बकरा – भाग 1 : दबदबे का खेल

सुनसान लंबा डग नदी में खूब तैरने के बाद डिंपल और कांता कपडे़ पहन कर जैसे ही शौर्टकट रास्ते से घर जाने लगीं, तो उन की नजर लोहारों के रास्ते चलते गुर, चेला और मौहता पर पड़ी. वे सम?ा गईं कि ये तीनों लोहारों की औरतों से आंख सेंकने के लिए ही इस रास्ते से आए थे. ‘‘कांता, ये गुर, चेला और मौहता जैसे लोग आज भी इनसान को इनसान से बांटे हुए हैं, ताकि इन का दबदबा बना रहे और इन की रोजीरोटी मुफ्त में चलती रहे. ये पाखंडी लोग औरतों को हमेशा इस्तेमाल की चीज बनाए रखना चाहते हैं.’’

‘‘सब से खास बात तो यह है कि ये लोग गरीबों और औरतों का शोषण करने के लिए देवीदेवता के गुस्से और कसमों के इतनी चालाकी से बहाने गढ़ते हैं कि लोगों में समाया देवीदेवता का डर उन  के मरने तक भी कभी दूर नहीं होता,’’ डिंपल ने कहा. ‘‘हां डिंपल, तुम्हारा कहना एकदम सही है.

ये राजनीति के मंजे खिलाड़ी आदमी को आदमी से बांटे ही रखना चाहते हैं. इन्होंने तो बड़ी होशियारी से रास्ते तक बांट दिए हैं, ताकि इन की चालाक सोच इन्हें मालामाल करती रहे,’’ कांता बोली. ‘‘बिलकुल सही कहा तुम ने कांता. इस पहाड़ी समाज को अंधेरे में रखने वाले इन भेडि़यों को सबक सिखाने के लिए हमें अपनी भूमिका अच्छे से निभानी होगी.

‘‘देवीदेवता के नाम पर ठगने वाले इन पाखंडियों की असलियत लोगों के सामने लाने के लिए हमें कुछ न कुछ करना ही होगा,’’ डिंपल ने गंभीर आवाज में कांता से कहा. ‘‘हां, यह बहुत जरूरी है डिंपल. मैं जीजान से तुम्हारे साथ हूं. जान दे कर भी दोस्ती निभाऊंगी,’’

कांता बोली.  इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे को प्यार से देखा और गले मिल गईं. ‘‘तुम मेरी सच्ची दोस्त हो कांता. देखो, आजादी के इतने साल बाद भी इस गांव के लोग अंधविश्वास में फंसे हुए हैं.

इन्हें जगाने के लिए हम दोनों मिल कर काम करेंगी,’’ डिंपल ने अपनी बात रखी. ‘‘जरूर डिंपल, यही एकमात्र रास्ता है,’’ कांता ने कहा. डिंपल और कांता ने योजना बनाई और लटूरी देवता के मेले में मिलने की बात पक्की कर के तेजी से अपने घरों की ओर चल दीं.  डिंपल लोहारों की, तो कांता खशों की बेटी थी. कांता ने 23-24 साल की उम्र में ही घाटघाट का पानी पी रखा था. यह तो डिंपल की दोस्ती का असर था कि वह राह भटकने से बच गई थी. हमउम्र वे दोनों चानणा गांव की रहने वाली थीं. नैशनल हाईवे से मीलों दूर पहाड़जंगल, नदीनालों के उस पार कच्ची सड़क से पहुंचते थे. वह कच्ची सड़क लंबा डग नदी तक जाती थी. नदी तट से 2 मील ऊपर नकटे पहाड़ पर सीधी चढ़ाई के बाद चानणा गांव तक पहुंचते थे.  वहां ऊंचाई की ओर खशों और निचली ओर लोहारों की बस्ती थी.

खशों को ऊंची जाति और लोहारों को निचली जाति का दर्जा मिला हुआ था. वहां चलने के लिए ऊंची और छोटी जाति के अलगअलग रास्ते थे.  लोहारों को खशों के रास्ते चलने की इजाजत न थी. वे उन के घरआंगन तक को छू नहीं सकते थे, जबकि खशों को लोहारों के रास्ते चलने का पूरा हक था. वे उन के घरआंगन में बिना डरे कभी  भी आजा सकते थे. यहां तक कि उन के चूल्हों में बीड़ीसिगरेट तक भी सुलगा आते थे.  पर गलती से भी कोई लोहार खशों के रास्ते या घरआंगन से छू गया, तो उस की शामत आ जाती थी. इस से गांव का देवता नाराज हो जाता था और उन्हें दंड में देवता को बकरे की बलि देनी पड़ती थी. मजाल है कि कोई इस प्रथा के खिलाफ एक शब्द भी कह सके.

लोहारों और खशों की बस्तियों के बीच तकरीबन 4-5 एकड़ का मैदान था, जहां बीच में लटूरी देवता का लकड़ी का मंदिर और गढ़ की तरह भंडारगृह था. देवता के गुर का नाम खालटू था. गुर में प्रवेश कर देवता अपनी इच्छा बताता था. लटूरी देवता गुर के जरीए ही शुभ और अशुभ, बारिश, सूखा, तूफान की बात कहता था. गांव और आसपास शादीब्याह, मेलाउत्सव, पर्वत्योहार सब देवता की इच्छा पर तय होते थे.  यहां तक कि फसल बोना, घास काटना भी देवता की इच्छा पर तय था. गुर खालटू को सभी पूजते थे. उसे खूब इज्जत मिलती थी. एक खास बात और थी कि देवता का बजंतरी दल भी था, जो देव रथ के आगेआगे चलता था.

इन में ढोलनगाड़े, शहनाई तो लोहार बजाते थे, पर तुरही, करनाल वगैरह खश बजाते थे. देवता का रथ भी खश उठाते थे, लोहारों को तो छूने की इजाजत तक न थी. लोहारों के रास्ते चलते गुर खालटू, चेला छांगू और मौहता भागू जैसे ही माधो लोहार के घर के पास पहुंचे, उस का मोटातगड़ा बकरा और जवान बेटी देख कर वे एकदम रुक गए.  गुर खालटू के मुंह में आई लार को छांगू और भागू ने देख लिया था. चेला छांगू तो 3 साल से माधो की बेटी डिंपल पर नजर गड़ाए था, पर वह उस के हाथ न लगी थी.  तीनों की नजरें बारबार बकरे से फिसलती थीं और माधो की बेटी पर अटक जाती थीं.

