चाहत के वे पल – भाग 1 : पत्नी की बेवफाई का दर्द

‘‘गौरा जब हंसती है तो मेरे चारों तरफ खुशी की लहर सी दौड़ जाती है. कैसी मासूम हंसी है उस की इस उम्र में भी. मुझे तो लगता है उस के भोले, निष्कपट से दिल की परछाईं है उस की हंसी,’’ अनिरुद्ध कह रहा था और शेखर चुपचाप सुन रहा था. अपनी पत्नी गौरा के प्रेमी के मुंह से उस की तारीफ. यह वही जानता था कि वह कितना धैर्य रख कर उस की बातें सुन रहा है. मन तो कर रहा था कि अनिरुद्ध का गला पकड़ कर पीटपीट कर उसे अधमरा कर दे, पर क्या करे यह उस से हो नहीं पा रहा था. वह तो बस गार्डन में चुपचाप बैठा अनिरुद्ध की बातें सुनने के लिए मजबूर था.

फिर अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘अब चलें… मेरा क्या है. मैं तो अकेला हूं, तुम्हारे तो बीवीबच्चे इंतजार कर रहे होंगे.’’

‘‘क्यों, आज गौरा मिलने नहीं आएगी?’’

‘‘आज शनिवार है. उस के पति की छुट्टी रहती है और उस के लिए पति और बच्चे पहली प्राथमिकता हैं जीवन में.’’

‘‘तो फिर तुम से क्यों मिलती है?’’

‘‘तुम नहीं समझोगे.’’

‘‘बताओ तो?’’

‘‘फिर कभी, चलो बाय,’’ कह कर अनिरुद्ध तो चला गया, पर शेखर गुस्से में तपती अपनी कनपटियों को सहलाता रहा कि क्या करे. क्या घर जा कर गौरा को 2 थप्पड़ रसीद कर उस के इस प्रेमी की बात कर उसे जलील करे? पर क्या वह गौरा के साथ ऐसा कर सकता है? नहीं, कभी नहीं. गौरा तो उसे जीजान से प्यार करती है, उस के बिना नहीं रह सकती, फिर उस के जीवन में यह क्या और क्यों हो रहा है? यह अनिरुद्ध कहां से आ गया?

वह पिछले 3 महीनों के घटनाक्रम पर गौर करने लगा जब वह कुछ दिनों से नोट कर रहा था कि गौरा अब पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने प्रति बहुत सजग हो गई थी, सैर पर जाने लगी थी, ब्यूटीपार्लर जा कर नया हेयरस्टाइल, फेशियल, मैनीक्योर, पैडीक्योर सब करवाने लगी थी. पहले तो वह ये सब नहीं करती थी. अब हर तरह के आधुनिक कपड़ों में दिखती थी. सुंदर तो वह थी ही, अब बहुत स्मार्ट भी लगने लगी थी. दोनों बच्चों सिद्धि और तन्मय की देखरेख, घर के सारे काम पूरा कर अपने पर खूब ध्यान देने लगी थी. सब से बड़ी बात यह थी कि धीरगंभीर सी रहने वाली गौरा बातबात पर मुसकराती थी.

शेखर पर वह प्यार हमेशा की तरह लुटाती थी, पर कुछ तो अलग था, यह शेखर को साफसाफ दिख रहा था. अब तक गौरा ने शेखर को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. उसे कुछ भी कहना शेखर को आसान नहीं लग रहा था. वह सच्चरित्र पत्नी थी, फिर यह क्या हो रहा है? क्यों गौरा बदल रही है? इस का पता लगाना शेखर को बहुत जरूरी लग रहा था. पर कुछ पूछ कर वह उस के सामने छोटा भी नहीं लगना चाहता था. क्या करे? गौरा का ही पीछा करता हूं किसी दिन, यह सोच कर उस ने मन ही मन कई योजनाएं बना डाली थीं.

शेखर गौरा का मोबाइल चैक करना चाहता था, पर उस की हिम्मत नहीं हो रही थी. घर में यह अलिखित सा नियम था, कोई किसी का फोन नहीं छूता था. यहां तक कि युवा होते बच्चों के फोन भी उन्होंने कभी नहीं छुए. पर कुछ तो करना ही था. एक दिन जैसे गौरा नहाने गई, उस ने गौरा का फोन चैक करना शुरू किया. किसी अनिरुद्ध के ढेरों मैसेज थे, जिन में से अधिकतर जवाब में गौरा ने अपने पति और बच्चों की खूब तारीफ की हुई थी. अनिरुद्ध से मिलने के प्रोग्राम थे. अनिरुद्ध? शेखर ने याद करने की कोशिश की कि कौन है अनिरुद्ध? फिर उसे सब कुछ याद आ गया.

गौरा ने एक दिन बताया था, ‘‘शेखर आज फेसबुक पर मुझे एक पुराना सहपाठी अनिरुद्ध मिला. उस ने फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजी तो मैं हैरान रह गई. वह यहीं है बनारस में ही.’’

‘‘अच्छा?’’

‘‘हां शेखर, कभी मिलवाऊंगी, कभी घर पर बुला लूं?’’

‘‘फैमिली है उस की यहां?’’

‘‘नहीं, उस की फैमिली लखनऊ में है. उस की पत्नी वहां सर्विस करती है. 2 बच्चे भी वहीं हैं, वह अकेला रहता है यहां. बीचबीच में लखनऊ जाता रहता है.’’

‘‘ठीक है, बुलाएंगे कभी,’’ शेखर ने थोड़ा रूखे स्वर में कहा, तो गौरा ने फिर कभी इस बारे में बात नहीं की थी. लेकिन दिनबदिन जब गौरा के अंदर कुछ अच्छे परिवर्तन दिखे तो वह हैरान होता चला गया. वह अभी भी पहले की ही तरह घरपरिवार के लिए समर्पित पत्नी और मां थी. फिर भी कुछ था जो शेखर को खटक रहा था. फोन चैक करने के बाद शेखर ने अब इस बात को बहुत गंभीरता से लिया. जाहिल, अनपढ़ पुरुषों की तरह इस बात पर चिल्लाचिल्ला कर शोर मचाना, गालीगलौज करना उस की सभ्य मानसिकता को गवारा न था. इस विषय में किसी से बात कर वह गौरा की छवि को खराब भी नहीं करना चाहता था. वह उस की पत्नी थी और दोनों अब भी जीजान से एकदूसरे को प्यार करते थे.

एक दिन गौरा ने जब कहा, ‘‘शेखर, मैं दोपहर में कुछ देर के लिए बाहर जा रही हूं… कुछ काम हो तो मोबाइल तो है ही.’’

शेखर को खटका हुआ, ‘‘कहां जाना है?’’

‘‘एक फ्रैंड से मिलने.’’

‘‘कौन?’’

‘‘रचना.’’

शेखर ने आगे कुछ नहीं पूछा था. लेकिन दोपहर में वह औफिस से उठ कर ऐसी जगह जा कर खड़ा हो गया जहां से वह गौरा को जाते देख सकता था. शेखर ने पहले बच्चों को स्कूल से आते देखा, फिर अंदाजा लगाया, अब गौरा बच्चों को खाना देगी, फिर शायद जाएगी. यही हुआ. थोड़ी देर में खूब सजसंवर कर गौरा बाहर निकली. अपनी सुंदर पत्नी को देख शेखर ने गर्व महसूस किया. फिर अचानक अनिरुद्ध के बारे में सोच कर उस के अंदर कुछ खौलने सा लगा. गौरा पैदल ही थोड़ी दूर स्थित नई बन रही एक सोसायटी की एक बिल्डिंग की तरफ बढ़ी. तीसरे फ्लैट की बालकनी में खड़े एक पुरुष ने उस की तरफ देख कर हाथ हिलाया. शेखर ने दूर से उस पुरुष को देखा. चेहरा जानापहचाना लगा उसे. यह तो रोज गार्डन में सैर करने के लिए आता है.

शीतल फुहार – भाग 1: दिव्या का मन

गांव की भोली, शर्मीली दिव्या के मन में प्यार, लोकलाज और शर्मोहया के परदे तले दबा हुआ था. अनुज जैसे मौडर्न, अमीरजादे के सामने भला वह कहां टिकती. लेकिन संदीप की नजरों में वह ऐसी छा गई थी जैसे सावन की छटा.

चारों तरफ रोशनी थी. सारा माहौल जगमगा रहा था. वह आलीशान कोठी खुशबू और टिमटिमाते बल्बों से दमक रही थी. विशाल लौन करीने से सजाया गया था. चारों तरफ मेजें सजी थीं. बैरे फुरती से मेहमानों की खातिरदारी में लगे थे. लकदक करते जेवर, कपड़ों से सजी औरतें और मर्द मुसकराते, कहकहे लगाते इधरउधर फिर रहे थे. फूलों से सजे स्टेज पर दूल्हादुलहन भी हंसतेमुसकराते फोटो के लिए पोज दे रहे थे. सब हंसीमजाक में मस्त थे.

