Father’s Day Special: मुझे पापा कहने का हक है

एक के बाद एक कर अभ्यर्थी आते और जाते रहे. हालांकि चयन कमेटी में उन के अलावा 4 व्यक्ति और भी बैठे थे जो अपनेअपने तरीके से प्रश्न पूछ रहे थे. डा. राजीव बीचबीच में कुछ पूछ लेते वरना तो वह सुन ही रहे थे. अंतिम निर्णय डा. राजीव को ही लेना था.

आखिरी प्रत्याशी के रूप में आसमानी रंग की साड़ी पहने बीना को देख कर डा. राजीव एकदम चौंक पड़े. वही आवाज, वही रंगरूप, कहीं कोई परिवर्तन नहीं. अनायास ही उन के मुंह से निकल गया, ‘‘मधु, तुम?’’

‘‘कौन मधु सर? मैं तो बीना हूं,’’ हलकी सी मुसकराहट के साथ युवती ने उत्तर दिया.

‘‘सौरी,’’ डा. राजीव के मुंह से निकला.

चयन कमेटी के लोगों ने बीना से कई सवाल किए. बीना ने सभी प्रश्नों का शालीनता के साथ उत्तर दिया. सुबह से अब तक के घटनाक्रम ने एकदम नया मोड़ ले लिया. अभी भी डा. राजीव के मन में द्वंद्व था. सलेक्शन तो बीना का ही होना था सो हो गया. वाइस चेयरमैन यही चाहते थे. एक दुविधा से वह उबर गए, दूसरी अभी शेष थी. डा. राजीव खुद को संयत कर बोले, ‘‘बधाई हो बीना, तुम्हारा चयन हो गया है. बी.सी. साहब को खुशखबरी मैं दूं या तुम दोगी?’’

‘‘मुझे ही देने दें सर,’’ और सब को धन्यवाद दे कर बीना बाहर निकल गई. एकएक कर चयन कमेटी के लोग भी चले गए. सब से अंत में डा. राजीव बाहर आए. देखा तो बीना अभी किसी के इंतजार में खड़ी है.

‘‘किसी की प्रतीक्षा है?’’

‘‘आप का ही इंतजार कर रही थी सर.’’

‘‘मेरा क्यों?’’

‘‘आप से कोई वेटिंगरूम में मिलना चाहता है.’’

‘कौन होगा? कोई मुझ से क्यों मिलना चाहता है?’ सोचा उन्होंने, फिर बीना के पीछेपीछे चल दिए. बीना वेटिंगरूम के बाहर ही रुक गई. सामने मधु बैठी थी. अब चौंकने की बारी

डा. राजीव की थी.

‘‘मधु, तुम और यहां?’’

‘‘आप को धन्यवाद जो देना था सर.’’

‘‘लेकिन तुम्हें कैसे मालूम था कि साक्षात्कार मुझ को ही लेना है?’’

‘‘मुझे पता था.’’

‘‘अच्छा, और क्याक्या पता किया?’’

‘‘यही कि आप इलाहाबाद में हैं.’’

‘‘खैर, यह सब छोड़ो, पहले यह बताओ कि तुम इतने दिन कहां रहीं? मैं ने तुम्हें ढूंढ़ने की कितनी कोशिश की. 2 बार आगरा भी गया लेकिन तुम्हारा पता मालूम न होने के कारण कोई जानकारी न हो सकी. घरपरिवार में सब कैसे हैं?’’

‘‘इतनी उत्सुकता ठीक नहीं सर, सारे सवाल एकसाथ अभी पूछ लेंगे. शाम को 4 बजे चाय पर घर आइए. शेष बातें वहीं होंगी,’’ कहते हुए मधु ने एक कागज पर अपना पता लिख कर दे दिया और हाथ जोड़ कर वेटिंगरूम से बाहर निकल आई.

डा. राजीव भ्रमित से, असहाय से मधु और बीना को जाते हुए देखते रहे. कितना कुछ उन के भीतर भरा पड़ा था. मधु के सामने संचित कोष सा उडे़लना चाहते थे लेकिन इस के लिए उन्हें अभी 4 घंटे और इंतजार करना है. कैसे कटेंगे ये 4 घंटे? फिर उन्हें हाथ में पकड़े कागज का ध्यान आया. सेक्टर-सी, कोठी नंबर-18 और वे सेक्टर बी में रहते हैं. दोनों सेक्टर आमनेसामने हैं, लेकिन मधु इस से पहले कभी दिखाई क्यों नहीं दी?

सोचतेसोचते डा. राजीव अपने घर तक आ गए.

आदमी अपनी जिंदगी में कितनी बार जन्म लेता है और कितनी बार उसे मरना पड़ता है, कभी बेमौत, कभी बेवक्त और कभी विवशताजन्य परिस्थितियों के कारण. अपने ही अथक प्रयासों से अथवा आत्मविश्वास के सहारे कितनी बार वह डगमगाने से बचे हैं और तब उन्हें कितनी आत्मिक शांति मिली है. उन्होंने जिंदगी में कभी कोई ऐसा समझौता नहीं किया जिस का बोझ आत्मा सह न पाती. बेदाग, सीधीसपाट, सम्मानजनक स्थिति को जीते हुए अपने विभाग में कार्यरत 25 साल निकल गए.

25 साल…सोचतेसोचते डा. राजीव अचानक चौंक उठे. 25 साल पूरे एक व्यक्तित्व के विकास के लिए कम तो नहीं होते. जाने कितना कुछ बदल जाता है. आदमी कहां से कहां पहुंच जाता है. पर वे जरा भी नहीं बदले. समय के साथसाथ उन के व्यक्तित्व में और भी निखार आया है. विद्वता की चमक चेहरे पर बनी  रहती है. बेदाग चरित्र जो उन का है.

