ऐतिहासिक कहानी – भाग 2 : हाड़ी रानी की अंतिम निशानी

शार्दूल बोला, ‘‘दोस्त हंसी छोड़ो. सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है. मुझे भी तुरंत वापस लौटना है.’’

यह कह कर सहसा वह चुप हो गया. अपने इस मित्र के विवाह में सप्ताह भर पहले बाराती बन कर गया था. उस के चेहरे पर छाई गंभीरता की रेखाओं को देख कर चुंडावत सरदार रतनसिंह का मन आशंकित हो उठा. सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई है.

दूत संकोच कर रहा था कि इस समय राणा की चिट्ठी वह मित्र को दे या नहीं. चुंडावत सरदार को तुरंत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश ले कर वह आया था. उसे मित्र के शब्द स्मरण हो रहे थे. चुंडावत रतन सिंह के पैरों के नाखूनों में लगे महावर की लाली के निशान अभी भी वैसे के वैसे ही उभरे हुए थे.

नवविवाहिता हाड़ी रानी के हाथों की मेहंदी का रंग अभी उतरा भी न होगा. पतिपत्नी ने एकदूसरे को ठीक से देखापहचाना भी नहीं होगा. कितना दुखदायी होगा उन का बिछोह?

यह स्मरण करते ही वह सिहर उठा. पता नहीं युद्ध में क्या हो? वैसे तो राजपूत मृत्यु को खिलौना ही समझता है. अंत में जी कड़ा कर के उस ने चुंडावत सरदार रतनसिंह के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया.

 

राजा का उस के लिए संदेश था. ‘वीरवर अविलंब अपनी सैन्य टुकड़ी को ले कर औरंगजेब की सेना को रोको. मुसलिम सेना उस की सहायता को आगे बढ़ रही है. इस समय मैं औरंगजेब को घेरे हुए हूं. उस की सहायता को बढ़ रही फौज को कुछ समय के लिए उलझा कर रखना है, ताकि वह शीघ्र ही आगे न बढ़ सके. तब तक मैं पूरा काम निपटा लेता हूं. तुम इस कार्य को बड़ी ही कुशलता से कर सकते हो. यद्यपि यह बड़ा खतरनाक है. जान की बाजी भी लगानी पड़ सकती है, लेकिन मुझे तुम पर भरोसा है.’

चुंडावत सरदार रतनसिंह के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी. एक ओर मुगलों की विपुल सेना और उस की सैनिक टुकड़ी अति अल्प है. राणा राजसिंह ने मेवाड़ के छीने हर क्षेत्र को मुगलों के चंगुल से मुक्त करा लिया था.

औरंगजेब के पिता शाहजहां ने अपनी एड़ीचोटी की ताकत लगा दी थी. वह चुप हो कर बैठ गया था. अब शासन की बागडोर औरंगजेब के हाथों में आई थी.

राणा राजसिंह से चारूमति के विवाह ने उस की द्वेष भावना को और भी भड़का दिया था. इसी बीच में एक बात और हो गई थी. जिस ने राजसिंह और औरंगजेब को आमनेसामने ला कर खड़ा कर दिया था. यह संपूर्ण, हिंदू जाति का अपमान था. इसलाम कुबूल करो या हिंदू बने रहने का दंड भरो. यही कह कर हिंदुओं पर उस ने जजिया कर लगाया था.

राणा राजसिंह ने इस का विरोध किया था. उन का मन भी इसे सहन नहीं कर रहा था. इस का परिणाम यह हुआ कि कई अन्य हिंदू राजाओं ने उसे अपने यहां लागू करने में आनाकानी की. उन का साहस बढ़ गया था. गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने की अग्नि जो मंद पड़ गई थी, फिर से प्रज्जवलित हो गई थी.

दक्षिण में शिवाजी, बुंदेलखंड में छत्रसाल, पंजाब में गुरु गोविंद सिंह, मारवाड़ में राठौर वीर दुर्गादास मुगल सल्तनत के विरुद्ध उठ खड़े थे. यहां तक कि आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह और मारवाड़ के जसवंत सिंह, जो मुगल सल्तनत के 2 प्रमुख स्तंभ थे. उन में भी स्वतंत्रता प्रेमियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गई थी.

मुगल बादशाह ने एक बड़ी सेना ले कर मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया था. राणा राजसिंह ने सेना के 3 भाग किए थे. मुगल सेना के अरावली में न घुसने देने का दायित्व अपने बेटे जयसिंह को सौंपा था.

अजमेर की ओर से बादशाह को मिलने वाली सहायता को रोकने का काम दूसरे बेटे भीमसिंह का था. वे स्वयं अकबर और दुर्गादास राठौर के साथ औरंगजेब की सेना पर टूट पड़े थे. सभी मोर्चों पर उन्हें विजय हासिल हुई थी. बादशाह औरंगजेब की बड़ी प्रिय काकेशियन बेगम बंदी बना ली गई थी.

बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार औरंगजेब प्राण बचा कर निकल सका था. मेवाड़ के महाराणा की यह जीत ऐसी थी कि उन के जीवन काल में फिर कभी औरंगजेब उन के विरुद्ध सिर न उठा सका था. लेकिन क्या इस विजय का श्रेय केवल राणा को था या किसी और को?

हाड़ी रानी और चुंडावत सरदार रतनसिंह को किसी भी प्रकार से गम नहीं था. मुगल बादशाह जब चारों ओर राजपूतों से घिर गया, उस की जान के भी लाले पड़े थे, उस का बच कर निकलना भी मुश्किल हो गया था, तब उस ने दिल्ली से अपनी सहायता के लिए अतिरिक्त सेना बुलवाई थी.

राणा को यह पहले ही ज्ञात हो चुका था. उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने के लिए हाड़ी रानी के पति चुंडावत रतनसिंह को पत्र लिख कर दूत शार्दूलसिंह के हाथ भेजा था. वही संदेश ले कर शार्दूलसिंह मित्र के पास पहुंचा था.

एक क्षण का भी विलंब न करते हुए चुंडावत सरदार रतनसिंह ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था. अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उस के पास पहुंचा था.

केसरिया बाना पहने युद्ध वेश में सजे पति को देख कर हाड़ी रानी सलेहकंवर चौंक पड़ी. वह अचंभित थी. बोली, ‘‘कहां चले स्वामी? इतनी जल्दी. अभी तो आप कह रहे थे कि 4-6 महीनों के लिए युद्ध से फुरसत मिली है, आराम से रहेंगे. मगर यह क्या देख रही हूं?’’

आश्चर्यमिश्रित शब्दों में हाड़ी रानी पति से पुन: बोली, ‘‘प्रिय, पति के शौर्य और पराक्रम को परखने के लिए ही तो क्षत्राणियां इसी दिन की प्रतीक्षा करती हैं. वह शुभ घड़ी अभी आ ही गई. देश के शत्रुओं से 2-2 हाथ होने का अवसर मिला है.’’

‘‘आप सही कह रही हैं, मुझे यहां से अविलंब निकलना है. हंसतेहंसते विदा दो. पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो.’’ चुंडावत सरदार ने मुसकरा कर पत्नी से कहा.

चुंडावत सरदार का मन आशंकित था. सचमुच ही यदि न लौटा तो. मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा? एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह. इसी अंतर्द्वंद्व में उन का मन फंसा था. उन्होंने पत्नी को राणा राजसिंह के पत्र के संबंध में पूरी बात विस्तार से बता दी थी.

 

जीवन संघर्ष -भाग 1 : एक मां की दर्दभरी दास्तान

आज मेरे यूट्यूब चैनल की पहली पेमेंट आई थी. मैं बहुत खुशी थी. जिंदगी में पहली बार अपनी कमाई को अपने हाथों में लेने का सुख अलग ही था.आज मैं ने खीर बनाई. अपने ढाई साल के बेटे मेहुल को खिलाई. फिर उसे पलंग पर सुला दिया. मैं भी उस के पास लेट गई.

इतने में श्रेया का फोन आया.श्रेया मेरे बड़े जेठ की बेटी थी और मुझ से 3 साल बड़ी. मेरे लिए वह मेरी सहेली और बड़ी बहन से कम नहीं थी.श्रेया ने मुझे पहली पेमेंट आने पर बधाई दी. मैं ने उसे धन्यवाद दिया. बात होने के बाद मैं फिर मेहुल के पास लेट गई.मैं ने जोकुछ भी किया, अपने बेटे के लिए किया. मैं बेटे को सहलाते हुए यादों की गलियों में खो गई.मेरे घर में मेरे पिता, मां और बड़े भाई राहुल समेत मैं यानी रितिका 4 ही लोग थे. मेरे पापा हलवाई थे. हमारे घर का खर्चा आराम से चलता था.

मैं 7 साल की थी, जब पिताजी हमें हमेशा के लिए छोड़ कर चले गए. मैं अपने पिता के बहुत करीब थी. मैं बहुत रोई थी. मां का भी रोरो कर बुरा हाल था. भैया भी बहुत उदास थे. वे 13 साल के थे और 7वीं क्लास में पढ़ते थे.धीरेधीरे हम सब ने खुद को संभाला. मम्मी सिलाई का काम कर के हम दोनों भाईबहन को पालने लगीं. मेरे भाई का पढ़ने में मन नहीं लगता था.

वह किसी होटल में बरतन धोने का काम करने लगा. मेरी पढ़ने में दिलचस्पी थी. मेरी जिद देख कर मम्मी ने मुझे पढ़ने भेजा.समय तेजी से बीता. मेरे भैया की शादी रीना नाम की लड़की से हो गई. कुछ दिन तो घर का माहौल अच्छा रहा, पर बाद में रीना भाभी ने अपने लक्षण दिखाने शुरू कर दिए.रीना भाभी हर वक्त घर में कलह बनाए रखतीं. मेरी पढ़ाई को ले कर मुझे ताने देती रहतीं.