आज मिस्टर स्वरूप के बड़े बेटे सतीश की शादी थी. पैसा जम कर बहाया गया था. वे शहर के जानेमाने रईस और रुतबे वाले व्यक्ति थे. उन की पत्नी सरोजिनी इस उम्र में भी काफी फिट और आकर्षक लग रही थीं. आज वे खुद भी दुलहन की तरह सजी थीं.

लौन के एक कोने में एक कुरसी में गुमसुम सी बैठी दिव्या सोच रही थी कि इस माहौल में वह कहां फिट होती है. कितनी ही देर से वह अकेली बैठी है पर किसी को भी उस का खयाल तक नहीं आया. अपनी उपेक्षा से उस का मन भर आया. उस का ग्रामीण परिवेश में पलाबढ़ा मानस इस चकाचौंधभरी दुनिया को देख कर सहम जाता था. अब तो उसे लगने लगा था कि इस परिवार के लोग इस बात को भुला ही चुके हैं कि वह इस परिवार की छोटी बहू बनने वाली है, अनुज की मंगेतर है. 7 महीने पहले ही धूमधाम से उन की सगाई हुई थी. अगर आज मम्मीपापा जीवित होते तो शायद परिस्थिति ही दूसरी होती. मातापिता की स्मृति से उस की आंखें भर आईं.

धुंधलाती आंखों से उस ने अनुज को अपनी तरफ आते देखा. तभी एक आधुनिक सी लड़की अनुज के करीब आ कर हंसहंस कर कुछ कहने लगी. अनुज भी हंसने लगा. फिर दोनों कार पार्किंग एरिया की तरफ चल दिए.

दिव्या ने निशब्द सिसकी ली. आंखें ?ापकाईं तो 2 बूंदें आंसू की पलकों से टपक पड़ीं. आंसू पोंछ कर वह यों ही इधरउधर देखने लगी. तभी कंधे पर किसी का स्पर्श पा कर वह चौंक पड़ी.

‘‘भाभी तुम,’’ वह खुशी से चहकी. वे मीरा भाभी थीं, गांव में उस की पड़ोसी और सहेली.

‘‘अकेली क्यों बैठी हो? अनुजजी कहां हैं?’’ मीरा पास बैठते हुए बोलीं.

वह, जो अपनी उपेक्षा से आहत बैठी थी, क्या बताती उन्हें. दादी के कहने पर गांव से उन के साथ आ तो गई थी पर यहां उस से किसी ने सीधेमुंह बात तक न की थी. अनुज से तो अकेले में मुलाकात तक नहीं हुई थी.

एक दुर्घटना में मातापिता को गंवा कर वह वैसे भी दुखी थी. अब इस नए आघात ने तो उसे भीतर तक तोड़ डाला था. उसे अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा था.

स्वरूप दिव्या के पिता के बचपन के मित्र थे. गांव में दोनों पड़ोसी थे. स्वरूप की मां दिव्या के पिता को बेटे की तरह प्यार करती थीं. दोनों परिवारों का प्यार अपनेआप में एक मिसाल था.

स्वरूप पढ़ने में तेज थे. शहर में उच्च शिक्षा ले कर वहीं व्यवसाय शुरू किया और देखतेदेखते उन की गिनती करोड़पतियों में होने लगी. दिव्या के पिता गांव में ही रह गए. पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी तो वही संभालने लगे. एक ही बेटी थी दिव्या. स्वरूप की मां ने बचपन में ही दिव्या को छोटे पोते के लिए मांग लिया था. तब दोनों ही परिवार सहमत हो गए पर समय के साथसाथ जीवन स्तर का अंतर होने लगा था.

अब दादी चाहती थीं कि बड़े पोते सतीश के साथ ही अनुज की शादी भीकर दी जाए. अब न तो अनुज और न ही उस के मांबाप गांव की लड़की ब्याह कर लाना चाहते थे. पर दादी जिद पर अड़ गई थीं. स्वरूप मां को नाराज नहीं करना चाहते थे, सो, पत्नी और बेटे को सम?ाया गया कि अभी सगाई कर लेते हैं, शादी बाद के लिए टाल देंगे. कम से कम सतीश की शादी तो शांति से हो जाए.

बदलते मापदंड : भाग 1 – चिंता एक मां की

‘सोनल यूनिवर्सिटी चली गई है. अब चल कर उस का कमरा साफ करूं,’ माधुरी झुंझलाई, ‘कितनी बार कहा लाड़ली से कि या तो काम करने वाली बाई से साफ करवा लिया कर या खुद साफ कर लिया कर. मगर उस पर तो इस का कुछ असर ही नहीं होता. काम करने वाली बाई के समय उसे बाधा होने लगती है और बाद में यूनिवर्सिटी जाने की जल्दी.’

सारे काम करने के बाद माधुरी को सोनल का कमरा साफ करना बहुत अखरता था. वह सोचती कि अब सोनल कोई बच्ची तो नहीं, 20 वर्षीया युवती है, एम.एससी. फाइनल की छात्रा. परसों उस की सगाई भी हो गई है. 2 महीने बाद जब उस की परीक्षा हो जाएगी तब विवाह भी हो जाएगा, पर अब भी हर प्रकार के उत्तरदायित्व से वह कतराती है. यदि माधुरी इस संबंध में उस के पिताजी से बात करती तो वे यही कहते, ‘क्या है जी, फुजूल की बातों में उस का वक्त मत बरबाद किया करो, वह विज्ञान की छात्रा है. घरगृहस्थी का काम तो जीवनभर करना है.’ कभीकभी वह सोचती कि शायद उस के पिताजी ठीक कहते हैं. हमारे समय में क्या होता था कि जहां जरा सी लड़की बड़ी हुई नहीं कि उस को घरगृहस्थी का काम सिखाना शुरू कर दिया जाता था और फिर जीवनपर्यंत वह घरगृहस्थी पीछा नहीं छोड़ती थी.

यही सब सोचते हुए माधुरी सोनल के कमरे में आ गई. चारों तरफ कमरे में अव्यवस्था फैली हुई थी. तकिया पलंग के बीचोबीच पड़ा था और उतारे हुए कपड़े भी पलंग पर बिखरे पड़े थे. पढ़ाई की मेज पर किताबें आड़ीतिरछी पड़ी थीं. माधुरी को फिर झुंझलाहट हुई कि 2 महीने बाद इस लड़की का विवाह हो जाएगा. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि यदि इस लड़की का यही हाल रहा तो यह गृहस्थी कैसे संभालेगी. सारा कमरा व्यवस्थित कर माधुरी पढ़ाई की मेज के पास आ गई, ‘यह किताबों के साथ मेज में बड़े रूमाल में क्या बंधा रखा है? पत्र मालूम पड़ते हैं. इतने पत्र, शायद अपनी सहेलियों के पत्र इकट्ठे कर रखे होंगे,’ माधुरी सोचने लगी. पत्र शायद संख्या में काफी थे. तभी तो रूमाल में बड़ी मुश्किल से बंध पाए थे. वह उन्हें उठा कर किनारे रखने लगी कि तभी कागज का एक टुकड़ा नीचे गिर गया. उस ने उस टुकड़े को उठा लिया. उस में लिखा था,  ‘प्रिय सोनल, तुम्हारे पत्र तुम्हें वापस कर रहा हूं. गिन लेना, पूरे 101 हैं. तुम्हारा सुमित.’

कागज के उस टुकड़े को पढ़ कर माधुरी को चक्कर सा आने लगा. वह अपनी उत्सुकता को नहीं रोक पाई. उस ने रूमाल खोल दिया. गुलाबी लिफाफों में सारे प्रेमपत्र थे. वह जल्दीजल्दी उन को पढ़ने लगी. फिर सिर पकड़ कर वहीं पलंग पर बैठ गई. उस की आंखों के सामने एकदम अंधेरा सा छा गया. थोड़ी देर बाद वह सामान्य हुई तो सोचने लगी,  ‘यह क्या, यह लड़की इस मार्ग पर इतनी दूर निकल गई और उसे मां हो कर आभास तक नहीं मिला. वह तो सुमित को मात्र सोनल का एक सहपाठी समझती रही. शुरू से ही वह सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ी है. लड़कों से उस की मित्रता भी हमेशा रही है. सुमित के साथ  कुछ ज्यादा ही घुलामिला देखा सोनल को, मगर वह इस बारे में तो सोच ही न सकी. अच्छा हुआ, इस समय घर में कोई नहीं है. उस के पास 2-3 घंटे का समय है, पूरी बात सोचसमझ कर कुछ निर्णय लेने का.’

उस ने उठ कर पहले तो पत्रों को यथावत रूमाल में बांधा, फिर कुरसी पर आ कर चुपचाप बैठ गई. और फिर सोचने लगी, ‘यह लड़की इस संबंध में एक बार भी कुछ न बोली. परसों उसे देखने उस के ससुराल के लोग आए थे तो वह एकदम सहज थी. उस से मैं ने और उस के पिताजी ने इस संबंध में उस की राय भी पूछी थी तब भी उस ने शालीनता से अपनी सहमति जताई थी. ‘मगर उस ने भी तो आज से 22 वर्ष पूर्व यही किया था. प्यार किसी और से करने पर भी उस ने सोनल के पिताजी से विवाह के लिए इनकार नहीं किया था. जब वह इंटर में थी तो पड़ोस में एक नए किराएदार आ कर रहने लगे थे. उन का सुदर्शन बेटा, भैया का दोस्त और एमए का छात्र था.