‘‘ऐ माधो की लड़की, कहां है तेरा बापू?’’ गुर खालटू ने पूछा. ‘‘वे मेले में ढोल बजाने गए हैं,’’ तीनों को नमस्ते कर के डिंपल ने कहा. ‘‘आजकल कहां रहती हो? दिखाई नहीं देती हो?’’ डिंपल ने चेले छांगू की बात का  कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि बकरे से बतियाते हुए उसे घासपत्ते खिलाती रही, जैसे उस ने कुछ सुना ही न हो. ‘‘बकरा बेचना तो होगा न माधो को?’’

‘‘नहीं मौहताजी, छोटे से बच्चे को दूध पिलापिला कर बच्चे की तरह पालपोस कर बड़ा किया है. इसे हम नहीं बेचेंगे,’’ नजरें ?ाकाए डिंपल ने कहा और बकरे को पत्ते दिखाती दूसरी ओर ले गई. उस ने तीनों को बैठने तक को न बोला. तीनों बेशर्मी से दांत निकालते हुए मेले की ओर चल दिए.

माधो लोहार को सभी लोग पसंद करते थे. एक तो उस के घराट का आटा सभी को भाता था, दूसरे नगाड़ा बजाने में माहिर उस जैसा पूरे इलाके में कोई दूसरा न था. डिंपल माधो की एकलौती औलाद थी. गांव में पढ़ने के बाद वह शहर में बीएससी फाइनल के इम्तिहान दे कर आई थी.

वह खेलों में भी कई मैडल जीत चुकी थी. गुर, चेला, कारदार चानणा गांव के साथ आसपास के अनेक गांव में अपना डंका जैसेतैसे बजाए हुए थे. देवता के खासमखास कहे जाने वाले वे देव यात्रा के नाम पर शराबमांस की धामें करवाते और औरतों का रातरात भर नाच करवाते थे. गांव में खश व लोहार पूरे लकीर के फकीर थे और देवता पर उन्हें अंधश्रद्धा थी. यह श्रद्धा बढ़ाने का क्रेडिट गुर व चेला जैसे लोगों को ही जाता था.

कुछ गुजर गया – भाग 1 : एक अलहदा इश्क

पहली बार जब वह मेरे घर आया था, तब मैं दिल्ली के रोहिणी इलाके में रहती थी. मैं नीचे वाले कमरे में बैठी टैलीविजन देख रही थी. वह मेरे भतीजे विवेक के साथ आया था. उसी की उम्र का रहा होगा शायद.  मेरा भतीजा भी मुझ से ज्यादा छोटा नहीं था, क्योंकि वह मेरी बड़ी जेठानी का बेटा था और उम्र में 4-5 साल ही छोटा था. वह उस का दोस्त था, शायद उस से 2-3 साल बड़ा होगा और मुझ से शायद एकाध साल छोटा. उस के हाथ में एक छोटा ब्रीफकेस था और कंधे पर एक बैग लटक रहा था. उस ने मेरी जेठानी को ‘नमस्ते’ किया और फिर मेरी तरफ देख कर मुसकराया. इस से पहले हम ने एकदूसरे को एक बार देखा था, मेरी दीदी के देवर की शादी में. तब मैं उस का नाम भी नहीं जानती थी.

‘‘नमस्ते भाभी,’’ उस ने मेरी तरफ देख कर कहा. वह हलके से मुसकरा भी रहा था. ‘‘नमस्ते…’’ मैं ने भी हलकी हंसी के साथ जवाब दिया.  तब विवेक ने बताया, ‘‘यह मेरा दोस्त अमित है और कुछ महीनों के लिए यहीं रहेगा.’’ चूंकि उस का हम से दूर का रिश्ता भी था, वह थोड़ा घबराया हुआ भी लग रहा था. कमरे 3 ही थे हमारे घर में. नीचे वाले कमरे में जेठानीजी रहती थीं, ऊपर वाले कमरे में मैं और उस के ऊपर वाला कमरा किराए पर दे रखा था. ‘‘विवेक, इन्हें ऊपर वाले कमरे में ले जाइए,’’ मैं ने अपने भतीजे से कहा. विवेक मेरा भतीजा कम देवर ज्यादा लगता था. वह मुड़ कर दरवाजे से बाहर निकला.

दोनों ऊपर वाले कमरे में चले गए. मैं 5 मिनट बाद सीरियल खत्म होते ही ऊपर आई. वह मेरे बिस्तर पर लेटा हुआ था. विवेक नहीं दिखा. मेरी आहट पा कर वह उठ कर बैठ गया. मैं ने उस से पानी के लिए पूछा, पर उस ने इनकार कर दिया. ‘‘आप अंकिता के भाई हैं न?’’ मैं ने उस से पूछा. मैं अंकिता को जानती थी. कुछ ही साल पहले उस की शादी मेरी दीदी के देवर से हुई थी. वह मेरी दीदी की देवरानी थी और इस रिश्ते से वह मुझे ‘दीदी’ कह सकता था, लेकिन उस ने नहीं कहा. उस ने ‘हां’ में जवाब दिया. ‘‘मैं खाना लगा देती हूं, आप खा लीजिए.’’ उस ने कोई जवाब नहीं दिया.

मैं खाना उस के सामने परोस आई और किचन के काम में लग गई. किचन उस रूम के ठीक सामने ही थी. उस की 1-2 बार उठतीगिरती नजर मुझ से मिली. वह चुपचाप खाना खा रहा था. उस ने कुछ दोबारा मांगा नहीं. वैसे, मैं ने उस से 2 बार पूछा था कि कुछ और लीजिएगा, लेकिन उस ने इनकार कर दिया. वह खाना खा कर प्लेट उठा कर मेरी तरफ आने लगा.

मैं ने उस के हाथ से प्लेट ले ली. इस बीच भी वह कुछ नहीं बोला. वह बहुत कम बोलता था. अभी नया था, इसलिए शायद थोड़ा हिचक रहा था. इसी बीच दीदी यानी मेरी जेठानी ने आवाज दी कि नीचे मेरी बेटी रो रही थी. मैं नीचे चली गई और अपनी बेटी को दूध पिलाने लगी.  शाम के 5 बजने वाले थे. मैं ऊपर चाय बनाने के लिए आई. देखा तब भी वहीं बिस्तर पर बैठा कोई किताब के पन्ने उलट रहा था. ‘‘चाय पीजिएगा?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हां…’’ उस ने कहा. मैं चाय बनाने लगी.