मधु को याद करते ही डा. राजीव 25 साल पीछे लौट गए. इस महाविद्यालय में आने से  पहले वह आगरा के एक डिगरी कालिज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए थे. वह उन की पहली नियुक्ति थी. पहली बार कक्षा में मधु को देखने के बाद बस, देखते रह गए थे. उन के मन को क्या हुआ, वे स्वयं नहीं समझ पाए. गुलाब सा खिला मासूम सौंदर्य, उस पर भी जब नाम मधु सुना तो मन अनजाने, अनचाहे किसी डोर से बंधने सा लगा. तब डा. राजीव ने इसे महज प्रमाद समझा और झटका दे कर इस विचार को निकाल फेंकना चाहा लेकिन वह अपनी इस कोशिश में नाकामयाब रहे. कक्षा में मधु को देख कर दर्शनमात्र से जैसे उन्हें ऊर्जा मिलती. मधु अभी कक्षा में न होती तो उन्हें एक प्रकार की बेचैनी घेर लेती. उस दिन वे सिरदर्द का बहाना बना कर कक्षा छोड़ देते. वे नहीं जानते थे कि जो अनुभव वह कर रहे हैं क्या मधु भी वही अनुभव करती है? वह मधु के बारे में और बहुतकुछ जानना चाहते थे पर किस से जानें? क्या प्राध्यापक हो कर अपनी छात्रा से कुछ पूछना अच्छा लगेगा. दिमाग कहता नहीं और वे वक्त का इंतजार करने लगे.

अब डा. राजीव मधु पर विशेष ध्यान देते. 1-2 बार अपने नोट्स भी उसे दिए. कुछ किताबें लाइब्रेरी से अपने नाम से निकलवाईं. मधु ने साल के अंत में महज धन्यवाद कह दोनों हाथ जोड़ कर किताबें लौटा दीं. डा. राजीव हाथ मलते रह गए. नया सेशन शुरू हुआ. मधु ने फिर दाखिला लिया. अच्छे अंक ला कर परीक्षा पास की थी. अब डा. राजीव मधु पर और भी ध्यान देने लगे.

इस बार एक विशेष बात डा. राजीव नोट कर रहे थे कि सामने आते ही मधु के गाल लाज से आरक्त हो उठते, आंखें झुक जातीं. इस का अर्थ वह क्या लगाएं, समझ ही नहीं पा रहे थे. क्या मधु भी उन्हीं की तरह सोचती है? रहरह कर यह सवाल उन के मन में उठता.

उस दिन कक्षा के बाद स्टाफरूम के पीछे के लौन में अकेले बैठे डा. राजीव दिसंबर की कुनकुनी धूप सेंक रहे थे. कई दिन से तबीयत भी कुछ ढीली चल रही थी. वह रूमाल से बारबार अपनी आंख, नाक पोंछ रहे थे.

‘‘सर, लगता है आप की तबीयत ठीक नहीं है. मैं यह किताब आप को लौटाने आई थी,’’ अचानक मधु की आवाज सुन कर वह चौंक उठे. बस, यंत्रचालित से हाथ आगे बढ़ गए. जैसे ही उन्होंने किताब ले कर सामने मेज पर रखी कि सर्द हवा के झोंके से किताब के पन्ने फड़फड़ाने लगे और उन के बीच से एक ताजा गुलाब का फूल नीचे आ गिरा. एकएक कर उस गुलाब की पंखुडि़यां कुरसी के नीचे बिखर गईं.

मधु जल्दी से नीचे झुकी, तभी डा. राजीव के हाथ भी झुके. दोनों की उंगलियां परस्पर टकरा गईं. फूल की कुछ पंखुडि़यां मधु के हाथ आईं, कुछ डा. राजीव के.

डा. राजीव ने एक भरपूर नजर मधु पर डाली. मधु चुपचाप दुपट्टे के कोने को अपनी उंगली में लपेटती वहां से चली गई.

आज पूरा एक गुलाब उन की मुट्ठी में कैद था. जिस स्पर्श को वे पाना चाहते थे आज वह स्वयं उन के मानस को सहला गया था. उन के विचारों को जैसे पंख लग गए.

डा. राजीव ने खुद इस बात को नोट किया कि मधु कक्षा में उन का व्याख्यान ध्यान से नहीं सुनती, केवल गौर से उन का चेहरा देखती रहती है. उन्हें अपने चेहरे पर हमेशा 2 मासूम प्यारी सी आंखें टकटकी लगाए देखती नजर आतीं. वह जब मधु की ओर देखते तो मधु नजरें झुका लेती मानो चोरी करते वह पकड़ी गई हो.

‘‘क्लास में मन पढ़ाई में लगाया करो.’’

‘‘जी, कोशिश करूंगी.’’

परीक्षा की तारीख निकट आ रही थी. प्रिप्रेशन लीव हो चुकी थी. मधु का कालिज आना बंद हो चुका था. उस दिन 5 मार्च था. मधु पुस्तकालय की पुस्तकें लौटाने आई थी. मधु को स्टाफरूम की तरफ आता देख कर वह वहां से निकल कर एकांत में टहलने लगे. किताबें जमा कर मधु उन की तरफ आई और एक लिफाफा डा. राजीव की ओर बढ़ा कर वापस लौट गई.

डा. राजीव हाथ में लिफाफा थामे लौटती हुई मधु को देखते रहे. कहना तो जाने क्याक्या चाहते थे पर कहने के अवसर पर वाणी अवरुद्ध हो जाती थी. वह केवल एक भक्त और एक पुजारी की तरह दर्शन कर रह जाते. अपने प्यार को याद के सहारे सींच रहे थे.

मधु के जाने के बाद हाथ में थामे लिफाफे का ध्यान आया. खोल कर देखा तो अचंभित रह गए. उन्हें तो खुद ही याद नहीं था कि आज उन का जन्मदिन है. याद भी तब रहता जब कभी मनाया जाता. पर मधु को कैसे मालूम हुआ? तभी उन्हें याद आया कि कालिज मैगजीन में उन का सचित्र परिचय छपा था. वहीं से मधु ने लिया होगा. कार्ड पर एक खिला गुलाब था और गुलाब की एक पंखुड़ी पर एक सूखी पंखुड़ी चिपकी हुई थी.