इन्हीं तानों के चलते मेरा मन भी पढ़ाई से ऊब गया.रीना भाभी के जब पहला बच्चा हुआ, तो उस की देखभाल के बहाने मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई.इतने में मेरा मुंहबोला मामा मेरी मां के पास आया. उस ने मां को मेरे लिए गुजरात के किसी परिवार में रिश्ता बताया. तब मैं खुद भी शादी कर के परिवार के इस माहौल से निकलना चाहती थी. वे लोग बिना दहेज के शादी करने को तैयार थे.

बदले में एक लाख रुपए देने के लिए तैयार थे. मम्मी व भैया शादी के लिए तैयार हो गए.मैं ने अपने होने वाले पति को कभी नहीं देखा था. मामा ने एक लाख में से 50,000 रुपए मम्मी को थमा दिए. बाकी के 50,000 शादी की तैयारी में खर्च हो गए.

मंदिर में हमारी शादी हुई. मैं तब भी अपने पति का चेहरा ठीक से देख नहीं पाई. घूंघट और रीतिरिवाज आड़े आए. न ही मायके वालों ने चेहरा देखने की जहमत उठाई.मैं शादी कर के अपनी ससुराल गुजरात आ गई. जब मैं ने अपनी ससुराल में कदम रखा, तब मेरी उम्र 16 साल की थी. मेरे गृहप्रवेश के बाद शादी की सारी रस्में की गईं. मैं कुछ डरी सी, सहमी सी, शरमाती हुई घर की कुछ औरतों के साथ अपने कमरे में चली आई.मुझे उन्हीं औरतों से पता चला कि मेरे आदमी की उम्र 39 साल है.

मेरे सासससुर की उम्र मेरे दादादादी जितनी है. मेरे जेठ और जेठानी मेरे मम्मीपापा की उम्र के हैं. मेरे जेठ के बच्चे मेरी उम्र के हैं. मैं ने तो अभी ठीक से जाना ही नहीं था कि उन औरतों में से किस के साथ मेरा कौन सा रिश्ता है? बातों से ही समझ में आया उन में से एक मेरी ननद और एक मेरी जेठानी थी. मेरा दिल अंदर से कांप उठा.थोड़ी देर बाद मेरे पति कमरे में आए.

मैं ने उन्हें ध्यान से देख. उम्र के इस दौर में वे जवान तो नहीं लगते थे. मैं इसे घर वालों के साथ धोखा भी नहीं मानती थी. रुपयों की चमक ने उन्हें अंधा कर दिया था. उन्होंने इन्हें देखने की जहमत ही नहीं उठाई थी. देखते तो पता चल जाता कि वे 22 साल के नहीं हैं, बल्कि अधेड़ हैं. मेरे पिताजी होते तो वे ऐसा कभी नहीं होने देते. यह बेमेल ब्याह था.मेरी सुहागरात का समय आया. मैं पीरियड में थी. पीरियड के समय दर्द से बेहाल थी. मुझे रोना आ रहा था. मैं ने अपने पति को बताया भी, लेकिन उन्होंने जबरदस्ती मुझ से संबंध बनाया. उन्हें मेरे शरीर के दर्द और पीरियड होने से कोई मतलब नहीं था.

मैं मुरदा सी हो गई थी. पति संतुष्ट हो कर सो गए, लेकिन मैं नहीं सो पाई. मेरी आंखों में बहुत सारा पानी था, जो तकिए के साथ मेरी पूरी जिंदगी को भिगो कर चला गया. मैं पूरी रात बैठी रोती रही.अगली सुबह मैं ने सुना कि ससुराल वालों ने मुझे 2 लाख रुपए में खरीदा था. डेढ़ लाख मेरे मुंहबोले मामा ने रख लिए और 50,000 मेरी मां को दे दिए.

यह कैसी मां और कैसे मामा हैं?पति आते और एक मुरदा के साथ सैक्स कर के सो जाते. मुझे घर की सारी औरतें मुरदा लगीं. बहुत बार मरने का खयाल मन में आया, लेकिन मैं मरने की हिम्मत न जुटा पाई.धीरेधीरे मुझे पता चला कि इस घर में सब से ज्यादा मेरी ननद की चलती है.

ननद के 3 बेटियां हैं. बूढ़े सासससुर हैं. पति भी हैं, जो पेंटिंग का काम करते हैं, फिर भी मेरी ननद ज्यादातर अपने मायके में पड़ी रहती है. मेरी इस ननद की उम्र 41 साल है. लड़के की चाहत में वह लड़कियों की सेना तैयार कर रही है.मैं ने अपनी ब्याही गई सखियों से सुना था कि जब घर में बहू आ जाती है, तो सभी औरतें घर में काम करने की हड़ताल कर लेती हैं.

मेरे साथ भी ऐसा हुआ. मेरी मेहंदी भी नहीं उतरी थी कि पूरे घर के काम की जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी. मैं पूरे घर का काम कर के खाना खाती थी. थोड़ी सी गलती हो जाती, तो ननद मुझ पर चिल्लाती. मैं पीड़ा से भर जाती. मन में अनेक तीखे सवाल उठते.

उन में से एक यह भी था कि यही बात प्यार से भी तो समझाई जा सकती थी?मुझे खरीदा भी गया है तो इस के पैसे मेरे ससुर और पति ने दिए होंगे? ननद का मुझ पर इस तरह चिल्लाने का कोई हक नहीं है. पर एक दिन कुछ अलग हुआ. मैं रो रही थी कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा. मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो हैरान रह गई कि यह अनजान लड़की कौन है? अपना परिचय दिया तो पता चला कि वह मेरे जेठ की बेटी श्रेया थी. उस दिन हम पहली बार मिले थे.

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक- भाग 1: क्या भरम से निकल पाया नरेन

“देवी, स्वामीजी को गरमागरम फुल्का चाहिए,” स्वामीजी के साथ आए चेले ने कहा.

रोटी सेंकती रवीना का दिल किया, चिमटा उठा कर स्वामीजी के चेले के सिर पर दे मारे. जिस की निगाहें वह कई बार अपने बदन पर फिसलते महसूस कर जाती थी.

“ला रही हूं….” न चाहते हुए भी उस की आवाज में तल्खी घुल गई.

तवे की रोटी पलट, गरम रोटी की प्लेट ले कर वह सीढ़ी चढ़ कर ऊपर चली गई.

आखिरी सीढ़ी पर खड़ी हो उस ने एकाएक पीछे मुड़ कर देखा तो स्वामीजी का चेला मुग्ध भाव से उसे ही देख रहा था. लेकिन जब अपना ही सिक्का खोटा हो, तो कोई क्या करे.

वह अंदर स्वामीजी के कमरे में चली गई.

स्वामीजी ने खाना खत्म कर दिया था और तृप्त भाव से बैठे थे. उसे देख कर वे भी लगभग उसी मुग्ध भाव से मुसकराए, “मेरा भोजन तो खत्म हो गया देवी… फुल्का लाने में तनिक देर हो गई… अब नहीं खाया जाएगा…”

‘उफ्फ… सत्तर नौकर लगे हैं न यहां… स्वामीजी के तेवर तो देखो,‘ फिर भी वह उन के सामने बोली, “एक फुल्का और ले लीजिए, स्वामीजी…”

“नहीं देवी, बस… तनिक हाथ धुलवा दें…” रवीना ने वाशरूम की तरफ नजर दौड़ाई.

वाशबेसिन के इस जमाने में भी जब हाथ धुलाने के लिए कोई कोमलांगी उपलब्ध हो तो ‘कोई वो क्यों चाहे… ये न चाहे‘ रवीना ने बिना कुछ कहे पानी का लोटा उठा लिया, “कहां हाथ धोएंगे स्वामीजी…”

“यहीं, थाली में ही धुलवा दें…” स्वामीजी ने वहीं थाली में हाथ धोया और कुल्ला भी कर दिया.

यह देख रवीना का दिल अंदर तक कसमसा गया. पर किसी तरह छलकती
थाली उठा कर वह नीचे ले आई.

स्वामीजी के चेले को वहीं डाइनिंग टेबल पर खाना दे कर उस ने बेडरूम में घुस कर दरवाजा बंद कर दिया. अब कोई बुलाएगा भी तो वह जाएगी नहीं, जब तक बच्चे स्कूल से आ नहीं जाते.

40 वर्षीया रवीना खूबसूरत, शिक्षित, स्मार्ट, उच्च पदस्थ अधिकारी की पत्नी,
अंधविश्वास से कोसों दूर, आधुनिक विचारों से लवरेज महिला थी, पर पति नरेन का क्या करे, जो उच्च शिक्षित व उच्च पद पर तो था, पर घर से मिले संस्कारों की वजह से घोर अंधविश्वासी था. इस वजह से रवीना व नरेन में जबतब ठन जाती थी.

इस बार नरेन जब कल टूर से लौटा तो स्वामीजी और उन का चेला भी साथ थे. उन्हें देख कर वह मन ही मन तनावग्रस्त गई. समझ गई, अब यह 1-2 दिन का किस्सा नहीं है.

कुछ दिन तक तो उसे इन तथाकथित स्वामीजी की बेतुकी बातें, बेहूदी निगाहें व उपस्थिति झेलनी ही पड़ेगी.

स्वामीजी को सोफे पर बैठा कर नरेन जब कमरे में कपड़े बदलने गया तो वह पीछेपीछे चली आई.

“नरेन, कौन हैं ये दोनों… कहां से पकड़ लाए हो इन को?”