वह वैसे ही अपनी किताब में उलझा रहा.  ‘‘मैं नीचे दीदी को पहले चाय दे कर आती हूं, तब आप को चाय देती हूं. तब तक आप यह चाय देखिए, उबल कर गिर न जाए…’’ ‘‘ठीक है,’’ कहते हुए वह उठ कर चूल्हे के पास आ गया. मैं चाय ले कर नीचे चली आई.  चाय दे कर मैं तेज कदमों से चढ़ती हुई ऊपर आई. वह वहीं खड़ा था और चाय को उबलते हुए देख रहा था. ‘‘आप बैठिए, मैं अभी चाय छान कर लाती हूं.’’ वह वापस कमरे में चला गया. ‘‘पानी भी लेंगे क्या?’’ मैं ने पूछा. ‘‘हां…’’ वह इतना ही बोला. मैं पानी उस के सामने ड्रैसिंग टेबल पर रख आई और आ कर चाय छानने लगी.

चाय 2 कप में निकाल कर मैं उस के पास आई.  चाय का कप मैं ने उस के हाथों में पकड़ाया. मेरा हाथ उस से छू गया. पहली बार यही स्पर्श हुआ था मेरे और उस के बीच. उस ने मेरी तरफ देखा. मैं अपना कप ले कर वहीं बगल में बैठ गई. उस की नजरें कप में गड़ी हुई थीं.

प्यारी दलित बेटी – भाग 1 : हिम्मती गुड़िया की कहानी

प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ध्यान से एकएक शब्द पढ़ते जा रहे थे. उन की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. उन्होंने आखिरी लाइन को 2-3 बार पड़ा, ‘पापा, अगर आप होते तो मुझे ढेर सारी किताबें ला कर देते, फिर मैं पड़ोस की रानी की तरह स्कूल जाती और खूब पढ़ती…

’गंगाधर शास्त्री ने अपनी जेब से रूमाल निकाला और आंखों को साफ किया, फिर टेबल पर रखी घंटी को दबाया.

घंटी की आवाज कमरे के बाहर तक गूंजने लगी. थोड़ी देर में चपरासी अपने हाथों में चाय का प्याला ले कर हाजिर हो गया, ‘‘जी सर…’’

‘‘अरे, चाय नहीं… सविता को बुलाओ…

’’सविता मैम ने ही प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री को वह परची पढ़ने को दी थी.

जब वे उन की ओर परची बढ़ा रही थीं, तब उन की आंखों में भी आंसू झिलमिला रहे थे.

‘‘किस ने लिखी है यह परची?’’

सविता मैम पूरी तरह कमरे में दाखिल भी नहीं हो पाई थीं कि गंगाधर शास्त्री ने उन के सामने यह सवाल कर दिया.‘‘गुडि़या ने…’’

सविता मैम ने कमरे के अंदर आतेआते ही जवाब दिया.

‘‘कौन गुडि़या…? वह किस क्लास में पढ़ती है?’’

‘‘वह हमारे स्कूल की स्टूडैंट नहीं है सर… पर,

मैं उसे 5वीं क्लास में ऐसे ही बैठा लेती हूं…’’

‘‘क्या मतलब…?’’‘‘उस का नाम दर्ज नहीं है,

पर वह पढ़ना चाहती थी ऐसा उस की मां ने मुझ से बोला था,

तो मैं ने उसे क्लास में बैठने की इजाजत दे दी थी,’’

सविता मैम को लगा शायद सर अब उन से नाराज होंगे, क्योंकि संस्था के नियम के मुताबिक किसी ऐसे बच्चे को क्लास में बैठाया ही नहीं जा सकता था, जिस का नाम संस्था में दर्ज न हो. पर सविता मैम करतीं भी क्या, उन से गुडि़या और उस की मां की आंखों में झांक रही बेचारगी देखी नहीं गई.

गुडि़या की मां गांव में साफसफाई का काम करती थी और 4 बच्चों का पेट भरती थी. पति था नहीं, तो वह चाह कर भी गुडि़या को स्कूल में नहीं भेज पा रही थी.वैसे तो गुडि़या की मां जानती थी कि अब सरकारी स्कूलों मे फीस नहीं लगती, किताबें भी स्कूल से ही मिल जाती हैं,

पर इस के अलावा भी तो खर्चे होते हैं… खर्चे ही नहीं, स्कूल में जो बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं, उसे उन से डर था…गांव में कोई भी तो उन के साथ संबंध नहीं रखता.

सरकार भले ही कहे कि उस ने छुआछूत मिटा दी है…

पर सरकार गांव में आ कर देख ले कि यहां तो अभी भी पुराना राज ही चल रहा है.मां को तो गुडि़या में पढ़ाई की लगन देख कर खुशी होती थी. गुडि़या ने ही जिद की थी,

‘मां, मैं पढ़ना चाहती हूं. आप मुझे स्कूल में भेज दो न…’

रोजरोज की जिद के आगे मां एक दिन गुडि़या को सविता मैम के घर ले गई.

वह तो सविता मैम के घर के बाहर के मैदान में झाड़ू लगाती थी, इस वजह से उन से कुछ पहचान सी हो गई थी.सविता मैम ने भी मां का हौसला बढ़ाया था, ‘‘अरे, आप इसे स्कूल भेजें.

देखो, सरकार पढ़ने वाले बच्चों की कितनी मदद कर रही है…

आप भेज दें इसे…’’‘‘मैम, मैं चाहती हूं कि अभी गुडि़या ऐसे ही स्कूल जाए.

2-4 दिनों में ही उस का स्कूल जाने का भूत उतर जाएगा… और नहीं उतरा तो अगले साल उस का नाम लिखवा दूंगी,’’

गुडि़या की मां बोली.सविता मैम ने गुडि़या को क्लास में बैठने की इजाजत दे दी.अब प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के सामने खड़ी सविता मैम के चेहरे पर न जाने कितने भाव आजा रहे थे…

उन्हें लग रहा था कि कहीं प्रिंसिपल सर नाराज न हो जाएं. उन्होंने गुडि़या का लिखा वह कागज इसलिए उन को पढ़ने के लिए दिया था, ताकि वे उस की पढ़ाई की ललक को खुद भी महसूस कर सकें.बहुत देर तक प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री अपने हाथों में लिए कागज को उलटतेपुलटते रहे.

