कतरा रही है, कहती है कि युवाओं में 2011-12 के मुकाबले 2017-18 तक बेरोजगारी में 3 गुना वृद्धि हो गई है. करोड़ों नौकरियां पैदा कर के देश में सब का विकास करने का वादा कर के जीती भाजपा के लिए ये आंकड़े शर्मिंदगी पैदा करने वाले हैं, इसलिए वह इन्हें जारी करने में हिचकिचा रही है. सर्वे औफिस कहता है कि ये आंकड़े सरकार की अनुमति के बिना जारी किए जा सकते हैं.

देश में युवाओं में बेकारी तेजी से बढ़ रही है. गांवों में युवाओं की तादाद बहुत ज्यादा है. वे थोड़ाबहुत पढ़ कर बेरोजगार बने हुए हैं. वे सब सरकारी नौकरी चाहते हैं क्योंकि उन्होंने और उन के मातापिताओं ने देखा है कि पढ़लिख कर सरकारी बाबू बन कर लोग दिनभर मौज उड़ाते हैं और शाम को रिश्वत का पैसा घर लाते हैं. गांवों के आज के युवा न खेतों में काम करना चाहते हैं न कारखानों में.

खेतों और कारखानों में काम भी अब कम हो गया है. पहले नोटबंदी ने मारा, फिर जीएसटी ने. ऊपर से चाइनीज सामान बाजार में छा गया, क्योंकि उस के लिए विदेशी मुद्रा विदेशों में काम कर रहे भारतीय मजदूर अपने डौलर व दिरहम हवाईजहाज भरभर कर भेज रहे हैं. नई तकनीकों की वजह से खेतों और कारखानों में नौकरियां कम होने लगी हैं.

रिपोर्ट कहती है कि बेकारी का आंकड़ा जो अब है वह 45 सालों में सब से ज्यादा है. रेलवे क्लर्कों या पटवारियों की कुछ ही नौकरियों के लिए लाखों आवेदन मिलते हैं. सरकार के लिए तो आवेदन सिर्फ कागज भर होता है पर जिस ने आवेदन किया होता है वह रातदिन इसी का सपना देखता रहता है और उस का किसी और काम में मन नहीं लगता. वह परिवार व देश पर बोझ होता है और सरकार के लिए मात्र एक गिनती.

देश में बढ़ते अपराधों, गौरक्षकों, मंदिरों में पूजापाठ के पीछे यही बेकारी है. बैठे ठाले युवा कहीं से भी पैसा जुटाना चाहते हैं और वे कुछ भी कर लेते हैं. शिक्षा ने उन्हें थोड़ा समझदार बना दिया है, लेकिन इतना नहीं कि वे खुद अपने बल पर कारखाने खड़े कर सकें.

सरकार सफाई दे रही है कि नौकरियां हैं पर कम पैसे वाली हैं. यह बड़ी लचर दलील है. नौकरी वह होती है जो संतोष दे, घर चलाने के लायक हो और नौकरी पाने के बाद युवा किसी और सपने की आरे न भटके. सरकार इन युवाओं को नौकरी नहीं दे सकती क्योंकि उस ने तो मान लिया है कि नौकरी भाग्य से मिलती है, पूजापाठ से मिलती है, हिंदू धर्म की रक्षा से मिलती है, गांधी परिवार को दोष देने से मिलती है. अमित शाह और नरेंद्र मोदी के बयानों को सुन लें, तो कहीं काम की कहानी नहीं मिलेगी, सिर्फ मंदिर, कुंभ, नर्मदा यात्रा, संतोंमहंतों की बातें मिलेंगी.

चुनाव से एकदम पहले आए आंकड़े विपक्षियों के लिए सुखद हैं पर बेकारी की समस्या का हल उन के पास भी नहीं है.

सोशल मीडिया और झूठ

फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप ने झूठ का प्रचार करने में धर्मों को भी मात दे दी है. हर धर्म को अपने झूठ को ही अंतिम सत्य साबित करने में 100-200 या इस से भी ज्यादा साल लगे हैं, पर इन हाईटैक कंपनियों ने झूठ को सच मानने की आदत कुछ सालों में ही डलवा दी.

धर्मों की खबर फैलाने में लंबा समय लगता था. जिस ने झूठ गढ़ा उसे अपने आसपास के 10-20 लोगों को झूठ दूत बना कर दूसरी जगह भेजना पड़ता था, जिस में महीनों लगते थे. लेकिन आज के टैक प्लेटफौर्मों पर झूठ तैयार करो, और घंटों में दुनिया के कोनेकोने में पहुंचा दो. अगर वहां झूठ को सच मानने वाले मिले तो वह वायरल हो कर कुछ ही दिनों में सदासदा के लिए सच बन जाता है.

फर्क यह रहा है कि धार्मिक झूठ ने पक्की जमीन ली थी. उसे जिस ने माना अंतिम सत्य मान लिया और उसे झूठ कहने वाले का सिर काट दिया या अपना कटवा लिया. पर झूठ को झूठ नहीं माना. लेकिन हाईटैक झूठ की पोल तेजी से खुलने लगी और अब फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप के लिए खतरे की घंटी बज रही है कि उन पर भरोसा किया जाए या नहीं.

अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया का जम कर फायदा उठाया क्योंकि वहां के गोरों को डर था कि काले, भूरे, सांवले, पीले लोग उन के देश पर कब्जा न कर लें. भारत में 2014 में विकास और अच्छे दिनों के पीछे दलितों, पिछड़ों की बढ़ती तादाद और ताकत डरा रही थी. दोनों जगह चुनावों में इस स्पैशल मीडिया पर जम कर झूठ फेंका गया. अब टैक कंपनियां थोड़ी सावधान हुई हैं. फेसबुक ने अब संदेश पढ़ने शुरू कर दिए हैं और उस ने उन के अकाउंट बंद करने भी शुरू कर दिए हैं जो भ्रामक झूठ या घृणा फैलाने में माहिर हैं. मतलब यह है कि अब फेसबुक की चिट्ठी डाकिया पढ़ने लगा है और यदि उसे लगे कि उस में गलत बातें हैं तो वह चिट्ठी दबा सकता है और भेजने वाले या पाने वाले को बैन कर सकता है.

फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप और गूगल अब सरकारों से ज्यादा ताकतवर हो गए हैं. वे पार्टियों के ऊपर हैं. वे जनता के अकेले मार्गदर्शक हैं जबकि उन्हें जनता के भले की नहीं, अपने पैसों की चिंता है. वे पैसा मिले तो हर झूठ को फैला देंगे, न मिले तो सच को झूठों के अंबार के नीचे दबा देंगे.

लोग इस की भारी कीमत चुकाने लगे हैं. आज अज्ञान और गलत ज्ञान जम कर फैल रहा है जबकि विज्ञान पिछड़ रहा है. नतीजा यह है कि लोग चुटकुलों से जीवन जीना सीख रहे हैं, पोर्न से साथी बना रहे हैं, मोबाइल के कैमरे से खींची अंतरंग तसवीरों को इन टैक प्लेटफौर्मों से फैलाने की धमकियां दे कर अपनी बात मनवा रहे हैं. इन का असर गलत सरकार चुनने से ले कर घर, परिवार और संबंधों में गलतफहमी पैदा करने तक पर पड़ रहा है.

मजबूत देश बनाएं

यदि अमेरिका चाहता तो उत्तरी कोरिया द्वारा पहले परमाणु बम बनाने पर ही उस पर हमला कर देता पर एक के बाद एक राष्ट्रपतियों ने उत्तरी कोरिया पर केवल आर्थिक प्रतिबंध लगाए. इस बार अमेरिका के खब्ती राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कोरिया के नेता किम जोंग उन को सिंगापुर के होटल में फेसटूफेस मीटिंग के लिए आने पर मजबूर किया.

इसी तरह कश्मीर समस्या का हल आर्थिक है, सैनिक नहीं. जो लोग गुर्रा रहे हैं कि मार दो, चीर दो, हमला कर दो, युद्ध कर दो वे इतिहास, वास्तविकता और व्यावहारिकता से परे हैं. देश ने हत्या करने वालों की फौज खड़ी कर ली है जिन्होंने 2014 में कांग्रेस को पप्पू की पार्टी साबित कर के भाषणचतुर नरेंद्र मोदी को जितवा दिया था. यह फौज सोचती है कि ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सऐप के जरिए वह पाकिस्तान को डरा देगी. वह यह भी सोचती है कि जैसे तार्किक, समझदार लोगों को अरबन नक्सलाइट कह कर उन का मुंह बंद कर दिया वैसे ही सभी कश्मीरियों को गौहत्यारों जैसा अपराधी बना देगी.

कश्मीर को और पाकिस्तान को कड़ी मेहनत व आर्थिक विकास से जीता जा सकता है. आज पाकिस्तान और भारत के कट्टर एकजैसा व्यवहार कर रहे हैं और दोनों ही तरफ ऐसे लोग भी सत्ता में हैं जिन के लिए आर्थिक विकास नहीं, धमकीभरे बयान सही हैं.

1920 और 1940 के बीच जरमनी ने हार के बावजूद सैकड़ों हवाई जहाज, हजारों टैंक, लाखों बंदूकें बना ली थीं क्योंकि उस के उद्यमियों ने रातदिन मेहनत कर के एक मजबूत आर्थिक देश को जन्म दिया था. हिटलर बकबक करता रह जाता अगर उस के पास वे जहाज, वे लड़ाकू विमान, वे फौजी सामान नहीं होते जिन से उस ने चारों ओर एकसाथ फैलना शुरू कर दिया था.

कई देश, जिन में इंग्लैंड तक शामिल था, हिटलर के जरमनी की आर्थिक शक्ति से डरे हुए थे. उस इंग्लैंड ने चेकोस्लोवाकिया को हिटलर को भेंट में दे डाला था जिस का साम्राज्य दुनियाभर में था.