‘जाड़े की कुनकुनी धूप में वह अपनी पुस्तकें ले कर ऊपर छत पर आ जाती पढ़ने को, तभी देखती कि छत की दूसरी ओर वह भी अपनी पुस्तकें ले कर आ गया है. पढ़ते समय बीच में जब भी उस की नजर उस ओर उठती एकटक उस को अपनी ओर ही देखते पाती थी. संदीप नाम था उस का. उस की नजर में जो वह अपने लिए तड़प महसूस करती थी, वह उसे अंदर तक बेचैन कर देती थी. ‘कब वह भी धीरेधीरे उस की ओर आकृष्ट हो गई, वह समझ ही न सकी थी. हालांकि दोनों में से कोई एकदूसरे से एक शब्द भी नहीं बोलता था, पर उसे हर क्षण दोपहर की प्रतीक्षा रहती थी. ‘ऐसे में ही एक दिन उस को पता चला कि उस को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. वह जैसे आसमान से नीचे गिरी मगर कुछ कह न सकी थी और वे लोग मंगनी की रस्म पूरी कर के चले गए थे. उस के बाद से वह ऊपर छत पर जाती, पर उसे वहां दूसरी छत पर कोई दिखाई नहीं देता था. बाद में संदीप की मां ने माधुरी की मां को बताया था कि आजकल चौबीसों घंटे संदीप पढ़ाई ही करता रहता है. कहता है कि परीक्षा सिर पर है और उसे  ‘टौप’ करना है. दाढ़ी वगैरह भी नहीं बनाता. सुन कर वह कमरे में जा कर खूब रोई थी.

‘फिर विवाह के 2-3 दिन पूर्व उस ने उसे अचानक देखा था. भाई ने शायद उस से कोई संदेश कहलवाया था, भीतर मां के पास. देख कर वह तो पहचान ही न पाई थी. आंखें धंसी हुईं, बढ़ी  हुई दाढ़ी और उतरा चेहरा जैसे महीनों से बीमार हो. मां ने तो देखते ही कहा था, ‘अरे संदीप, यह क्या हाल बना रखा है तुम ने? अरे, पढ़ाई के साथसाथ स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया करो.’ ‘सभी बता रहे थे कि उस के विवाह में उस ने दिनरात की परवा किए बिना सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ रखी थी. फिर वह ससुराल चली आई थी. किसी चीज की कमी नहीं थी ससुराल में. पति का प्यार, रुपयापैसा सभीकुछ था मगर फिर भी कभीकभी उसे लगता कि उसे कुछ नहीं मिला. अकेले में वह अकसर रो पड़ती थी. संदीप से उस के बाद जब वह मायके जाती तो भी न मिल पाती थी. उस के पिता का स्थानांतरण हो गया था और वह होस्टल में रह कर पीएच.डी. कर रहा था. ‘बाद में सोनल और अंशुल ने आ कर उन स्मृतियों को थोड़ा धूमिल अवश्य कर दिया था. शादी के 10 वर्षों बाद अचानक, एक दिन ट्रेन में उस की मुलाकात हुई थी संदीप से. वह तो उसे देखते ही पहचान गई थी, पर संदीप को थोड़ा समय लगा था उसे पहचानने में. शायद विवाह और बच्चों ने उस में काफी परिवर्तन ला दिया था और तब पहली बार उन लोगों में बातें हुई थीं. भले ही वे औपचारिक थीं.

‘जब उस ने संदीप से विवाह और बच्चों के बारे में पूछा तो पता चला कि उस ने अभी तक विवाह नहीं किया था, पति ने चुहल की थी कि कोई पसंद नहीं आई क्या? मगर संदीप ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया था कि नहीं, एक पसंद तो आई थी मगर मेरे पसंद जाहिर करने से पहले ही उस ने दूसरे के साथ घर बसा लिया था. उस ने चौंक कर संदीप की आंखों में झांका था, जहां उसे अथाह वेदना लहराती नजर आई थी. वह फिर काफी दिनों तक बेचैन रही थी और अपने को अपराधिन अनुभव करती रही थी. ‘मगर उस का समय तो दूसरा था. प्रेम की बात को जबान पर लाने के लिए बड़ा साहस चाहिए था परंतु सोनल तो खुली हुई थी, वह तो उसे बता सकती थी कि हो सकता है उस ने सोचा हो कि हम लोग अंतर्जातीय विवाह नहीं करेंगे क्योंकि सुमित दूसरी जाति का था. मगर एक बार वह कह कर देखती. लगता है उस ने अपने मातापिता का दिल नहीं तोड़ना चाहा होगा.

हमेशा की तरह – भाग 1 : सुमन को उस दिन कौन-सा सरप्राइज मिला

सुबह जब गुलशन की आंख खुली तो सुमन मादक अंगड़ाई ले रही थी. पति को देख कर उस ने नशीली मुसकान फेंकी, जिस से कहते हैं कि समुद्र में ठहरे जहाज भी चल पड़ते हैं. अचानक गुलशन गहरी ठंडी सांस छोड़ने को मजबूर हो गया.

‘काश, पिछले 20 वर्ष लौट आते,’’ गुलशन ने सुमन का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा.

‘‘क्या करते तब?’’ सुमन ने हंस कर पूछा.

गुलशन ने शरारत से कहा, ‘‘किसी लालनीली परी को ले कर बहुत दूर उड़ जाता.’’

सुमन सोच रही थी कि शायद गुलशन उस के लिए कुछ रोमानी जुमले कहेगा. थोड़ी देर पहले जो सुबह सुहावनी लग रही थी और बहुतकुछ मनभावन आशाएं ले कर आई थी, अचानक फीकी सी लगने लगी.

‘‘मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं?’’ सुमन ने शब्दों पर जोर देते हुए पूछा, ‘‘आज के दिन भी नहीं?’’

‘‘तुम ही तो मेरी लालनीली और सब्जपरी हो,’’ गुलशन अचानक सुमन को भूल कर चादर फेंक कर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘अरे बाबा, मैं तो भूल ही गया था.’’

सुमन के मन में फिर से आशा जगी, ‘‘क्या भूल गए थे?’’

‘‘बड़ी जरूरी मीटिंग है. थोड़ा जल्दी जाना है,’’ कहतेकहते गुलशन स्नानघर में घुस गया.

सुमन का चेहरा फिर से मुरझा गया. गुलशन 50 करोड़ रुपए की संपत्ति वाले एक कारखाने का प्रबंध निदेशक था. बड़ा तनावभरा जीवन था. कभी हड़ताल, कभी बोनस, कभी मीटिंग तो कभी बोर्ड सदस्यों का आगमन. कभी रोजमर्रा की छोटीछोटी दिखने वाली बड़ी समस्याएं, कभी अधकारियों के घोटाले तो कभी यूनियन वालों की तंग करने वाली हरकतें. इतने सारे झमेलों में फंसा इंसान अकसर अपने अधीनस्थ अधिकारियों से भी परेशान हो जाता है. परामर्शदाताओं ने उसे यही समझाया है कि इतनी परेशानियों के लिए वह खुद जिम्मेदार है. वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों में पूरा विश्वास नहीं रखता. वह कार्यविभाजन में भी विश्वास नहीं रखता. जब तक स्वयं संतुष्ट नहीं हो जाता, किसी काम को आगे नहीं बढ़ने देता. यह अगर उस का गुण है तो एक बड़ी कमजोरी भी.

जल्दीजल्दी उस ने एक टोस्ट खाया और एक गिलास दूध पी कर ब्रीफकेस उठाया. सुमन उस के चेहरे को देख रही थी शायद अभी भी कुछ कहे. पर पति के चेहरे पर केवल तनाव की रेखाएं थीं, कोमल भावनाओं का तो नामोनिशान तक न था. गलशन की कार के स्टार्ट होने की आवाज आई. सुमन ने ठंडी सांस ली. जब गुलशन छोटा अधिकारी था और वेतन भी मामूली था, तब उन का जीवन कितना सुखी था. एक अव्यक्त प्यार का सुखद प्रतीक था, आत्मीयता का सागर था. परंतु आज सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं. दोपहर के 12 बजे थे. प्रेमलता ने घर का सारा काम निबटा दिया था. सुमन भी नहाधो कर बालकनी में बैठी एक पत्रिका देख रही थी. प्रेमलता ने कौफी का प्याला सामने मेज पर रख दिया था.

टैलीफोन की घंटी ने उसे चौंका तो दिया पर साथ ही चेहरे पर एक मुसकान भी ला दी. सोचा, शायद साहब को याद आ ही गया. सिवा गुलशन के और कौन करेगा फोन इस समय? पास रखे फोन को उठा कर मीठे स्वर में कहा, ‘‘हैलो.’’