सविता मैम का सब्र टूटता जा रहा था,

‘‘सर, मुझ से गलती हो गई…

मुझे आप से पूछे बगैर उसे क्लास में नहीं बैठाना चाहिए था…’’

‘अरे नहीं… तुम ने तो बिलकुल सही किया…

हमें कम से कम एक पढ़ने वाले बच्चे का भविष्य संवारने का मौका तो मिला…

सभी को पढ़ालिखा बनाना हमारी जिम्मेदारी है…’’‘‘पर सर… वह…

’’ सविता मैम कुछ कहना चाहती थीं, पर प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ने बीच में ही उन की बात को काट दिया, ‘‘एक काम करो, तुम उसे मेरे पास भेजो…’’

‘‘जी सर…’’‘‘उस की मां क्या करती हैं?’’

‘‘सर, वे दलित समाज से हैं और सफाई का काम करती हैं…’’यह सुन कर प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री के चेहरे पर न जाने कितने रंग उतर आए…

‘दलित समाज से… सफाई का काम करती हैं…’

उन के कानों में गूंजने लगा.प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री ठहरे शुद्ध ब्राह्मण. वे सिर पर चोटी रखते थे और माथे पर तिलक लगाते थे. उन के कंधे पर जनेऊ लहराता रहता था.

अच्छेखासे लंबे और मजबूत कदकाठी थी उन की.सविता जानती थी कि प्रिंसिपल गंगाधर शास्त्री बहुत धार्मिक और पुराने विचारों के थे. वे अपना पानी घर से ले कर आते थे.

आशा की नई किरण: भाग 1

स्वाति के मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी. महीना चढ़े आज 15 दिन हो गए थे और अब तो उसे उबकाई भी आने लगी थी. खट्टा खाने का मन करने लगा था. वह खुशी से झूम रही थी. पर वह पूरी तरह आश्वस्त हो जाना चाहती थी. इतनी जल्दी इस राज को वह किसी पर प्रकट नहीं करना चाहती थी, खासकर पति के ऊपर. 15 दिन और बीत गए. दूसरा महीना भी निकल गया. अब वह पूरी तरह आश्वस्त थी. वह सचमुच गर्भवती थी. शादी के 10 वर्षों बाद वह मां बनने वाली थी, परंतु मां बनने के लिए उस ने क्याक्या खोया, यह केवल वही जानती थी. अभी तक उस के पति को भी मालूम नहीं था. पता चलेगा तो कैसा तूफान उस के जीवन में आएगा इस का अनुमान तो वह लगा सकती थी, लेकिन मां बनने के लिए वह किसी भी तूफान का सामना करने के लिए चट्टान की तरह खड़ी रह सकती थी. इस के लिए वह हर प्रकार का त्याग करने को तैयार थी. 10 वर्ष के विवाहित जीवन में बहुत कष्ट उस ने सहे थे. बांझ न होते हुए भी उस ने बांझ होने का दंश झेला था, सास की जलीकटी सुनी थीं, मातृत्वसुख से वंचित रहने का एहसास खोया था. आज वह उन सभी कष्टों, दुखों, व्यंग्यभरे तानों और उलाहनों को अपने शरीर से चिपके घिनौने कीड़ों की तरह झटक कर दूर कर देना चाहती थी, लोगों के मुंह बंद कर देना चाहती थी. वह सास के चेहरे पर खुशी की झलक देखना चाहती थी और पति…

पति को याद करते हुए उस के मन को झटका लगा, दिल में एक कड़वी सी कसक पैदा हुई, परंतु फिर उस के सुंदर मुखड़े पर एक व्यंग्यात्मक हंसी दौड़ गई. अपने होंठों को अपने दांतों से हलके से काटते हुए उस ने सोचा, पता नहीं उन को कैसा लगेगा? उन के दिल पर क्या गुजरेगी, जब उन को पता चलेगा कि मैं मां बनने वाली हूं. हां, मां, परंतु किस के बच्चे की मां? क्या पीयूष इस सत्य को आसानी से स्वीकार कर लेंगे कि वह मां बनने वाली है. उन के दिमाग में धमाका नहीं होगा, उन का दिल नहीं फट जाएगा? क्या वे यह पूछने का साहस कर पाएंगे कि स्वाति के पेट में किस का बच्चा पल रहा है या वे अपने दिल और दिमाग के दरवाजे बंद कर के अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने के लिए एक चुप्पी साध लेंगे? कुछ भी हो सकता है. परंतु स्वाति उस के बारे में चिंतित नहीं थी.

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उस ने बहुत सोचसमझ कर इतना बड़ा कदम उठाया था. मातृत्वसुख प्राप्त कर के अपने माथे से बांझपन का कलंक मिटाने के लिए उस ने परंपराओं का अतिक्रमण किया था और मर्यादा का उल्लंघन किया था. परंतु उस ने जो कुछ किया था, बहुत सोचसमझ कर किया था. शादी के वक्त स्वाति एक टीवी चैनल में न्यूजरीडर और एंकर थी. वह अपनी रुचि के अनुसार काम कर रही थी, परंतु शादी के पहले ही पीयूष की मम्मी ने कह दिया था कि शादी के बाद वह काम नहीं करेगी. मन मार कर उस ने यह शर्त मंजूर कर ली थी. पीयूष ने एमबीए किया था. एमबीए पूरा होते ही वह अपने पिता के साथ उन के व्यापार में हाथ बंटाने लगा था. उन्हीं दिनों उस के पिता की असामयिक मौत हो गई. उस के बाद उस ने अपने पिता का कारोबार संभाल लिया. उन दोनों की शादी के समय पीयूष के पिता जीवित नहीं थे.