“तमीज से बात करो रवीना… ऐसे महान लोगों का अपमान करना तुम्हें शोभा नहीं देता…

“लौटते हुए स्वामीजी के आश्रम में चला गया था… स्वामीजी की सेहत कुछ ठीक नहीं चल रही है… इसलिए पहाड़ी स्थान पर हवा बदलने के लिए आ गए… उन की सेवा में कोई
कोताही नहीं होनी चाहिए…”

यह सुन कर रवीना पसीनापसीना हो गई, “कुछ दिन का क्या मतलब है… तुम औफिस चले जाओगे और बच्चे स्कूल… और मैं इन दो मुस्टंडों के साथ घर पर अकेली रहूंगी… मुझे
डर लगता है ऐसे बाबाओं से… इन के रहने का बंदोबस्त कहीं घर से बाहर करो…” रवीना गुस्से में बोली.

“वे यहीं रहेंगे घर पर…” नरेन रवीना के गुस्से को दरकिनार कर तैश में बोला, “औरतों की तो आदत ही होती है हर बात पर शिकायत करने की… मुझ में दूसरा कोई व्यसन नहीं… लेकिन, तुम्हें मेरी ये सात्विक आदतें भी बरदाश्त नहीं होतीं… आखिर यह मेरा भी घर है…”

“घर तो मेरा भी है…” रवीना तल्खी से बोली, “जब मैं तुम से बिना पूछे कुछ नहीं करती… तो तुम क्यों करते हो…?”

“ऐसा क्या कर दिया मैं ने…” नरेन का क्रोधित स्वर ऊंचा होने लगा, “हर बात पर तुम्हारी टोकाटाकी मुझे पसंद नहीं… जा कर स्वामीजी के लिए खानपान व स्वागतसत्कार का इंतजाम करो,” कह कर नरेन बातचीत पर पूर्णविराम लगा बाहर निकल गया. रवीना के सामने कोई चारा नहीं था, वह भी किचन में चली गई.

नरेन का दिमाग अनेकों अंधविश्वासों व विषमताओं से भरा था. वह अकसर ही ऐसे लोगों के संपर्क में रहता और उन के बताए टोटके घर में आजमाता रहता, साथ ही घर में सब को ऐसा करने के लिए मजबूर करता.

यह देख रवीना परेशान हो जाती. उसे अपने बच्चे इन सब बातों से दूर रखने मुश्किल हो रहे थे.

घर का नजारा तब और भी दर्शनीय हो जाता, जब उस की सास उन के साथ रहने
आती. सासू मां सुबह पूजा करते समय टीवी पर आरती लगवा देतीं और अपनी पूजा खत्म कर, टीवी पर रोज टीका लगा कर अक्षत चिपका कर, टीवी के सामने जमीन पर लंबा लेट कर शीश नवातीं.

कई बार तो रोकतेरोकते भी रवीना की हंसी छूट जाती. ऐसे वक्तबेवक्त के आडंबर उसे उकता देते थे और जब माताजी मीलों दूर अमेरिका में बैठी अपनी बेटी की मुश्किल से पैदा हुई संतान की नजर यहां भारत में वीडियो काल करते समय उतारती तो उस के लिए पचाना मुश्किल हो जाता.

नरेन को शहर से कहीं बाहर जाना होता तो मंगलवार व शनिवार के दिन बिलकुल नहीं जाना चाहता. उस का कहना था कि ये दोनों दिन शुभ नहीं होते. बिल्ली का
रास्ता काटना, चलते समय किसी का छींकना तो नरेन का मूड ही खराब देता.

घर गंदा देख कर शाम को यदि वह गलती से झाड़ू हाथ में उठा लेती तो नरेन
जमीनआसमान एक कर देता है, ‘कब अक्ल आएगी तुम्हें… शाम को व रात को घर में झाड़ू नहीं लगाया जाता… अशुभ होता है..‘ वह सिर पीट लेती, “ऐसा करो नरेन…एक दिन
बैठ कर शुभअशुभ की लिस्ट बना दो..”

शादी के बाद जब उस ने नरेन को सुबहशाम एक एक घंटे की लंबी पूजा करते देखा तो वह हैरान रह गई. इतनी कम उम्र से ही नरेन इतना अधिक धर्मभीरू कैसे और क्यों हो गया.

पर, जब नरेन ने स्वामी व बाबाओं के चक्कर में आना शुरू कर दिया, तो वह
सतर्क हो गई. उस ने सारे साम, दाम, दंड, भेद अपनाए, नरेन को बाबाओं के चंगुल से बाहर निकालने के लिए, पर सफल न हो पाई और इन स्वामी सदानंद के चक्कर में तो वह नरेन को पिछले कुछ सालों से पूरी तरह से उलझते देख रही थी.

संस्कारी बहू – भाग 1 : रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा की अय्याशी

पूर्णिमा को लोग रोज दुत्कारते थे. कोई भी उसे अपने दरवाजे पर नहीं ठहरने देता था. फिर भी वह जैसेतैसे इन झोंपडि़यों की बस्ती में एक कोने में जिंदा थी.

एक एनजीओ में काम करने की वजह से वह मेरी नजर में आई थी. मेरे लिए किसी को भूखे रहते देखना गवारा नहीं था. मैं ने बैग से रोटियों का एक पैकेट निकाल कर दिया कि तभी पड़ोस की एक झोंपड़ी से एक औरत ने मेरा हाथ रोक दिया और मुझे अंदर आने को कहा.

मैं ने उसे रोटियां पकड़ाईं और फिर उस औरत की झुग्गी में घुस गई. वहां एक पंडितनुमा जना भी बैठा था. वह बोला, ‘‘व्यभिचारात्तु भर्तु: स्री लोके प्रापोन्ति निन्द्यताम्, श्रृगालयोनिं प्रापोन्ति पापरोगैश्च पीडयते.

‘‘‘मनुस्मृति’ में ऐसा कहा गया है. तुम शहरी लड़कियों को क्या मालूम सनातन धर्म क्या होता है. इस का मतलब है कि जो औरत अपने पति को छोड़ कर किसी दूसरे मर्द के साथ रिश्ता बनाती है, वह श्रृंगाल यानी गीदड़ का जन्म पाती है. उसे पाप रोग यानी कोढ़ हो जाता है.’’

इस बस्ती के लोगों पर उस पंडित का बहुत असर दिख रहा था. ‘मनुस्मृति’ के ही आधार पर उस औरत के संबंध में जो कहानी बताई जा रही थी वह यह थी कि किसी औरत का मर्द कितना भी बदचलन क्यों न हो, औरत को उस की खिलाफत करने का हक नहीं है.

औरत तो गंवार, अनपढ़ और पशु की तरह पीटने लायक ही है. और जब कोई औरत मर्दों के इस अहम की खिलाफत में उतर आती है तो उस का मुकाबला इंद्र के समान कपटी भी नहीं कर सकता.

मैं अपनी एनजीओ का काम बंद नहीं कराना चाहती थी वरना क्या मुझे मालूम नहीं था. भारत में मठाधीशों, गुरुओं और साधुमहात्माओं की करतूतें जगजाहिर हैं.

ये धर्मगुरु अपने शिष्यों को त्याग, बलिदान और मोक्ष के प्रवचन देते हैं और खुद रंगीन जिंदगी बिताते हैं. ये महाशय भी पक्का इसी तरह की जिंदगी जी रहे हैं और इसीलिए पागल की बगल में झोंपड़ी में बैठे हैं.

इस झुग्गीझोंपड़ी के लोग भी निपट बेवकूफ हैं. वे गुरुओं की फौर्चुनर, मर्सिडीज गाड़ी, सोने के सिंहासन और चांदी के बरतनों की ओर खिंचते हैं और अपनी जिंदगीभर की सारी कमाई इन के चरणों में धर देते हैं.

कुछ साल पहले इस बस्ती के ज्यादातर परिवार रघुवीर गुरुजी के भक्त थे. हां, यही नाम बताया था उन त्रिपुंडधारी महाशय ने. रघुवीर गुरुजी ने बस्ती के तालाब के किनारे शिवालय बना कर जमीन पर कब्जा कर के एक विशाल आश्रम बना लिया था.

यह आश्रम नशे, हथियार और ऐयाशी का अड्डा था. बाद में मुझे पता चल गया कि उस पंडित ने नकली चमत्कार दिखा कर बस्ती की भोलीभाली जनता को अपना अंधभक्त बना लिया था. धीरेधीरे मुझे पूरी कहानी पता चली थी.

उस समय रघुवीर गुरुजी के इस आश्रम में हर 2-3 महीने में धर्म की आड़ में नशे और सैक्स के लिए पार्टियों का आयोजन किया जाता था, जिस में इस बस्ती की गरीब कमसिन लड़कियों को बुला कर परोसा जाता था. यह काम पिछले बहुत सालों से चल रहा था.

शहर के अमीर, ताकतवर और सरकारी अफसर रघुवीर गुरुजी के इस कारोबार के मुनाफे में साझेदार थे. रघुवीर गुरुजी के खिलाफ बोलने वाले लोग अकसर एक्सिडैंटों में मारे जाते थे और उन्हें ट्रैफिक तोड़ने वालों की लापरवाही का नाम दे दिया जाता था.

बस्ती की भोलीभाली औरतें अपनी बहूबेटियों को आश्रम की सेवा में भेज देती थीं. कुछ तो रघुवीर गुरुजी का स्वाद खुद भी चख आई थीं और वह उन्हें ब्लैकमेल कर उन की बेटियों को भी बुलाता था.