‘‘हाय, सुमन,’’ गुलशन ही था.

‘‘सुनो,’’ सुमन ने कहना चाहा.

‘‘देखो, सुबह मैं भूल गया था. और अब मुझे समय नहीं मिलेगा. मिक्की को फोन कर देना. आज उस का जन्मदिन है न,’’ गुलशन ने प्यार से कहा, ‘‘तुम बहुत अच्छी हो.’’ गुलशन ने फोन रख दिया था. सुमन हाथ में पकड़ी उस निर्जीव वस्तु को देखते हुए सोचने लगी, ‘बस, इतना ही याद रहा कि मिक्की का जन्मदिन है.’ मिक्की गुलशन की बहन है. यह एक अजीब संयोग था कि आज सुमन का भी जन्मदिन था. दिन तो दोनों का एक ही था, बस साल अलगअलग थे. शुरू में कई वर्षों तक दोनों अपने जन्मदिन एकसाथ बड़ी धूमधाम से मनाती थीं. बाद में तो अपनअपने परिवारों में उलझती चली गईं. साल में एक यही ऐसा दिन आता है, जब कोई अकेला नहीं रहना चाहता. भीड़भाड़, शोरगुल और जश्न के लिए दिल मचलता है. मांबाप की तो बात ही और है, पर जब अपना परिवार हो तो हर इंसान आत्मीयता के क्षण सब के साथ बांटना चाहता है. गुलशन के साथ बिताए कई आरंभिक जन्मदिन जबजब याद आते, पिछले कुछ वर्षों से चली आ रही उपेक्षा बड़ी चोट करती.

आज भी हमेशा की तरह…

‘कोई बात नहीं. तरक्की और बहुत ऊंचा जाने की कामना अनेक त्याग मांगती है. इस त्याग का सब से पहला शिकार पत्नी तो होगी ही, और अगर स्त्री ऊंची उड़ान भरती है तो पति से दूर होने लगती है,’ सुमन कुछ ऐसी ही विचारधारा में खोई हुई थी कि फोन की घंटी ने उस की तंद्रा भंग कर दी.

‘‘हैलो,’’ उस ने उदास स्वर में कहा.

‘‘हाय, मां,’’ अलका ने खिलते फूल की तरह उत्साह से कहा, ‘‘जन्मदिन मुबारक हो.’’

बेटी अलका मसूरी में एक स्कूल में पढ़ती है और वहीं होस्टल में रहती है.

‘‘धन्यवाद, बेटी,’’ सुमन ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘कैसी है तू?’’

‘‘अरे, मुझे क्या होगा मां, पहले यह बताओ, क्या पक रहा है जन्मदिन की खुशी में?’’ अलका ने हंस कर पूछा, ‘‘आ जाऊं?’’

‘‘आजा, बहुत याद आ रही है तेरी,’’ सुमन ने प्यार से कहा.

‘‘मां, मुझे भी तुम्हारी दूरी अब अच्छी नहीं लग रही है,’’ अलका ने चौंकने के स्वर में कहा, ‘‘अरे, साढ़े 12 बजने वाले हैं. चलती हूं, मां. कक्षा में जाना है.’’

‘‘ठीक है, बेटी, अच्छी तरह पढ़ना. अच्छे नंबरों से पास होना. अपनी सेहत का ध्यान रखना और रुपयों की जरूरत हो तो फोन कर देना,’’ सुमन ने जल्दीजल्दी से वह सब दोहरा दिया जिसे दोहराते वह कभी थकती नहीं.

अलका खिलखिला पड़ी, ‘‘मां, क्या सारी माएं तुम्हारी तरह ही होती हैं? कभी तो हम मूर्ख संतानों को अपने हाल पर छोड़ दिया करो.’’

‘‘अभी थोड़ी समझेगी तू…’’

अलका ने बात काटते हुए कहा, ‘‘जब मां बनेगी तो जानेगी. अरे मां, बाकी का संवाद मुंहजबानी याद है. ठीक है, जा रही हूं. देर हो रही है.’’ सुमन के चेहरे पर खिन्न मुसकान थी. ‘ये आजकल के बच्चे तो बस.’ धीरे से सोचते हुए फोन बंद कर के रख दिया, ‘कम से कम बेटी को तो याद आई. इतनी दूर है, पर मां का जन्मदिन नहीं भूलती.’ संध्या के 5 बज रहे थे. ‘क्या गुलशन को जल्दी आने के लिए फोन करे? पर नहीं,’ सुमन ने सोचा, ‘जब पति को न तो याद है और न ही इस के प्रति कोई भावना, तो उसे याद दिला कर अपनी मानहानि करवाएगी.’

बकरा – भाग 1 : दबदबे का खेल

सुनसान लंबा डग नदी में खूब तैरने के बाद डिंपल और कांता कपडे़ पहन कर जैसे ही शौर्टकट रास्ते से घर जाने लगीं, तो उन की नजर लोहारों के रास्ते चलते गुर, चेला और मौहता पर पड़ी. वे सम?ा गईं कि ये तीनों लोहारों की औरतों से आंख सेंकने के लिए ही इस रास्ते से आए थे. ‘‘कांता, ये गुर, चेला और मौहता जैसे लोग आज भी इनसान को इनसान से बांटे हुए हैं, ताकि इन का दबदबा बना रहे और इन की रोजीरोटी मुफ्त में चलती रहे. ये पाखंडी लोग औरतों को हमेशा इस्तेमाल की चीज बनाए रखना चाहते हैं.’’

‘‘सब से खास बात तो यह है कि ये लोग गरीबों और औरतों का शोषण करने के लिए देवीदेवता के गुस्से और कसमों के इतनी चालाकी से बहाने गढ़ते हैं कि लोगों में समाया देवीदेवता का डर उन  के मरने तक भी कभी दूर नहीं होता,’’ डिंपल ने कहा. ‘‘हां डिंपल, तुम्हारा कहना एकदम सही है.

ये राजनीति के मंजे खिलाड़ी आदमी को आदमी से बांटे ही रखना चाहते हैं. इन्होंने तो बड़ी होशियारी से रास्ते तक बांट दिए हैं, ताकि इन की चालाक सोच इन्हें मालामाल करती रहे,’’ कांता बोली. ‘‘बिलकुल सही कहा तुम ने कांता. इस पहाड़ी समाज को अंधेरे में रखने वाले इन भेडि़यों को सबक सिखाने के लिए हमें अपनी भूमिका अच्छे से निभानी होगी.

‘‘देवीदेवता के नाम पर ठगने वाले इन पाखंडियों की असलियत लोगों के सामने लाने के लिए हमें कुछ न कुछ करना ही होगा,’’ डिंपल ने गंभीर आवाज में कांता से कहा. ‘‘हां, यह बहुत जरूरी है डिंपल. मैं जीजान से तुम्हारे साथ हूं. जान दे कर भी दोस्ती निभाऊंगी,’’

कांता बोली.  इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे को प्यार से देखा और गले मिल गईं. ‘‘तुम मेरी सच्ची दोस्त हो कांता. देखो, आजादी के इतने साल बाद भी इस गांव के लोग अंधविश्वास में फंसे हुए हैं.

इन्हें जगाने के लिए हम दोनों मिल कर काम करेंगी,’’ डिंपल ने अपनी बात रखी. ‘‘जरूर डिंपल, यही एकमात्र रास्ता है,’’ कांता ने कहा. डिंपल और कांता ने योजना बनाई और लटूरी देवता के मेले में मिलने की बात पक्की कर के तेजी से अपने घरों की ओर चल दीं.  डिंपल लोहारों की, तो कांता खशों की बेटी थी. कांता ने 23-24 साल की उम्र में ही घाटघाट का पानी पी रखा था. यह तो डिंपल की दोस्ती का असर था कि वह राह भटकने से बच गई थी. हमउम्र वे दोनों चानणा गांव की रहने वाली थीं. नैशनल हाईवे से मीलों दूर पहाड़जंगल, नदीनालों के उस पार कच्ची सड़क से पहुंचते थे. वह कच्ची सड़क लंबा डग नदी तक जाती थी. नदी तट से 2 मील ऊपर नकटे पहाड़ पर सीधी चढ़ाई के बाद चानणा गांव तक पहुंचते थे.  वहां ऊंचाई की ओर खशों और निचली ओर लोहारों की बस्ती थी.

खशों को ऊंची जाति और लोहारों को निचली जाति का दर्जा मिला हुआ था. वहां चलने के लिए ऊंची और छोटी जाति के अलगअलग रास्ते थे.  लोहारों को खशों के रास्ते चलने की इजाजत न थी. वे उन के घरआंगन तक को छू नहीं सकते थे, जबकि खशों को लोहारों के रास्ते चलने का पूरा हक था. वे उन के घरआंगन में बिना डरे कभी  भी आजा सकते थे. यहां तक कि उन के चूल्हों में बीड़ीसिगरेट तक भी सुलगा आते थे.  पर गलती से भी कोई लोहार खशों के रास्ते या घरआंगन से छू गया, तो उस की शामत आ जाती थी. इस से गांव का देवता नाराज हो जाता था और उन्हें दंड में देवता को बकरे की बलि देनी पड़ती थी. मजाल है कि कोई इस प्रथा के खिलाफ एक शब्द भी कह सके.