दोनों की शादी धूमधाम से संपन्न हुई. स्वाति भी खुश थी कि उस को अपने सपनों का राजकुमार मिल गया. परंतु सुहागरात को ही उस की खुशियों पर तुषारापात हो गया, उस के अरमान बिखर गए और सपनों के पंख टूट गए. सुहागरात में दोनों का मिलन स्वाति के लिए बहुत दुखद रहा. पीयूष ने जैसे ही उड़ान भरी कि धड़ाम से जमीन पर आ गिरा, जैसे उड़ान भरने के पहले ही किसी ने पक्षी के पर काट दिए हों. वह लुढ़क कर लंबीलंबी सांसें लेने लगा. स्वाति का हृदय दहल गया. मन में एक डर बैठ गया, अगर ऐसा है तो दांपत्य जीवन कैसे पार होगा? फिर उस ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की. हो सकता है, पहली बार के कारण ऐसा हुआ हो. उस ने कहीं पढ़ा था कि प्रथम मिलन में लड़के अत्यधिक उत्तेजना के कारण जल्दी स्खलित हो जाते हैं. यह असामान्य बात नहीं होती है. धीरेधीरे सब सामान्य हो जाता है. काश, ऐसा ही हो, स्वाति ने सोचा. परंतु स्वाति की शंका निर्मूल नहीं थी. उस की आशाओं के पंख किसी ने नोंच कर फेंक दिए. उस की सोच भी सत्य सिद्ध नहीं हुई. पीयूष के पंख सचमुच कटे हुए थे. वह बहुत लंबी उड़ान भर सकने में असमर्थ था. स्वाति अपने पर रोती, परंतु कुछ कर नहीं सकती थी. दांपत्य जीवन के बंधन इतने कड़े होते हैं कि कोई भी उन को तोड़ने का साहस नहीं कर सकता है. अगर तोड़ता है तो शरीर में कहीं न कहीं घाव हो जाता है. स्वाति के जीवन में खुशियों के फूल मुरझाने लगे थे, परंतु वह पढ़ीलिखी थी. उस ने आशा का दामन नहीं छोड़ा. आधुनिक युग विज्ञान का युग था, हर प्रकार के मर्ज का इलाज संभव था.

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स्वाति के मन में पीड़ा थी परंतु ऊपर से वह बहुत खुश रहने का प्रयास करती थी. घर के सारे काम करती थी. सासूमां उस के व्यवहार व कार्यकुशलता से खु थीं, उस का पूरा खयाल रखतीं. स्वाति के साथ घर के कामों में हाथ बंटातीं. स्वाति कहती, ‘‘मांजी, अब आप के आराम करने के दिन हैं, क्यों मेरे साथ लगी रहती हैं. मैं कर लूंगी न सबकुछ.’’

‘‘तू सब कर लेती है, मैं जानती हूं परंतु मैं अपंग नहीं हूं. तेरे साथ काम करती हूं तो शरीर में स्फूर्ति बनी रहती है. काम न करूंगी तो बीमार हो कर बिस्तर से लग जाऊंगी.’’

‘‘फिर भी कुछ देर आराम कर लिया कीजिए,’’ स्वाति सासूमां को समझाने का प्रयास करती.

‘‘तेरे आने से मुझे आराम ही आराम है. बस, 1 पोता दे कर तू मुझे बचीखुची खुशियां दे दे तो मेरा जीवन धन्य हो जाएगा,’’ मांजी ने स्वाति की तरफ ममताभरी निगाह से देखा.

स्वाति के हृदय में कुछ टूट गया. मांजी की तरफ देखने का उसे साहस नहीं हुआ. सिर झुका कर अपने काम में व्यस्त हो गई. समय बीतने के साथसाथ सासूमां की स्वाति से पोते पैदा करने की अपेक्षाएं बढ़ने लगीं. दिन बीतते जा रहे थे. उसी अनुपात में सासूमां की पोते के प्रति चाहत भी बढ़ती जा रही थी. एक दिन उन्होंने कहा, ‘‘स्वाति बेटा, अब और कितना इंतजार करवाओगी? तुम लोग कुछ करते क्यों नहीं? क्या कोई सावधानी बरत रहे हो?’’ उन्होंने संदेहपूर्ण निगाहों से स्वाति को देखा. ‘‘कैसी सावधानी, मां?’’ स्वाति ने अनजान बनते हुए पूछा. वह अपनी तरफ से क्या कहती, उसे ऐसे पुरुष के साथ बांध दिया था जिस में पुरुषत्व की कमी थी. इस में न उस के घर वालों का दोष था, न ससुरालपक्ष के लोगों का? दोष था तो केवल पीयूष का, जिस ने सबकुछ जानते हुए भी शादी की. स्वाति अभी तक चुप थी. शर्म और संकोच की दीवार उस के मन में थी, परंतु अब इस दीवार को उसे तोड़ना ही होगा. पीयूष से इस बारे में उसे बात करनी होगी, परंतु इस तरीके से कि उस के अहं को ठेस न पहुंचे और वह बात की गंभीरता को समझ कर अपना इलाज करवाने के लिए तैयार हो जाए.

शादी की पहली वर्षगांठ बीत गई. कोई उत्साह उन के बीच में नहीं था. स्वाति कोई जश्न मनाना नहीं चाहती थी. पीयूष और मां दोनों की इच्छा थी कि घर में छोटामोटा जश्न मनाया जाए. केवल खास लोगों को बुलाया जाए परंतु स्वाति ने साफ मना कर दिया. वह लोगों की निगाहों में जगे हुए प्रश्नों की आग में तपना नहीं चाहती थी. अंत में पीयूष और स्वाति एक रेस्तरां में डिनर कर के लौट आए. उसी रात…स्वाति ने खुल कर बात की पीयूष से, ‘‘एक साल हो गया, अब हमें कुछ करना होगा. मम्मी की हम से कुछ अपेक्षाएं हैं.’’

पीयूष चौंका, परंतु बिना स्वाति की ओर करवट बदले पूछा, ‘‘कैसी अपेक्षाएं?’’

स्वाति मछली की तरह करवट बदल कर पीयूष की आंखों में देखती हुई बोली, ‘‘क्या आप नहीं जानते कि एक मां की बेटेबहू से क्या अपेक्षाएं होती हैं?’’

पीयूष की पलकें झुक गईं, ‘‘मैं क्या कर सकता हूं?’’ उस ने हताश स्वर में कहा. स्वाति ने अपनी कोमल उंगलियों से उस के सिर को सहलाते हुए कहा, ‘‘आप निराशाजनक बातें क्यों कर रहे हैं. दुनिया में हर चीज संभव है, हर मर्ज का इलाज है और प्रत्येक समस्या का समाधान है.’’

पीयूष ने उस की आंखों में देखते हुए पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो?’’

एक कदम आगे – भाग 1

ऐक्सीडैंट की खबर मिलते ही जुबेदा के तो होश उड़ गए. इमरान से शादी को अभी 3 ही साल हुए थे. इमरान की बाइक को किसी ट्रक ने टक्कर मार दी थी. घर के सभी लोगों के साथ जुबेदा भी अस्पताल पहुंची थी. सिर पर गंभीर चोट लगी थी. जिस्म पर भी काफी जख्म थे. औपरेशन जरूरी था. उस के लिए 1 लाख चाहिए थे. जुबेदा ससुर के साथ घर आई. फौरन 1 लाख का चैक ले कर अस्पताल पहुंचीं, पर तब तक उस की दुनिया उजड़ चुकी थी. इमरान अपनी आखिरी सांस ले चुका था. जुबेदा सदमे से बेहोश हो गई. अस्पताल की काररवाई पूरी होने और लाश मिलने में 5-6 घंटे लग गए.

घर पहुंचते ही जनाजा उठाने की तैयारी शुरू हो गई. जुबेदा होश में तो आ गई थी पर जैसे उस का दिलदिमाग सुन्न हो गया था. उस की एक ही बहन थी कहकशां. वह अपने शौहर अरशद के साथ पहुंच गई थी. जैसे ही जनाजा उठा, जुबेदा की फूफी सास सरौते से उस की चूडि़यां तोड़ने लगीं.

कहकशां ने तुरंत उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘चूडि़यां तोड़ने की क्या जरूरत है?’’

‘‘हमारे खानदान में रिवायत है कि जैसे ही शौहर का जनाजा उठता है, बेवा की चूडि़यां तोड़ कर उस के हाथ नंगे कर दिए जाते हैं,’’ फूफी सास बोलीं.

जुबेदा की खराब हालत देख कर कहकशां ने ज्यादा विरोध न करते हुए कहा, ‘‘आप सरौता हटा लीजिए. मैं कांच की चूडि़यां उतार देती हूं.’’

मगर फूफी सास जिद करने लगीं, ‘‘चूडि़यां तोड़ने का रिवाज है.’’ तब कहकशां ने रूखे लहजे में कहा, ‘‘आप का मकसद बेवा के हाथ नंगे करना है, फिर चाहे चूडि़यां उतार कर करें या उन्हें तोड़ कर, कोई फर्क नहीं पड़ता है,’’ और फिर उस ने चूडि़यां उतार दीं और सोने की 2-2 चूडि़यां वापस पहना दीं.

इस पर भी फूफी सास ने ऐतराज जताना चाहा तो कहकशां ने कहा, ‘‘आप के खानदान में चूडि़यां फोड़ने का रिवाज है, पर सोने की चूडि़यां तो नहीं तोड़ी जाती हैं. इस का मतलब है सोने की चूडि़यां पहनी जा सकती हैं.’’

फूफीसास के पास इस तर्क का कोई जवाब न था.

जुबेदा को सफेद सलवारकुरता पहनाया गया. फिर उस पर बड़ी सी सफेद चादर ओढ़ा कर उस की सास उसे एक कमरे में ले जा कर बोलीं, ‘‘अब तुम इद्दत (इद्दत शौहर के मरने के बाद बेवा को साढ़े चार महीने एक कमरे में बैठना होता है. किसी भी गैरमर्द से मिला नहीं जा सकता) में हो. अब तुम इस कमरे से बाहर न निकलना.’’

जुबेदा को भी तनहाई की दरकार थी. अत: वह फौरन बिस्तर पर लेट गई. कहकशां उस के साथ ही थी, वह उस के बाल सहलाती रही, तसल्ली देती रही, समझाती रही.

जुबेदा की आंखों से आंसू बहते रहे. उस की आंखों के सामने उस का अतीत जीवित हो उठा. उस के वालिद तभी गुजर गए थे जब दोनों बहनें छोटी थीं. उन की अम्मां ने कहकशां और जुबेदा की बहुत प्यार से परवरिश की. दोनों को खूब पढ़ाया लिखाया. पढ़ाई के बाद कहकशां की शादी एक अच्छे घर में हो गई. जुबेदा ने एमएससी, बीएड किया. उसे सरकारी गर्ल्स स्कूल में नौकरी मिल गई. जिंदगी बड़े सुकून से गुजर रही थी. किसी मिलने वाले के जरीए जुबेदा के लिए इमरान का रिश्ता आया. इमरान अच्छा पढ़ालिखा और प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था. अम्मां ने पूरी मालूमात कर के जुबेदा की शादी इमरान से कर दी. अच्छा खानदान था. भरापूरा घर था.

इमरान बहुत चाहने वाला शौहर साबित हुआ. मिजाज भी बहुत अच्छा था. दोनों ने 1 महीने की छुट्टी ली थी. उमंग भरे खुशी के दिन घूमनेफिरने और दावतों में पलक झपकते ही गुजर गए. दोनों ने अपनीअपनी नौकरी जौइन कर ली. इमरान सवेरे 9 बजे निकल जाता. उस के बाद जुबेदा को स्कूल के लिए निकलना होता. घर में सासससुर और इमरान से बड़ा भाई सुभान, उस की बीवी रूना और उन के 2 छोटे बच्चों के अलावा कुंआरी ननद थी, जो कालेज में पढ़ रही थी.

अभी तक जुबेदा किचन में नहीं गई थी. इतना वक्त ही न मिला था. बस एक बार उस से खीर पकवाई गई थी. वे घूमने निकल गए. उस के बाद दावतों में बिजी हो गए. आज किचन में आने का मौका मिला तो उस ने जल्दीजल्दी परांठे बनाए. भाभी ने आमलेट बना दिया. नाश्ता करतेकराते काफी टाइम हो गया. इमरान नाश्ता कर के चला गया. आज लंच बौक्स तैयार न हो सका, क्योंकि टाइम ही नहीं था. दोनों शाम को ही घर आ पाते थे.

शाम को दोनों घर पहुंचे. जुबेदा ने अपने लिए व इमरान के लिए चाय बनाई. बाकी सब पी चुके थे. चाय पीतेपीते वह दूसरे दिन के  लंच की तैयारी के बारे में प्लान कर रही थी. तभी सास की सख्त आवाज कानों में पड़ी, ‘‘सारा दिन बाहर रहती हो… कुछ घर की भी जिम्मेदारी उठाओ… रूना अकेली कब तक काम संभालेगी. उस के 2 बच्चे भी हैं… उन का भी काम करना पड़ता है. फिर हम दोनों की भी देखभाल करनी पड़ती है. अब कल सुबह से नाश्ता और खाना बना कर जाया करो. समझ गई?’’

जुबेदा दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ गई. सब के लिए परांठे बनाए. भाभी ने दूसरी चीजें बनाईं. उस ने जल्दीजल्दी एक सब्जी बनाई. फिर थोड़ी सी रोटियां बना कर दोनों के लंच बौक्स तैयार कर लिए. जल्दी करतेकरते भी देर हो गई. इसी तरह जिंदगी की गाड़ी चलने लगी. कभी दाल नहीं बन पाती तो कभी पूरी रोटियां पकाने का टाइम नहीं मिलता. हर दूसरेतीसरे दिन सास की सलवातें सुननी पड़तीं. शाम को बसों के चक्कर में इतना थक जाती कि शाम को कुछ खास नहीं कर पाती. बस थोड़ी बहुत रूना भाभी की मदद कर देती.

छुट्टी के दिन कहीं आनेजाने का या घूमने का प्रोग्राम बन जाता तो सब के मुंह फूल जाते. सास सारा गुस्सा जुबेदा पर उतारतीं, ‘‘पूरा हफ्ता तो घर से बाहर रहती हो छुट्टी के दिन तो घर रहा करो. कुछ अच्छी चीजें पकाओ… पर तुम्हें तो उस दिन भी मौजमस्ती सूझती है. जबकि छुट्टी के दिन तो हफ्ते भर के  काम करने को होते हैं.’’

जुबेदा जवाब नहीं देती. सास खुद ही बकझक कर के चुप हो जातीं. इमरान सारे हालात देख रहा था. जुबेदा भरसक कोशिश करती पर काम निबटाना मुश्किल था. करने वाले 2 थे. काम ज्यादा लोगों का था और रूना भाभी के बच्चे भी छोटे थे. इमरान ने एक खाना पकाने वाली औरत का इंतजाम कर दिया. उस का वेतन जुबेदा देती थी. अब उसे राहत हो गई थी. वह बस सुबह के परांठे बनाती. तब तक बाई आ जाती. वह सास की सब्जी बना देती. बाकी बाद का काम भी संभाल लेती. रूना भाभी को भी आराम हो गया. दिन सुकून से गुजर रहे थे.

मुश्किल यह भी कि सास पुराने ख्यालात की थीं. उन्हें जुबेदा का नौकरी करना बुरा लगता था. वे और जगह खुले हाथ से खर्च करती थीं पर घर खर्च में कुछ नहीं देती थीं. इमरान सुभान के बराबर घर खर्च में पैसे देता था. फिर अब्बा की पेंशन भी थी. उस में से सास बचत कर लेती थीं और बेवजह ही घर तंगी का रोना रोतीं. हां, जुबेदा कभी फ्रूट्स ले आती तो कभी नाश्ते का सामान. खास मौके पर सब को तोहफे भी देती. तब सास खूब खुश हो जातीं पर टोकने का कोई मौका नहीं छोड़तीं.

जुबेदा काफी खूबसूरत और नाजुक सी थी. इमरान उस पर जान देता था. उस का बहुत खयाल रखता. यह भी अम्मां को बहुत अखरता था कि उन का लाड़ला उन के अलावा किसी और से मुहब्बत करता है.

बकरा – भाग 3 : मालिक के चंगुल में मोहन

माधव चप्पू को तेजी से चला कर नाव को भगाने लगा. मोहन से नाव दूर निकल गई.मोहन पानी में हाथपैर मार कर बचने की कोशिश करने लगा, लेकिन वह डूबने लगा था. तभी पानी के बहाव में उसे एक पेड़ की टहनी बहती हुई मिली. उस ने वह टहनी जोर से पकड़ ली और वह टहनी के साथ बहने लगा.

तभी कुछ दूर एक नाव उसे आती हुई दिखी.‘‘बचाओ… बचाओ…’’ मोहन जोर से चिल्लाने लगा. उस की आवाज सन्नाटे को चीरती हुई नाविक तक पहुंच गई. नाव चलाने वाला मोहन का दोस्त बिरजू था.किसी डूबते आदमी को बचाने के लिए उस ने नाव तेजी से चलाई.

वह जल्दी ही मोहन तक पहुंच गया.‘‘अरे, मोहन तुम…’’ बिरजू चिल्लाया. उस ने मोहन को पानी से नाव पर खींच लिया. मोहन बेहद डरा हुआ था.‘‘आखिर, तुम यहां कैसे आए?’’ बिरजू ने मोहन को झकझोरते हुए पूछा.‘‘मालिक ने नदी के उस पार के बाजार से मुझे बासमती चावल लाने भेजा था.

जिस नाव पर मैं सवार था, उसे माधव नाम का नाविक चला रहा था. बीच मझधार में उस ने मुझे धक्का दे कर नदी में गिरा दिया.‘‘मैं डूबने लगा था कि तभी पेड़ की एक टहनी को पकड़ कर कुछ दूर नदी के बहाव के साथ बहा, फिर अपनी ओर एक नाव को आते देखा.

‘‘अगर बिरजू तुम नहीं मिलते तो शायद…,’’ मोहन का गला रुंध गया. बिरजू चप्पू को तेज रफ्तार से चला कर नाव को किनारे तक ले आया.‘‘माधव को तुम पहचानते थे?’’ बिरजू ने पूछा. ‘‘नहीं, मेरा मालिक उसे जानता था,’’ मोहन ने कहा.‘‘अब समझा. माधव भाड़े का अपराधी था. मालिक के इशारे पर तुम्हें नदी में डुबो कर मारना चाहता था,’’ बिरजू ने कहा.‘‘लेकिन मालिक ने ऐसा क्यों किया?’’

मोहन ने मासूमियत से पूछा.‘‘शायद किसी बात के शक में उस ने यह खतरनाक कदम उठाया होगा,’’ बिरजू ने कहा.‘‘किस बात का शक? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है,’’ मोहन ने कहा.‘‘वह अपनी बीवी और तुम्हारे बीच नाजायज संबंध को ले कर शक कर रहा होगा,’’ बिरजू घटना की तह तक जाने लगा.‘‘मोहन, तुम दिलीप साव के घर जाते थे न? कोई नजदीकी आदमी ने उस की बीवी के साथ संबंध बनाया होगा.