रघुवीर गुरुजी के शिष्यों द्वारा देवताओं के नाम पर शारीरिक शोषण मनमरजी से किया जाता था और ऊपर से उन की पैसे से मदद की जाती थी.

एक समय यहां एक आश्रम था, जिस का नाम बहुत दूरदूर तक था. रघुवीर गुरु के आश्रम में देशी शराब, अफीम और गांजे के लालच में आसपास का बस्तियों के दर्जनों गुंडे पलते थे. वे गुरुजी के गैरकानूनी साम्राज्य के सैनिक थे. इस तरह रघुवीर गुरुजी के जितने विरोधी थे, उस से ज्यादा उन के पाखंडी समर्थक थे.

पुरुषोत्तम मास में कृष्ण की सखियां बनाने के नाम पर एक महीने तक औरतों को सूरज उगने से पहले आश्रम में बुला कर बिना कपड़ों के स्नान और ध्यान के लिए मजबूर किया जाता था.

लोग कहते थे कि गुरुजी के पास सम्मोहन की कला थी, पर असलियत में औरतों को प्रसाद और धुएं से नशा दिया जाता था. नशे में मदहोश औरतों के पोर्नोग्राफिक वीडियो बना कर औनलाइन बेचे जाते थे.

जिन औरतों ने रघुवीर गुरुजी के जोरजुल्म के खिलाफ बोलने की हिम्मत की थी, उन्हें बदनाम कर दिया जाता था. ऐसी औरतों को अपनी जान या इज्जत गंवाने का खमियाजा भुगतना पड़ता था.

यही वजह थी कि ज्यादातर औरतों ने उस समय आश्रम की रंगीन दुनिया को अपना लिया था. गुरुजी का समर्थन कर के वे न सिर्फ अपने शौक पूरे कर सकती थीं, बल्कि पैसे भी मिलते थे. बदले में उन्हें सिर्फ शर्म छोड़नी होती थी.

जिन औरतों ने गुरुजी के खिलाफ बोलने की हिम्मत की, उन्हें न तो बस्ती के लोग और न उन के ही परिवार वालों ने स्वीकार किया. मतलब पूरी बस्ती ने ही गुरुभक्ति की आड़ में अपने परिवार की इज्जत को ताक पर रख दिया था.

रघुवीर गुरुजी के एक प्रकांड भक्त पांडेयजी, जो मोक्ष, वेद और उपनिषद के ज्ञाता थे, ने अपने लड़के की शादी में भरपूर दहेज लिया था, पर फिर भी वे और ज्यादा दहेज के लिए अपनी बहू पूर्णिमा को सताते थे.

पांडेयजी को अपनी खूबसूरत और पढ़ीलिखी बहू की कोई कद्र नहीं थी. परंपरा के मुताबिक पांडेयजी की बहू को भी शादी के बाद अपना कुंआरापन खोने से पहले 3 दिनों तक आश्रम में देवताओं की उपासना के लिए जाना पड़ा था.

शहर के स्कूल में पलीबढ़ी पांडेयजी की बहू पूर्णिमा ने तुरंत ही आश्रम में पल रहे गिद्धों को पहचान लिया. उस ने अपनी ससुराल और बस्ती के लोगों को रघुवीर गुरुजी के ढोंग से बचाने की भरसक कोशिश की, लेकिन उस की एक न सुनी गई.

पूर्णिमा ने साइंस के प्रयोगों द्वारा रघुवीर गुरुजी के चमत्कारों को समझाने की कोशिश की, लेकिन उसे झुठला दिया गया. इतना ही नहीं, उसे ही आवारा और बदचलन कहते हुए उस के मायके के लोगों को भलाबुरा कहा जाने लगा.

पूर्णिमा की इस करतूत पर गुस्सा हो कर एक दिन पूर्णिमा की सास और पति ने लातघूंसों से पिटाई कर दी, तब जा कर उस का समाज सुधार का भूत उतरा. तब हार कर उसे रघुवीर गुरुजी की बुराई करने के लिए कान पकड़ कर माफी मांगनी पड़ी, पर मन ही मन बदला लेने के लिए वह नागिन की तरह तड़प उठी.

एक बार सालाना जलसे के लिए बस्ती में रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा के घर का चुनाव किया था. पूर्णिमा के पति और सास खुशी से फूले न समा रहे थे. पूर्णिमा को उन्होंने खातिरदारी में कोई कमी न रखने की सख्त हिदायत दी.

पूर्णिमा यह अच्छी तरह जान चुकी थी कि अगर घर से अपनी इस बेइज्जती का बदला चुकाना है तो इस ढोंगी गुरुजी की कृपा हासिल करनी ही होगी.

पूर्णिमा ने गुरुजी के चरण गोद में रख कर पानी से साफ किए. चरणों को अपने उभारों का सहारा देते हुए तौलिया से सुखाया और फिर माथे से लगा लिया. पूर्णिमा के इस बदले हुए मिजाज से सब बहुत खुश हुए.

रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा की सेवा से गदगद होते हुए अपने चरणों की गंदगी से गंदे हुए चरणामृत को ग्रहण करने और पूरे घर में उस गंदे पानी छिड़काव करने का आदेश दिया.

रघुवीर गुरुजी ने पूर्णिमा के हाथों से स्वादिष्ट भोजन और प्रसाद ग्रहण किया. वह भी अब तन व मन से उन की खुशामद में लगी हुई थी. अपने साथ दहेज में आए सुहागरात के बिस्तर को उस ने गुरुजी के आराम के लिए तैयार कर दिया.

पति को बाहर के कमरे में सुला कर पूर्णिमा देर रात तक गुरुजी की सेवा करती रही. पहली ही रात में गुरुजी को अपने काबू में लेने के लिए उस ने कामशास्त्र का इस्तेमाल किया.

रघुवीर गुरुजी को सपने में भी अंदाजा नहीं था कि यह शहरी लड़की इतनी धार्मिक हो चुकी हैं. गुरुजी से उम्र में आधी पूर्णिमा ने रात के 12 बजे तक उन्हें स्वर्ग की अप्सरा के जैसा आनंद दिया. उस ने सारे कपड़े उतार कर रख कर दिए, पर उन कपड़ों में मोबाइल छिपा था और उस का वीडियो औन था. 2 घंटे की रिकौर्डिंग हुई.

दोपहर को आराम के समय पूर्णिमा गुरुजी के लिए आम का शरबत ले कर हाजिर हुई तो काम के जोश में गुरुजी ने उसे जबरदस्ती अपनी गोद में बैठा लिया और उस के कपड़ों को हटा कर उस

के शरीर को अपनी प्रेमिका की तरह दुलारना शुरू कर दिया. अगले ही दिन गुरुदीक्षा और समाधि के नाम पर पूर्णिमा को अपने साथ कमरे में बंद कर उन्होंने उस का पूरी तरह फिर उपभोग किया.

इस के बाद तो पूर्णिमा महीनों गुरुजी के आश्रम पर रह कर उन की सेवाभक्ति कर लाभ लेने लगी. अब उसे अपनी ससुराल के कामकाज से भरी हुई जिंदगी अच्छी नहीं लगती थी, बल्कि उसे तो गुरुजी की सखी की तरह रहने में मजा आता था, जहां कोई काम नहीं. सास और पति की दखलअंदाजी भी नहीं. पैसे की कमी नहीं. लेकिन वह लगातार मोबाइल पर वीडियो पर वीडियो बनाए जा रही थी.

पूर्णिमा की इस गुरुभक्ति के चलते पांडेयजी के पूरे परिवार को आश्रम में सब से ज्यादा इज्जत मिलने लगी थी. गुरुजी के आशीर्वाद से पूर्णिमा के बेरोजगार पति को एक फैक्टरी में नौकरी मिल गई थी. पूर्णिमा के धार्मिक संस्कारों की अब हर जगह तारीफ होने लगी थी.

यही वजह थी कि रघुवीर गुरुजी की सभी शिष्याएं अपनीअपनी बहुओं को पूर्णिमा की तरह बनने के लिए उकसाती थीं. पूर्णिमा भी बेवकूफ औरतों का

पूरा फायदा उठाने लगी, पर उन में से उस ने 3-4 जवान बहुओं को अपने साथ मिला लिया.

जैसजैसे युवतियां बढ़ने लगीं, वैसेवैसे रघुवीर गुरुजी के आश्रम पर भौतिक सुखसुविधाओं का अंबार लगने लगा. उन के सोने के कमरे में ऐशोआराम की सभी सुविधाएं आ गई थीं. हमेशा जवान बनाए रखने के लिए चीन से लाई गई मसाज मशीनें खरीद ली गई थीं. अमेरिका से लाया गया एक करोड़ का सोना बाथ आ गया था.

 

एक नदी पथभ्रष्टा- भाग 1 : अनजान डगर पर मानसी

‘‘आज तुम्हारी वही प्रिय सखी फिर मिली थी,’’ टाई की गांठ ढीली करते हुए रंजीत ने कहा.

रंजीत के बोलने के ढंग से शुभा समझ तो गई कि वह किस की बात कर रहा है, फिर भी अनजान बनते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन? कौन सी सखी?’’

‘‘अब बनो मत. शुभी, तुम जानती हो मैं किस की बात कर रहा हूं,’’ सोफे पर बैठते हुए रंजीत बोला, ‘‘वैसे कुछ भी कहो पर तुम्हारी वह सखी है बड़ी ही बोल्ड. उस की जगह और कोई होता तो नजर बचा कर कन्नी काटने की कोशिश करता, लेकिन वह तो आंखें मिला कर बड़े ही बोल्ड ढंग से अपने साथी का परिचय देती है कि ये मिस्टर फलां हैं. आजकल हम साथ रह रहे हैं.’’

उस की हूबहू नकल उतारता रंजीत सहसा गंभीर हो गया, ‘‘समझ में नहीं आता, शुभी, वह ऐसा क्यों करती है. भला किस बात की कमी है उसे. रूपरंग सभी कुछ इतना अच्छा है. सहज ही उस के मित्र भी बन जाते हैं, फिर किसी को अपना कर सम्मानित जीवन क्यों नहीं बिताती. इस तरह दरदर भटकते हुए इतना निंदित जीवन क्यों जीती है वह.’’

यही तो शुभा के मन को भी पीडि़त करता है. वह समझ नहीं पाती कि मोहित जैसे पुरुष को पा कर भी मानसी अब तक भटक क्यों रही है? शुभा बारबार उस दिन को कोसने लगती है, जब मायके की इस बिछुड़ी सखी से उस की दोबारा मुलाकात हुई थी.

वह शनिवार का दिन था. रंजीत की छुट्टी थी. उस दिन शुभा को पालिका बाजार से कुछ कपड़े खरीदने थे, सो, रंजीत के साथ वह जल्दी ही शौपिंग करने निकल गई. पालिका बाजार घूम कर खरीदारी करते हुए दोनों ही थक गए थे. रंजीत और वह पालिका बाजार के पास बने पार्क में जा बैठे. पार्क में वे शाम की रंगीनियों का मजा ले रहे थे कि अचानक शुभा की नजर कुछ दूरी पर चहलकदमी करते एक युवा जोड़े पर पड़ी थी. युवक का चेहरा तो वह नहीं देख पाई, क्योंकि युवक का मुंह दूसरी ओर था, किंतु युवती का मुंह उसी की तरफ था. उसे देखते ही शुभा चौंक पड़ी थी, ‘मानसी यहां.’

बरसों की बिछुड़ी अपनी इस प्रिय सखी से मिलने की खुशी वह दबा नहीं पाई. रंजीत का हाथ जोर से भींचते हुए वह खुशी से बोली थी, ‘वह देखो, रंजीत, मानसी. साथ में शायद मोहित है. जरूर दोनों ने शादी कर ली होगी. अभी उसे बुलाती हूं,’ इतना कह कर वह जोर से पुकार उठी, ‘मानसी…मानसी.’

उस की तेज आवाज को सुन कर कई लोगों के साथ वह युवती भी पलटी थी. पलभर को उस ने शुभा को गौर से देखा, फिर युवक के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर वह तेजी से भागती हुई आ कर उस से लिपट गईर् थी, ‘हाय, शुभी, तू यहां. सचमुच, तुझ से मिलने को मन कितना तड़पता था.’

‘रहने दे, रहने दे,’ शुभा ने बनावटी गुस्से से उसे झिड़का था, ‘मिलना तो दूर, तुझे तो शायद मेरी याद भी नहीं आती थी. तभी तो गुपचुप ब्याह कर लिया और मुझे खबर तक नहीं होने दी.’

अपनी ही धुन में खोई शुभा मानसी के चेहरे पर उतर आई पीड़ा को नहीं देख पाई थी. मानसी ने जबरन हंसी का मुखौटा चेहरे पर चढ़ाते हुए कहा था, ‘पागल है तू तो. तुझ से किस ने कह दिया कि मैं ने शादी कर ली है.’

‘तब वह…’ अचानक अपनी तरफ आते उस युवक पर नजर पड़ते ही शुभा चौंक पड़़ी, यह मोहित नहीं था. दूर से मोहित जैसा ही लगता था. शुभा अचकचाई सी बोल पड़ी, ‘‘तब यह कौन है? और मोहित?’’

बीच में ही मानसी शुभा की बात को काटते हुए बोली, ‘छोड़ उसे, इन से मिल. ये हैं, मिस्टर बहल. हम लोग एक ही फ्लैट शेयर किए हुए हैं. अरे हां, तू अपने श्रीमानजी से तो मिलवा हमें.’

मानसी के खुलेपन को देख कर अचकचाई शुभा ने जैसेतैसे उस दिन उन से विदा ली, किंतु मन में कहीं एक कांटा सा खटकता रहा. मन की चुभन तब और बढ़ जाती जब आएदिन रंजीत उसे किसी नए मित्र के साथ कहीं घूमते देख लेता. वह बड़े चटखारे ले कर मानसी और उस के मित्रों की बातें करता, रंजीत के स्वर में छिपा व्यंग्य शुभा को गहरे तक खरोंच गया.

कुछ भी हो, आखिर मानसी उस की बचपन की सब से प्रिय सखी थी. बचपन के लगभग 15 साल उन्होंने साथसाथ बिताए थे. तब कहीं कोई दुरावछिपाव उन के बीच नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में मोहित के आने और उस से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह शुभा से कह दिया करती थी. उस ने मोहित से शुभा को मिलवाया भी था. ऊंचे, लंबे आकर्षक मोहित से मिल कर शुभा के मन में पलभर को सखी से ईर्ष्या का भाव जागा था, पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मानसी जैसी युवती के लिए मोहित के अतिरिक्त और कोई सुयोग्य वर हो ही नहीं सकता था.

कुदरत ने मानसी को रूप भी अद्भुत दिया था. लंबी छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी घनी पलकों से ढकी गहरी काली आंखें, घने काले केश और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी जो सहज ही किसी को भी अपनी ओर खींच लेती थी.

शुभा अकसर उसे छेड़ती थी, ‘‘मैं लड़का होती तो अब तक कब की तुझे भगा ले गई होती. मोहित तो जैसे काठ का उल्लू है, जो अब तक तुझे छोड़े हुए है.’’

ऐतिहासिक कहानी – भाग 1 : हाड़ी रानी की अंतिम निशानी

मेवाड़ का इतिहास शौर्य और वीरता की गाथाओं से भरा पड़ा है. कभी गुलामी स्वीकार नहीं करने वाले महाराणा प्रताप की इस भूमि में प्रेम, त्याग और बलिदान की कई कहानियां हैं. उन्हीं में से प्रस्तुत है, हाड़ी रानी सलेहकंवर की अमर कहानी, जिन्होंने शादी के एक सप्ताह बाद ही मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सिर काट कर युद्धभूमि में पति को इस तरह भिजवाया कि…

हाड़ी रानी सलेहकंवर का जन्म बसंत पंचमी के दिन बूंदी के हाड़ा शासक संग्राम सिंह के घर हुआ था. सलेहकंवर अपने पिता संग्राम सिंह

की लाडली व समझदार पुत्री थी. हाड़ी रानी सलेहकंवर जब सयानी हुई तो सलुंबर के सरदार राव रतन सिंह चुंडावत के साथ उन का विवाह हुआ. रतन सिंह मेवाड़ के सलुंबर के सरदार थे.

मेवाड़ के महाराणा राजसिंह प्रथम (1653-1681) ने जब रतनसिंह को मुगल गवर्नर अजमेर सूबे के खिलाफ विद्रोह करने के लिए आह्वान किया, उस समय रतन सिंह का सलेहकंवर से विवाह हुए कुछ ही दिन हुए थे. उन्हें कुछ हिचकिचाहट हुई. लेकिन राजपूतों की परंपरा का ध्यान रखते हुए वे रण क्षेत्र में जाने को तैयार हुए और अपनी नवव्याहता हाड़ी रानी से कुछ ऐसी निशानी (चिह्न) मांगी, जिसे ले कर वह रण क्षेत्र में जा सकें.

रानी हाड़ी को लगा कि वह रतनसिंह के राजपूत धर्म के पालन में एक बाधा बन रही है. हाड़ी रानी सलेहकंवर ने अपना सिर काट कर एक थाली में दे दिया. थाल में रख कर, कपड़े से ढक कर जब सेवक वह सिर ले कर उपस्थित हुआ तो रतनसिंह को बड़ी ग्लानि हुई. उन्होंने हाड़ी रानी के सिर को उस के ही बालों से बांध लिया और युद्ध लड़े. जब विद्रोह समाप्त हो गया तब रतनसिंह की जीवित रहने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी.

उन्होंने अपना भी सिर काट कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी. रतनसिंह और सलेहकंवर की शादी को एक सप्ताह भी नहीं हुआ था और मेवाड़ के महाराणा राजसिंह और रूपनगर की चारूमति की शादी में औरंगजेब कोई बाधा उत्पन्न न कर दे, इस के लिए रतनसिंह ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए और हाड़ी रानी का भी क्षत्रिय चरित्र रहा होगा कि रतनसिंह के एक सेनाणी (निशानी) मांगने पर अपना सिर काट के दे दिया था, जबकि शादी को महज एक सप्ताह हुआ था. न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आलता.

सुबह का समय था. हाड़ा सरदार रतन सिंह गहरी नींद में सो रहे थे. हाड़ी रानी सलेहकंवर सजधज कर राजा साहब को जगाने शयन कक्ष में आईं. उन की आंखों में नींद की खुमारी साफ झलक रही थी.

रानी ने हंसीठिठोली से उन्हें जगाना चाहा. इस बीच दरबान आ कर वहां खड़ा हो गया. राजा का ध्यान उस की ओर न जाने पर रानी ने कहा, ‘‘हुकुम, महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा है. वह आप से तुरंत मिलना चाहता है. दूत आप के लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है. वह आप से मिलकर अभी पत्र देना चाहता है.’’

असमय दूत के आगमन का समाचार सुन कर ठाकुर रतनसिंह हक्काबक्का रह गए. वे सोचने लगे कि अवश्य कोई विशेष बात होगी. महाराणा को पता है कि वह अभी ही ब्याह कर के लौटे हैं. आपात की घड़ी ही हो सकती है.

