एक नई पहल- भाग 2

लेखक- नीलमणि शर्मा

पूर्व कथा

एक दिन शाम को मेघा, मालिनी को पार्क में बैठे 2 वृद्ध अजनबियों को दिखा कर उन के रिश्ते का मजाक उड़ाती है. मालिनी के समझाने पर मेघा नाराज हो कर चली जाती है. तभी उसे बचपन की एक घटना याद आ जाती है.

मालिनी की सहेली रेणु बताती है कि गुड्डन की दादी और आरती के दादाजी के बीच कुछ चक्कर है. अत: वृद्धों के परिवार वाले उन को बुराभला कहते हैं. इस बदनामी को आरती के दादाजी सहन नहीं कर पाते और आत्महत्या कर लेते हैं.

डोरबेल की आवाज सुन कर मालिनी अतीत की यादों से बाहर निकलती है. अगले दिन बेटी के कोचिंग क्लास जाते ही वह पार्क में उस जगह पर जाती है जहां दोनों वृद्ध बैठते थे. पहली ही मुलाकात में वृद्धा यानी मिसेज सुमेधा बताती हैं कि वह रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं. हालांकि बेटेबहू उस का बहुत खयाल रखते हैं, लेकिन कामकाजी होने के कारण ज्यादा व्यस्त रहते हैं. बेटी की शादी हो चुकी है और उन्हें मेरी सोशल सर्विस पसंद नहीं है. बातों ही बातों में मालिनी उन के पति के बारे में पूछती है तो वह बताती हैं कि पति को मरे 20 साल हो गए हैं जिन्हें तुम मेरे साथ बैठे देखती हो वह तो शर्माजी हैं.

फिर वह शर्माजी के बारे में बताती हैं कि उन की पत्नी का देहांत हो गया है वह भी अकेले हैं. नौकरीपेशा होने के कारण बेटेबहू समय नहीं दे पाते. इसीलिए खाली समय व्यतीत करने के लिए पार्क में आते हैं. जैसे बच्चों को बच्चों का साथ अच्छा लगता है वैसे ही बुजुर्गों को बुजुर्गों की संगति अच्छी लगती है.

मालिनी और मिसेज सुमेधा बातों में व्यस्त रहती हैं तभी सामने से शर्माजी आ जाते हैं सुमेधा आंटी और अब आगे…

अंतिम भाग

गतांक से आगे…

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‘‘इन से मिलिए. ये हैं, मिसेज मालिनी अग्रवाल, यहीं सामने के फ्लैट में रहती हैं और बेटा, ये हैं मि. शर्मा…रिटायर्ड अंडर सेके्रटरी.’’

हम दोनों में नमस्ते का आदानप्रदान हुआ और मैं वहां से चल दी.

उसी शाम मुझे अपने ससुर की बीमारी का पता चला और मैं लखनऊ चली गई. पूरे 7 दिन वहां लग गए. वापस आई तो थकान के कारण मेरा पार्क में जाने का मन नहीं हुआ सो मैं बालकनी में ही खड़ी हो गई. देखा, आज बैंच पर सुमेधा आंटी नहीं हैं. और शर्माजी को पार्क के गेट के बाहर जाते देखा. इस का मतलब आज आंटी आई ही नहीं…एक अनजाना सा भय मन में आया और मैं भाग कर नीचे उतर आई और सड़क तक पहुंच चुके शर्माजी को आवाज दे दी.

शर्माजी से पता चला कि आंटी की तबीयत ठीक नहीं है.

‘‘अंकल, उन के घर का पता…फोन नंबर…कुछ है आप के पास?’’

‘‘हां, बेटा है तो लेकिन…चलो, तुम तो फोन कर ही सकती हो. बात कर के मुझे भी बताना.’’

मैं ने फोन कर के सुमेधा आंटी से मिलने की इच्छा जाहिर की. अगली सुबह घर के कामों से फ्री हो कर मैं उन का पता ढूंढ़ते हुए उन के घर पहुंच गई. आंटी का घर बहुत ही खूबसूरती से सजा हुआ था. अभी मैं उन का हालचाल पूछ ही रही थी कि अंदर से एक महिला निकली.

‘‘जूही, इन से मिलो, यह मालिनी अग्रवाल हैं और बेटा, ये मेरी बहू जूही है.’’

जूही ने मुसकरा कर ‘हैलो’ कहा और मेरे लिए चायनाश्ता रख कर चलने लगी तो बोली, ‘‘अच्छा ममा, चलती हूं, 3 बजे मीटिंग है, उस की तैयारी करनी है. रात के लिए मैं ने मीना को बोल दिया है. आप को जो खाना हो बनवा लीजिएगा. प्लीज ममा, रेस्ट ही कीजिएगा,’’ और मुझे अभिवादन कर के वह चल दी.

जितनी देर मैं वहां बैठी, आंटी उतनी देर शर्मा अंकल के बारे में ही पूछती रहीं कि वे कैसे हैं…उन्हें कह देना मेरी चिंता न करें…मैं ठीक हो जाऊंगी. फिर अंत में हिचकते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, मेरी ओर से तुम शर्माजी से सौरी बोल देना.’’

मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से आंटी की ओर देखा तो बोलीं, ‘‘3-4 दिन से रोज शर्माजी का फोन मेरा हालचाल जानने के लिए आ रहा था, लेकिन कल जूही ने कुछ तीखातीखा सुना दिया…असल में जूही नहीं चाहती कि मैं पार्क में जाऊं. उसे डर है कि थकान से मेरी तबीयत बिगड़ जाएगी और उधर शर्माजी इतने दिनों से अकेले…उन से कहना कि अब बुखार नहीं है, कमजोरी दूर होते ही मैं पार्क आऊंगी.’’

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‘‘आंटी, शर्मा अंक को यहीं ले आऊं क्या?’’

‘‘क्या तुम ला सकोगी? अच्छा है, मैं बिस्तर में पडे़पडे़ ऊब गई हूं,’’ आंटी की आंखों में आई चमक मुझ से छिपी न रह सकी. यही चमक मैं ने शाम को शर्माजी की आंखों में महसूस की, जब मैं ने उन्हें अगले दिन आंटी के घर चलने के लिए कहा.

अब सुमेधा आंटी ने दोबारा पार्क में आना शुरू कर दिया था. एक शाम जब आंटी पार्क में बैठी थीं, मैं ने उन के घर फोन किया. इरादा था कि नौकरानी से जूही के आफिस का फोन नंबर या उस का मोबाइल नंबर ले लूंगी, कुछ खास बात करनी थी.