उस की बीवी पेट से रह गई होगी और वह तुम पर शक कर बैठा,’’ बिरजू ने अंधेरे में तीर चलाया.‘‘अरे हां, मालिक का भाई सुजीत अपनी भाभी के साथ गलत संबंध बनाता था. मैं ने किवाड़ की सुराख से छिप कर देवरभाभी को मजे लेते अपनी आंखों से देखा था,’’

जैसे मोहन नींद से जागा हो.‘‘मोहन, तुझे दिलीप साव ने बलि का बकरा बना दिया,’’ बिरजू ने हंस कर कहा.‘‘अब हम क्या करें?’’ मोहन खौफ में था.‘‘मालिक को कुछ मत बताना, नहीं तो तबाही की सूनामी आ जाएगी.‘‘देखो, कोई बहाना बना देना. नाव से अचानक नदी में गिर गया था.

जान बच गई, बस,’’ बिरजू ने समझाया.‘‘और अपराधी माधव के बारे में?’’ मोहन ने आगे पूछा.‘‘कह देना कि माधव को पता नहीं चला कि मैं नदी में गिर गया था. वह नाव ले कर कहीं दूर निकल गया,’’ बिरजू बोला.‘‘अब मैं दिलीप साव के किराने की दुकान पर काम नहीं करूंगा,’’

मोहन ने अपना फैसला सुनाया.‘‘इस महीने तक काम कर लो, मगर मालिक से सावधान रहना. इस महीने की तनख्वाह ले कर काम छोड़ देना,’’ बिरजू ने कहा.‘‘उस के बाद मैं क्या करूंगा?’’ मोहन ने पूछा.‘‘मेरे चाचा का ढाबा कोलकाता में है. वहीं चले जाना.

ढाबे पर एक आदमी की जरूरत है,’’ बिरजू ने कहा.मोहन और बिरजू बातें करते हुए अपने घर चले गए.दूसरे दिन मोहन किराने की दुकान पर पहुंचा.

दिलीप साव उसे जिंदा देख कर घबरा गया. माधव ने तो उसे नदी में डुबा दिया था.दिलीप साव ने संभल कर पूछा, बासमती चावल का क्या हुआ?’’‘‘मैं नदी में गिर गया था. बस, जान बच गई. ये लीजिए, आप के 5,000 रुपए,’’ मोहन ने रुपए दे दिए.‘‘अरे बाप रे, बड़ी घटना घट जाती तो… चलो, जान तो बच गई,’’ दिलीप साव के बोल बड़े मीठे थे.

तब तक दुकान पर 1-2 ग्राहक आ गए थे. मोहन उन्हें सामान देने लगा.रात को दिलीप साव दुकान बढ़ा कर घर पहुंचा. वह पलंग पर दीपा के साथ लेटा हुआ था. वह सोना चाहता था, लेकिन उस की आंखों से नींद गायब थी. मोहन का जिंदा वापस लौट आना उस की चिंता का सबब था.दीपा ने बांहों में भर कर दिलीप साव को चूम लिया. ‘‘चलो हटो, मुझे सोने दो,’’ दिलीप साव ने बेरूखी से कहा.‘‘मुझ से नाराज लग रहे हैं,’’ दीपा ने उसे अपने ऊपर खींच लिया,

‘‘हां, अब तो अपना काम कर के सोओ,’’ उस ने प्यार से कहा.दिलीप साव ने इस बार तकिए के नीचे से कंडोम नहीं निकाला. अब इस की जरूरत ही कहां थी.

वह सैक्स करने लगा. दोनों संतुष्ट हो कर गहरी नींद में सो गए.महीना बीत चुका था. आज पहली तारीख थी. मोहन ने दिलीप साव से महीने की तनख्वाह मांगी.‘‘मालिक, आज एक तारीख है. महीने की तनख्वाह चाहिए थी,’’ मोहन ने मालिक से खुशामद की.

‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ दिलीप साव ने गल्ले से रुपए निकाल कर मोहन को दे दिए. उस ने अपनी तनख्वाह संभाल कर रख ली.‘‘मालिक, आज रात मेरी कोलकाता जाने की ट्रेन है. टिकट हो गया है,’’ मोहन ने कहा.‘‘तुम कोलकाता क्यों जा रहे हो?’’ मालिक ने पूछा.‘‘मेरी कोलकाता में नौकरी लगी है. कमाने जा रहा हूं.’’ मोहन ने कहा.‘‘तब यहां दुकान में कौन काम करेगा?’’

मालिक घबरा कर बोला.‘‘यह सब मैं क्या जानूं. यह अब आप को समझना है.’’इतना कह कर मोहन किराने की दुकान से बाहर निकल गया. मालिक ठगा सा उसे जाते देखता रह गया.रात में मोहन को रेलवे स्टेशन पर छोड़ने बिरजू आया था. कोलकाता जाने वाली टे्रन स्टेशन पर लगी हुई थी. थोड़ी देर में टे्रन ने जोरदार सीटी बजाई.ट्रेन धीमी रफ्तार से स्टेशन पर आगे बढ़ने लगी.

बिरजू ने ट्रेन की खिड़की के पास बैठे मोहन को समझाया, ‘‘कोलकाता में भोलाभाला बन कर मत रहना, नहीं तो कोई भी लड़की, औरत तुझे बुद्धू बना देगी. फिर बिरजू क्या करेगा…’’मोहन और बिरजू ठहाका लगा कर हंसने लगे.हंसतेहंसते बिरजू स्टेशन पर अकेला रह गया. ट्रेन स्टेशन से चली गई थी. वह उदास दिल से घर लौट आया.

दिलीप साव अकेले किराने की दुकान संभालने लगा था. उस की परेशानी तब बढ़ जाती थी, जब वह ग्राहकों की भीड़ में घिर जाता था. तब उसे मोहन खूब याद आता था.इस तरह 9 महीने बीत गए. आज दिलीप साव के घर खुशियां लौटी थीं.

दीपा ने एक खूबसूरत बच्चे को जन्म दिया था.‘‘यह लीजिए, आप का खूबसूरत बेटा,’’ दीपा ने बच्चे को दिलीप साव के गोद में दे दिया. उस ने बच्चे को प्यार से चूम लिया. बच्चे का चेहरा उस के छोटे भाई सुजीत से हूबहू मिल रहा था.दिलीप साव के चेहरे पर एक अनकहा दर्द उभर आया.

उस ने मोहन पर बेवजह शक किया. यह तो सुजीत की करतूत निकली. दिलीप साव की आंखों में बेबसी के आंसू भर आए.सुजीत भाभी के साथ खुशियां मना रहा था. अब दिलीप साव कर भी क्या सकता था. वह भी बुझे मन से सब के साथ खुशियों में शामिल हो गया.

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