आज भारत के पास ऐसा कुछ नहीं है कि वह सिर उठा कर पाकिस्तान से या पाकिस्तान से हमदर्दी रखने वाले थोड़े से कश्मीरियों से कह सके कि भारत उन्हें सुख, समृद्धि व सुरक्षा सब देगा. मुख्य भारत अपनेआप में कराह रहा है. कश्मीरियों के साथ भेदभाव तो छोडि़ए, हम तो अपने उस वर्ग को भी जो

85 फीसदी है, खुश नहीं रख पा रहे. हमारे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, युवा बेरोजगारी से त्रस्त हैं.

पाकिस्तान को करारा जवाब देना है तो भारत को आर्थिक महाशक्ति बनना होगा, केवल ज्यादा जनसंख्या के बल पर नहीं, प्रतिव्यक्ति ज्यादा उत्पादन के बल पर. सेना भी तभी मजबूत होगी जब उस के लायक भरपूर पैसा होगा. आज हम विदेशों द्वारा कबाड़ में पड़े हवाई जहाज, एयरक्राफ्ट कैरियर, सबमैरीन खरीद रहे हैं, अपने नहीं बना पा रहे. यह ट्विटर वाली फौज लोहे को पीट कर टैंक बनाना नहीं जानती.

आज इस तरह का माहौल बना दिया गया है कि जो थोथे नारे न लगाए उसे देशद्रोही मानना शुरू कर दिया जाता है. व्यावहारिक बात करने वाले को लिबटार्ड कह कर गाली दी जाती है, उस के खिलाफ बेमतलब की एफआईआर दर्ज करा दी जाती है ताकि वह जेलों या अदालतों में सड़े.

पुलवामा का बदला मजबूत देश बना कर लेना होगा, एक मजबूर सरकार को युद्ध में बलि चढ़ाने से नहीं. गरीब देश के गरीब सैनिक कितना लड़ सकते हैं. उन्हें आर्थिक व तकनीकी ताकत दो.

बिल्डर ही बदनाम क्यों

अपना घर चाहे सिर्फ 500 फुट का हो, हर साल, सालदरसाल सपना बनता जा रहा है. देशभर में बनते मकानों को देख कर गृहिणियां सोचती हैं कि किसी दिन उन का भी अपना एक मकान होगा पर लगता है कि यह सपना उसी तरह का वादा है जैसे पंडितजी कहते हैं कि 21 बृहस्पतिबार को व्रत रखो, अच्छा पति अपनेआप मिल जाएगा.

जिद्दी सरकार, लालची बैंक, अस्थिर बाजार, बेईमान बिल्डर, ढुलमुल ग्राहक और अदालतों में देरी के कारण जो नुकसान हो रहा है वह औरतों के सपनों का है. जिन्होंने येन केन प्रकारेण मकान हथिया लिए वे तो खुश हैं पर बाकी मनमसोस रहे हैं. लाखों लोगों ने तो अपनी जमापूंजी भी लगा रखी है और महीनों बैंक को कर्ज व मूल भी देते हैं पर उन्हें मकान नहीं मिला है. देश के 11,000 बिल्डरों पर किए गए एक सर्वे से पता चला है कि 7,77,183 करोड़ रुपए के अधूरे मकान पड़े हैं जो कहीं पैसे की वजह से, कहीं बिल्डरों का दिवाला निकलने के, तो कहीं सरकारी नियमों के कारण पूरे बन कर बिक नहीं सके हैं.

इन बिल्डरों ने बैंकों के 4 लाख करोड़ रुपए देने हैं और इतने ही ग्राहकों के भी दबा कर बैठे हैं. दिल्ली के पास आम्रपाली गु्रप के हजारों मकान सुप्रीम कोर्ट ने बिल्डरों से ले कर नैशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कौरपोरेशन को दे दिए हैं पर इस सरकारी कंपनी का अपना रिकौर्ड खराब है. इस में भयंकर नुकसान और भ्रष्टाचार होता है. इस के ग्राहकों को अपना पैसा या मकान मिलेगा, यह भूल जाएं.

जो लोग पहले छोटे मकानों में रह कर पैसा बचा कर अपना बड़ा और अच्छा मकान बनाने की सोचते थे उन्होंने पैसा खर्चना शुरू कर दिया है और मकानों की मांग कम हो गई है. मुंबई में मकानों के दाम सालभर में 7% तक गिर गए हैं.

अपना मकान होना सपना ही नहीं, घर को सुरक्षा भी देता है. यह शान की नहीं, काम की बात है. बच्चों को अपने मकान में परमानैंट दोस्त मिलते हैं, कल को शादी करने में लाभ रहता है. अपने मकान पर पढ़ाई के लिए लोन मिल जाता है, किराए के मकान पर नहीं. अपना मकान दिलवाना सरकार का काम तो नहीं पर रोक तो न लगाए. अगर बिल्डर कुछ बेईमानी करते हैं, नियमों की अवहेलना कर के ज्यादा बना लेते हैं तो क्या हरज है? देश में नियमों से कौन चल रहा है? न सुप्रीम कोर्ट, न सीबीआई, न प्रधानमंत्री का कार्यालय, न राष्ट्रपति भवन. कोई भी ढंग का है? तो फिर बिल्डर ही क्यों बदनाम हों? जबकि उन का असर हर औरत, हर घर, हर बच्चे पर पड़ता है.

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