डा. राजीव ने गौर से देखा, यह तो उसी गुलाब की पंखुड़ी थी जो उस दिन किताब से गिरी थी. उन्होंने उलटपलट कर कार्ड देखा. मधु का पता कहीं भी नहीं लिखा था.

पढ़ाई का अगला सत्र शुरू हो कि उन की नियुक्ति इलाहाबाद विश्व-विद्यालय में हो गई. आगरा छोड़ते समय उन के मन में चाह थी कि एक बार मधु से मिल लेते, लेकिन मधु का पताठिकाना उन्हें मालूम न था.

प्यार का अंकुर विरह की व्यथा में तपने लगा. डा. राजीव को जब भी एकांत मिलता मधु का चेहरा सामने आ जाता. वे जहां कहीं भी खिले गुलाब को देखते, अपने होश खो बैठते. मधु और गुलाब, गुलाब और मधु एकदूसरे में जैसे विलीन हो जाते.

5 मार्च को फिर वैसा ही कार्ड मिला. वही एक सूखी पंखुड़ी, क्या अर्थ है, इस पंखुड़ी का? क्या मधु प्रतीक रूप में कहना चाहती है कि मैं भी ऐसे ही सूख रही हूं अथवा प्रतीक्षा का एक वर्ष पूरा हुआ. कई बार मन हुआ कि दौड़ कर पहुंच जाएं. एक बार मन के हाथों हार कर राजीव आगरा पहुंचे भी पर उन की यह यात्रा निरर्थक रही. मधु ने पढ़ना छोड़ दिया था. क्यों? यह कोई नहीं जानता.

लगातार 6 सालों तक गुलाब के फूल व सूखी पंखुड़ी वाले कार्ड हर 5 मार्च को मिलते रहे. अंतिम कार्ड में महज चंद शब्द लिखे थे, ‘गुलाब का फूल पूरा हो गया होगा. महज इतनी ही पंखुडि़यां तब समेट पाई थी इसलिए पूजा का अधिकार भी इतने ही दिन रहा.’

इस के बाद कोई भी कार्ड नहीं आया. कार्ड पर मधु के नाम व आगरा की मुहर के अलावा डा. राजीव को और कुछ हाथ न लगा. उन्होंने सारी पंखुडि़यां जमा कर के गिनीं तो पूरी 14 थीं. 7 उन के पास 7 मधु के पास. क्या गुलाब के फूल में 14 पंखुडि़यां ही होती हैं?

अचानक एक दिन यों ही डा. राजीव ने एक ताजा गुलाब की पंखुडि़यों को तोड़ कर गिना तो सचमुच 14 ही निकलीं. उन के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. वह 7 कार्ड और 14 गुलाब की पंखुडि़यां

डा. राजीव के तीर्थस्थल बन गए. जब भी अपनी अलमारी खोलते एक मासूम सी गंध का झोंका उन्हें सहला जाता.

जीवन की यात्रा चलती रही. भावनाओं के अंकुर कर्तव्य के मार्ग में वहीं रुक गए, लेकिन उस के बाद वह अपना जन्मदिन न भूल सके. 5 मार्च को जब भी डाक आती डा. राजीव बड़ी उत्सुकता से एकएक चिट्ठी खोल कर देखते लेकिन जिस का वह इंतजार कर रहे थे वही नहीं मिल रही थी.

मुट्ठी में दबी ताजा गुलाब की पंखुडि़यों को सूंघते हुए अनमने से राजीव अपने निवास पर आ गए. आज पूरा अतीत उन्हें अपने में समेट लेना चाहता था. उन गुलाब की पंखुडि़यों के सहारे 30 साल गुजार दिए पर वह गृहस्थी का सुख न पा सके.

चौंक कर डा. राजीव ने घड़ी पर नजर डाली. 4 बजने में 5 मिनट शेष थे. यानी पूरे 4 घंटे अतीत की वादियों में घूमते रहे. बिस्तर से उठ कर बाथरूम में गए. मुंह धोया और डे्र्रसिंग टेबल के सामने खड़े हो कर बालों में कंघी घुमाई, कपड़े बदले और निकल पड़े. आज गाड़ी नहीं निकाली और निकाल कर भी क्या करते. कौन दूर जाना था उन्हें.

निश्चित स्थान पर पहुंच कर कालबेल बजाई. फौरन दरवाजा खुल गया. मधु ने उन्हें एक बड़े से सुसज्जित ड्राइंगरूम में बैठाया और बोली, ‘‘अब आप अपनी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं सर. मैं ही अपने बारे में बता देती हूं. आप शायद भूल रहे हैं कि 25 साल पहले आप के एक साथी थे

डा. सुशांत, जिन का विवाह के एक महीने बाद ही सड़क दुर्घटना में निधन हो गया था. आप यहां नएनए आए थे. परिचय भी कोई खास नहीं था. बीना उन्हीं की बेटी है और यह कोठी भी उन्हीं की है.’’

‘‘इतने पास रह कर भी कभी मिलने की कोशिश तुम ने नहीं की?’’

‘‘क्या कोशिश करती सर? आगरा और इलाहाबाद के बीच घूमती रही. जिसे भुलाना चाहा उसे भुला न सकी और जिस के साथ जिंदगी का सफर तय करना चाहा उस ने एक कदम साथ चल कर हमेशाहमेशा को अकेला छोड़ दिया.’’ दुखी हो उठी मधु. स्वयं को संभाला, हंसने का प्रयास करते हुए पूछा, ‘‘अपनी ही सुनाती रही, आप के बारे में नहीं पूछा, आप का घरपरिवार कैसा है, सर?’’

‘‘घरपरिवार बसा ही नहीं तो होगा कहां से?’’

‘‘मेरे कारण पूरा जीवन आप ने अकेले ही काट दिया,’’ हैरान रह गई मधु.