लोहारों और खशों की बस्तियों के बीच तकरीबन 4-5 एकड़ का मैदान था, जहां बीच में लटूरी देवता का लकड़ी का मंदिर और गढ़ की तरह भंडारगृह था. देवता के गुर का नाम खालटू था. गुर में प्रवेश कर देवता अपनी इच्छा बताता था. लटूरी देवता गुर के जरीए ही शुभ और अशुभ, बारिश, सूखा, तूफान की बात कहता था. गांव और आसपास शादीब्याह, मेलाउत्सव, पर्वत्योहार सब देवता की इच्छा पर तय होते थे.  यहां तक कि फसल बोना, घास काटना भी देवता की इच्छा पर तय था. गुर खालटू को सभी पूजते थे. उसे खूब इज्जत मिलती थी. एक खास बात और थी कि देवता का बजंतरी दल भी था, जो देव रथ के आगेआगे चलता था.

इन में ढोलनगाड़े, शहनाई तो लोहार बजाते थे, पर तुरही, करनाल वगैरह खश बजाते थे. देवता का रथ भी खश उठाते थे, लोहारों को तो छूने की इजाजत तक न थी. लोहारों के रास्ते चलते गुर खालटू, चेला छांगू और मौहता भागू जैसे ही माधो लोहार के घर के पास पहुंचे, उस का मोटातगड़ा बकरा और जवान बेटी देख कर वे एकदम रुक गए.  गुर खालटू के मुंह में आई लार को छांगू और भागू ने देख लिया था. चेला छांगू तो 3 साल से माधो की बेटी डिंपल पर नजर गड़ाए था, पर वह उस के हाथ न लगी थी.  तीनों की नजरें बारबार बकरे से फिसलती थीं और माधो की बेटी पर अटक जाती थीं.

‘‘ऐ माधो की लड़की, कहां है तेरा बापू?’’ गुर खालटू ने पूछा. ‘‘वे मेले में ढोल बजाने गए हैं,’’ तीनों को नमस्ते कर के डिंपल ने कहा. ‘‘आजकल कहां रहती हो? दिखाई नहीं देती हो?’’ डिंपल ने चेले छांगू की बात का  कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि बकरे से बतियाते हुए उसे घासपत्ते खिलाती रही, जैसे उस ने कुछ सुना ही न हो. ‘‘बकरा बेचना तो होगा न माधो को?’’

‘‘नहीं मौहताजी, छोटे से बच्चे को दूध पिलापिला कर बच्चे की तरह पालपोस कर बड़ा किया है. इसे हम नहीं बेचेंगे,’’ नजरें ?ाकाए डिंपल ने कहा और बकरे को पत्ते दिखाती दूसरी ओर ले गई. उस ने तीनों को बैठने तक को न बोला. तीनों बेशर्मी से दांत निकालते हुए मेले की ओर चल दिए.

माधो लोहार को सभी लोग पसंद करते थे. एक तो उस के घराट का आटा सभी को भाता था, दूसरे नगाड़ा बजाने में माहिर उस जैसा पूरे इलाके में कोई दूसरा न था. डिंपल माधो की एकलौती औलाद थी. गांव में पढ़ने के बाद वह शहर में बीएससी फाइनल के इम्तिहान दे कर आई थी.

वह खेलों में भी कई मैडल जीत चुकी थी. गुर, चेला, कारदार चानणा गांव के साथ आसपास के अनेक गांव में अपना डंका जैसेतैसे बजाए हुए थे. देवता के खासमखास कहे जाने वाले वे देव यात्रा के नाम पर शराबमांस की धामें करवाते और औरतों का रातरात भर नाच करवाते थे. गांव में खश व लोहार पूरे लकीर के फकीर थे और देवता पर उन्हें अंधश्रद्धा थी. यह श्रद्धा बढ़ाने का क्रेडिट गुर व चेला जैसे लोगों को ही जाता था.

कुछ गुजर गया – भाग 1 : एक अलहदा इश्क

पहली बार जब वह मेरे घर आया था, तब मैं दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहती थी. मैं नीचे वाले कमरे में बैठी टैलीविजन देख रही थी. वह मेरे भतीजे विवेक के साथ आया था. उसी की उम्र का रहा होगा शायद.  मेरा भतीजा भी मुझ से ज्यादा छोटा नहीं था, क्योंकि वह मेरी बड़ी जेठानी का बेटा था और उम्र में 4-5 साल ही छोटा था. वह उस का दोस्त था, शायद उस से 2-3 साल बड़ा होगा और मुझ से शायद एकाध साल छोटा. उस के हाथ में एक छोटा ब्रीफकेस था और कंधे पर एक बैग लटक रहा था. उस ने मेरी जेठानी को ‘नमस्ते’ किया और फिर मेरी तरफ देख कर मुसकराया. इस से पहले हम ने एकदूसरे को एक बार देखा था, मेरी दीदी के देवर की शादी में. तब मैं उस का नाम भी नहीं जानती थी.

‘‘नमस्ते भाभी,’’ उस ने मेरी तरफ देख कर कहा. वह हलके से मुसकरा भी रहा था. ‘‘नमस्ते…’’ मैं ने भी हलकी हंसी के साथ जवाब दिया.  तब विवेक ने बताया, ‘‘यह मेरा दोस्त अमित है और कुछ महीनों के लिए यहीं रहेगा.’’ चूंकि उस का हम से दूर का रिश्ता भी था, वह थोड़ा घबराया हुआ भी लग रहा था. कमरे 3 ही थे हमारे घर में. नीचे वाले कमरे में जेठानीजी रहती थीं, ऊपर वाले कमरे में मैं और उस के ऊपर वाला कमरा किराए पर दे रखा था. ‘‘विवेक, इन्हें ऊपर वाले कमरे में ले जाइए,’’ मैं ने अपने भतीजे से कहा. विवेक मेरा भतीजा कम देवर ज्यादा लगता था. वह मुड़ कर दरवाजे से बाहर निकला.

दोनों ऊपर वाले कमरे में चले गए. मैं 5 मिनट बाद सीरियल खत्म होते ही ऊपर आई. वह मेरे बिस्तर पर लेटा हुआ था. विवेक नहीं दिखा. मेरी आहट पा कर वह उठ कर बैठ गया. मैं ने उस से पानी के लिए पूछा, पर उस ने इनकार कर दिया. ‘‘आप अंकिता के भाई हैं न?’’ मैं ने उस से पूछा. मैं अंकिता को जानती थी. कुछ ही साल पहले उस की शादी मेरी दीदी के देवर से हुई थी. वह मेरी दीदी की देवरानी थी और इस रिश्ते से वह मुझे ‘दीदी’ कह सकता था, लेकिन उस ने नहीं कहा. उस ने ‘हां’ में जवाब दिया. ‘‘मैं खाना लगा देती हूं, आप खा लीजिए.’’ उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

मैं खाना उस के सामने परोस आई और किचन के काम में लग गई. किचन उस रूम के ठीक सामने ही थी. उस की 1-2 बार उठतीगिरती नजर मुझ से मिली. वह चुपचाप खाना खा रहा था. उस ने कुछ दोबारा मांगा नहीं. वैसे, मैं ने उस से 2 बार पूछा था कि कुछ और लीजिएगा, लेकिन उस ने इनकार कर दिया. वह खाना खा कर प्लेट उठा कर मेरी तरफ आने लगा.

मैं ने उस के हाथ से प्लेट ले ली. इस बीच भी वह कुछ नहीं बोला. वह बहुत कम बोलता था. अभी नया था, इसलिए शायद थोड़ा हिचक रहा था. इसी बीच दीदी यानी मेरी जेठानी ने आवाज दी कि नीचे मेरी बेटी रो रही थी. मैं नीचे चली गई और अपनी बेटी को दूध पिलाने लगी.  शाम के 5 बजने वाले थे. मैं ऊपर चाय बनाने के लिए आई. देखा तब भी वहीं बिस्तर पर बैठा कोई किताब के पन्ने उलट रहा था. ‘‘चाय पीजिएगा?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हां…’’ उस ने कहा. मैं चाय बनाने लगी.

वह वैसे ही अपनी किताब में उलझा रहा.  ‘‘मैं नीचे दीदी को पहले चाय दे कर आती हूं, तब आप को चाय देती हूं. तब तक आप यह चाय देखिए, उबल कर गिर न जाए…’’ ‘‘ठीक है,’’ कहते हुए वह उठ कर चूल्हे के पास आ गया. मैं चाय ले कर नीचे चली आई.  चाय दे कर मैं तेज कदमों से चढ़ती हुई ऊपर आई. वह वहीं खड़ा था और चाय को उबलते हुए देख रहा था. ‘‘आप बैठिए, मैं अभी चाय छान कर लाती हूं.’’ वह वापस कमरे में चला गया. ‘‘पानी भी लेंगे क्या?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हां…’’ वह इतना ही बोला. मैं पानी उस के सामने ड्रैसिंग टेबल पर रख आई और आ कर चाय छानने लगी.

