अब पता चलेगा: राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

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बदचलनी का ठप्पा – भाग 4 : क्यों भागी परबतिया घर से?

यह सुन कर अर्जुन को कुछ उम्मीद बंधी. भीड़ भी एकमत थी बलदेव प्रसाद से. और लोगों की भी बीवियां तो खूबसूरत हैं कोलियरी में. अगर बदमाशों को न रोका गया तो न जाने कितने अर्जुन होंगे और कितनी परबतिया. देवेंद्रजी बोले, ‘‘भाइयो, आप सब की मदद से हम ने आज तक कई मामले निबटाए हैं. कभी बदनामी नहीं उठानी पड़ी. पर इस तरह के मियांबीवी वाले मामले में हम ने अब तक कभी हाथ नहीं डाला है, क्योंकि ऐसे मामलों में बड़ा जोखिम उठाना पड़ता है,’’

देवेंद्रजी भीड़ पर अपना रुतबा जमाते हुए बोले. भीड़ खुश हो गई. अर्जुन को उम्मीद बंधी कि अब देवेंद्रजी इस मामले को हाथ में ले रहे हैं तो वह जरूर कामयाब होें. पर खतरा? यह खतरे वाली बात कहां से पैदा हो गई. अर्जुन को थोड़ा शक हुआ. भीड़ के कान खड़े हो गए. ‘‘कैसा खतरा?’’

लगा कि बलदेव प्रसाद भी चकित था. ‘‘हम अगर जल्दबाजी में कोई कदम उठाएंगे तो हो सकता है कि वह बदमाश परबतिया को कोई नुकसान पहुंचा दे,’’ देवेंद्रजी ने कहा, ‘‘इसलिए हमें कतई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए.’’ भीड़ को देवेंद्रजी की बातों में कुछ सार नजर आया.

उम्मीद बंधी. पर अर्जुन फिर निराशा से घिरने लगा था. गया प्रसाद उस की परबतिया को नुकसान पहुंचा सकता है, यह बात उस के दिमाग में घूम रही थी. उस का खून खौलने लगा.  अगर उस का बस चले तो… जैसे वह जंगल में लकड़ी काटा करता है, वैसे ही गया प्रसाद की गरदन पर कुल्हाड़ी चला दे.

पर, क्या करे?  नहींनहीं… वह बदमाश परबतिया को कोई नुकसान न पहुंचाए. वह दुष्ट तो उस के बच्चे को भी नुकसान पहुंचा सकता है. देवेंद्रजी शायद ठीक कह रहे हैं. कोई जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. मौका आने पर वह खुद ही निबट लेगा गया प्रसाद से.

अर्जुन का मन हुआ कि वह चिल्ला कर देवेंद्रजी से कह दे कि उसे कोई जल्दी नहीं है. बस, पार्वती और उस का बच्चा सहीसलामत रहे. ‘‘हांहां, आप ठीक ही कह रहे हैं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘उस जैसे दुष्टों का कोई भरोसा नहीं. लेकिन ऐसे दुष्टों को बताना ही होगा कि वे बसीबसाई घरगृहस्थी नहीं उजाड़ सकते. हां भाइयो, हम ऐसी धांधली नहीं चलने देंगे,’’ उस ने भीड़ को देखा. देवेंद्रजी के मुंह से अब एक नेता की आवाज उभरी, ‘‘हम गया प्रसाद को चेतावनी देना चाहते हैं कि वह अर्जुन की घरवाली परबतिया को बाइज्जत घर पहुंचाए और अपनी इस हरकत के लिए अर्जुन से माफी मांगे.’’

देवेंद्रजी के कहने के ढंग से लगा मानो गया प्रसाद वहीं भीड़ में दुबका हुआ उन की बातें सुन रहा हो. ‘बाइज्जत’ शब्द सभी के सामने एक बड़ा सवाल बन कर खड़ा हो गया.  परबतिया एक रात तो गया प्रसाद के घर में बिता ही चुकी है. अब भी उस की इज्जत बची होगी भला?

यह बात तो अर्जुन को भीतर ही भीतर मथे डाल रही थी. एक दर्द उभरा अर्जुन के मन में. यह क्या सोच गया वह? नहीं, परबतिया कैसी भी हो, उसे उस शैतान के चंगुल से छुड़ाना ही होगा. ‘‘और हम बता देना चाहते हैं कि…’’ देवेंद्रजी ने धमकी भरी आवाज में कहा, ‘‘अगर एक हफ्ते के भीतर इस बात पर अमल नहीं किया गया तो हमें कोई कड़े से कड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.’’

बलदेव प्रसाद ने भी अर्जुन को ढांढस बंधाया, ‘‘अब एक हफ्ते तक इंतजार करना ही पड़ेगा अर्जुन भाई, इसलिए अपने मन को कड़ा करो और जा कर नहाओ, खाओ. रात की ड्यूटी किए हो, थक गए होगे. हम सब तुम्हारा दुख समझते हैं.’’ भीड़ को एक बार फिर लगा कि देवेंद्रजी और बलदेव बड़े दयालु और दूसरों के दुख को अपना दुख समझने वाले इनसान हैं.

पहली बार अर्जुन ने कुछ कहा, ‘‘जो मरजी हुजूर. बस, आप लोगों का सहारा है. गरीब हूं, माईबाप,’’ कहतेकहते अर्जुन का गला भर आया. आगे बढ़ कर उस ने देवेंद्रजी के पैर छू लिए. ‘‘ठीक है, ठीक है,’’ देवेंद्रजी की आवाज में दया थी, करुणा थी,

‘‘अब, तुम निश्चिंत हो कर जाओ अर्जुन.’’ ‘‘हांहां, अर्जुन, अब चिंता की कोई बात नहीं,’’ बलदेव प्रसाद बोला, ‘‘अब तो देवेंद्रजी ने तुम्हारे मामले को अपने हाथों में ले ही लिया है. अब तो  हमारी और देवेंद्रजी की इज्जत का भी सवाल है.’’

देवेंद्रजी उठ कर अपने घर के भीतर चले गए. तमाशा खत्म हुआ तो भीड़ भी छंटने लगी. कुछ लोग देवेंद्रजी की प्रशंसा कर रहे थे. कुछ गया प्रसाद को कोस रहे थे. सभी जल्दीजल्दी अपने घरों की ओर बढ़ने लगे थे इस डर से कि कहीं इसी बीच उन की घरवालियां  भी किसी बदमाश के घर जा कर न बैठ गई हों.  न जाने कितने गया प्रसाद छिपे पड़े होंगे इस कोलियरी में. न जाने कितने निहत्थे अर्जुन, न जाने कितनी खूबसूरती का शाप झेलती औरतें. फिर देवेंद्र की वही चौपाल,

भीड़, तमाशा और सरेआम उछलती किसी मजदूर की इज्जत. एक हफ्ते के भीतर ही गया प्रसाद परबतिया को उस के बच्चे समेत बाइज्जत अर्जुन के घर पहुंचाने गया था. पर अर्जुन ने पार्वती को बहुत भलाबुरा कहा और उसे अपने घर पर रखने से इनकार कर दिया. इस अफवाह ने देवेंद्रजी की इज्जत को तो बढ़ाया, पर अर्जुन को सभी धिक्कारने लगे कि वह फिर बेवकूफी कर बैठा.

कुछ लोगों के विचार से अर्जुन ने जो किया वह ठीक ही किया. ऐसी बदचलन औरत को तो जिंदा ही जमीन में गाड़ देना चाहिए. गहनेकपड़े, रुपएपैसे सबकुछ तो वह गया प्रसाद के घर ही छोड़ आई थी. अर्जुन की जिंदगीभर की कमाई उस बदमाश को भेंट कर आई थी. अर्जुन को परबतिया का अचार तो डालना नहीं था, सो उस ने बिलकुल ठीक किया. परंतु एक खबर पूरी कोलियरी में बड़ी तेजी से फैली. कुछ लोग इसे अफवाह कह रहे थे, तो कुछ सौ फीसदी सच होने का दावा कर रहे थे.

दूसरी पार्टी के मजदूर नेता इस बात का जोरशोर से प्रचार कर रहे थे कि परबतिया जो गहनेकपड़े और रुपए अपने साथ लाई थी, उस में से देवेंद्रजी और बलदेव प्रसाद ने अपनेअपने हिस्से ले लिए हैं. यही नहीं, कुछ तो यहां तक कहते सुने गए कि भरी रात बलदेव प्रसाद और देवेंद्रजी गया प्रसाद के घर से मुंह काला कर के निकलते हुए भी देखे गए.

सचाई जो हो, पर इतना सच है कि परबतिया को अर्जुन ने अपने घर में घुसने तक नहीं दिया. बच्चे को भी नहीं रखा. बेचारी परबतिया बच्चे को साथ लिए कहां जाए? गया प्रसाद के यहां वह खुद गई थी या जबरन ले जाई गई थी, यह  भी किसी ने नहीं पूछा. उस पर क्या गुजरी, यह जानने की किसी ने जरूरत ही नहीं समझी.  अर्जुन के साथ हमदर्दी जताने के लिए तो अच्छीखासी भीड़ इकट्ठी हो गई थी, पर ‘परबतिया’ को कौन पूछे? औरत जो ठहरी बेचारी. और उस पर भी बदचलन होने का ठप्पा जो लग चुका था.

अब पता चलेगा – भाग 3 : राधा क्या तोड़ पाई बेटी संदली की शादी

फंक्शन से फ्री हो कर जब सब साथ बैठे, मधु ने कहा,”मुझे आप लोगों से कुछ जरूरी बात करनी है.”

सुनते ही राधा ने विकास को इशारा किया, “देखो, मैं ने कहा था न…”

राधा ने कहा,”जी कहिए.”

”देखिए, पैसे की हमारे यहां कोई कमी है नहीं, बस मेरा मन तो अपने बच्चों की खुशी में खुश होता है, मेरी इच्छा है कि शादी अब जल्दी ही कर दें, घर में रौनक हो, हमारी बेटी कोई है नहीं और मुझे संदली के साथ रहने की बहुत इच्छा है, मुझ से अब इंतजार नहीं होगा, शादी अब बहुत जल्दी हो जाए, बस यही मान लीजिए.

“तैयारी भी मैं सब कर लूंगी और हां, संदली ने जो लोन लिया है, वह भी हम चुका देंगे, अब संदली यहां फैमिली बिजनैस संभाल लेगी. उसे वहां अकेली रह कर जौब करने की जरूरत है ही नहीं. अब बच्चे मिल कर बिजनैस संभालें, हमारे पास रहें और क्या…”

विकास ने हाथ जोड़ दिए,”आप जैसा चाहते हैं वैसा ही होगा, हम तैयार हैं. लोन चुकाने की बात आप न सोचें प्लीज, हमारा एक फ्लैट किराए पर चढ़ा है, उसे संदली को देने के लिए ही इन्वेस्ट किया था. अब उसे बेच देंगे तो लोन चुक जाएगा, कोई प्रौब्लम नहीं है. शादी जब आप कहें, हो जाएगी.”

मधु ने खुश हो कर उठ कर संदली को गले लगा लिया. खूब प्यार करते हुए बोलीं,”बस मेरी बहू अब जल्दी घर आ जाए. संदली, अब एक बार जाना और वहां से अपना सब सामान ले आओ, बस अब तो आर्यन के साथ ही घूमने जाना.”

आगे का प्रोग्राम तय होने लगा था. राधा हैरान थी कि इतनी जल्दी यह सब… ये कैसे लोग हैं? कोई इतना अच्छा कैसे हो सकता है?

मुंबई लौटते हुए संदली ने पूछा,”मम्मी, सब ठीक लगा न आप को?”

”देखते हैं, कुछ ज्यादा ही अच्छा परिवार लग रहा है. देखते हैं कि तुम कितना खुश रहती हो इन के साथ.अब पता चलेगा…’’

संदली चुप ही रही. राधा ने फिर विकास से कहा,”आप ने सब बात खुद ही कर ली उन से, मुझ से कुछ पूछा ही नहीं.”

”पूछना क्या था, सब अच्छा ही लग रहा था, अच्छे लोग हैं.”

दोनों तरफ शादी की तैयारियां शुरू हो गईं. 2 महीने बाद ही शादी थी. प्रिया भी सपरिवार आने वाली थी. संदली ने रिजाइन कर दिया और वहां से सब क्लियर कर लौट आई. मधु फोन पर ही उस से पूछपूछ कर उस की पसंद की तैयारी करने लगीं. मधु एक से बढ़ कर एक चीजें उस की पसंद से बनवा रही थीं.

राधा ने कहा,”मुझे पता ही है कि इन अमीरों के 4 दिन के चोंचले हैं, थोड़े ही दिनों में असलियत सामने आएगी, पहले तो सब अच्छा ही दिखता है.”

संदली मन ही मन बहुत उदास थी. शादी का समय था उस पर भी मां की अजीबोगरीब बातें रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं. जो भी तैयारी राधा कर रही थीं, बोझ समझ कर कर रही थीं, उस में बेटी को अच्छा परिवार मिलने की कोई खुशी नहीं थी. हर समय किसी न किसी बात पर आर्यन के परिवार को ले कर कुछ ऐसा कह देतीं कि संदली का चेहरा मुरझा जाता.

विकास सब समझ रहे थे पर क्या करते, राधा को कुछ कह कर घर का माहौल खराब नहीं करना चाहते थे. प्रिया भी आ चुकी थी, उस के पति विशाल और दोनों बच्चे सोनू,पिंकी मौसी की शादी को ले कर बहुत उत्साहित थे.

सब खुश थे पर राधा का स्वभाव अकसर रंग में भंग डाल देता. विकास ने अपने बजट के अनुसार सारा पैसा अनिल के अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया था. सब इंतजाम आर्यन का परिवार ही देख रहा था.

शादी से 4 दिन पहले संदली अपने परिवार के साथ दिल्ली पहुंची तो आर्यन की तरफ से कई गाड़ियां उन्हें लेने आई हुई थीं.

अनिल और मधु ने खुद एअरपोर्ट पर सब का स्वागत किया और उन्हें पानीपत के ही एक होटल में ले गए, जहां सारा इंतजाम बहुत शानदार था.

रस्में बहुत खुशी से पूरी की गईं. विवाह का आयोजन शानदार रहा. सबकुछ अच्छी तरह से संपन्न हुआ. राधा परिवार सहित मुंबई लौट आईं. कुछ दिन बाद प्रिया भी वापस चली गई.

विकास औफिस के काम में व्यस्त हो गए. राधा का पुराना रवैया चलता रहा. हर बात में अब भी अपने को ही सही ठहरातीं. संदली जब फोन करती, राधा खोदखोद कर पूछतीं कि ससुराल का क्या हाल है?

संदली तारीफ करती तो कहतीं,”मुझे पता है, यह सब प्यारव्यार थोड़े दिनों की बात है. आगे पता चलेगा.”

संदली ने घर का बिजनैस संभालना शुरू कर दिया था. एक नया शोरूम खोला जा रहा था जिस की देखरेख संदली और आर्यन पर छोड़ दी गई थी, उस के लिए एक कार और ड्राइवर हमेशा रहता. वह बहुत खुश रहती. उसे सारी सुविधाएं और ढेर सारा प्यार मिल रहा था.

कुछ ही दिनों में अभय की शादी भी उस की गर्लफ्रैंड तारा के साथ तय हो गई.

राधा ने सुनते ही कहा,”संदली, अब पता चलेगा तुम्हें जब देवरानी घर आएगी और प्यार बंटेगा.”

संदली चुप रही. अभय के विवाह में राधा और विकास भी गए. अब की बार भी उन्हें बहुत सम्मान दिया गया. सब कुछ पहले की तरह अच्छी तरह से हुआ. संदली की अपनी देवरानी तारा से खूब जम रही थी. दोनों खूब मस्ती कर रही थीं.

राधा ने मुंबई आने के बाद संदली से देवरानी के हाल पूछे तो वह खूब उत्साह से तारा और अपनी खूब अच्छी दोस्ती के बारे में बताने लगी. संदली और तारा का आपस में बहनों जैसा प्यार हो गया था.

राधा ने कहा,”बेटा, मैं ने देखे हैं ऐसे रिश्ते, अब पता चलेगा थोड़े दिनों में जब यही प्यार तकरार में बदलेगा, देखना.”

आज संदली का धैर्य जवाब दे गया. विकास भी वहीं बैठे थे, फोन स्पीकर पर था, संदली फट पड़ी थी आज,”हां, मुझे पता चल चुका है कि आप के लिए हर रिश्ता बेकार है. आप को कहां किसी रिश्ते में प्यार दिखता है? मम्मी, पता नहीं क्यों आप के लिए सब बुरा ही होने वाला होता है. मुझे तो इस घर में आने के बाद यह पता चला है कि शांति से रहना कितना आसान है, प्यार दो, प्यार लो, काश कि आप को भी यह पता रहता.

“बस, यहां जो मुझे पता चला है, वह सब आप के साथ रह कर कभी पता ही नहीं चला. आप मुझे अब कभी मत बताना कि मुझे क्या पता चलेगा? मुझे जो पता चलना था, चल चुका. इतना प्यार है यहां पर, मैं कितनी खुश हूं,आगे भी खुश ही रहूंगी, मुझे तो यह पता है.”

राधा का चेहरा देखने लायक था. संदली ने कभी इस तरह बात नहीं की थी. आज अपनी बात कह कर फोन ऐसे रखा था कि राधा शर्मिंदा सी बैठी रह गई थीं. विकास तो अपनी हंसी रोकने की कोशिश में आज चुपचाप वहां से उठ कर दूसरे रूम में जा चुके थे.

चौखट – भाग 3 : प्रेम को तरसती रेशमी

‘‘तुम जितनी जल्द घर खाली कर कहीं चले जाओ. अगर तुम नहीं गए तो अंजाम भुगतने को तैयार रहना,’’ धीरेन को धमका कर प्रकाश अपने गुरगों के साथ चला गया.

धीरेन बेहद डर गया था. अगर वह यहां से घर खाली कर के नहीं गया, तो प्रकाश उसे जिंदा नहीं छोड़ेगा. अगर वह चला जाता है, तो रेशमी अकेली हो जाएगी. अकेली औरत को गुंडेमवाली खैरात का माल समझ कर तंग करते हैं.

धीरेन यही सब सोचता हुआ काम पर चला गया, लेकिन उस का मन काम में नहीं लग रहा था. वह अजीब उदासी में घिर गया था. उसे लग रहा था कि वह एक चक्रव्यूह में फंस गया है, जहां से निकलना मुमकिन नहीं है.

रात हो गई थी. गली में अंधेरा था. धीरेन काम पर से घर लौट आया था. वह कमरे में गुमसुम बैठा था. उस की अक्ल काम नहीं कर रही थी.

धीरेन एक बड़े से बैग में घर का सामान रखने लगा. एकएक कर अपना सामान वह बैग में रखता जा रहा था. यही एक रास्ता बचा था कि वह घर खाली कर कहीं और मकान ले कर रहने चला जाए.

धीरेन जाने के लिए अपना बैग पैक कर चुका था, तभी रेशमी उस के कमरे में आई और बोली, ‘‘धीरेन, मुझे छोड़ कर कहां जा रहे हो?’’

‘‘रेशमी, अगर मैं यहां से नहीं गया, तो प्रकाश और उस के पालतू गुंडे मुझे मार डालेंगे,’’ धीरेन ने कहा.

‘‘धीरेन, जीने के लिए लड़ना पड़ता है. भागने से कुछ नहीं मिलता है. हिम्मत से मंजिल मिलती है,’’ रेशमी ने उस का हौसला बढ़ाया.

‘‘लेकिन रेशमी, मैं अकेला क्या कर सकता हूं,’’ धीरेन ने चिंतित हो कर कहा.

‘‘धीरेन, तुम अकेले कहां हो. मैं हरपल तुम्हारे साथ हूं,’’ रेशमी ने कहा.

रेशमी अपने कमरे में चली गई. जब वह लौटी, तब उस की मुट्ठी में एक छोटी सी डिबिया थी.

रेशमी ने अपनी मुट्ठी धीरेन के सामने खोल दी, ‘‘इस डिबिया में सिंदूर भरा है. इस सिंदूर से मेरी मांग भर दो.’’ धीरेन ने डिबिया से एक चुटकी सिंदूर ले कर रेशमी की मांग भर दी थी.

रेशमी विधवा से सुहागन हो गई थी. धीरेन ने रेशमी को बांहों में भर कर कहा, ‘‘अब कोई हम लोगों को जुदा नहीं कर सकता है.’’

‘‘हां धीरेन, अब हम लोग एकसाथ मिल कर जी सकेंगे,’’ रेशमी की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए थे.

सुबह रेशमी दरवाजे की चौखट से पीठ टिकाए धीरेन के इंतजार में बैठी थी. वह सब्जी मंडी से दुकान के लिए सब्जियां लाने गया था.

टैंपो दरवाजे पर आ कर रुक गया था. धीरेन टैंपो से उतर कर सब्जियों की टोकरी दुकान में रखने लगा. रेशमी भी सब्जियों की टोकरी उठा कर रखने लगी थी.

उसी समय प्रकाश अपने गुरगों के साथ कहीं जा रहा था. वह रेशमी की दुकान के पास आ कर रुक गया. रेशमी की मांग में सिंदूर देख वह मुसकराते हुए चला गया.

दोपहर में सब्जी खरीदने सुधा और गीता रेशमी की सब्जी दुकान पर आईं और सुहागन बनी रेशमी को देख वे दोनों हैरान हो गईं. सुधा और गीता ने मुसकरा कर कहा, ‘‘बहुत अच्छा किया रेशमी, बहुत अच्छा.’’ यह सुन कर रेशमी खिलखिला कर हंसने लगी.

जीवन की नई शुरुआत – भाग 3 : कोरोना का साइड इफैक्ट

रात में सब के सो जाने के बाद रघु को फोन लगा कर कितना रोई थी वह. उस के जाने के बाद उस के साथ क्याक्या हुआ, सब बताया और यह भी कि अगर वह उस की नहीं हो सकी, तो किसी की भी नहीं हो सकेगी. फिर कई बार रघु ने फोन लगाया, पर बंद ही आ रहा था.

कहते हैं, सारी मुसीबतें एक बार में आ धमकती हैं इंसान की जिंदगी में और यह बात आज रघु को सही प्रतीत हो रही थी.

कोरोना महामारी के कारण एक तो कामकाज और शहर छूटा, फिर पता चला कि वहां मां बीमार हैं और अब यह सब. कहीं मुन्नी ने कुछ कर लिया तो… सोच कर ही रघु का खून सूखा जा रहा था. लेकिन क्या करे वह भी? यहां से भाग भी तो नहीं सकता है.  इसलिए उस ने भी अपनी जान खत्म करने की सोच ली थी. न जिएगा, न इतनी मुसीबत ?ोलनी पड़ेगी.

आज उसे मुन्नी का वह उदास चेहरा और थकी आंखें याद आ रही थीं. मन कर रहा था, करीब होती तो उस के अधरों पर अपने होंठ रख सारी उदासी सोख लेता.

मुसकरा भी पड़ा था वह दिन याद कर के, जब पहली बार मुन्नी को आलिंगन में भर कर उस के अधरों को चूम लिया था और लजा कर वह रघु के सीने में सिमट गई थी. जीवन में पुरुष के साथ उस का यह पहला भरपूर आलिंगन था. मुन्नी की रीढ़ में हलकी सी ?ार?ारी दौड़ गई थी. दोनों को एकदूसरे की छूती हुई परस्पर आकर्षण की हिलोरों का एहसास था, तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आते चले गए थे बिना जमाने की परवा किए. लतावितान के भीतर यह अनुभूति गहराई थी, जब रघु ने उस के होंठों पर तप्त दबाव बढ़ाया था. यौवन वेग के अनेक स्पंदन अचानक देह में चमक उठे थे. इस आलिंगन और चुंबन की अवधि दिनप्रतिदिन बढ़ती ही चली गई थी. लेकिन जमाने ने और कुछ इस कोरोना ने उन्हें जुदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

रघु की कहानी सुन कर जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई कि क्या एक गरीब इंसान को प्यार करने का भी हक नहीं होता? ‘बु?ाबु?ा सी उम्मीदों पर कोरोना का खौफ सब की आंखों में साफ दिखाई दे रहा था. ख्वाहिशों व उम्मीदों को समेटे लोग खुश हो कर दूसरे शहरों में कमानेखाने गए थे. लेकिन एक वायरस ने इन का सबकुछ छीन लिया. इन गरीब मजदूरों ने जिस शहर को सजायासंवारा, उसी ने इन्हें गैर बना दिया. अब तो बस दर्द ही याद है,’ अपने मन में ही सोच मनोज को उन मजदूरों पर दया आ गई कि आखिर गरीब लोग ही हमेशा क्यों मारे जाते हैं? वे ही क्यों दरदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं? सब से ज्यादा तो उन्हें रघु पर दया आ रही थी कि उस का प्यार भी छिन गया. लेकिन उन्होंने भी सोच लिया कि जहां तक हो सकेगा, वे इन मजदूरों की सहायता जरूर करेंगे.

इधर मोहन से शादी के जोर पड़ने पर मुन्नी धीरेधीरे टूटने लगी थी. कुछ सम?ा नहीं आ रहा था कि क्या करे, कैसे इस शादी को रोके? मन तो कर रहा था कि धतूरे का बीज खा कर अपनी जान खत्म कर ले. लेकिन ऐसा भी वह नहीं कर सकती थी. क्योंकि मरना तो कायरता है. किसी चीज को हासिल करने के लिए लड़ना पड़ता है और वह लड़ेगी अपने मांबाप से भी और इस जमाने से भी. सोच लिया उस ने और अपने मन में ही एक फैसला ले लिया. रात में सोने से पहले उस ने तकिए में मुंह छिपा कर रघु का नाम लिया. उस का चुंबन याद आया और वह पुरानी सिहरन शरीर में ?ान?ाना गई.

अपने प्लान के अनुसार, सुबह मुंहअंधेरे ही वह घर से निकल गई और पैदल चल रहे मजदूरों के संग हो ली. जानती थी पैदल चल कर रघु से मिलना इतना आसान नहीं होगा. पर अपने प्यार के लिए वह कुछ भी करेगी. हजारों क्या, लाखों किलोमीटर चलना पड़े तो चल कर अपने प्यार को पा कर रहेगी. यह भी जानती थी कि उसे घर में न पा कर गुस्से से सब बौखला जाएंगे. जहां तक होगा, उसे ढूंढ़ने की कोशिश की जाएगी. लेकिन कोई फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वह काफी दूर निकल चुकी होगी. रघु के गांवघर का पता तो उसे मालूम ही था, फिर डर किस बात का था.

5 दिनों बाद थकेहारे कदमों से, मगर विजयी मुसकान के साथ वह अपने रघु के सामने खड़ी थी. रघु को तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था. उसे तो लग रहा था, जैसे वह कोई सपना देख रहा हो. मगर यह सच था, मुन्नी उस के सामने खड़ी थी. दोनों बालिग थे, इसलिए उन की शादी में रुकावट की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. क्वारंटीन अवधि पूरी होते ही जिलाधिकारी मनोज ने अपनी देखरेख में दोनों की शादी ही नहीं करवाई, बल्कि एक भाई की तरह मुन्नी को विदा भी किया. रघु को उन्होंने रोजगार दिलाने में भी मदद की, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके और अपनी जिंदगी अपने अनुसार जिए.

इस कोरोनाकाल में रघु ने बहुत मुसीबतें ?ोलीं, पर कहते हैं न, अंत भला तो सब भला. रघु और मुन्नी के जीवन की नई शुरुआत हो चुकी थी.

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