‘‘तुम से कहने का साहस नहीं हुआ और तुम्हारे अलावा किसी और को चाह न सका. क्या तुम मेरी एक बात मानोगी?’’

‘‘अब इस उम्र में आप क्या मनवाएंगे?’’

‘‘जो बात तब न कह सका, अब कहना चाहता हूं. पहले ही काफी देर हो चुकी है मधु, क्या यह सफर एक खूबसूरत मोड़ ले कर आगे नहीं बढ़ सकता?’’

हाथ में चाय की ट्रे लिए बीना ने ड्राइंगरूम में घुसते हुए कहा, ‘‘बढ़ सकता है अंकल. मैं आप के और मां के सफर को आगे बढ़ाऊंगी,’’ हाथ में पकड़ी चाय की ट्रे को सेंटर टेबल पर रख वह मां के पास आ कर बैठ गई और उन का हाथ अपने हाथ में ले लिया.

‘‘अंकल, मैं ने मां को कितनी ही बार आप का फोटो देखते देखा है. मैं जानती हूं कि मां आप को बहुत प्यार करती हैं. मैं भी पापा के प्यार को तरस रही हूं. जानती ही नहीं कि पापा कैसे होते हैं? बस, उन की तसवीर देखी है. दादी और दादाजी पुत्र शोक में जल्दी ही चल बसे. मैं भी ससुराल चली गई और मां अब बिलकुल अकेली रह गई हैं. आखिर मां को भी तो अपना दुखसुख बांटने वाला कोई चाहिए. आप और मां एक हो कर भी अलगअलग हैं. अब अलग नहीं रहेंगे.’’

‘‘तू जानती है, क्या कह रही है?’’ आंखें झर रही थीं मधु की.

‘‘सच बताना मां, तुम्हें इन आंसुओं की कसम, जो मैं चाहती हूं वह आप नहीं चाहतीं? अंकल, क्या आप को पापा कहने का हक है मुझे?’’ बीना ने दोनों से एक ही लफ्ज में अपना सवाल पूछ दिया.

डा. राजीव ने बीना को अपने कंधे से लगा कर उस का माथा चूम लिया, ‘‘सारी दुनिया की खुशियां आज अचानक मेरी झोली में आ गईं. पहली बार पापा बना हूं. पहली बार बेटी मिली है. मैं मना कर ही नहीं सकता,’’ डा. राजीव कहतेकहते भावविभोर हो उठे.

स्टूडैंट लीडर – भाग 3 : जयेश की जिद

?लैब इंचार्ज बिना कुछ कहे वहां से

चला गया.

2 दिनों के बाद, दोनों प्रतिद्वंद्वियों के बीच भरी सभा में वादविवाद रखा गया था. दोनों को अपनेअपने पक्षों को रखने का मौका था. प्रांगण खचाखच भरा हुआ था. सारा महाविद्यालय उमड़ आया था. मस्ती का माहौल था. छात्रों में उत्साह था. हर्षोल्लास के साथ इस वादविवाद को देखने के लिए वे पहुंचे थे.

 

चुनाव के इंचार्ज नीलेंदु सर ने माइक पर घोषणा की, ‘‘छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहे दोनों उम्मीदवार, अनुरंजन और जयेश, अपनाअपना तर्क आप के सामने रखेंगे. ये लोग आप के अपने छात्र प्रतिनिधि हैं, आप की समस्याओं का निवारण करने के लिए. आप ही के द्वारा चुने जाएंगे. इसीलिए ये जो भी कहेंगे, उन्हें ध्यान से सुनिएगा और सुनने के बाद, सोचविचार कर के ही अपना प्रतिनिधि चुनें. आप में से अधिकांश के लिए यह बिलकुल नया अनुभव होगा. सार्वजनिक वक्ता के साथ कृपया किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार न करें. न तो उन का उपहास उड़ाएं, न ही आक्रामक टिप्पणियों से उन्हें बेमतलब परेशान करें.’’ फिर थोड़ा रुक कर उन्होंने कहा, ‘‘सब से पहले अपने विचार आप के सामने रखेंगे हमारे स्नातकोत्तर विद्यार्थी, अनुरंजन नावे.’’

अनुरंजन अपनी जगह से उठ कर माइक के सामने आया तो जोरदार तालियों के साथ उस का स्वागत किया गया. जैसे संपूर्ण महाविद्यालय का वह बेताज बादशाह हो. तालियों की गड़गड़ाहट धीमी पड़ी तो उस ने सब से पहले नीलेंदु सर को धन्यवाद दिया, ‘‘मैं नीलेंदु सर का शुक्रिया अदा करता हूं कि मु?ो अपने विचार रखने के लिए उन्होंने यह मंच प्रदान किया. वादविवाद का आयोजन भी उन्होंने ही किया है. अपने प्रिंसिपल रत्नेश्वर, जिन का पूरा समय सब की समस्याओं को दूर करने में निकल जाता है, हमारे महाविद्यालय के मेहनती अध्यापकगण और मेरे साथी छात्र और मित्रगण. यह मेरा सौभाग्य है कि आप में से अधिकांश को मैं अपना दोस्त कह सकता हूं. आप सभी शायद मेरे बारे में सबकुछ पहले से ही जानते हैं. इसीलिए मैं आप से अपने प्रतिद्वंद्वी के बारे में बात करना चाहता हूं. वह हमारे कालेज में नए विज्ञान उपकरणों की पैरवी कर रहा है.’’

यह सुन कर सभी वाणिज्य, कला और मैनेजमैंट के छात्र जोरों से हंस दिए. जयेश उस पर हो रहे सीधेसीधे आक्रमण से सुन्न हो गया था.

 

जब हंसी कम हुई तो अनुरंजन ने कहना शुरू किया, ‘‘भले ही यह अद्भुत बात लगती हो, लेकिन उसे ऐसा लगता है कि हमारा कालेज खेल पर अपना पैसा बरबाद करता है.’’