चाय 2 कप में निकाल कर मैं उस के पास आई.  चाय का कप मैं ने उस के हाथों में पकड़ाया. मेरा हाथ उस से छू गया. पहली बार यही स्पर्श हुआ था मेरे और उस के बीच. उस ने मेरी तरफ देखा. मैं अपना कप ले कर वहीं बगल में बैठ गई. उस की नजरें कप में गड़ी हुई थीं.

प्यारी दलित बेटी – भाग 1 : हिम्मती गुड़िया की कहानी

प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ध्यान से एकएक शब्द पढ़ते जा रहे थे. उन की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. उन्होंने आखिरी लाइन को 2-3 बार पड़ा, ‘पापा, अगर आप होते तो मुझे ढेर सारी किताबें ला कर देते, फिर मैं पड़ोस की रानी की तरह स्कूल जाती और खूब पढ़ती…

’गंगाधर शास्त्री ने अपनी जेब से रूमाल निकाला और आंखों को साफ किया, फिर टेबल पर रखी घंटी को दबाया.

घंटी की आवाज कमरे के बाहर तक गूंजने लगी. थोड़ी देर में चपरासी अपने हाथों में चाय का प्याला ले कर हाजिर हो गया, ‘‘जी सर…’’

‘‘अरे, चाय नहीं… सविता को बुलाओ…

’’सविता मैम ने ही प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री को वह परची पढ़ने को दी थी.

जब वे उन की ओर परची बढ़ा रही थीं, तब उन की आंखों में भी आंसू झिलमिला रहे थे.

‘‘किस ने लिखी है यह परची?’’

सविता मैम पूरी तरह कमरे में दाखिल भी नहीं हो पाई थीं कि गंगाधर शास्त्री ने उन के सामने यह सवाल कर दिया.‘‘गुडि़या ने…’’

सविता मैम ने कमरे के अंदर आतेआते ही जवाब दिया.

‘‘कौन गुडि़या…? वह किस क्लास में पढ़ती है?’’

‘‘वह हमारे स्कूल की स्टूडैंट नहीं है सर… पर,

मैं उसे 5वीं क्लास में ऐसे ही बैठा लेती हूं…’’

‘‘क्या मतलब…?’’‘‘उस का नाम दर्ज नहीं है,

पर वह पढ़ना चाहती थी ऐसा उस की मां ने मुझ से बोला था,

तो मैं ने उसे क्लास में बैठने की इजाजत दे दी थी,’’

सविता मैम को लगा शायद सर अब उन से नाराज होंगे, क्योंकि संस्था के नियम के मुताबिक किसी ऐसे बच्चे को क्लास में बैठाया ही नहीं जा सकता था, जिस का नाम संस्था में दर्ज न हो. पर सविता मैम करतीं भी क्या, उन से गुडि़या और उस की मां की आंखों में झांक रही बेचारगी देखी नहीं गई.

गुडि़या की मां गांव में साफसफाई का काम करती थी और 4 बच्चों का पेट भरती थी. पति था नहीं, तो वह चाह कर भी गुडि़या को स्कूल में नहीं भेज पा रही थी.वैसे तो गुडि़या की मां जानती थी कि अब सरकारी स्कूलों मे फीस नहीं लगती, किताबें भी स्कूल से ही मिल जाती हैं,

पर इस के अलावा भी तो खर्चे होते हैं… खर्चे ही नहीं, स्कूल में जो बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं, उसे उन से डर था…गांव में कोई भी तो उन के साथ संबंध नहीं रखता.

सरकार भले ही कहे कि उस ने छुआछूत मिटा दी है…

पर सरकार गांव में आ कर देख ले कि यहां तो अभी भी पुराना राज ही चल रहा है.मां को तो गुडि़या में पढ़ाई की लगन देख कर खुशी होती थी. गुडि़या ने ही जिद की थी,

‘मां, मैं पढ़ना चाहती हूं. आप मुझे स्कूल में भेज दो न…’

रोजरोज की जिद के आगे मां एक दिन गुडि़या को सविता मैम के घर ले गई.

वह तो सविता मैम के घर के बाहर के मैदान में झाड़ू लगाती थी, इस वजह से उन से कुछ पहचान सी हो गई थी.सविता मैम ने भी मां का हौसला बढ़ाया था, ‘‘अरे, आप इसे स्कूल भेजें.

देखो, सरकार पढ़ने वाले बच्चों की कितनी मदद कर रही है…

आप भेज दें इसे…’’‘‘मैम, मैं चाहती हूं कि अभी गुडि़या ऐसे ही स्कूल जाए.

2-4 दिनों में ही उस का स्कूल जाने का भूत उतर जाएगा… और नहीं उतरा तो अगले साल उस का नाम लिखवा दूंगी,’’

गुडि़या की मां बोली.सविता मैम ने गुडि़या को क्लास में बैठने की इजाजत दे दी.अब प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के सामने खड़ी सविता मैम के चेहरे पर न जाने कितने भाव आजा रहे थे…

उन्हें लग रहा था कि कहीं प्रिंसिपल सर नाराज न हो जाएं. उन्होंने गुडि़या का लिखा वह कागज इसलिए उन को पढ़ने के लिए दिया था, ताकि वे उस की पढ़ाई की ललक को खुद भी महसूस कर सकें.बहुत देर तक प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री अपने हाथों में लिए कागज को उलटतेपुलटते रहे.

सविता मैम का सब्र टूटता जा रहा था,

‘‘सर, मुझ से गलती हो गई…

मुझे आप से पूछे बगैर उसे क्लास में नहीं बैठाना चाहिए था…’’

‘अरे नहीं… तुम ने तो बिलकुल सही किया…

हमें कम से कम एक पढ़ने वाले बच्चे का भविष्य संवारने का मौका तो मिला…

सभी को पढ़ालिखा बनाना हमारी जिम्मेदारी है…’’‘‘पर सर… वह…

’’ सविता मैम कुछ कहना चाहती थीं, पर प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ने बीच में ही उन की बात को काट दिया, ‘‘एक काम करो, तुम उसे मेरे पास भेजो…’’

‘‘जी सर…’’‘‘उस की मां क्या करती हैं?’’

‘‘सर, वे दलित समाज से हैं और सफाई का काम करती हैं…’’यह सुन कर प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के चेहरे पर न जाने कितने रंग उतर आए…

‘दलित समाज से… सफाई का काम करती हैं…’

उन के कानों में गूंजने लगा.प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ठहरे शुद्ध ब्राह्मण. वे सिर पर चोटी रखते थे और माथे पर तिलक लगाते थे. उन के कंधे पर जनेऊ लहराता रहता था.

अच्छेखासे लंबे और मजबूत कदकाठी थी उन की.सविता जानती थी कि प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री बहुत धार्मिक और पुराने विचारों के थे. वे अपना पानी घर से ले कर आते थे.

आशा की नई किरण: भाग 1

स्वाति के मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी. महीना चढ़े आज 15 दिन हो गए थे और अब तो उसे उबकाई भी आने लगी थी. खट्टा खाने का मन करने लगा था. वह खुशी से झूम रही थी. पर वह पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहती थी. इतनी जल्दी इस राज को वह किसी पर प्रकट नहीं करना चाहती थी, खासकर पति के ऊपर. 15 दिन और बीत गए. दूसरा महीना भी निकल गया. अब वह पूरी तरह आश्वस्त थी. वह सचमुच गर्भवती थी. शादी के 10 वर्षों बाद वह मां बनने वाली थी, परंतु मां बनने के लिए उस ने क्याक्या खोया, यह केवल वही जानती थी. अभी तक उस के पति को भी मालूम नहीं था. पता चलेगा तो कैसा तूफान उस के जीवन में आएगा इस का अनुमान तो वह लगा सकती थी, लेकिन मां बनने के लिए वह किसी भी तूफान का सामना करने के लिए चट्टान की तरह खड़ी रह सकती थी. इस के लिए वह हर प्रकार का त्याग करने को तैयार थी. 10 वर्ष के विवाहित जीवन में बहुत कष्ट उस ने सहे थे. बांझ न होते हुए भी उस ने बांझ होने का दंश झेला था, सास की जलीकटी सुनी थीं, मातृत्वसुख से वंचित रहने का एहसास खोया था. आज वह उन सभी कष्टों, दुखों, व्यंग्यभरे तानों और उलाहनों को अपने शरीर से चिपके घिनौने कीड़ों की तरह झटक कर दूर कर देना चाहती थी, लोगों के मुंह बंद कर देना चाहती थी. वह सास के चेहरे पर खुशी की झलक देखना चाहती थी और पति…

पति को याद करते हुए उस के मन को झटका लगा, दिल में एक कड़वी सी कसक पैदा हुई, परंतु फिर उस के सुंदर मुखड़े पर एक व्यंग्यात्मक हंसी दौड़ गई. अपने होंठों को अपने दांतों से हलके से काटते हुए उस ने सोचा, पता नहीं उन को कैसा लगेगा? उन के दिल पर क्या गुजरेगी, जब उन को पता चलेगा कि मैं मां बनने वाली हूं. हां, मां, परंतु किस के बच्चे की मां? क्या पीयूष इस सत्य को आसानी से स्वीकार कर लेंगे कि वह मां बनने वाली है. उन के दिमाग में धमाका नहीं होगा, उन का दिल नहीं फट जाएगा? क्या वे यह पूछने का साहस कर पाएंगे कि स्वाति के पेट में किस का बच्चा पल रहा है या वे अपने दिल और दिमाग के दरवाजे बंद कर के अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए एक चुप्पी साध लेंगे? कुछ भी हो सकता है. परंतु स्वाति उस के बारे में चिंतित नहीं थी.

