उधर मंगलू की मां सूरज उगने के साथ ही बंगले की साफसफाई, कपड़े, बरतन, खाना बनाने और फिर सेठानी की सेवा में जुट जाती. उतनी सुखसुविधाएं होने पर भी सेठानी हमेशा किसी न किसी बीमारी का शिकार रहतीं और उस की मां कभी सेठानी के पैर दबाती, कभी सिर दबाती और कभी पूरे बदन की मालिश करती.
मंगलू खुद जो शायद उन दिनों 8-9 साल से ज्यादा का नहीं था, हमेशा साए की तरह उस बंगले में मां के साथसाथ लगा रहता.
सेठानी तो दिनभर पलंग से नीचे पैर भी नहीं रखती थीं. दूसरी तरफ मंगलू की मां भागभाग कर काम करती. उस की मां का मुंह पीला पड़ जाता और हाथपांव थक कर जैसे टूटने लगते.
कई बार मंगलू सोचता था कि थोड़ा बड़ा होने पर वह भी मां को सेठानी की तरह आराम करवाएगा. लेकिन इस से पहले कि वह इन बातों का ठीक से मतलब समझ पाता, उस की जिंदगी का रुख ही बदल गया.
मंगलू हथकड़ी पहने पुलिस जीप में सवार शहर की उन्हीं पुरानी जानीपहचानी सड़कों से गुजर रहा था. यह सब उस के लिए नया नहीं था. फिर भी न जाने क्यों अजीब सी बेचैनी महसूस करते हुए बारबार उस का गला सूख रहा था.
बस्ती वालों को हमेशा खूंख्वार दिखने वाला मंगलू उस दिन अपने को अंदर से कुछ पिघलता हुआ महसूस
कर रहा था. तेज रफ्तार से दौड़ती जीप में आने वाली हवा में भी उसे पसीना छूट रहा था. चाहते हुए भी उस का दिमाग अपनी यादों की कड़ी से अलग नहीं हो पाया. उस की यादों में सेठ
के एकलौते बेटे नकुल का चेहरा
घूमने लगा.
सेठ दयालराम का बेटा नकुल… मंगलू को ठीक से याद था कि किस तरह बंगले में मां के काम में हाथ बंटाने के साथ उस का असली काम हुआ करता था नकुल के साथ खेलना. नकुल भी उसी की उम्र का था. किसी भी खेल में यदि नकुल हार जाता तो जीतने पर भी वह हार मंगलू को ही माननी पड़ती. उसे यह सब अच्छा नहीं लगता. फिर भी मां के समझाने पर उसे वैसे ही खेलना पड़ता.
एक रोज आंखमिचौली के खेल में जब नकुल बारबार हारने पर भी हार मानने को तैयार न हुआ, तो मंगलू चिढ़ कर अपनी मां के पास जाने लगा.
तब नकुल ने उसे रोक लिया. वह
अपने कमरे से कीमती कलम व
पैंसिलों का डब्बा ला कर खेल जारी रखने के लिए खुशामद के तौर पर देते हुए बोला, ‘‘लो मंगलू, यह डब्बा तुम ले लो.’’
‘‘तो क्या इसे मैं घर ले जा सकता हूं?’’
‘‘हांहां, अब से मैं ने यह तुम्हें
दे दिया,’’ जोर दे कर नकुल ने कहा और फिर खेलने के लिए चिरौरी
करने लगा.
एकाएक इतने सुंदर कलम और पैंसिल पा कर मंगलू बेहद खुश हुआ और खेल से पहले भाग कर उसे
अपनी मां के थैले में सब से नीचे छिपा कर रख आया.
शाम को ट्यूशन पढ़ाने आई नकुल की मास्टरनी को जब उस के बस्ते
में पैंसिल का डब्बा नहीं मिला तो
सब से पहला शक मंगलू पर ही किया गया और नकुल की मां के थैले
से पैंसिल बौक्स बरामद भी कर
लिया गया.
मंगलू के बारबार सचाई बताने पर भी सेठ ने उन सब को चोर कह कर खूब कोसा और साफ कह दिया कि अब से मंगलू मांबाप के साथ उन के बंगले में कभी न आए.