वहां मौजूद लगभग सभी छात्रों ने जयेश को हूट कर के अपनी नापसंदगी जाहिर की. जयेश चुपचाप बैठ अपना तिरस्कार होते देखता रहा.

अनुरंजन ने जयेश पर अपना आक्रमण जारी रखा, ‘‘क्या हम वास्तव में एक ऐसे छात्र प्रतिनिधि को चुनना चाहते हैं, जो खेलों की परवाह नहीं करता है? जिस को क्रिकेट की परवाह नहीं…?’’

सभी छात्र जोरजोर से चिल्लाने लगे. जयेश को अपनेआप पर काबू पाना कठिन हो रहा था. सभी छात्र उस के खिलाफ हो रहे थे. अनुरंजन सभी छात्रों को उस के खिलाफ भड़काने में कामयाब हो रहा था.

अनुरंजन ने आगे कहा, ‘‘मु?ो गर्व इस बात का है कि मैं खुद क्रिकेट खेलता हूं और मैं चाहता हूं कि खेलों में हमारे महाविद्यालय का आर्थिक सहयोग और बढ़े.’’

फिर उस ने थम कर कहा, ‘‘एक चीज और है, जिसे मैं क्रिकेट से ज्यादा पसंद करता हूं और वह है जगन्नाथ.’’

जाहिर है, उस का उल्लेख रांची के मशहूर जगन्नाथ मंदिर से था. उस के इतना बोलने पर सभी ने जोरों से तालियां बजाईं.

अनुरंजन ने जयेश पर अपने प्रहारों का अंत नहीं किया था, ‘‘मेरे मित्र जयेश के बारे में मैं आप को एक और दिलचस्प तथ्य बताता हूं. उस का ईश्वर में विश्वास नहीं है. न तो जगन्नाथ मंदिर ही वह कभी गया है, न ही पहाड़ी मंदिर.’’

अब तो छात्रगण बेहद नाराज हो गए. शिव शांति पथ पहाड़ी मंदिर, शिवजी का मंदिर था. उस मंदिर में न जाना, खुद एक अपराध था.

अनुरंजन ने अपनी बात की समाप्ति करते हुए कहा, ‘‘आशा है कि अपना वोट डालते समय मेरी बताई इन बातों का आप पूरी तरह से ध्यान रखेंगे. धन्यवाद.’’ और तालियों की जबरदस्त गड़गड़ाहट के साथ वह वापस अपनी जगह पर आ बैठा.

नीलेंदु ने माइक संभाला, ‘‘अनुरंजन के बाद मैं अपने दूसरे उम्मीदवार जयेश को आमंत्रित करता हूं कि वह आए और अपना पक्ष रखे कि क्यों उसे छात्र प्रतिनिधि बनाया जाना चाहिए?’’

जब जयेश अपनी जगह से उठ कर माइक के सामने आया तो सन्नाटा छा गया. किसी ने उस का तालियों से स्वागत नहीं किया. सिर्फ प्रसेनजीत और संदेश तालियां बजा कर उस की हौसलाअफजाई कर रहे थे. माइक के सामने आज सभी जयेश को अपने दुश्मन नजर आ रहे थे. आज सचाई की जीत नामुमकिन थी. अपनी बात को कितने ही सुनहरे तरीके से वह पेश करे, लेकिन जो कीचड़ उस पर पड़ चुकी थी, उसे साफ करना भयंकर कठिन कार्य जान पड़ता था, मानो उसे चक्कर सा आ रहा हो. अब कुछ भी कहना व्यर्थ था. सभी उस के खिलाफ भड़क चुके थे.

जयेश के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा था. अपने विचारों के बल पर छात्रों को वापस अपने पक्ष में लाने की बात वह सोच भी नहीं सकता था. अगर वह ?ाठ का सहारा न भी लेना चाहे तो भी अपने प्रतिद्वंद्वी के स्तर तक तो उसे आज गिरना ही पड़ेगा, वरना सालों तक अपमान ?ोलते रहना पड़ेगा और उस स्तर तक गिरने के लिए, उसे संदेश द्वारा खोजबीन कर प्राप्त हुए अनुरंजन के पृष्ठभूमि तथ्यों का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा और कोई चारा नहीं था.

यही सब सोच कर जयेश ने अपने भाषण की शुरुआत की, ‘‘मेरे प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे ने आप को मेरे बारे में बताया. अब मैं भी आप को उस के बारे में कुछ बताना चाहता हूं. ऐसी बात जो वह खुद नहीं बताना चाहता है. शायद आप लोगों को पता नहीं कि अनुरंजन नावे का इतिहास क्या है. अनुरंजन, ?ारखंड का मूल निवासी नहीं है.’’

वहां बैठे सभी छात्र आपस में फुसफुसाने लगे. महाविद्यालय में लगभग सभी छात्र रांची से ही थे. जयेश ने अपना वक्तव्य जारी रखा, ‘‘मु?ो तो इस बात का बेहद गर्व है कि मेरे पूर्वजों के भी पूर्वजों के नाम की यहां की जमीन का खतियान है. लेकिन मेरे विरोधी की रांची में तो क्या, पूरे ?ारखंड में कोई जमीन नहीं है, न ही उस के बापदादाओं की है या कभी थी.’’

प्रांगण में बैठे विद्यार्थियों में अब आपस में बोलचाल और बढ़ गई. जयेश ने कहा, ‘‘मैं शुद्ध ?ारखंडी हूं और हमारे राज्य की 9 क्षेत्रीय भाषाओं को पाठ्यक्रम में लागू करवाने का जिम्मा लेता हूं. यह काम मेरा प्रतिद्वंद्वी कभी न कर सकेगा, क्योंकि उसे तो यह भी नहीं पता है कि हमारे राज्य की ये 9 भाषाएं कौन सी हैं. उसे कभी इस राज्य में सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती, क्योंकि वह स्थानीय नहीं है. क्या आप ऐसे व्यक्ति को अपना वोट देना चाहोगे, जिस के भविष्य में इस राज्य से पलायन करना ही लिखा है?’’