ठाकुर रतनसिंह ने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा. दूत को बुला कर पास में बिठाया. ठाकुर रतनसिंह दूत को बिठा कर नित्यकर्म से निवृत्त होने चले गए. थोड़ी देर में वे निवृत्त हो कर अपने कक्ष में लौटे जहां राणा का दूत बैठा प्रतीक्षा कर रहा था.

ठाकुर रतनसिंह ने दूत को देख कर कहा, ‘‘अरे शार्दूल सिंह तू! इतनी सुबह कैसे? क्या भाभी ने घर से खदेड़ दिया है, जो सुबहसेवेरे आ कर नींद में खलल डाल दी.’’ सरदार रतन सिंह ने फिर दूत से कहा, ‘‘तेरी नई भाभी अवश्य तुझ पर नाराज हो कर अंदर गई होंगी. नईनई है न. इसलिए बेचारी कुछ नहीं बोलीं. ऐसी क्या आफत आ पड़ी थी. 2 दिन तो चैन की बंसी बजा लेने देते. मियांबीवी के बीच में क्यों कबाब में हड्डी बन कर आ बैठे. खैर, छोड़ो ये सब, बताओ राणा राजसिंह ने मुझे क्यों याद किया है?’’ वह ठहाका मार कर हंस पड़े.

दोनों में गहरी मित्रता थी. सामान्य दिन अगर होते तो शार्दूलसिंह भी हंसी में जवाब देता. शार्दूल खुद भी बड़ा हंसोड़ था. वह हंसीमजाक के बिना एक क्षण को भी नहीं रह सकता था, लेकिन इस वक्त वह बड़ा गंभीर था.

बींझा- भाग 1 : सोरठ का अमर प्रेम

सांचौर एक अच्छा और बड़ा राज्य था. इस राज्य की कमान रायचंद देवड़ा के हाथों में थी. करीब सवा लाख की आबादी वाले इस राज्य में 52 तहसीलें थीं. राजा रायचंद देवड़ा के राज्य में जनता सुख और शांति से रह रही थी. राज्य में न चोरी,

डाका और न लूट होती थी. लोग बड़े चैन के साथ रहते थे. राजा रायचंद देवड़ा की एक रानी ने एक रात एक पुत्री को जन्म दिया. राजा के आदेश पर सुबह राजपंडित लडक़ी की जन्मपत्री बनाने महल में हाजिर हुआ. पंडितजी ने पंचाग देखा, ज्योतिषशास्त्र की किताबें खोलीं. जोड़ लगाया, बाकी निकाली, राशियां मिलाईं, नक्षत्र देखे. इधर का उधर, उधर का इधर किया, लेकिन उस के चेहरे पर झलक रही परेशानी खत्म ही नहीं हो रही थी.

निराश होने के बाद उस ने हाथ जोड़ कर राजा रायचंद देवड़ा से अर्ज की, ‘‘अन्नदाता बाईसा का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ है और वह भी पहले पहर में. इस नक्षत्र में जो भी पैदा होता है, वह अपने पिता के लिए घातक और राज्य के लिए घोर अनिष्टकारी होता है.’’

“आप ने दूसरे पंडितों से इस के बारे में कोई सलाहमशविरा किया है?’’ राजा ने पूछा.

“अन्नदाता, दूसरे विद्वानों से भी मैं ने पूछ लिया है. उन की राय भी मेरी राय से मिलती है.’’

“तो फिर इस बच्ची का क्या किया जाए?’’

“मैं तो इतनी अर्ज कर सकता हूं कि इस बच्ची को हमेशा के लिए इस राजमहल और राज्य से हटा देना चाहिए.’’ पंडित ने राय दी.

“कोई दूसरा रास्ता नहीं निकल सकता?’’ राजा ने पूछा.

“नहीं महाराज,’’ सिर नीचा किए हुए राजपंडित बोला.

रायचंद ने हुकम दिया कि बच्ची को मार दिया जाए.

जब इस की खबर रानी को हुई तो वह रोती हुई रायचंद के पैरों में गिर पड़ी और बोली, ‘‘बेचारी एक दिन की ही तो बच्ची है,

उसे जीवनदान दीजिए.’’

राजा रायचंद अडिग रहा. वह बोला,‘‘मेरा राज्य और मेरा जीवन इस लडक़ी के जीवन से खतरे में है. इस कारण मैं कोई सहायता नहीं कर सकता.’’

‘‘मैं आप को एक राय दे रही हूं, जिस से आप जीव हत्या से बच जाएंगे.’’ रानी बोली. बेटी को बहा दिया नदी में रानी की राय राजा रायचंद को पसंद आ गई. बच्ची को नदी में बहा दिया गया. नदी शांत भाव से बह रही थी. उगते सूरज की किरणें उस के पानी से खेल रही थीं. नदी के किनारे रखे सपाट पत्थर पर रामू धोबी पछाटपछाट कर कपड़े धो रहा था. थकी कमर को सीधी करने के लिए रामू ने सिर उठाया तो उसे नदी में बहती हुई कोई चीज नजर आई. जब सूरज की किरणें उस चीज को छूतीं तो वह चमकने लगती. पास ही चंपा कुम्हार बरतन बनाने के लिए मिट्ïटी खोद रहा था. रामू ने चंपा को आवाज लगाई, ‘‘अरे चंपा, देख, नदी में कोई चीज बहती आ रही है.’’ चंपा ने नदी की तरफ देखा, ‘‘मुझे तो कोई पिंजरे जैसी चीज दिख रही है, चल उसे निकालें.’’

रामू बोला, ‘‘पिंजरा मेरा, अंदर वाली चीज तेरी.’’

दोनों ने अपनी धोती ऊंची उठाई, फिर जोड़ी पानी में कूद गई. देखा तो पिंजरा. पिंजरा खोला तो अंदर रुई में लिपटी एक बच्ची थी. कोमल इतनी थी जैसे गुलाब का फूल.

उसे देखते ही रामू बोला, ‘‘कौन ऐसा हत्यारा बाप होगा, कौन ऐसी वज्र छाती वाली मां होगी. लगती तो किसी बड़े घर की

है, तभी ऐसे कीमती सोने के पिंजरे में इसे बहाया, लेकिन बेचारी को बहाया क्यों?’’

चंपा बोला, ‘‘लगता है, यह मेरे लिए ही हुआ है, क्योंकि मेरे कोई संतान नहीं है. नियति को मेरी घर वाली की गोद भरनी थी.’’ चंपा रुई में लिपटी बच्ची को ले कर भागता हुआ घर आया और पत्नी से बोला, ‘‘लो, तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई. इसे पालपोस

कर बड़ा करो.’’ चंपा ने पत्नी को सारी बात कह सुनाई.

कुम्हारन ने बच्ची को छाती से लगा लिया और उसे पालनेपोसने लगी. यह सब नियति का ही खेल था, जो सांचौर के राजा की पुत्री चंपा कुम्हार के घर में पहुंच गई. चंपा अपनी पत्नी से कहता ही न थके, ‘‘सारे सोरठ देश में तू कहीं भी घूम आ, ऐसी सुंदर कन्या तुझे नहीं मिलेगी. लगता है, सोरठ देश का सारा रूप इसी में आ गया.’’

“आप की बात सोलह आना सच है. ऐसी रूपवती कहीं नहीं है.’’ समय के साथ बच्ची बड़ी होने लगी. चंपा कुम्हार ने उस बच्ची का नाम सोरठ रख दिया था. सोरठ ज्योंज्यों बढऩे लगी, त्योंत्यों उस की सुंदरता खिलने लगी थी. चंपा अपनी पत्नी को हमेशा समझाता रहता और सावधान करता रहता, ‘‘कितनी बार तुझे कहा है, सोरठ को दरवाजे पर मत जाने दिया कर, किसी से बात मत करने दिया कर. क्या मालूम कब किसी राजा की, अमीर आदमी की नजर इस पर पड़ जाए. अनर्थ हो जाएगा. हम रहे कुम्हार, छोटी जाति के. न ‘हां’ कहने की बनेगी, न ‘ना’ कहने की. तू तो इसे घर से बाहर

निकलने ही मत दिया कर.’’

लेकिन चांद कितने दिन बादल के पीछे छिप सकता है. एक दिन गढ़ गिरनार का राव खंगार अपने भांजे बींझा के साथ शिकार खेलता चंपा कुम्हार के गांव आ निकला. सहेलियों के साथ सोरठ भी राव खंगार की सवारी देखने उस के डेरे के पास चली आई. लड़कियों के झुंड में सोरठ ऐसी चमक रही थी, जैसे तारों के बीच चंदा. बींझा की नजर सोरठ पर पड़ी और वहीं की वहीं अटक गई.

सोरठ लड़कियों के झुंड में ऐसे चमक रही है जैसे किसी धुंधले बादल में बिजली चमक रही हो. राव खंगार का घोड़ा 30 कद आगे निकल गया, पीछे घूम कर देखा तो बींझा तो वहीं अटका खड़ा था. उस ने अपना घोड़ा वापस किया. राव खंगार को आते देख बींझा सोरठ की तरफ इशारा कर के बोला, ‘‘इस छोकरी का मोल करूं?’’ चंपा कुम्हार ने की परवरिश

उधर घर पर सोरठ को न पा कर चंपा कुम्हार की पत्नी सोरठ को ढूंढने आई. उस ने बींझा को सोरठ को घूरते देखा तो सोरठ का हाथ पकड़ अपने साथ खींचती घर ले गई. बींझा ने अपना सिर धुन लिया, ‘‘इस को तो मुंहमांगा धन दे कर अपना बनाना चाहिए.’’