ये भी पढ़ें-क्या थी सलोनी की सच्चाई: भाग 1

उस ने बहुत सोचसमझ कर इतना बड़ा कदम उठाया था. मातृत्वसुख प्राप्त कर के अपने माथे से बांझपन का कलंक मिटाने के लिए उस ने परंपराओं का अतिक्रमण किया था और मर्यादा का उल्लंघन किया था. परंतु उस ने जो कुछ किया था, बहुत सोचसमझ कर किया था. शादी के वक्त स्वाति एक टीवी चैनल में न्यूजरीडर और एंकर थी. वह अपनी रुचि के अनुसार काम कर रही थी, परंतु शादी के पहले ही पीयूष की मम्मी ने कह दिया था कि शादी के बाद वह काम नहीं करेगी. मन मार कर उस ने यह शर्त मंजूर कर ली थी. पीयूष ने एमबीए किया था. एमबीए पूरा होते ही वह अपने पिता के साथ उन के व्यापार में हाथ बंटाने लगा था. उन्हीं दिनों उस के पिता की असामयिक मौत हो गई. उस के बाद उस ने अपने पिता का कारोबार संभाल लिया. उन दोनों की शादी के समय पीयूष के पिता जीवित नहीं थे.

दोनों की शादी धूमधाम से संपन्न हुई. स्वाति भी खुश थी कि उस को अपने सपनों का राजकुमार मिल गया. परंतु सुहागरात को ही उस की खुशियों पर तुषारापात हो गया, उस के अरमान बिखर गए और सपनों के पंख टूट गए. सुहागरात में दोनों का मिलन स्वाति के लिए बहुत दुखद रहा. पीयूष ने जैसे ही उड़ान भरी कि धड़ाम से जमीन पर आ गिरा, जैसे उड़ान भरने के पहले ही किसी ने पक्षी के पर काट दिए हों. वह लुढ़क कर लंबीलंबी सांसें लेने लगा. स्वाति का हृदय दहल गया. मन में एक डर बैठ गया, अगर ऐसा है तो दांपत्य जीवन कैसे पार होगा? फिर उस ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की. हो सकता है, पहली बार के कारण ऐसा हुआ हो. उस ने कहीं पढ़ा था कि प्रथम मिलन में लड़के अत्यधिक उत्तेजना के कारण जल्दी स्खलित हो जाते हैं. यह असामान्य बात नहीं होती है. धीरेधीरे सब सामान्य हो जाता है. काश, ऐसा ही हो, स्वाति ने सोचा. परंतु स्वाति की शंका निर्मूल नहीं थी. उस की आशाओं के पंख किसी ने नोंच कर फेंक दिए. उस की सोच भी सत्य सिद्ध नहीं हुई. पीयूष के पंख सचमुच कटे हुए थे. वह बहुत लंबी उड़ान भर सकने में असमर्थ था. स्वाति अपने पर रोती, परंतु कुछ कर नहीं सकती थी. दांपत्य जीवन के बंधन इतने कड़े होते हैं कि कोई भी उन को तोड़ने का साहस नहीं कर सकता है. अगर तोड़ता है तो शरीर में कहीं न कहीं घाव हो जाता है. स्वाति के जीवन में खुशियों के फूल मुरझाने लगे थे, परंतु वह पढ़ीलिखी थी. उस ने आशा का दामन नहीं छोड़ा. आधुनिक युग विज्ञान का युग था, हर प्रकार के मर्ज का इलाज संभव था.

ये भी पढ़ें-लक्ष्मण-रेखा

स्वाति के मन में पीड़ा थी परंतु ऊपर से वह बहुत खुश रहने का प्रयास करती थी. घर के सारे काम करती थी. सासूमां उस के व्यवहार व कार्यकुशलता से खु थीं, उस का पूरा खयाल रखतीं. स्वाति के साथ घर के कामों में हाथ बंटातीं. स्वाति कहती, ‘‘मांजी, अब आप के आराम करने के दिन हैं, क्यों मेरे साथ लगी रहती हैं. मैं कर लूंगी न सबकुछ.’’

‘‘तू सब कर लेती है, मैं जानती हूं परंतु मैं अपंग नहीं हूं. तेरे साथ काम करती हूं तो शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है. काम न करूंगी तो बीमार हो कर बिस्तर से लग जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कुछ देर आराम कर लिया कीजिए,’’ स्वाति सासूमां को समझाने का प्रयास करती.

‘‘तेरे आने से मुझे आराम ही आराम है. बस, 1 पोता दे कर तू मुझे बचीखुची खुशियां दे दे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा,’’ मांजी ने स्वाति की तरफ ममताभरी निगाह से देखा.

स्वाति के हृदय में कुछ टूट गया. मांजी की तरफ देखने का उसे साहस नहीं हुआ. सिर झुका कर अपने काम में व्यस्त हो गई. समय बीतने के साथसाथ सासूमां की स्वाति से पोते पैदा करने की अपेक्षाएं बढ़ने लगीं. दिन बीतते जा रहे थे. उसी अनुपात में सासूमां की पोते के प्रति चाहत भी बढ़ती जा रही थी. एक दिन उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति बेटा, अब और कितना इंतजार करवाओगी? तुम लोग कुछ करते क्यों नहीं? क्या कोई सावधानी बरत रहे हो?’’ उन्होंने संदेहपूर्ण निगाहों से स्वाति को देखा. ‘‘कैसी सावधानी, मां?’’ स्वाति ने अनजान बनते हुए पूछा. वह अपनी तरफ से क्या कहती, उसे ऐसे पुरुष के साथ बांध दिया था जिस में पुरुषत्व की कमी थी. इस में न उस के घर वालों का दोष था, न ससुरालपक्ष के लोगों का? दोष था तो केवल पीयूष का, जिस ने सबकुछ जानते हुए भी शादी की. स्वाति अभी तक चुप थी. शर्म और संकोच की दीवार उस के मन में थी, परंतु अब इस दीवार को उसे तोड़ना ही होगा. पीयूष से इस बारे में उसे बात करनी होगी, परंतु इस तरीके से कि उस के अहं को ठेस न पहुंचे और वह बात की गंभीरता को समझ कर अपना इलाज करवाने के लिए तैयार हो जाए.

शादी की पहली वर्षगांठ बीत गई. कोई उत्साह उन के बीच में नहीं था. स्वाति कोई जश्न मनाना नहीं चाहती थी. पीयूष और मां दोनों की इच्छा थी कि घर में छोटामोटा जश्न मनाया जाए. केवल खास लोगों को बुलाया जाए परंतु स्वाति ने साफ मना कर दिया. वह लोगों की निगाहों में जगे हुए प्रश्नों की आग में तपना नहीं चाहती थी. अंत में पीयूष और स्वाति एक रेस्तरां में डिनर कर के लौट आए. उसी रात…स्वाति ने खुल कर बात की पीयूष से, ‘‘एक साल हो गया, अब हमें कुछ करना होगा. मम्मी की हम से कुछ अपेक्षाएं हैं.’’

पीयूष चौंका, परंतु बिना स्वाति की ओर करवट बदले पूछा, ‘‘कैसी अपेक्षाएं?’’

स्वाति मछली की तरह करवट बदल कर पीयूष की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘क्या आप नहीं जानते कि एक मां की बेटेबहू से क्या अपेक्षाएं होती हैं?’’

पीयूष की पलकें झुक गईं, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं?’’ उस ने हताश स्वर में कहा. स्वाति ने अपनी कोमल उंगलियों से उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘आप निराशाजनक बातें क्यों कर रहे हैं. दुनिया में हर चीज संभव है, हर मर्ज का इलाज है और प्रत्येक समस्या का समाधान है.’’

पीयूष ने उस की आंखों में देखते हुए पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो?’’

एक कदम आगे – भाग 1

ऐक्सीडैंट की खबर मिलते ही जुबेदा के तो होश उड़ गए. इमरान से शादी को अभी 3 ही साल हुए थे. इमरान की बाइक को किसी ट्रक ने टक्कर मार दी थी. घर के सभी लोगों के साथ जुबेदा भी अस्पताल पहुंची थी. सिर पर गंभीर चोट लगी थी. जिस्म पर भी काफी जख्म थे. औपरेशन जरूरी था. उस के लिए 1 लाख चाहिए थे. जुबेदा ससुर के साथ घर आई. फौरन 1 लाख का चैक ले कर अस्पताल पहुंचीं, पर तब तक उस की दुनिया उजड़ चुकी थी. इमरान अपनी आखिरी सांस ले चुका था. जुबेदा सदमे से बेहोश हो गई. अस्पताल की काररवाई पूरी होने और लाश मिलने में 5-6 घंटे लग गए.