विद्यार्थीगण अब तैश में आ गए थे. जयेश ने आगे कहा, ‘‘क्या बाहर वाला कभी हमारी ही तरह सोच पाएगा? अनुरंजन नावे भले ही खेल प्रेमी हो और ईश्वर में विश्वास रखता हो, लेकिन उस का जन्म माधोपुर में हुआ था.’’ इसी बात का संदेश ने पता लगाया था.

बाहरी राज्य के शहर का नाम सुन कर विद्यार्थी भड़क गए. जयेश ने उन्हें और भड़काया, ‘‘आप को ऐसा नहीं लगता कि रांची के प्रमुख महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि, रांची या कम से कम ?ारखंड का होना चाहिए, ताकि आप की सोच और उस की सोच मेल खाती हो?’’

छात्रों की भीड़ में अब होहल्ला मच रहा था. जयेश ने उस शोर के ऊपर जोर से माइक में कहा, ‘‘मेरे विरोधी ने ?ारखंड में तब पहली बार कदम रखा, जब अपनी बीएससी की पढ़ाई करने के लिए वह यहां आया था. उस को न तो राज्य से जुड़ी समस्याओं की सू?ाबू?ा है, न ही प्रांतीय लोगों की सम?ा. हमारी राज्य सरकार ऐसे लोगों को अपने राज्य का हिस्सा नहीं मानती और आप उसे अपना वोट देना चाहते हो? अगर आप ने ऐसा किया तो आप राज्य सरकार के कानून के खिलाफ वोट करोगे. ?ारखंड के मूल निवासी के लोगों के अधिकार हमें सुरक्षित रखने हैं. हम बाहर वालों को ऐसी जिम्मेदारी सौंप कर यह गलती नहीं कर सकते.

‘‘याद रखिएगा कि हमारे अधिकारों की रक्षा करने वाली जितनी भी संस्थाएं हैं, वे सभी हमेशा मेरा साथ देंगी, लेकिन मेरे विरोधी का वे कभी भी साथ नहीं देंगी.

‘‘अगर आप चाहते हैं कि हम अपने अधिकारों की रक्षा करने वाली संस्थाओं के साथ जुड़े रहें तो अपना वोट आप मु?ो

ही देंगे.’’

इतना कह कर जयेश वापस अपनी जगह पर आ कर बैठ गया. जबरदस्त तालियों के साथ जयेश का नाम गूंजने लगा. नीलेंदु ने वादविवाद के समापन की घोषणा की.

अगले ही दिन चुनाव थे. कुछ ही दिनों में चुनाव के नतीजे आ गए. जयेश को भारी बहुमत की प्राप्ति हुई और वह अपने महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बन गया.

शक की सूई – भाग 3 : जब पति ने किया पत्नी का पीछा

‘‘तब तो रघु जानता होगा इसे…’’

‘‘जानता तो होगा, पता लग जाएगा कि कौन है.’’

दूसरे दिन जब प्रमोद जयंती को औफिस में छोड़ कर घर लौट रहा था, तो वहीं गेट के सामने झाड़ू लगाते पूरनराम ने उसे देख लिया और जब वह चला गया, तो लपक कर पूरनराम जयंती के सामने आ कर पूछ बैठा, ‘‘जयंती मैडम, वह आदमी जो आप को छोड़ कर गया है, क्या आप का आदमी है?’’

‘‘हां, पर क्यों?’’

‘अगर यह जयंती मैडम का पति है, तो फिर वह औरत कौन थी, जो उस दिन इस आदमी के हाथ पर हाथ धरे मेघदूत सिनेमाघर के अंदर हंसते हुए जा रही थी?’ पूरनराम सोचने लगा.

‘‘क्या हुआ? किस सोच में पड़ गया तू?’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं हुआ मैडम. एक आदमी कितने रंग बदल सकता है, वही सोच रहा था. इसी से मिलताजुलता एक आदमी है, जो पिछले कुछ दिनों से उधर बाहर के सामने वाले पेड़ों पर चढ़ कर औफिस के बरामदे की ओर ताकता रहता है. कल करमचंद बाबू ने टोका तो उस से लड़ बैठा. मैं समझा वही था…’’ सिनेमाघर वाली बात पूरनराम ने छिपा ली.

‘‘अरे नहीं, यह मेरा पति है. वह ऐसा क्यों करेगा? कोई दूसरा होगा…’’ जयंती ने यह बात पूरनराम से बड़ी सफाई से कह तो दी, लेकिन खुद किसी गहरी सोच में पड़ गई कि अगर वह प्रमोद ही है तो ऐसा क्यों कर रहा है? यह जान लेना जयंती के लिए बहुत जरूरी हो गया.

पूरनराम वाली बात की जयंती ने प्रमोद से चर्चा तक नहीं की और मन ही मन एक योजना बना डाली.उधर इतने दिन माथा खपाने के बाद भी प्रमोद को जब कोई सुराग हाथ नहीं लगा, तो वह सब्र खो बैठा और एक दिन उस ने औफिस में ही धावा बोल दिया.

तकरीबन 22 साल से जयंती को लाने और ले जाने का काम करने वाले प्रमोद ने कभी उस के औफिस में कदम नहीं रखा था. उस दिन अचानक आधा घंटा पहले अपने औफिस में पति को आया देख जयंती एकदम से चौंक उठी थी. उस घड़ी वह राजेश बाबू के साथ किसी जरूरी काम में लगी हुई थी.

जयंती के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्या हुआ? इस तरह अचानक से?’’

‘‘एक जरूरी काम से मुझे एक जगह जाना है, सोचा तुम्हें घर छोड़ता जाऊं.’’

जयंती ने राजेश बाबू की ओर देखा. राजेश बाबू बोल पड़े, ‘‘ठीक है, कोई जरूरी काम होगा. तुम जाओ. यह काम हम लोग कल पूरा कर लेंगे.’’