राव खंगार ने हां भरी. सोरठ का पताठिकाना पूछ राव खंगार और बींझा दोनों चंपा कुम्हार के घर पहुंचे. उन्होंने सोरठ को उस से मांगा तो चंपा ने कहा, ‘‘पृथ्वी का राज भी दे दो तो भी मैं अपनी बेटी को नहीं बेचूंगा.’’

“बेचने के लिए कौन कहता है. गढ़ गिरनार का राजा हूं, इस से शादी करूंगा.’’ राव खंगार और बींझा ने चंपा को बहुत समझाया, लालच दिया, ऊंचानीचा लिया, लेकिन चंपा तो अडिग रहा, ‘‘अपनी बेटी की शादी अपनी बराबरी वाले से ही करूंगा.’’

राव खंगार और बींझा वापस गिरनार लौट गए. लेकिन बींझा के दिल पर सोरठ की छवि ऐसी उतर गई कि निकाले नहीं निकली, मिटाए नहीं मिटी. दिनरात यही सोचता रहा कि सोरठ को कैसे प्राप्त करूं.

इधर चंपा कुम्हार को फिकर लग गई. सोरठ बड़ी हो गई. गिरनार के राजा से तो किसी तरह पिंड छुड़ाया, लेकिन इस देश में राजाओं की, अमीरों की क्या कमी. कोई कभी भी आ टपके. किसकिस से मैं सोरठ को और अपने को बचाऊंगा. मैं ठहरा गरीब आदमी, गरीब की ताकत कितनी? पहुंच कितनी? वे होंगे बड़े आदमी, जिन की बड़ी ताकत लंबी पहुंच. उस ने तय कर लिया कि सोरठ की शादी जल्दी कर देनी चाहिए. मनचलों की भीड़ आने लगी और बदनामी होने लगी तो इस के लिए वर ढूंढना मुश्किल हो जाएगा.

डायन – भाग 1 : बांझ मनसुखिया पर बरपा कहर

मालती अपने बेटे हजारू के साथ गुलगुलिया स्लम बस्ती में रहती थी. उस का एकलौता बेटा शादी के 5 साल बाद अपनी बहू मनसुखिया को गौना करा कर घर लाया था, जिस के चलते घर में काफी चहलपहल थी. पड़ोस की औरतों का जमावड़ा लगा हुआ था.

एक औरत ने कहा, ‘‘बहू सांवली है तो क्या हुआ, मुंह का पानी ऐसा है कि गोरी मेम के कान काट ले. बहू की आंखों में गजब का खिंचाव है, कोई एक बार झांक ले तो उन में बस डूबता ही चला जाए. बहू सांवली है तो क्या हुआ, वह हजारू को अपना गुलाम बना कर रखेगी.’’

उस औरत का कहना सच निकला. मनसुखिया के रूपजाल में हजारू ऐसा उलझा कि कामधाम छोड़ कर दिनरात घर में पड़ा रहता. वह नईनवेली पत्नी की खूबसूरती की भूलभुलैया में फंस कर रह गया था. वह अपनी पत्नी को छोड़ कर कभी दूर नहीं जाता था, जिस से उस की मां मालती परेशान रहती थी. वह बारबार उसे काम पर जाने को कहती, लेकिन हजारू कोई न कोई बहाना बना कर मनसुखिया की खिदमत में लगा रहता.

इसी तरह 5 साल कब बीत गए, पतिपत्नी को मालूम ही नहीं चला. पर  अब भी मनसुखिया की कोख हरी न हो सकी थी, जिस से गुलगुलिया स्लम बस्ती की औरतें उसे बच्चा न होने का ताना देती थीं. इन में पड़ोसन मनतुरनी और अंजू खास थीं. वे दोनों मनसुखिया से काफी जलती थीं. हजारू और मनसुखिया का प्यार उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाता था, इसलिए एक दिन मनसुखिया के खिलाफ मालती को भड़काया.

‘‘बुरा न मानना मालती बहन, पर तेरी बहू की कोख किसी ने मार ली है, इसलिए वह कभी मां नहीं बन सकती. वह बांझ है… बांझ,’’ मनतुरनी ने कहा.

‘‘मालती बहन को क्यों झूठी तसल्ली देती हो मनतुरनी… इन की बहू औरत के नाम पर चुड़ैल है, चुड़ैल… डायन. पहले अपनी कोख मारती है, उस के बाद पति को मार कर डायन बनती है, इसलिए उसे अपने घर से निकालो और बेटे की सलामती चाहती हो तो उस की दूसरी शादी रचाओ, नहीं तो फिर ऐसे पछताओगी कि कोई आंसू पोंछने वाला तक नहीं मिलेगा,’’ मनसुखिया को डायन करार देते हुए अंजू ने डंके की चोट

पर कहा.

‘‘बस करो अंजू बहन, अब बस करो. मुझे डायन बहू नहीं, अपना बेटा प्यारा है. बेटे की दूसरी शादी रचा कर मैं अपने कुल का दीपक जलाए रखूंगी… कुल की पताका सातवें आसमान में लहराऊंगी, लेकिन इसे मैं अपने घर में नहीं रखूंगी…’’ अपनी बहू से नाराज मालती उन दोनों को भरोसा दिलाते हुए बोली.

‘‘2 साल पहले इस की छोटी बहन अपने यार के साथ भाग गई थी. आज तक पता नहीं चला कि वह कहां गुलछर्रे उड़ा रही है. एक आवारा, दूसरी डायन. दोनों बहनों ने पूरे खानदान की नाक कटवा दी है. जल्दी फैसला लो मालती बहन. हम सब तुम्हारे साथ हैं. देखना, कहीं समय हाथ से निकल न जाए,’’ अंजू हमदर्दी जताते हुए बोली.

अपनी सास मालती और बस्ती की औरतों की जलीकटी बातें सुन कर मनसुखिया हमेशा कुढ़ती रहती थी. उस का गुलाब की तरह खिला चेहरा मुरझाने लगा था. स्लम बस्ती के सार्वजनिक नल पर पानी भरना और लाइन में खड़े हो कर शौच जाना मुश्किल था. हर जगह उस की इज्जत पर उंगली उठने लगी थी, जिसे देख कर हजारू भी हैरान था.

घर में हर रोज उस की मां और पत्नी में झगड़ा होता रहता था. उस की मां बहू को डंडे से पीटती और घर से बाहर निकल जाने को कहती. लेकिन हजारू उस की हिफाजत करता. हजारू को लगता था कि वह काम नहीं करता है, इसलिए उस की मां बहू को सताती है. वह काम पर जाने लगा.

एक शाम हजारू अपने साथी मजदूरों के साथ पैदल ही काम से लौट रहा था, तभी उस के पैर पर किसी जहरीले सांप ने काट लिया. यह देख कर उस के साथियों ने सांप को मारना चाहा, लेकिन सांप सरसराते हुए झाड़ी में जा कर गायब हो गया.

तब हजारू के मजदूर साथी एक ओझा लड्डुइया बाबा के पास उसे ले गए, जिस ने हजारू की काफी झाड़फूंक की, पर उसे राहत नहीं मिली. उस के मुंह से झाग निकलने लगा और सांस लेने में दिक्कत होने लगी. धीरेधीरे हजारू का शरीर ठंडा पड़ चला गया.

सांप के काटने की खबर जंगल की आग की तरह चारों तरफ फैल गई. हजारू को देखने के लिए उस की मां, पत्नी और बस्ती के तमाम लोग पहुंच गए. लोगों में हजारू के न बचने की चर्चा तेज हो गई.

इसी बीच मालती लड्डुइया बाबा के पास गई और हजारू को जल्द ठीक करने की गुहार लगाने लगी, ‘‘बाबा, हजारू मेरा एकलौता बेटा है. इसे अपनी शक्ति से बचा लो, मैं आप के पैर पड़ती हूं,’’ मालती बाबा के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी.

‘‘अब तेरा बेटा नहीं बच पाएगा. उस के सामने मौत बन कर तुम्हारी बहू खड़ी है. उस ने नागिन बन कर तेरे बेटे को ठीक उसी तरह काट लिया है, जैसे

2 सितंबर, 2022 को रांची में एक डायन ने अपने ही भतीजे को सांप बन कर काट लिया था, जिस के बाद वह मर…’’

बाबा की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि बस्ती के कुछ लोग मनसुखिया पर टूट पड़े. वे उस पर लातघूंसे और डंडे बरसाने लगे. पड़ोस की औरतें उस के बाल पकड़ कर पीटने लगीं.

इस के बाद बाबा ने मनसुखिया को अपने कब्जे में ले लिया और अपनी बेंत की छड़ी उस के पिछवाड़े पर मारने लगा.

मार खाती मनसुखिया बारबार एक ही बात कहती रही, ‘‘बाबा, मैं डायन नहीं हूं… मेरे पास कोई जादू नहीं है… मैं किसी को न मार सकती हूं, न जिंदा कर सकती हूं… मैं एक कमजोर औरत हूं… बाबा, मुझे माफ कर दो. मैं आप के पैर पड़ती हूं… मुझे यहां से जाने दो… मैं यहां दोबारा नहीं आऊंगी…’’

लेकिन उस बेरहम बाबा पर कोई असर नहीं पड़ा. उस ने भीड़ से कहा, ‘‘यह झूठी है… इस की बातों पर विश्वास मत करना… जब तक इस के मुंह में इनसानी गंदगी नहीं डालोगे, यह चुड़ैल बोलने वाली नहीं है… गांव को इस डायन से मुक्ति दिलानी है, तो नौजवानों को आगे आना होगा.’’