उस दिन सब से अधिक हैरानी
उसे इस बात पर हुई थी कि सबकुछ जानते हुए भी नकुल पास खड़ा
चुपचाप टुकुरटुकुर उसे देखता ही रहा. और वहीं से शुरू हुई थी मंगलू
की बरबादी.
मांबाप दोनों रात तक बंगले में काम करते और उधर मंगलू दिनभर इधरउधर गलियों में बेमकसद भटकता रहता. फिर कुछ आवारा लड़कों की सोहबत में पड़ कर उस ने छोटीमोटी जरूरत की चीजें चुरानी शुरू कर दीं. चोरी से मारपीट, नशाखोरी वगैरह का शिकार होते हुए वह कुछ ही सालों में बस्ती का एक नामी बदमाश बन गया.
उसी वजह से सेठ दयालराम ने उस के मांबाप को भी काम से निकाल दिया था. सेठ के डर से उन्हें कहीं और भी काम न मिल सका.
मंगलू असहाय मांबाप के दुख से दुखी हो कर एक दिन नशे की हालत में सेठ को खूब खरीखोटी सुना आया. इस पर सेठ के आदमियों ने रात में आ कर मंगलू और उस के बाप की जम कर पिटाई की.
सेठ से बदला लेने की भावना मंगलू के मन में लगातार पनपती रही. पर सेठ की धनदौैलत व ताकत के सामने वह खुद को हमेशा छोटा व कमजोर पाता. इसी दिमागी बोझ व तनाव के साथ उस के कदम गलत
व गैरकानूनी कामों की दुनिया में
बढ़ते गए.
लेकिन पैरों पर गिरे गिड़गिड़ाते बाप को सेठ ने जिस तरह धक्का दे कर गालियां दीं, उस की याद आते ही उस का मन और कसैला हो गया. अंदर की सारी कड़वाहट से मंगलू के चेहरे व हाथपैर की नसें फूलने लगीं. वह सोचने लगा कि अगर एक बार उस की हथकडि़यां खुल जातीं तो वह चलती जीप से कूद कर सवेरे के छूट गए अधूरे काम को पूरा कर आता.
इस से कि वह और आगे सोचता, तेज झटके से जीप पुलिस स्टेशन के अहाते में जा कर रुक गई.
बगल में बैठे सिपाही ने बड़ी रुखाई से उसे नीचे उतरने को कहा. फिर उसे अंदर उस कमरे में ले जाया गया, जहां बयान देने के लिए सेठ दयालराम, नकुल और उस के दोस्त पहले से ही मौजूद थे.
चूंकि नकुल और उस के दोस्त उस घटना की चपेट में सीधे आए थे, इसलिए नकुल के दोस्त ने बयान दिया, ‘‘सुबह मैं और नकुल जब कालोनी के पीछे की सुनसान सड़क से गुजर रहे थे, तो तेजी से सामने से आते मंगलू ने हमारा रास्ता रोक लिया व जो कुछ हमारे पास था, दे देने के लिए कहा.
‘‘मैं ने उसे रास्ता छोड़ने को कहा और नकुल की तरफ इशारा करते हुए मेरे यह बताने पर कि जानते हो, तुम सेठ दयालराम के बेटे का रास्ता रोकने की गलती कर रहे हो, जोरजोर से गालियां बकते हुए इस ने चाकू निकाल लिया और नकुल पर जानलेवा वार किया.’’
आगे से टूटी हुई चप्पल से बाहर निकल रहे अंगूठे को फर्श पर रगड़ते हुए सामने खड़ा मंगलू उस बयान को सुनते हुए मन ही मन यह मान रहा था कि कहने को यह सबकुछ ठीक कह रहा है, पर मेरे हाथ से एक अच्छा मौका निकल गया.
अगर उस हाथापाई के वक्त वह कमबख्त कार न आ गई होती, जिस में सवार आदमियों से उन्होंने मदद मांगी थी, और मंगलू को वहां से भागना पड़ा था, तो मैं इस नकुल को इतना पीटता कि सेठ जिंदगीभर अपने बेटे की चोटों का हिसाब लगाता रहता.
नकुल ने अपने बयान में पहले तो वही सब दोहराया कि किस तरह सुनसान सड़क पर मंगलू ने उन का रास्ता रोका. फिर थोड़ा रुक कर सीधे मंगलू की तरफ देखते हुए उस ने कहा, ‘‘यह आया तो हमारे पास लूटने की नीयत से था, परंतु मुझे पहचानते ही इस का इरादा बदल गया और मेरे दोस्त के साथ कहासुनी में इस के खुले चाकू से मुझे यह हलकी सी चोट लग गई. वहां से भागते हुए भी इस ने बचपन के दोस्त को अनजाने में चोट लग जाने का अफसोस जाहिर किया था.’’
बयान संबंधी कार्यवाही से निबट कर गाड़ी में बैठते ही सेठ दयालराम ने तिलमिलाते हुए बेटे से गलत बयान देने की वजह पूछी. पहले तो नकुल ने बात को टालने की कोशिश की, लेकिन बारबार वही सवाल दोहराए जाने पर, बरसों से केवल मंगलू या उस के परिवार पर ही नहीं, बल्कि ऐसे कई लाचार व मजबूर लोगों पर अपने पिता के जुल्म को देखती नकुल की खामोश आंखों में गुस्से की चिनगारी अलाव बन कर धधक उठी.
वह चाह कर भी चुप न रह सका और बोला, ‘‘अपने हथकंडों के इस्तेमाल के लिए आप ने आज तक न जाने कितने गुंडों व गैरकानूनी काम करने वालों को पनाह दी. आप के द्वारा सताए जिस बेगुनाह ने भी विरोध करने की हिम्मत की, उसे आप ने कुसूरवार साबित करवा दिया. आप की नजर तो हमेशा अपने फायदे पर रहती है. किसी गुनाहगार और बेगुनाह में आप कभी अंतर देख ही नहीं पाए.
‘‘आप ही बताइए, अगर आज मैं ने आप की ही करनी से बने एक गुनाहगार को फिर से सुधारने की कोशिश की है, तो क्या गलत
किया है?’’
अपने सामने किसी की ऊंची आवाज तो क्या, ऊंचा देखने तक की इजाजत न देने वाले सेठ दयालराम को अपने बेटे की बातों का कोई जवाब नहीं सूझा. वे चुप लगा गए. उन्हें लगा, नकुल की आवाज में जैसे नई पीढ़ी की बगावत उभर रही है. बेटे की जगह कोई दूसरा होता तो अब तक उन के गुस्से का शिकार हो चुका होता. लेकिन वह तो उन का अपना खून था.
उधर मंगलू खाली पड़ी उन कुरसियों को जिन पर कुछ देर पहले नकुल और उस के दोस्त बैठे थे, हैरान सा देखते हुए समझ नहीं पा रहा था कि आखिर सेठ के बेटे ने उसे बचाने के लिए झूठा बयान क्यों दिया.
‘क्या वह डर गया है कि यहां से छूट कर कहीं मैं उस पर दोबारा हमला न कर दूं या फिर…? बरसों पहले की पैंसिल वाले डब्बे से जुड़ी वह सचाई, जिसे नकुल तब आप के डर से नहीं कह पाया. आज उस की कीमत झूठे बयान से चुका गया, जबकि मैं उसे आज जान से मारने के लिए उतारू था.’
‘‘ऐ खड़ा हो, कहां बैठ रहा है?’’ तभी दुत्कार कर उस की पीठ में डंडा चुभाते हुए सिपाही ने कहा.
अचानक मंगलू ने अपनेआप को उसी दोराहे पर पाया, जहां से उस की जिंदगी जुर्म भरी राह पर चल पड़ी थी. वह सोच रहा था कि अब चाहे उसे सजा हो या छूट जाए, पर वह अच्छा इनसान बनने की कोशिश करेगा. नकुल से अपनी गलती की माफी मांगेगा.
इन्हीं विचारों को समेट सिपाही के धक्कों के साथ मंगलू हवालात की ओर चल पड़ा. वह मंगलू जो शायद
नकुल के चलते जुर्म की राह पर चलने लगा था, उसी की वजह से ही सही डगर फिर से खोजने की कोशिश कर रहा था.