जूही देखने में जितनी आकर्षक थी, फोन पर उस की आवाज भी उतनी ही लुभाने वाली लगी. जब मैं ने उसे अपनी उस दिन वाली मुलाकात याद दिलाई और उस से मिलने के लिए वक्त मांगा तो वह हैरान अवश्य हुई लेकिन फौरन ही मुझे अगले दिन लंच टाइम में अपने आफिस आने को कह दिया.

‘‘जूहीजी, आप मुझे सिर्फ एक मुलाकात भर जानती हैं लेकिन मैं ने आप के बारे में आप की सास से काफी तारीफ सुनी है. सच कहूं, जितना मैं ने सोचा था, आप को उस से बढ़ कर पाया है…नहीं…नहीं…यह मैं आप के सामने होने के कारण नहीं कह रही हूं. मैं ने ऐसा महसूस किया है इसीलिए मैं आज आप से कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाई हूं.’’

जूही की हलकी सी मुसकान ने मेरे हौसले को हवा दे दी और मैं ने धीरेधीरे सुमेधा आंटी और शर्माजी की दोस्ती के बारे में उसे विस्तार से बता दिया. साथ ही मैं ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि आज तक सुमेधा आंटी और शर्माजी से मैं ने व्यक्तिगत तौर पर इस बारे में कोई चर्चा नहीं की है, यह सबकुछ मैं ने स्वयं महसूस किया है.

मैं ने नोट किया कि जूही बहुत गंभीरता से मेरी बातों को सुन रही है. बात को आगे बढ़ाते हुए मैं ने कहा, ‘‘देखिए, जूहीजी, आप भी औरत हैं और मैं भी, सोच कर देखिए…सुमेधाजी के मन का खालीपन…आप उन्हें सबकुछ दे रही हैं, जो एक बहू होने के नाते दे सकती हैं…शायद उस से भी ज्यादा लेकिन आज उन के मन ने एक बार फिर वसंत पाने की कामना की है. क्या आप दे सकती हैं?’’

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कुछ पल हम दोनों के बीच ऐसे ही मौन में बीत गए. फिर जूही ने ही बात शुरू की, ‘‘ममा, जानती हैं कि आप यहां…’’

‘‘जी नहीं,’’ मैं ने बीच में बात काट कर कहा, ‘‘इस बारे में कभी भी आंटी के साथ मेरी कोई बात नहीं हुई.’’

‘‘मालिनीजी, एक बात मैं आप से और पूछना चाहती हूं,’’ जूही ने मेरी ओर देख कर कहा, ‘‘आप ने यह बात मुझ से क्यों की, अजय से, मेरा मतलब मेरे हसबैंड से क्यों नहीं की…आफ्टरआल, वह बेटे हैं उन के.’’

‘‘जूहीजी, आप तो जानती हैं, बच्चों के लिए मां क्या होती है, वह भी बेटे के लिए…वह उसे देवी का दर्जा देते हैं…अपनी मां के बारे में इस विषय पर बात करना कोई भी बेटा कभी गवारा नहीं करता. मां की ‘पर पुरुष से दोस्ती’ बेटे के लिए डंक होती है. बहुत ही कठिन होता है उन्हें यह समझाना.

‘‘आप चूंकि उन की पत्नी हैं, आप समझ जाएंगी तो केवल आप ही हैं जो अपने पति को अपने तरीके से समझा पाएंगी. मैं ठहरी बाहर की, मेरा इतना हक नहीं है…आप मेरी हमउम्र हैं, और जैसा मैं ने आंटी से जाना कि खुली विचारधारा की हैं और फिर इस सब के ऊपर आप उन की बहू हैं.’’

‘‘लेकिन शर्माजी अपनी पहली पत्नी को भूल तो नहीं पाए होंगे. ऐसी हालत में मम्मीजी को वह सबकुछ मिल पाएगा?’’

‘‘जूहीजी, आप की इस बात से मुझे आंतरिक खुशी हो रही है कि आप अपनी सास के लिए कितनी चिंतित हैं लेकिन आप भूल रही हैं कि आंटी भी तो अभी तक अपने पति को नहीं भूली हैं. ये भूलने वाली बातें होती भी नहीं हैं…जब तक सांस है, यही यादें तो अपनी होती हैं. ये यादें 2 युवाओं के बीच तो दरार पैदा कर सकती हैं परंतु बुजुर्ग लोग तो अपनीअपनी यादों को भी एकदूसरे से बांट कर ही सुख का अनुभव कर लेते हैं.’’

‘‘लेकिन  शर्माजी के घर वाले…’’ जूही अपने सारे संशय मुझ से बांट रही थी जो सुमेधाजी से उस की आत्मीयता को उजागर कर रहे थे.

अब तक मैं जूही के साथ एक दोस्त की तरह काफी खुल चुकी थी, ‘‘जो काम बच्चों के लिए मांबाप करते हैं, वही काम बच्चों को आज उन के लिए करना होगा, यानी आप पहले अपने पति को मनाएं फिर रिश्ता ले कर शर्माजी के बेटेबहुओं से मिलें…हो सकता है पहली बार में वे लोग मान जाएं…हो सकता है न भी मानें. स्वाभाविक है उन्हें शाक तो लगेगा ही…आप को कोशिश करनी होगी…आखिर आप की ‘ममा’ की खुशियों का सवाल है.’’

एक सप्ताह तक मैं जूही के फोन का इंतजार करती रही. धीरेधीरे इंतजार करना छोड़ दिया. मैं ने पार्क जाना भी छोड़ दिया…पता नहीं सुमेधा आंटी या अंकल का क्या रिएक्शन हो. शायद बात नहीं बनी होगी. पार्क में सैर करने जाने का उद्देश्य ही दम तोड़ चुका था. मन में एक टीस सी थी जिस का इलाज मेरे पास नहीं था. अपनी तरफ से जो मैं कर सकती थी किया, अब इस से ज्यादा मेरे हाथ में नहीं था.

एक दोपहर, बेटी के स्कूल से आने का समय हो रहा था. टेलीविजन देख कर समय पास कर रही थी कि फोन की घंटी बज उठी.

‘‘क्या मालिनीजी से बात हो सकती है?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘जी, बोल रही हूं,’’ मैं ने दिमाग पर जोर डालते हुए आवाज पहचानने की कोशिश की पर नाकाम रही, ‘‘आप कौन?’’ आखिर मुझे पूछना ही पड़ा.

‘‘देखिए, मैं सुमेधाजी का बेटा अजय बोल रहा हूं. आप मेरी पत्नी से क्याक्या कह कर गई थीं…मैं और मेरी ममा आप से एक बार मिलना चाहते हैं…क्या आप शाम को हमारे घर आ सकेंगी?’’

अजय की तल्खी भरी आवाज सुन कर एक बार को मैं सकपका गई, फिर जैसेतैसे हिम्मत कर के कहा, ‘‘देखिए, यह आप के घर का मसला है…’’

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बीच में ही बात काट कर वह बोला, ‘‘जब जूही से आप बात करने आई थीं तब आप को नहीं पता था कि यह हमारे घर का मसला है. खैर, आप यह बताइए कि आप आएंगी या मैं जूही और ममा के साथ आप के घर आ जाऊं? पार्क के सामने वाले फ्लैट में आप का नाम ले कर पूछ लेंगे…तो घर का पता चल ही जाएगा.’’

मैं ने सोचा अगर कहीं ये लोग सचमुच घर आ गए तो बेवजह का यहां तमाशा बन जाएगा. मेरे पति मुझे दस बातें सुनाएंगे. उन से तो मुझे इस मामले में किसी सहयोग की उम्मीद नहीं थी. अब क्या करूं.

‘‘अच्छा, ठीक है…मैं आ जाऊंगी…कितने बजे आना है?’’ हार कर मैं ने पूछ ही लिया.

‘‘7 बजे तक आप आ जाइए.’’

मैं ने अपने पति को इस बारे में बताया तो था लेकिन विस्तार से नहीं. शाम 5 बजे मैं ने पति को फोन किया, ‘‘मुझे सुमेधा आंटी के घर जाना है.’’

‘‘अभी खत्म नहीं हुई तुम्हारी सुमेधा आंटी की कहानी,’’ पति बोले, ‘‘खैर, कितने बजे जाना है?’’

‘‘7 बजे, आतेआते थोड़ी देर हो जाएगी.’’

रास्ते भर मेरे दिमाग में उथलपुथल मची हुई थी. मन में तरहतरह के सवाल उठ रहे थे…अगर उन्होंने मुझे ऐसा कहा तो मैं यह कहूंगी…वह कहूंगी पर क्या मैं ने उन लोगों को गलत समझा…क्या वे ऐसा नहीं चाहते थे…नहीं चाहते होंगे तभी आंटी भी मुझ से बात करना चाहती हैं…

दरवाजा जूही ने खोला था. ‘हैलो’ कर के मुझे सोफे पर बैठा कर वह अंदर चली गई.

उस के पति ने बाहर आते ही नमस्ते का जवाब दे कर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बात शुरू कर दी, ‘‘दिखने में तो आप ठीकठाक लगती हैं, लेकिन लगता है समाज सेविका बनने का शौक रखती हैं. समाजसेवा के लिए आप को सब से पहले हमारा ही घर मिला था?’’

मैं डर गई. मौन रही, लेकिन फिर पता नहीं कहां से मुझ में बोलने की हिम्मत आ गई, ‘‘मि. अजय, इस में समाजसेवा की बात नहीं है. मुझे जो महसूस हुआ मैं ने वह कहा और मेरे दिल ने जो कहा मैं ने वही किया. जब दो प्यार करने वाले लड़कालड़की को उन के मांबाप एक बंधन में खुशीखुशी बांध देते हैं तो बच्चे अपने मांबाप के प्यार को एक होते क्यों नहीं देख पाते? समाज क्यों इसे असामाजिक मानता है? क्या बड़ी उम्र में प्यार नहीं हो सकता? और हो जाए तो कोई क्या करे? प्यार करना क्या पाप है…नहीं…प्यार किसी भी उम्र में पाप नहीं है…वैसे भी इस उम्र का प्यार तो बिलकुल निश्छल और सात्विक होता है, इस में वासना नहीं, स्नेह होता है…शुद्ध स्नेह…

‘‘इतने अनुभवी 2 लोग दूसरे की भावनाओं को समझते हुए संभोग के लिए नहीं, सहयोग के लिए मिलन की इच्छा रखते हैं. इस में क्या गलत है, अगर हम उन की इच्छाओं को समझते हुए उन के मिलन के साक्षी बनें. बच्चों की हर इच्छा पूरी करना यदि मांबाप का फर्ज है तो क्या बच्चों का कोई फर्ज नहीं है? क्या बच्चे हमेशा स्वार्थी ही रहेंगे…बाकी आप की मां हैं, आप जानें और वह…मुझे तो उन से एक अनजाना सा स्नेह हो गया है, एक अजीब सा रिश्ता बन गया है, उसी के नाते मैं ने उन के दिल की बात समझ ली थी…शायद मैं अपनी हद से आगे बढ़ गई थी…’’

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इतना कह कर मैं वहां से चलने को तत्पर हुई तभी अंदर से तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई दी. सामने कमरे के दरवाजे से 3 दंपती तालियां बजाते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश कर रहे थे. सभी के चेहरे पर हंसी थी. अब तक जूही और अजय भी उन में शामिल हो गए थे. मैं समझ नहीं पाई कि माजरा क्या है. तभी उन के पीछे 3-4 छोटेछोटे हाथों का सहारा ले कर सुमेधा आंटी और शर्मा अंकल चले आ रहे थे.

जूही ने मेरे पास आ कर मेरा सब से परिचय करवाया, ‘‘ये शर्मा अंकल के दोनों बेटेबहुएं और ये मेरी प्यारी सी ननद और उन के पति हैं और वह जो तुम देख रही हो न नन्हे शैतान, जो ‘ममा’ के साथ खडे़ हैं, वे शर्मा अंकल के दोनों पोते और पोती हैं और अंकल के साथ मेरी ननद का बेटा और मेरा बेटा है. बच्चों ने कितनी जल्दी अपने नए दादादादी और नानानानी को स्वीकार कर लिया. ये तो हम बडे़ ही हैं जो हर काम में देर करते हैं.

‘‘मालिनी, आज से मेरी एक नहीं दो ननदें हैं,’’ जूही भावुक हो कर बोली, ‘‘उस दिन तुम्हारी बातों ने मुझ पर गहरा असर डाला, लेकिन सब को तैयार करने में मुझे इतने दिन लग गए. शायद तुम्हारी तरह सच्ची भावना की कमी थी या फिर एक ही मुलाकात में अपनी बात समझा पाने की कला का अभाव…खैर, अंत भला तो सब भला.’’

मैं बहुत खुश थी. तभी जूही मेरे हाथ में 2 अंगूठियां दे कर बोली, ‘‘मालिनी दी, यह शुभ काम आप के ही हाथों अच्छा लगेगा.’’

मैं हतप्रभ सी अंगूठियां हाथ में ले कर अंकलआंटी की ओर बढ़ चली. मैं स्वयं को रोक नहीं पाई. मैं दोनों के गले लग गई…उन दोनों के स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर आशीर्वाद दे रहे थे.  द्य

योग की पोल…

लेखक- हिमांशु जोशी

पिछले 3 दिनों से रतन कुमारजी का सुबह की सैर पर हमारे साथ न आना मुझे खल रहा था. हंसमुख रतनजी सैर के उस एक घंटे में हंसाहंसा कर हमारे अंदर एक नई ऊर्जा का संचार कर देते थे.

क्या बताएं, जनाब, हम दोनों ही मधुमेह से पीडि़त हैं. दोनों एक ही डाक्टर के पास जाते हैं. सही समय से सचेत हो, नियमपूर्वक दवा, संतुलित भोजन और प्रतिदिन सैर पर जाने का ही नतीजा है कि सबकुछ सामान्य चल रहा है यानी हमारा शरीर भी और हम भी.

बहरहाल, जब चौथे दिन भी रतन भाई पार्क में तशरीफ नहीं लाए तो हम उन के घर जा पहुंचे. पूछने पर भाभीजी बोलीं कि छत पर चले जाइए. हमें आशंका हुई कि कहीं रतन भाई ने छत को ही पार्क में परिवर्तित तो नहीं कर दिया. वहां पहुंच कर देखा तो रतनजी  योगाभ्यास कर रहे थे.

बहुत जोरजोर से सांसें ली और छोड़ी जा रही थीं. एक बार तो ऐसा लगा कि रतनजी के प्राण अभी उन की नासिका से निकल कर हमारे बगल में आ दुबक जाएंगे. खैर, साहब, 10 मिनट बाद उन का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

रतनजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘आइए, आइए, देखा आप ने स्वस्थ होने का नायाब नुस्खा.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, यह नएनए टोटके कहां से सीख आए.’’

वह मुझे देख कर अपने गुरु की तरह मुखमुद्रा बना कर बोले, ‘‘तुम तो निरे बेवकूफ ही रहे. अरे, हम 2 वर्षों से उस डाक्टर के कहने पर चल, अपनी शुगर केवल सामान्य रख पा रहे हैं. असली ज्ञान तो अपने ग्रंथों में है. योेग में है. देखना एक ही माह में मैं मधुमेह मुक्त हो जाऊंगा.’’

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मैं ने कहा, ‘‘योगवोग अपनी जगह कुछ हद तक जरूर ठीक होगा पर तुम्हें अपनी संतुलित दिनचर्या तो नहीं छोड़नी चाहिए थी. अरे, सीधीसादी सैर से बढ़ कर भी कोई व्यायाम है भला.’’

उन्होंने मुझे घूर कर देखा और बोले, ‘‘नीचे चलो, सब समझाता हूं.’’

नीचे पहुंचे तो एक झोला लिए वह प्रकट हुए. बड़े प्यार से मुझे समझाते हुए बोले, ‘‘मेरी मौसी के गांव में योगीजी पधारे थे. बहुत बड़ा योग शिविर लगा था. मौसी का बुलावा आया सो मैं भी पहुंच गया. वहां सभी बीमारियों को दूर करने वाले योग सिखाए गए. मैं भी सीख आया. देखो, वहीं से तरहतरह की शुद्ध प्राकृतिक दवा भी खरीद कर लाया हूं.’’

मैं सकपकाया सा कभी रतनजी को और कभी उन डब्बाबंद जड़ीबूटियों के ढेर को देख रहा था. मैं ने कहा, ‘‘अरे भाई, कहां इन चक्करों में पडे़ हो. ये सब केवल कमाई के धंधे हैं.’’

रतनजी तुनक कर बोले, ‘‘ऐसा ही होता है. अच्छी बातों का सब तिरस्कार करते हैं.’’

इस के बाद मैं ने उन्हें ज्यादा समझाना ठीक नहीं समझा और जैसी आप की इच्छा कह कर लौट आया.

एक सप्ताह बाद एक दिन हड़बड़ाई सी श्रीमती रतन का फोन आया, ‘‘भाईसाहब, जल्दी आ जाइए. इन्हें बेहोशी छा रही है.’’

मैं तुरंत डाक्टर ले कर वहां पहुंचा. ग्लूकोज चढ़ाया गया. 2 घंटे बाद हालात सामान्य हुए. डाक्टर साहब बोले, ‘‘आप को पता नहीं था कि मधुमेह में शुगर का सामान्य से कम हो जाना प्राणघातक होता है.’’

डाक्टर के जाते ही रतनजी मुंह बना कर बोले, ‘‘देखा, मैं ने योग से शुगर कम कर ली तो वह डाक्टर कैसे तिलमिला गया. दुकान बंद होने का डर है न. हा…हा हा….’’

मैं ने अपना सिर पकड़ लिया. सोचा यह सच ही है कि हम सभी भारतीय दकियानूसी पट्टियां साथ लिए घूमते हैं. बस, इन्हें आंखों पर चढ़ाने वाला चाहिए. उस के बाद जो चाहे जैसे नचा ले.

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एक माह तक रतनजी की योग साधना जारी रही. हर महीने के अंत में हम दोनों ब्लड टेस्ट कराते थे. इस बार रतनजी बोले, ‘‘अरे, मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं. कोई परीक्षण नहीं कराऊंगा.’’

अब तो परीक्षा का समय था. मैं बोला, ‘‘दादा, अगर तुम्हारी रिपोर्ट सामान्य आई तो कल से मैं भी योग को पूरी तरह से अपना लूंगा.’’

बात बन गई. शुगर की जांच हुई. नतीजा? नतीजा क्या होना था, रतनजी का ब्लड शुगर सामान्य से दोगुना अधिक चल रहा था.

रतनजी ने तुरंत आश्रम संपर्क साधा. कोई संतोषजनक उत्तर न पा कर  वह कार ले कर चल पड़े और 2 घंटे का सफर तय कर आश्रम ही जा पहुंचे.

मैं उस दिन आफिस में बैठा एक कर्मचारी से किसी दूसरे योग शिविर की महिमा सुन रहा था. रतनजी का फोन आया, ‘‘यार, योगीजी अस्वस्थ हैं. स्वास्थ्य लाभ के लिए अमेरिका गए हैं. 3 माह बाद लौटेंगे.’’

मैं ठहाके मार कर हंसा. बस, इतना ही बोला, ‘‘लौट आओ यार, आराम से सोओ, कल सैर पर चलेंगे.’’    द्य

गुरुजी का मटका

 लेखक- डा. सतीश चंद्रा

अखबार में छपे ‘गुरुजी का प्रवचन’ के विज्ञापन को देख कर उस के दिमाग में षड्यंत्र का कीड़ा कुलबुलाने लगा. अशोक ने जब आंखें खोलीं तो सुबह के 7 बजने वाले थे. उस ने एक अंगड़ाई ली और उठ कर बैठ गया और बैठेबैठे ही विचारों में खो गया. वह 10 साल पहले एक सैलानी की तरह गोआ आया था. वह ग्रेजुएट होने के बाद से ही नौकरी की तलाश करतेकरते थक गया था. शाम का समय बिताने के लिए उस ने ला में यह सोच कर दाखिला ले लिया कि नौकरी नहीं मिली तो वकालत शुरू कर लेगा. रोपीट कर उस ने कुछ पेपर पास भी कर लिए थे, लेकिन नौकरी न मिलनी थी न मिली. मांबाप भी कब तक खिलाते.

रोजरोज के तानों से तंग आ कर एक दिन घर से नाराज हो कर अशोक भाग निकला और गोआ पहुंच गया. पर्यटकों को आकर्षित करते गोआ के बीच अशोक को भी अच्छे लगे थे लेकिन वे पेट की आग तो नहीं बुझा सकते थे. नौकरी के लिए अशोक ने हाथपैर मारने शुरू किए तो उस का पढ़ालिखा होना और फर्राटे से अंगरेजी बोलना काम आ गया. उसे एक जगह ड्राइवर की नौकरी मिल गई. इस नौकरी से अशोक को कई फायदे हुए, पहला तो उस का ड्राइविंग का शौक पूरा हो गया तथा सफेद कपड़ों के रूप में रोजाना अच्छी डे्रस मिलती थी. टैक्सी मालिक की कई कारें थीं, जोकि कांट्रेक्ट पर होटलों में लगी रहती थीं. उस का टैक्सी मालिक शरीफ आदमी था. उस को किलोमीटर के हिसाब से आमदनी चाहिए थी. देर रात से मिलने वाले ओवर टाइम का पैसा ड्राइवर को मिलता था.

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अशोक की लगन देख कर कुछ ही दिनों में उस के मालिक ने उसे नई लग्जरी कार दे दी थी जिस का केवल विदेशी सैलानी अथवा बड़ेबड़े पैसे वाले इस्तेमाल करते थे. इस का एक बड़ा फायदा यह हुआ कि अशोक को हमेशा विदेशी अथवा बड़े लोगों के संपर्क में रहने का मौका मिलने लगा. कई विदेशी तो उसे साथ खाना खाने को मजबूर भी कर देते थे, खासकर तब जब वह उन्हें एक बीच से दूसरे बीच घुमाता था. अच्छीखासी टिप भी मिलती थी जो उस की पगार से कई गुना ज्यादा होती थी. धीरेधीरे अशोक ने एक कमरे का मकान भी ले लिया. विदेशी पर्यटकों की संगत का असर यह हुआ कि अब उस को शराब पीने की आदत पड़ गई. चूंकि वह अकेला रहता था इसलिए अन्य टैक्सी ड्राइवर मदन, आनंद आदि भी उस के कमरे में ही शराब पीते थे. कल रात भी अशोक तथा उस के दूसरे टैक्सी ड्राइवर दोस्तों का जमघट काफी समय तक उस के कमरे पर लगा रहा. कारण था पर्यटन सीजन का समाप्त होना. बरसात का मौसम आ गया था. इस मौसम में विदेशी पर्यटक अपने देश चले जाते हैं. हां, स्कूल की छुट्टियां होने से देशी पर्यटक गोआ आते हैं जिन में उन की कोई रुचि नहीं थी. मातापिता से मिलने या अपने शहर जाने का उस का कोई कार्यक्रम नहीं था. इतने में दरवाजे पर घंटी बजी तो अशोक अपने अतीत से निकल कर वर्तमान में लौट आया. दरवाजा खोल कर देखा तो बाहर अखबार वाला खड़ा था जिस का 2 महीने का बिल बाकी था. अशोक ने उस को 1-2 दिन में पैसा देने को कह कर भेज दिया और स्थानीय अखबार ले कर पढ़ने लगा. अखबार पढ़तेपढ़ते उस की इच्छा चाय पीने को हुई. उस ने कमरे में एक कोने में मेज पर रखे गैस चूल्हे पर अपने लिए चाय बनाई तथा चाय और अखबार ले कर बाथरूम में घुस गया.

यद्यपि स्थानीय समाचारों में अशोक की कोई खास रुचि नहीं थी. वह तो महज मोटीमोटी हैडिंग पढ़ता और कुछ चटपटी खबरों के साथ यह जरूर पढ़ता कि गोआ में कहां क्या कार्यक्रम होने वाले हैं और किस ओर के ट्रैफिक को किस ओर मोड़ा जाना है. चाय समाप्त कर के अशोक अखबार फेंक ही रहा था कि उस की निगाह एक बड़े विज्ञापन पर पड़ी. विज्ञापन के अनुसार अगले महीने की 10 तारीख की शाम को मीरामार बीच पर गुरु रामदासजी का प्रवचन होना था. बिना किसी प्रवेश शुल्क के सभी लोग सादर आमंत्रित थे. विज्ञापन से ही उसे पता चला कि गोआ का प्रसिद्ध औद्योगिक घराना ‘खोटके परिवार’ इस कार्यक्रम को आयोजित करा रहा है. अशोक को ध्यान आया कि कल उस के टैक्सी मालिक भी गुरु रामदास के गुणों का बखान कर रहे थे जिस को उन के परिवार के लोग बड़े ध्यान से सुन रहे थे. तभी उस ने जाना था कि गुरुजी बीमारी ठीक करने के उपाय तथा ‘बेटर लिविंग’ की शिक्षा देने में माहिर हैं, देशविदेश में उन का बड़ा नाम है. लाखों उन के अनुयायी हैं. बंगलौर में गुरुजी का बहुत बड़ा आश्रम है. अशोक को गुरु रामदासजी प्रेरणा स्रोत लगे तथा उस ने भी उन के इस कार्यक्रम में जाने का मन बना लिया. अशोक तैयार हो कर टैक्सी मालिक के दफ्तर के लिए निकला तो यह देख कर उसे आश्चर्य हुआ कि शहर में जगहजगह गुरुजी की फोटो के साथ बड़ेबड़े होर्डिंग लगे हैं, पोस्टर लगे हैं. उस ने टैक्सी ली और इस उम्मीद से मेरियट होटल की तरफ चल पड़ा कि पांचसितारा होटल में भूलेभटके कोई सवारी मिल ही जाएगी. वैसे भी होटल मैनेजर का कमीशन बंधा होता है. अत: निश्चित था कि यदि कोई सवारी होगी तो उस को ही मिलेगी. मेरियट होटल मीरामार बीच के साथ ही है. टैक्सी होटल में पार्क कर के अशोक बीच पर चला गया. बारिश रुकी हुई थी. उस को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि कई मजदूर सफाई का काम कर रहे हैं.

पूछने पर पता चला कि गुरुजी के कार्यक्रम की तैयारी चल रही है. होटल पहुंचा तो मैनेजर ने उसे बताया कि 2 सवारी हैं जिन को शहर तथा आसपास के इलाकों को देखने के लिए जाना है. इतने में ही सफेद कपड़ों में 2 व्यक्ति काउंटर पर आ गए. उन के खादी के कपड़ों की सफेदी देखते ही बनती थी. मैनेजर के इशारे पर अशोक गेट पर टैक्सी ले आया. वे दोनों बैठे तो अशोक ने दरवाजा सैल्यूट के साथ बंद किया. अशोक टैक्सी चला रहा था पर उस का ध्यान उन की बातों की ओर लगा था. उन की बातों से उसे पता चला कि वे दोनों गुरुजी के कार्यक्रम को आयोजित करने के बारे में आए हैं. लंबे व्यक्ति का नाम ओमप्रकाश है जिस को सभी ओ.पी. के नाम से जानते हैं. वह गुरुजी का ‘इवंट’ मैनेजर है तथा कार्यक्रमों को आयोजित करने की जिम्मेदारी गुरुजी ने उसे ही स्थायी रूप से दी हुई है. दूसरे व्यक्ति का नाम विजय गोयल था जो चार्टर्ड अकाउंटेंट है और आयोजनों में लागत और खर्चों की जिम्मेदारी वह गुरुजी के निर्देश पर निभा रहा है. दोनों ही गुरुजी के 2 हाथ हैं, विश्वासपात्र हैं. दोनों व्यक्तियों ने शहर में लगे पोस्टर, होर्डिंग आदि का जायजा लिया और आवश्यक निर्देश दिए. समाचारपत्रों में छपे गुरुजी के विज्ञापन को देख कर वे दोनों उन समाचारपत्रों के दफ्तरों में गए और गुरुजी के चमत्कार के किस्से प्रकाशित करने के लिए कहा. इस के बाद वे दोनों ‘खोटके परिवार’ के बंगले पर पहुंचे जहां उन का भरपूर स्वागत हुआ. शाम के समय लान में ही कुरसियां लगी थीं और उस लान के बगल में ही टैक्सी पार्क की गई. जलपान के बाद विजय गोयल ने समाचारपत्रों में प्रकाशित विज्ञापनों के बिल तथा होर्डिंग आदि के खर्चों का ब्योरा दिया जोकि लगभग 5 लाख रुपए का था. खोटके परिवार के मुखिया ने सभी बिल अपने पास खड़े मैनेजर को बिना देखे पेमेंट करने के लिए आवश्यक निर्देश दिए.

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तभी विजय गोयल ने कहा कि सारा भुगतान कैश में होना चाहिए, चेक नहीं और इस पर सभी सहमत थे. अशोक पास में खड़ा उन की बातें सुन रहा था. ‘खोटके परिवार’ का आग्रह था कि गुरुजी उन्हीं के यहां रुकें तथा व्यवस्था उन्हीं के अनुसार हो जाएगी. मीरामार बीच कार्यक्रम में गुरुजी का स्वागत खासतौर से ‘खोटकेजी ही करेंगे और उन की पत्नी औरतों का प्रतिनिधित्व करेंगी. इस समारोह में. ओ.पी. ने बताया कि गुरुजी के साथ कितने लोग होंगे और उन सब की आवश्यकताएं क्याक्या होंगी. इतने में मैनेजर ने एक मोटा लिफाफा विजय गोयल को पकड़ा दिया जो शायद कैश पेमेंट था. 2 घंटे के बाद वे दोनों वापस होटल की ओर चल दिए. अंधेरा हो चला था लेकिन गोआ की नाइट लाइफ अभी शुरू होनी थी. होटल पहुंचने से पहले विजय गोयल ने अपने साथी ओ.पी. से बोला कि मटकों का कार्यक्रम तो बाकी ही रह गया. इस पर ओ.पी. ने टैक्सी ड्राइवर अशोक से पूछा कि क्या यहां आसपास कुम्हार हैं जो मटका बनाते हैं? अशोक ने बताया कि मापसा में कुम्हार रहते हैं जो मिट्टी के बरतन बनाते हैं. और मापसा लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर दूसरा शहर है. ओ.पी. ने विजय से कहा कि यह काम इस ड्राइवर को दे दो. यह 2-3 मटके ले आएगा. ‘‘हमारा काम तो 2 मटकों से ही हो जाएगा,’’ विजय बोला. ‘‘भाई, मैं ने ‘इवेंट मैनेजमेंट’ का कोर्स किया है. तीसरा मटका इमर्जेंसी के लिए रखो,’’ ओ.पी. ने जवाब दिया. विजय गोयल ने अशोक को समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, तीनों मटके साधारण होने चाहिए जिन को सफेद रंग से पोता जाएगा और उस पर स्वस्तिक का निशान व ‘श्री गुरुजी नम:’ भी लिखाना होगा. उन मटकों की खासीयत यह होगी कि मुंह बंद होगा और जैसे मिट्टी की गोलक में लंबा सा चीरा होता है वैसे ही मटकों के मुंह पर होगा जिस से उस में रुपयापैसा डाला जा सके.’’ यह सबकुछ समझाने के बाद विजय बोले, ‘‘ओ.पी., मैं तो अब थक गया हूं. कल सुबह की फ्लाइट से बंगलौर वापस भी जाना है.’’ ओ.पी. ने अशोक को 2 हजार रुपए दिए और बोले, ‘‘अशोक, इस बात का खास ध्यान रखना कि मटके आकर्षक ढंग से पेंट होने चाहिए.’’ ‘‘सर, ये रुपए तो बहुत ज्यादा हैं,’’ अशोक बोला. ‘‘कोई बात नहीं, बाकी तुम रख लेना लेकिन याद रहे कि कार्यक्रम 10 तारीख को है और हम 8 तारीख को आएंगे. तब यह मटके तुम से ले लेंगे.

तब तक उन्हें अपने पास ही रखना.’’ रात के 10 बज गए थे. अशोक भी टैक्सी स्टैंड पर छोड़ कर अपने कमरे पर पहुंचा. थकान महसूस हो रही थी साथ ही भूख भी लग रही थी. जेब में 2 हजार रुपए पड़े ही थे इसलिए उस ने मदन को बुला लिया क्योंकि उस का दोस्त आनंद टैक्सी ले कर मुंबई गया था. दोनों एक होटल में गए और खाना मंगा लिया. खाना खाते समय अशोक के दिमाग में एक विचार आया जिस ने एक षड्यंत्र को जन्म दिया. उस ने दोस्तों से कहा कि भाई मदन, मैं ने बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि इन महंतोंगुरुओं के पास जो चंदे का पैसा आता है उस का कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जाता और इस में हेराफेरी हो तो ये लोग उस की कहीं शिकायत भी नहीं करते हैं और फिर दोनों आपस में बाबाओं के किस्से सुनासुना कर ठहाके लगाते रहे. रात के 12 बजे मदन अपने घर चला गया और अशोक भी कमरे पर आ कर सो गया. सुबह उस ने अखबार का पूरा पेमेंट कर दिया. इस के बाद तैयार हो कर वह बस पकड़ कर मापसा कुम्हारों की बस्ती में पहुंचा और मुंह बंद लेकिन चीरे के साथ मटकों का आर्डर दे दिया. सौदा 50 रुपए प्रति मटके पर तय हुआ तो कुम्हार ने 3 दिन का समय मांगा. अशोक ने 5 मटकों का आर्डर दिया तथा एडवांस भी 100 रुपए पकड़ा दिए. अब अशोक पेंटर की तलाश भी वहीं करने लगा क्योंकि वह सारा काम मापसा में ही कराना चाहता था. इधरउधर नजर दौड़ाने पर बाजार की एक गली में उसे पेंटर की दुकान दिखाई दी. अशोक ने पेंटर को मटके पेंट करने के बारे में बताया. पेंटर जितेंद्र होशियार था, वह तुरंत समझ गया और उस ने अशोक को गुरुजी का चित्र भी बनाने का सुझाव दिया. अशोक ने जब उस से यह कहा कि उस के पास गुरुजी का फोटो नहीं है तो वह बोला, ‘‘आप इस के लिए परेशान न हों. अखबार में तो गुरुजी का चित्र छप ही रहा है उसे देख कर बना दूंगा.’’

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इस के बाद उस ने अशोक को अपने द्वारा बनाई गई कुछ पेंटिंग भी दिखाईं. अशोक ने उस के काम से संतुष्ट हो कर कीमत तय की. जितेंद्र ने 100 रुपए प्रति मटका पेंटिंग की कीमत बताई. इस पर अशोक ने कहा कि अगर कार्य संतोषजनक होगा तो वह 200 रुपए अतिरिक्त देगा. इसलिए काम बहुत ही अच्छा करना होगा. जितेंद्र ने भरोसा दिया कि आप मटका दें. 3 दिन में कार्य पूरा हो जाएगा. अशोक ने 3 दिन बाद मटके कुम्हार से ले कर जितेंद्र की दुकान पर पहुंचा दिए. एडवांस भी दे दिया. इस बीच वह खोटके परिवार के दफ्तर भी गया तथा गुरुजी के कार्यक्रम में रुचि दिखाई. खोटकेजी ने कहा कि वह सेवक के रूप में कार्यक्रम की तैयारी में भाग ले सकता है. चूंकि आफ सीजन के चलते अशोक बेकार था इसलिए बेकारी से बेगारी भली के सिद्धांत को मानते हुए उस ने हां कर दी. कार्यक्रम में केवल 5 रोज रह गए थे अत: तैयारी जोरशोर से चल रही थी. ड्राइवर होने के कारण खोटकेजी ने सारी भागदौड़ की जिम्मेदारी अशोक को सौंप दी तथा एक कार भी, जिस को अशोक ने जीजान से पूरा किया. इस दौरान अशोक ने मीरामार बीच समारोह स्थल का बारीकी से निरीक्षण किया. एक भव्य मंच बनाया गया था जहां पर गुरुजी को विराजमान होना था.

मंच पर संगीतकारों सहित लगभग 50 लोगों के बैठने की व्यवस्था थी. कार्यक्रम बड़े पैमाने पर होना था अत: टेलीविजन पत्रकारों, वीडियो आदि के साथ प्रतिष्ठित लोगों के बैठने की भी व्यवस्था की गई थी. मुख्यमंत्री अपने सहयोगी मंत्रियों के साथ गुरुजी को माला पहना कर गोआ में उन के स्वागत की रस्म अदा करने वाले थे. मंच पर मुख्यमंत्री के साथ खोटकेजी को बैठना था. बाद में सभी को खोटकेजी के बंगले पर गुरुजी के साथ भोजन पर आध्यात्मिक चर्चा में भाग लेने का कार्यक्रम था. यह सुनहरा अवसर था जिस को खोटकेजी खोना नहीं चाहते थे. बातोंबातों में अशोक को पता चला कि खोटकेजी ने सारा खर्चा इसी खास अवसर के लिए उठाया है वरना गुरुजी के दर्शन तो वह बंगलौर जा कर भी कर सकते थे. खैर, इस बीच अशोक मटके ले आया. वास्तव में जितेंद्र ने अपने चित्रों से मटके बेहद खूबसूरत बना दिए. सफेद रंग के मटके तथा उन पर गुरुजी का आकर्षक फोटो, स्वस्तिक के निशान के साथ कुछ चित्रकारी भी की गई थी. आखिर 10 तारीख यानी समारोह का दिन आ गया. गुरुजी दोपहर की फ्लाइट से गोआ आ गए थे तथा खोटकेजी के बंगले में विश्राम कर रहे थे. पिछले 2 दिनों से लगातार गुरुजी के आश्रम के सदस्य समूह में गोआ पहुंच रहे थे. हवाई अड्डे पर विशेष व्यवस्था की गई थी. ओ.पी. तथा विजय गोयल भी कल ही आ गए थे और उन्होंने अशोक की भूरिभूरि प्रशंसा की शानदार मटके बनवाने के लिए. दोनों ही संतुष्ट थे. शाम को सभी कार्यकर्ता सफेद पोशाक पहने गुरुजी के चित्र, बैच, आई कार्ड लगाए मीरामार बीच पर पहुंच चुके थे. अशोक को भी आईकार्ड लगाए विजयजी ने विशेष जिम्मेदारी सौंप दी. कार्यक्रम शुरू हो गया था. सभास्थल के बीच में लंबा प्लेटफार्म बनाया गया था जिस से सभास्थल 2 भागों में बंट गया था. लाउडस्पीकर पर बारबार घोषणा हो रही थी कि गुरुजी बस, आने ही वाले हैं. इतने में हलकी बरसात होने लगी तो थोड़ी हलचल सी मच गई. लोगों ने अपनेअपने छाते खोल लिए लेकिन भीड़ उठने का नाम नहीं ले रही थी, इस से पता चलता था कि गुरुजी के प्रति लोगों में कितना विश्वास है. बारिश रुक गई तो गुरुजी बीच के प्लेटफार्म पर चल कर मंच पर आए और भक्तों का अभिवादन स्वीकार कर के उन के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी. लोगों ने फूलमालाएं पहना कर, दे कर तथा दूर से फेंक कर उन का अभिवादन किया. गुरुजी मंच पर पहुंचे तो खोटकेजी, मुख्यमंत्री और अन्य विशिष्ट व्यक्तियों ने परंपरागत तरीके से उन का स्वागत किया. गुरुजी ने हलकी बारिश का श्रेय लेते हुए मजाक के अंदाज में अपने भाषण की शुरुआत करने से पहले सभी को आदेश दिया कि वे आंखें बंद कर के 2 मिनट का ध्यान लगाएं. बाद में भक्तों को कहा गया कि लंबी सांस लें तथा धीरेधीरे छोड़ें.

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यह प्रक्रिया अनेक बार दोहराई गई. इसी दौरान विजयजी ने अशोक को मटका देते हुए मंच की बाईं तरफ श्रद्धालुओं के बीच उसे घुमाने को कहा तथा दूसरा मटका खुद ले कर दाईं तरफ चले गए. ओ.पी. तो मंच पर विराजमान थे. कार्यक्रम निशुल्क था अत: हर श्रद्धालु ने क्षमतानुसार मटके में अपना योगदान दिया. कम से कम 10 रुपए का नोट तो देना ही था. कुछ ने 500 तो कुछ ने हजार तक का नोट दिया. जब बाईं तरफ बैठे सभी श्रद्धालुओं में मटका घूम चुका तो उस का वजन काफी बढ़ गया था. अशोक मटका ले कर धीरेधीरे पंडाल में बैठे श्रद्धालुओं से निकल कर बाहर की तरफ खड़े श्रद्धालु, पुलिसकर्मी, टैक्सी वालों के बीच चला गया. अशोक ने बाहर खड़ी मदन की टैक्सी के पास मटका दिखाया तो मदन ने तुरंत झुक कर मटका ले लिया तथा बराबर में खाली रखा मटका अशोक को थमा दिया. अशोक पुन: मटके को ले कर टैक्सी वालों, पुलिस वालों के बीच घुमाने लगा. मंत्रीजी ने भी मटके में योगदान दिया. अशोक धीरेधीरे वापस विजय के पास पहुंचा जोकि दाईं तरफ अभी भी आधे श्रद्धालुओं के बीच मटका घुमा पाए थे. इस बीच उन को स्थानीय महिला कार्यकर्ताओं ने घेर रखा था तथा विजय अपने गुरुजी के साथ घनिष्ठ संबंधों की चर्चा से खुश हो रहे थे. अशोक ने विजय से कहा, ‘‘सर, उस तरफ से तो पूरा हो गया. इधर मैं करता हूं आप उधर वाला मटका पकड़ लें.’’ विजय ने मटका बदल लिया तथा अशोक ने उस तरफ के लोगों के बीच मटका घुमाना शुरू कर दिया. जब पीछे की तरफ अशोक मटका ले कर गया तो देखा विजय पहले मटके को पकड़े महिला श्रद्धालुओं से हंसहंस कर बातें कर रहे हैं. अशोक ने बड़े अदब से विजय के पास जा कर पूछा, ‘‘सर, बाहर खड़े श्रद्धालुओं, टैक्सी, ड्राइवर, पुलिस वालों के बीच भी मटका घुमाना है?’’ विजय ने आदेशात्मक लहजे में कहा कि जल्दी करो…गुरुजी का कार्यक्रम अगले 20 मिनट में समाप्त होने वाला है. अशोक तेज कदमों से मदन की टैक्सी को ढूंढ़ने लगा. मदन की टैक्सी को न पा कर अशोक ने लंबी गहरी संतोष की सांस ली. योजना के अनुसार वह आनंद की टैक्सी की तरफ बढ़ा जिस ने झुक कर मटका अंदर रख लिया तथा खाली मटका अशोक को पकड़ा दिया, जिस को ले कर वह पुन: ड्राइवरों, पुलिसकर्मियों एवं बाहर खडे़ श्रद्धालुओं के बीच घुमाता हुआ विजय के पास पहुंच गया तथा दूसरा मटका भी उन के हवाले कर दिया. विजयजी ने दोनों मटकों को अपने संरक्षण में ले लिया. इतने में कार्यक्रम समाप्त करने की घोषणा हो चुकी थी. गुरुजी मंच छोड़ चुके थे. भजनों के द्वारा श्रद्धालुओं को रोका जा रहा था लेकिन भीड़ भी धीरेधीरे घटने लगी थी. तभी ओ.पी. जी मंच छोड़ कर वहां आ गए.

अशोक ने सफल कार्यक्रम कराने के लिए उन्हें बधाई दी. खुश हो कर ओ.पी. जी ने उस को बंगलौर आने को कहा तथा प्रस्तावित किया कि वह चाहे तो गुरुजी के स्टाफ में शामिल हो सकता है. अशोक ने तुरंत ओमप्रकाशजी के तथा विजयजी के पांव छुए तथा उन के आशीष वचन प्राप्त किए. विजय और ओमप्रकाश दोनों को मटके ले कर अशोक की टैक्सी से होटल पहुंचना था जहां से उन्हें खोटकेजी के बंगले पर जाना था. टैक्सी स्टार्ट करने से पहले अशोक को यह देख कर राहत हुई कि आनंद भी टैक्सी ले कर गायब हो चुका था. अशोक ने विजय से कहा कि वह मटका फोड़ कर देख लें कि कितना कलेक्शन आया है क्योंकि गोआ की जनता पैसे देने के मामले में कंजूस है तथा धार्मिक कामों में कम ही योगदान देती है. ‘‘शराब से पैसे बचते ही नहीं होंगे,’’ ओमप्रकाशजी बोले तो तीनों हंस पड़े. दोनों मटके कमरे में बंद कर के, तीनों लोग खोटकेजी के बंगले की ओर चल पडे़. अशोक ने फिर मटकों के बारे में चर्चा करनी चाही लेकिन विजय ने डांटते हुए कहा कि मटके गुरुजी के सामने बंगलौर में फोडे़ जाएंगे. ऐसा उन का आदेश है. ‘‘आखिर अपने सुंदर चित्र को नक्काशी के साथ देख कर गुरुजी प्रसन्न होंगे,’’ ओ.पी. जी ने एक जुमला फिर जड़ दिया. तीनों पुन: हंस पड़े. खोटकेजी के बंगले पर उन दोनों को छोड़ कर अशोक वापस कमरे पर आया जहां उस के दोनों दोस्त मदन व आनंद खानेपीने के सामान के साथ उस की प्रतीक्षा कर रह थे. तीनों ने अपनेअपने जाम टकराए और बोले, ‘‘जय गुरुजी का मटका.’’ द्य (इस कहानी के लेखक आयकर अपीलीय अधिकरण पणजी के न्यायिक सदस्य हैं)

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