4-5 लड़कों ने तुरंत बाबा के आदेश का पालन किया. उन का इशारा पाते ही वे सब मनसुखिया के पास पहुंचे और बाज की तरह लपक कर उसे दबोच लिया. किसी ने पैर पकड़े, तो किसी ने हाथ और पलक झपकते ही उसे जमीन पर पटक दिया. एक लड़के ने अपनी पैंट का बटन खोला और उस के मुंह में पेशाब करने लगा… तभी दूसरे लड़के ने एक डब्बे में रखी इनसानी गंदगी उस के मुंह पर उड़ेल दी.

मनसुखिया छूटने की कोशिश करती रही, पर उन दरिंदों के आगे उस की एक न चली… वह बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी, तो मरा हुआ समझ कर बस्ती के लोग उसे नदी के किनारे फेंक आए.

अगले दिन भोर में मनसुखिया को होश आया, तो खुद को नदी के किनारे श्मशान भूमि पर पाया. उस ने ठान लिया कि अब वह इस बस्ती से कोसों दूर किसी बड़े शहर में चली जाएगी, ताकि कोई उसे देख और पहचान न सके.

मनसुखिया किसी तरह वहां से उठ कर नदी के किनारे गई और झुक कर अपनी अंजुली में पानी भरने लगी कि तभी उस ने नदी के जल में अपनी मांग में भरे सिंदूर को देखा, जो उस के सुहागन होने का सुबूत था. उस की आंखें छलछला आईं. पर दिल पर पत्थर रख कर उस ने सिंदूर को धो डाला, फिर अपने गले से मंगलसूत्र, नाक से नथ, कलाई से चूडि़यां, पैरों से पाजेब उतारी और उन सब को अपने आंचल के पल्लू में बांध लिया.

इस के बाद मनसुखिया ने अपने चेहरे पर पानी के छींटे मार कर मुंह, नाक, कान की सफाई की. उस ने आसमान की ओर देखा. पौ फटने में अभी देर थी. उस ने सोचा कि सूरज उगने से पहले उसे रेलवे स्टेशन पहुंच जाना चाहिए.

मनसुखिया ने श्मशान में पड़ी एक साड़ी को अपनी गरदन में लपेटा और चिता की राख को दोनों हाथों में ले कर अपने चेहरे और कटेफटे घावों पर लगाया. एक पगली का रूप बना कर वह किसी तरह रेलवे स्टेशन पहुंची, जहां प्लेटफार्म से तभी चली एक रेलगाड़ी में चढ़ गई.

 

चिनम्मा- भाग 1: कौन कर रहा था चिन्नू का इंतजार ?

एक सीमित सी दुनिया थी चिनम्मा की. गरीबी में पलीबढ़ी वह, फिर भी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी लेकिन उस के अप्पा की मंशा तो कुछ और ही थी…

पढ़तेपढ़ते बीच में ही चिनम्मा दीवार पर टंगे छोटे से आईने के सामने खड़े हो ढिबरी की मद्धिम रोशनी में अपना चेहरा फिर से बड़े गौर से देखने लगी. आज उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल नहीं लग रहा था. शाम से ले कर अब तक न जाने कितनी बार आईने के सामने खड़ी हो वह खुद को निहार चुकी थी. बड़ीबड़ी कजरारी आंखें, खड़ी नाक, सांवला पर दमकता रंग और मासूमियतभरा अंडाकार चेहरा. तभी हवा का एक ?ोंका आया और काली घुंघराली लटों ने उस के आधे चेहरे को ढक कर उस की खूबसूरती में चारचांद लगा दिए. एक मधुर, मंद मुसकान उस 18 वर्षीया नवयुवती के चेहरे पर फैल गई. उसे अपनेआप पर नाज हो रहा था. हो भी क्यों न. किसी ने आज उस की तारीफ करते हुए कहा था, ‘चिनम्मा ही है न तू, क्या चंदा के माफिक चमकने लगी इन 3 सालों में, पहचान में ही नहीं आ रही तू तो.’

तभी अप्पा की कर्कश आवाज आई, ‘‘अरे चिन्नू, रातभर ढिबरी जलाए रखेगी क्या? क्या तेल खर्च नहीं हो रहा है?’’ तेल क्या तेरा मामा भरवाएगा. चल ढिबरी बुझा और सो जा चुपचाप. अप्पा की आवाज सुन कर वह डर गई और ?ाट से ढिबरी बु?ा कर जमीन पर बिछी नारियल की चटाई पर लेट गई. अप्पा शराब के नशे में टुन्न था. चिनम्मा को पता था कि ढिबरी बु?ाने में जरा सी भी देर हो जाती तो वह मारकूट कर उस की हालत खराब कर देता. अगर अम्मा बीचबचाव करने आती, तो उसे भी चुनचुन कर ऐसी गालियां देता कि गिनना मुश्किल हो जाता. पर आज उसे नींद भी नहीं आ रही थी. रहरह कर साई की आवाज उस के कानों को ?ांकृत कर रही थी.

चिनम्मा एक गरीब मछुआरे की इकलौती बेटी है. उस के आगेपीछे कई भाईबहन आए, पर जिंदा नहीं बच पाए. अम्मा व अप्पा और गांववालों को विश्वास है कि ऐसा समुद्र देवता के कोप के कारण हुआ है. चूंकि समुद्र के साथ मछुआरों का नाता अटूट होता है, इसलिए अपनी जिंदगी में घटित होने वाले सारे सुखोंदुखों को वे समुद्र से जोड़ कर ही देखते हैं. अप्पा चिनम्मा को प्यार करता है पर जब ज्यादा पी लेता है तो बेटा नहीं होने की भड़ास भी कभीकभी मांबेटी पर निकालता रहता है.

लंबेलंबे नारियल और ताड़ के वृक्षों से आच्छादित चिनम्मा का छोटा सा गांव यारडा, विशाखापट्टनम के डौल्फिन पहाड़ी की तलहटी में स्थित है, जिस का दूसरा हिस्सा बंगाल की खाड़ी की ऊंची हिलोरें मारती लहरों से जुड़ा हुआ है. आसपास का दृश्य काफी लुभावना है. लोग दूरदूर से यारडा बीच (समुद्र तट) घूमने आते हैं. प्राकृतिक सौंदर्य से यह गांव व इस के आसपास का इलाका जितना संपन्न है आर्थिक रूप से उतना ही विपन्न.

गांव के अधिकांश निवासी गरीब मछुआरे हैं. मछली पकड़ कर जीवननिर्वाह करना ही उन का मुख्य व्यवसाय है. 30-35 घरों वाले इस गांव में 5-6 पक्के मकान हैं जो बड़े और संपन्न मछुआरों के हैं. बाकी सब ?ोंपडि़यां ईटपत्थर और मिट्टी की बनी हैं, जिन पर टीन और नारियल के छप्पर हैं. गांव में 2 सरकारी नल हैं, जहां सुबहशाम पानी लेने वालों की भीड़ लगी रहती है. नजर बचा कर एकदूसरे के मटके को आगेपीछे करने के चक्कर में लगभग रोज वहां महाभारत छिड़ा रहता है. कभीकभी तो हाथापाई की नौबत भी आ जाती है.

गांव से करीब एक किलोमीटर पर 12वीं कक्षा तक का सरकारी विद्यालय है जहां आसपास के कई गांव के बच्चे पढ़ने जाते हैं. कहने को तो वे बच्चे विद्यालय जाते हैं पढ़ने, पर पढ़ने वाले इक्कादुक्का ही हैं, बाकी सब टीवी, सिनेमा, फैशन, फिल्मी गाने और सैक्स आदि की बातें ही करते हैं. उन्हें पता है कि बड़े हो कर मछली पकड़ने का अपना पुश्तैनी धंधा ही करना है तो फिर इन पुस्तकों को पढ़ने से क्या फायदा?

पर चिनम्मा इन से थोड़ी अलग है. वह बहुत ध्यान से पढ़ाई करती है. उसे बिलकुल पसंद नहीं है मछुआरों की अभावभरी जिंदगी, जहां लगभग रोज ही मर्र्द शराब के नशे में औरतों, बच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं. ये औरतें भी कुछ कम नहीं. जब मर्द अकेला पीता है तो उन्हें बरदाश्त नहीं होता, अगर हाथ में कुछ पैसे आ जाएं तो ये भी पी कर मदहोश हो जाती हैं.

गांव में सरकारी बिजली की सुविधा भी है. फलस्वरूप हर ?ोंपड़ी में चाहे खाने को कुछ न भी हो पर सैकंडहैंड टीवी जरूर है. हां, यह बात अलग है कि समुद्री चक्रवात आने या तेज समुद्री हवा चलने के कारण अकसर इस इलाके में बिजली 8-10 दिनों के लिए गुल हो जाती है. अभी 3 दिनों पहले आए समुद्री हवा के तेज ?ोंके से बिजली फिर गुल हो गई है गांव में. शायद 2-4 दिन और लगें टूटे तारों को ठीक होने और बिजली आने में. तब तक तो ढिबरी से ही काम चलाना पड़ेगा पूरे गांव वालों को.

आज अम्मा जब काम से लौटी तो शाम होने वाली थी, ज्यादा थकी होने के कारण उस ने चिन्नू (चिनम्मा) को रामुलु अन्ना से उधार में केरोसिन तेल लाने भेजा था. अन्ना ने उधार के नाम पर तेल देने से मना कर दिया क्योंकि पहले का ही काफी पैसा बाकी था उस का. पर चिन्नु कहां मानने वाली थी, मिन्नतें करने लगी, ‘‘अन्ना तेल दे दो वरना अंधेरे में खाना कैसे बनाऊंगी आज मैं? अम्मा ने कहा है, अभी अप्पा पैसे ले कर आने वाला है. अप्पा जैसे ही पैसे ले कर आएगा, मैं दौड़ कर तुम्हें दे जाऊंगी.’’

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