घर पहुंचते ही जनाजा उठाने की तैयारी शुरू हो गई. जुबेदा होश में तो आ गई थी पर जैसे उस का दिलदिमाग सुन्न हो गया था. उस की एक ही बहन थी कहकशां. वह अपने शौहर अरशद के साथ पहुंच गई थी. जैसे ही जनाजा उठा, जुबेदा की फूफी सास सरौते से उस की चूडि़यां तोड़ने लगीं.

कहकशां ने तुरंत उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘चूडि़यां तोड़ने की क्या जरूरत है?’’

‘‘हमारे खानदान में रिवायत है कि जैसे ही शौहर का जनाजा उठता है, बेवा की चूडि़यां तोड़ कर उस के हाथ नंगे कर दिए जाते हैं,’’ फूफी सास बोलीं.

जुबेदा की खराब हालत देख कर कहकशां ने ज्यादा विरोध न करते हुए कहा, ‘‘आप सरौता हटा लीजिए. मैं कांच की चूडि़यां उतार देती हूं.’’

मगर फूफी सास जिद करने लगीं, ‘‘चूडि़यां तोड़ने का रिवाज है.’’ तब कहकशां ने रूखे लहजे में कहा, ‘‘आप का मकसद बेवा के हाथ नंगे करना है, फिर चाहे चूडि़यां उतार कर करें या उन्हें तोड़ कर, कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ और फिर उस ने चूडि़यां उतार दीं और सोने की 2-2 चूडि़यां वापस पहना दीं.

इस पर भी फूफी सास ने ऐतराज जताना चाहा तो कहकशां ने कहा, ‘‘आप के खानदान में चूडि़यां फोड़ने का रिवाज है, पर सोने की चूडि़यां तो नहीं तोड़ी जाती हैं. इस का मतलब है सोने की चूडि़यां पहनी जा सकती हैं.’’

फूफीसास के पास इस तर्क का कोई जवाब न था.

जुबेदा को सफेद सलवारकुरता पहनाया गया. फिर उस पर बड़ी सी सफेद चादर ओढ़ा कर उस की सास उसे एक कमरे में ले जा कर बोलीं, ‘‘अब तुम इद्दत (इद्दत शौहर के मरने के बाद बेवा को साढ़े चार महीने एक कमरे में बैठना होता है. किसी भी गैरमर्द से मिला नहीं जा सकता) में हो. अब तुम इस कमरे से बाहर न निकलना.’’

जुबेदा को भी तनहाई की दरकार थी. अत: वह फौरन बिस्तर पर लेट गई. कहकशां उस के साथ ही थी, वह उस के बाल सहलाती रही, तसल्ली देती रही, समझाती रही.

जुबेदा की आंखों से आंसू बहते रहे. उस की आंखों के सामने उस का अतीत जीवित हो उठा. उस के वालिद तभी गुजर गए थे जब दोनों बहनें छोटी थीं. उन की अम्मां ने कहकशां और जुबेदा की बहुत प्यार से परवरिश की. दोनों को खूब पढ़ाया लिखाया. पढ़ाई के बाद कहकशां की शादी एक अच्छे घर में हो गई. जुबेदा ने एमएससी, बीएड किया. उसे सरकारी गर्ल्स स्कूल में नौकरी मिल गई. जिंदगी बड़े सुकून से गुजर रही थी. किसी मिलने वाले के जरीए जुबेदा के लिए इमरान का रिश्ता आया. इमरान अच्छा पढ़ालिखा और प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. अम्मां ने पूरी मालूमात कर के जुबेदा की शादी इमरान से कर दी. अच्छा खानदान था. भरापूरा घर था.

इमरान बहुत चाहने वाला शौहर साबित हुआ. मिजाज भी बहुत अच्छा था. दोनों ने 1 महीने की छुट्टी ली थी. उमंग भरे खुशी के दिन घूमनेफिरने और दावतों में पलक झपकते ही गुजर गए. दोनों ने अपनीअपनी नौकरी जौइन कर ली. इमरान सवेरे 9 बजे निकल जाता. उस के बाद जुबेदा को स्कूल के लिए निकलना होता. घर में सासससुर और इमरान से बड़ा भाई सुभान, उस की बीवी रूना और उन के 2 छोटे बच्चों के अलावा कुंआरी ननद थी, जो कालेज में पढ़ रही थी.

अभी तक जुबेदा किचन में नहीं गई थी. इतना वक्त ही न मिला था. बस एक बार उस से खीर पकवाई गई थी. वे घूमने निकल गए. उस के बाद दावतों में बिजी हो गए. आज किचन में आने का मौका मिला तो उस ने जल्दीजल्दी परांठे बनाए. भाभी ने आमलेट बना दिया. नाश्ता करतेकराते काफी टाइम हो गया. इमरान नाश्ता कर के चला गया. आज लंच बौक्स तैयार न हो सका, क्योंकि टाइम ही नहीं था. दोनों शाम को ही घर आ पाते थे.

शाम को दोनों घर पहुंचे. जुबेदा ने अपने लिए व इमरान के लिए चाय बनाई. बाकी सब पी चुके थे. चाय पीतेपीते वह दूसरे दिन के  लंच की तैयारी के बारे में प्लान कर रही थी. तभी सास की सख्त आवाज कानों में पड़ी, ‘‘सारा दिन बाहर रहती हो… कुछ घर की भी जिम्मेदारी उठाओ… रूना अकेली कब तक काम संभालेगी. उस के 2 बच्चे भी हैं… उन का भी काम करना पड़ता है. फिर हम दोनों की भी देखभाल करनी पड़ती है. अब कल सुबह से नाश्ता और खाना बना कर जाया करो. समझ गई?’’

जुबेदा दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ गई. सब के लिए परांठे बनाए. भाभी ने दूसरी चीजें बनाईं. उस ने जल्दीजल्दी एक सब्जी बनाई. फिर थोड़ी सी रोटियां बना कर दोनों के लंच बौक्स तैयार कर लिए. जल्दी करतेकरते भी देर हो गई. इसी तरह जिंदगी की गाड़ी चलने लगी. कभी दाल नहीं बन पाती तो कभी पूरी रोटियां पकाने का टाइम नहीं मिलता. हर दूसरेतीसरे दिन सास की सलवातें सुननी पड़तीं. शाम को बसों के चक्कर में इतना थक जाती कि शाम को कुछ खास नहीं कर पाती. बस थोड़ी बहुत रूना भाभी की मदद कर देती.

छुट्टी के दिन कहीं आनेजाने का या घूमने का प्रोग्राम बन जाता तो सब के मुंह फूल जाते. सास सारा गुस्सा जुबेदा पर उतारतीं, ‘‘पूरा हफ्ता तो घर से बाहर रहती हो छुट्टी के दिन तो घर रहा करो. कुछ अच्छी चीजें पकाओ… पर तुम्हें तो उस दिन भी मौजमस्ती सूझती है. जबकि छुट्टी के दिन तो हफ्ते भर के  काम करने को होते हैं.’’

जुबेदा जवाब नहीं देती. सास खुद ही बकझक कर के चुप हो जातीं. इमरान सारे हालात देख रहा था. जुबेदा भरसक कोशिश करती पर काम निबटाना मुश्किल था. करने वाले 2 थे. काम ज्यादा लोगों का था और रूना भाभी के बच्चे भी छोटे थे. इमरान ने एक खाना पकाने वाली औरत का इंतजाम कर दिया. उस का वेतन जुबेदा देती थी. अब उसे राहत हो गई थी. वह बस सुबह के परांठे बनाती. तब तक बाई आ जाती. वह सास की सब्जी बना देती. बाकी बाद का काम भी संभाल लेती. रूना भाभी को भी आराम हो गया. दिन सुकून से गुजर रहे थे.

मुश्किल यह भी कि सास पुराने ख्यालात की थीं. उन्हें जुबेदा का नौकरी करना बुरा लगता था. वे और जगह खुले हाथ से खर्च करती थीं पर घर खर्च में कुछ नहीं देती थीं. इमरान सुभान के बराबर घर खर्च में पैसे देता था. फिर अब्बा की पेंशन भी थी. उस में से सास बचत कर लेती थीं और बेवजह ही घर तंगी का रोना रोतीं. हां, जुबेदा कभी फ्रूट्स ले आती तो कभी नाश्ते का सामान. खास मौके पर सब को तोहफे भी देती. तब सास खूब खुश हो जातीं पर टोकने का कोई मौका नहीं छोड़तीं.

जुबेदा काफी खूबसूरत और नाजुक सी थी. इमरान उस पर जान देता था. उस का बहुत खयाल रखता. यह भी अम्मां को बहुत अखरता था कि उन का लाड़ला उन के अलावा किसी और से मुहब्बत करता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें