इसी तरह 6 महीने गुजर गए. राव खंगार ने सोरठ के प्यार में डूब कर राजकाज का सारा काम छोड़ दिया. राज्य व्यवस्था बिगडऩे लगी. आखिर उस की खुमारी टूटी तो उस ने सोरठ से कहा, ‘‘तुझे छोड़ कर जाने का मन तो नहीं करता, लेकिन मजबूर हूं, राज्य का काम तो संभालना ही पड़ेगा. मेरे आने तक तेरा दिल कैसे बहलेगा?’’
“आप ऊदा ढोली को हुकुम देते जाओ, दिनरात मेरे महल के नीचे बैठा रहे, मुझे गाना सुनाए.’’ सोरठ ने कहा. राव खंगार देश भ्रमण के लिए रवाना हो गया. एक दिन सोरठ अपने महल में बैठी सिर गुंथवा रही थी, नीचे ऊदा ढोली मांड राग में विरह का गीत ‘ओलू घणी आवै…’ गा रहा था. सोरठ ने झरोखे से देखा, उसे चौक में बींझा नजर आया. इतने में ऊदा
ढोली ने दोहा गाया, ‘जिन सांचे सोरठ घड़ी, घडिय़ो राव खडग़ार. वो सांचो तो गल गई, लद ही गई लुहार. (जिस सांचे में सोरठ जैसी स्त्री और राव खंगार जैसा आदमी गढ़ा, वह सांचा ही गल गया और उस सांचे को बनाने वाला लुहार ही मर गया.)
दोहा सुनते ही सोरठ के आग लग गई. ‘कहां तो जवानी से भरपूर सुघड़ बींझा और कहां आधा बूढ़ा राव खंगार. मेरी जोड़ी का तो बींझा है, राव खंगार नहीं.’ सोरठ ने बींझा को बुलावा भेजा, बींझा हिचकिचाया. सोरठ ने दूसरा बुलावा भेजा. तब बींझा सोरठ के महलों में आया. सोरठ ने कहा, ‘‘बींझा, तेरे विरह की वेदना मुझ से अब सही नहीं जा रही है. तू नित्य मेरे महल में आयाजाया कर.’’
उस ने बींझा से अपने मन की दशा बताई, ‘‘राव खंगार ने मुझे अपने महल में रख रखा है. वह मेरे शरीर का मालिक हो सकता है, मेरे दिल का नहीं. शरीर का मालिक मन का मालिक नहीं होता. हकीकत यह है कि मन का मालिक ही सब का स्वामी होता है.’’
यह सुन कर बींझा को लगा कि जैसे आकाश में अमृत की वर्षा हो रही है, धन्य हो कर बींझा ने सोरठ का हाथ अपने हाथ में ले लिया. सोरठ ने कहा, ‘‘हाथ तो पकड़ रहे हो, उम्र भर प्रीत निभा पाओगे?’ भस्म हो कर बींझा की राख में मिल गई सोरठ
बींझा ने भी सूरज को साक्षी बनाते हुए प्रीत निभाने का वचन दिया. सोरठ और बींझा तो एकदूसरे से ऐसे मिल गए, जैसे फूल और सुगंध. “सोरठ, तुझ में अनेक गुण हैं, लेकिन एक बड़ा भारी अवगुण भी है. जिस पुरुष के मन में तू बस जाती है, उस के शरीर पर रक्त और मांस नहीं चढ़ता, वह तेरे विरह में सूखता ही जाता है.’’ बींझा ने कहा. सोरठ ने यह सुनते ही नाक चढ़ाई तो बींझा ने फिर कहा, ‘‘मुझे चाहे मारो या जिंदा रखो, आप मालिक हो, आप की मरजी.’’
राव खंगार अब क्या करता भला? उसे एक तरकीब सूझी. बींझा को देश निकाला दे देना चाहिए. दूसरे ही दिन बींझा को काली पोशाक पहना कर और काले घोड़े पर बैठा कर देश निकाला दे दिया. सिपाहियों को हुकुम दिया कि उसे गिरनार की सीमा पार निकाल कर आओ.
सोरठ अपने महल के झरोखे में खड़ी बींझा को जाते अपलक देखती रही. उस के वियोग में सोरठ ने खानापीना छोड़ दिया. सिर में तेल लगाए महीनों बीत गए. नाइन उबटन करने आती तो उसे उलटे पांव लौटा देती. माली हारगजरे लाए तो उन्हें कमरे के कोने में फिंकवा देती. सुगंधित इत्र की शीशियां भिजवाई जातीं तो उन्हें फोड़वा देती. तंबोलन पान ले कर आए तो उन्हें बंटवा देती.
उस के मुंह पर सावन की घटा जैसी उदासी छाई रही, आंखों से सावनभादों जैसी आंसुओं की झड़ी लगी रहती. आखिर उस से रहा नहीं गया. ऊदा ढोली को बुला कर बींझा को संदेश भेजा. ऊदा ने जा कर बींझा के सामने दोहा गाया, ‘‘सोरठ नागण को रही, ज्यू छेड़े ज्यू खाय. आजा बड़ा गारनड़ी, ले जा कंठ लगाय (तेरे प्रेम में उन्मत सोरठ नागिन हो रही है. जो छेड़ता है, उसे डस रही है. बींझारूपी गरुड़ अपनी नागिन को कंठ से लगा कर ले जाए).
यह दोहा सुनते ही बींझा पागल हो गया. उसे भलीबुरी ठीकगलत कुछ नहीं सूझी. सीधा सिंध के नवाब के पास पहुंचा. बींझा ने नवाब से सारी बातें कह सुनाईं. नवाब उसी समय बींझा की मदद को तैयार हो गया. सिंध के नवाब ने गढ़ गिरनार को जा घेरा. घमासान युद्ध हुआ. नवाब की ओर से बींझा बहुत बहादुरी से लड़ा. राव खंगार की हार हुई. बींझा सोरठ को लेने उस के महल पहुंचा, लेकिन नवाब ने पहले ही सोरठ को अपने कब्जे में कर लिया था. उस ने
बींझा को उसे देने से इनकार कर दिया. बींझा निराश हो कर पागल सा हो गया. सोरठ के महल की दीवारों से सिर पटकपटक कर मरणासन्न हो कर गिर पड़ा. नवाब ने सोरठ को बहुत लालच दिया. उसे डराया- धमकाया, लेकिन बींझा के प्रेम पर उसे अटल देख नवाब ने उस के सामने सिर झुका दिया.
नवाब ने सोरठ से पूछा, ‘‘बोल, तू कहां जाना चाहती है राव खंगार के पास, अपने बाप चंपा कुम्हार के पास या रूढ़ बनजारे के पास?’’ सोरठ ने रोते हुए कहा, ‘‘कहीं नहीं. जहां बींझा है, मुझे भी वहीं भेज दो आप की बड़ी मेहरबानी होगी.’’ सुन कर नवाब बोला, ‘‘बींझा तो तुम्हारी याद में पागल हो कर सिर दीवारों से पटक कर मर चुका है. उस का तो अंतिम
क्रियाकर्म भी कब का हो गया. अब भी बींझा के पास जाना चाहोगी?’ “हां, मुझे उसी जगह पर ले जा कर छोड़ दो, जहां पर बींझा को जलाया गया.’नवाब ने सोरठ को छोड़ दिया. वह उस जगह पर पहुंची और सूर्य के सामने खड़ी हो कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘हे सूर्य, तू सर्वव्यापी है, तेरे से कोई चीज छिपी हुई नहीं है. मैं ने बींझा से मन, वचन और कर्म से प्रेम किया है. अगर तू मुझे शुद्ध और
सती मानता है तो तू अग्नि प्रकट कर के मुझे अपने बींझा के पास पहुंचा दे.’’ कहते हैं कि उसी वक्त सूरज की किरणों से अग्नि प्रज्जवलित हुई, बींझा की भस्म के साथ सोरठ भी भस्म में मिल गई. ऊदा ढोली जब तक जिंदा रहा, गांवगांव में घूम कर सोरठ-बींझा के गीत गाए और उन के प्यार की कहानी को अमर कर दिया. राजस्थान में ढोली लोग आज भी बींझा-सोरठ के दोहे अकसर सुनाते हैं. दोहे व प्रेम कहानी सुन कर ऐसा लगता है जैसे यह कल की ही कहानी है.