जयंती ने अपना हैंडबैग उठाया और औफिस से निकल गई.

इस बात को बीते अभी महज 2 दिन ही हुए थे. तीसरे दिन साढ़े 10 बजे प्रमोद फिर औफिस में घुस गया. तब जयंती और राजेश बाबू दोनों चाय पी रहे थे और थोड़ी दूरी पर मंजूबाई भी बैठी चाय पी रही थी. मंजूबाई औफिस में चाय पिलाने का काम करती थी.

‘‘बैंक से फोन आया था. तुम्हारे आधारकार्ड और पैनकार्ड की जिरौक्स कौपी मांग रहे हैं,’’ प्रमोद ने बताया.

‘‘अभी अप्रैल में ही केवाईसी जमा की है न?’’ जयंती को बैंक वालों की यह ज्यादती अच्छी नहीं लगी थी.

‘‘कुछ काम होगा. यहां है तो दे दो, जमा कर आएगा,’’ राजेश बाबू आज फिर बीच में बोल पड़े.

जयंती ने प्रमोद को कागज दे दिए. वह चला गया. मंजूबाई भी बगल वाले औफिस में चली गई तो जयंती बोल पड़ी, ‘‘मुझे लगता है कि यह हमारा पीछा कर रहा है.’’

‘‘मुझे लगता है कि यह किसी बड़ी दुविधा में पड़ा है. अच्छा होगा कि यह कंफर्म हो जाए, किसी तरह के कंफ्यूजन में न रहे.’’

अकसर आदमी उस जगह धोखा खाता है, जहां भरोसा डगमगाता है. प्रमोद को जयंती और राजेश बाबू को ले कर इश्कविश्क का कोई सुबूत नहीं मिला था, जिस के चलते वह अपना सब्र खो बैठा था.

तब एक रात उस ने जयंती पर सीधे हमला कर दिया, ‘‘तुम उस जगह से ट्रांसफर ले लो, राजेश बाबू के साथ तुम्हारा काम करना मुझे अच्छा नहीं लगता है. टेबल के नीचे पैर पर पैर फंसा कर कोई काम करता है भला. दीवार की भी आंखें होती हैं.’’

‘‘और कुछ?’’ जयंती ने अपने उमड़ते जज्बातों को जबरन रोकते हुए कहा, ‘‘उन के साथ मैं 22 साल से काम कर रही हूं. तुम्हारे मन में इस तरह का खयाल कभी नहीं आया. जब वे मेरे प्रमोशन को ले कर एरिया अफसर से हाथापाई पर उतर आए थे, तब तो तुमने ‘तुम्हारा बड़ा बाबू मर्द आदमी है’ कहा था…

‘‘उन्हीं की वजह से आज तक औफिस में किसी की मेरी तरफ आंख उठा कर देखने की कभी हिम्मत नहीं हुई और तुम कहते हो कि मैं उन के साथ काम करना छोड़ दूं… कभी नहीं…’’ जयंती चीख ही पड़ी थी.

इस के बाद जयंती ने करवट बदल ली और सो गई. प्रमोद कमरे से बाहर निकल गया, पर जयंती टस से मस नहीं हुई. प्रमोद अभी तक वाशरूम से बाहर नहीं निकला था. यह देख कर जयंती ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘अरे, अब क्या वहां सो कर रात की नींद पूरी करनी है?’’

‘‘सौरी जयंती…’’ सामने आ कर प्रमोद बोला, ‘‘तुम सही थी, मैं गलत साबित हो गया. मैं पिछले एकडेढ़ महीने से तुम्हारा पीछा कर रहा था.’’

‘‘मालूम है मुझे.’’

‘‘मैं रघु चपरासी के बहकावे में आ गया था. मैं बेहद शर्मिंदा हूं,’’ प्रमोद पछाड़ खाए पहलवान की तरह चित हो गया था, ‘‘जब तुम्हें सबकुछ मालूम हो चुका था, तो कभी विरोध क्यों नही किया?’’

‘‘विरोध गलत नीतियों का किया जाता है, पर जिस की सोच ही गलत हो, जिसे अपनी पत्नी पर भरोसा न हो, जो गैरऔरत के साथ सिनेमाघर में जाता हो, वैसी नीयत वाले आदमी का विरोध क्या करना, उस से छुटकारा पा लेना ही बेहतर है. फिर तुम तो खुद भ्रमित आदमी हो. मैं हैरान हूं कि इतने सालों से तुम्हारे साथ बिस्तर साझा करती रही और तुम्हें जान न पाई.

‘‘अब जब तुम्हारी असलियत सामने आ चुकी है, तब तुम्हारे इस शक के चक्कर में मैं अपना जीने का अंदाज क्यों बदल लूं…’’

‘‘तुम कितनी अच्छी हो जयंती डार्लिंग. मुझे माफी दे दो.’’

‘‘दूर रहो, यह हक अब तुम खो चुके हो…’’ जयंती ने प्रमोद को झिड़क दिया, ‘‘22 साल के हमारे गाढ़े प्यार को तुम ने गंदे नाले में बहा दिया. ‘जयंती का पति छिपछिप कर उस का पीछा कर रहा है’ इस शब्द ने मुझे अपने ही औफिस में बदनाम करा दिया. डेढ़ महीने से औफिस के आसपास तुम ने जो तमाशा किया, लोगों ने आंखें फाड़फाड़ कर देखा है, वह क्या कम है…’’

जयंती ने कहना जारी रखा, ‘‘तुम जैसे मर्दों से कोई औरत मां तो बन सकती है, पर इज्जत की जिंदगी कभी नहीं जी सकती है. अब तुम मेरी एक बात सुनो कि मैं मीरा नहीं, जयंती हूं और अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का सलीका जान चुकी हूं.

‘‘वैसे, मीरा ने भी नौकरी से रिजाइन नहीं दिया है, वह 3 महीने की मैटरनिटी लीव पर है. मीरा मां बनने वाली है. ऐसे निकम्मे मर्दों के आगे हम कामकाजी औरतों ने घुटने टेकने छोड़ दिए हैं. हमें अपनी जिंदगी कैसे जीनी है, वह तरीका हमें समझ में आ चुका है.

‘‘हर बार पत्नी ही अग्निपरीक्षा क्यों दे? मर्द क्यों नहीं देता? आखिर एक जिस्म के लिए औरतें कब तक मर्दों के जुल्म सहेंगी? आखिर कब तक?’’

‘‘बाबूजी, आप मां का पीछा कर रहे थे? अपनी ही पत्नी की जासूसी करने लगे थे? हम ने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन आप का यह रूप भी देखना पड़ेगा…’’ एक आवाज ने जयंती और प्रमोद को चौंकाया. देखा कि बड़ा बेटा बगल के कमरे के दरवाजे की ओट में छिप कर जाने कब से उन की बातें सुन रहा था.

गांठ खुल गई – भाग 3 : हैसियत का खेल

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे सम?ाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मु?ा से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

3 दिनों बाद इषिता आ भी गई. गौतम के घर गई तो वह गहरी सोच में था.

उस ने आवाज दी. पर उस की तंद्रा भंग नहीं हुई. तब उसे झंझोड़ा और कहा, ‘‘किस सोच में डूबे हुए हो?’’

‘‘श्रेया की यादों से अपनेआप को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं,’’ गौतम ने सच बता दिया.

इषिता गुस्से से उफन उठी, ‘‘इतना सबकुछ होने के बाद भी उसे याद करते हो? सचमुच तुम पागल हो गए हो?’’

‘‘तुम ने कभी किसी को प्यार नहीं किया है इषिता, मेरा दर्द कैसे समझ सकती हो.’’

‘‘कुछ घाव किसी को दिखते नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि उस शख्स ने चोट नहीं खाई होगी,’’ इषिता ने कहा.

गौतम ने इषिता को देखा तो पाया कि उस की आंखें नम थीं. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी आंखों में आंसू हैं. इस का मतलब यह है कि तुम ने भी प्यार में धोखा खाया है?’’

‘‘इसे तुम धोखा नहीं कह सकते. जिसे मैं प्यार करती थी उसे पता नहीं था.’’

‘‘यानी वन साइड लव था?’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझो.’’

‘‘लड़का कौन था. निश्चय ही वह कालेज का रहा होगा?’’

इषिता उसे उलझन में नहीं रखना चाहती थी, रहस्य पर से परदा हटाते हुए कह दिया, ‘‘वह कोई और नहीं, तुम हो.’’

गौतम ने चौंक कर उसे देखा तो वह बोली, ‘‘कालेज में पहली बार जिस दिन तुम से मिली थी उसी दिन तुम मेरे दिल में घर कर गए थे. दिल का हाल बताती, उस से पहले पता चला कि तुम श्रेया के दीवाने हो. फिर चुप रह जाने के सिवा मेरे पास रास्ता नहीं था.

‘‘जानती थी कि श्रेया अच्छी लड़की नहीं है. तुम से दिल भर जाएगा, तो झाट से किसी दूसरे का दामन थाम लेगी. आगाह करती, तो तुम्हें लगता कि अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए उस पर इलजाम लगा रही हूं. इसलिए तुम से दोस्ती कर ली पर दिल का हाल कभी नहीं बताया.

‘‘श्रेया के साथ तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, तो सोचा कि मौका देख कर अपनी मोहब्बत का इजहार करूंगी और तुम से शादी कर लूंगी. पर देख रही हूं कि आज भी तुम्हारे दिल में वह ही है.’’

दोनों के बीच कुछ देर तक खामोशी पसर गई. गौतम ने ही थोड़ी देर बार खामोशी दूर की, ‘‘उसे दिल से निकाल नहीं पा रहा हूं, इसीलिए कभी शादी न करने का फैसला किया है.’’

‘‘तुम्हें पाने के लिए मैं ने जो तपस्या की है उस का फल मुझे नहीं दोगे?’’ इषिता का स्वर वेदना से कांपने लगा था. आंखें भी डबडबा आई थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो इषिता. तुम बहुत अच्छी लड़की हो. तुम से विवाह करता तो मेरा जीवन सफल हो जाता. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. किसी से भी शादी नहीं

कर सकता.’’

इषिता चली गई. उस की आंखों में उमड़ा वेदना का समंदर देख कर भी वह उसे रोक नहीं पाया. वह उसे कैसे समझाता कि श्रेया ने उस के साथ जो कुछ भी किया है, उस से समस्त औरत जाति से उसे नफरत हो गई है.

3 दिन बीत गए. इषिता ने न फोन किया न आई. गौतम सोचने लगा, ‘कहीं नाराज हो कर उस ने दोस्ती तोड़ने का मन तो नहीं बना लिया है?’

उसे फोन करने को सोच ही रहा था कि अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस समय शाम के 6 बज रहे थे. फोन किसी अनजान का था.

उस ने ‘‘हैलो’’ कहा तो उधर से किसी ने कहा, ‘‘इषिता का पापा बोल रहा हूं. तुम से मिलना चाहता हूं. क्या हमारी मुलाकात हो सकती है?’’

उस ने ?ाट से कहा, ‘‘क्यों नहीं अंकल. कहिए, कहां आ जाऊं?’’

‘‘तुम्हें आने की जरूरत नहीं है बेटे. 7 बजे तक मैं ही तुम्हारे घर आ जाता हूं.’’

इषिता उसे 3-4 बार अपने घर ले गई थी. वह उस के मातापिता से मिल चुका था.

उस के पिता रेलवे में उच्च पद पर थे. बहुत सुलझे हुए इंसान थे. वह उन की इकलौती संतान थी. मां कालेज में अध्यापिका थीं. बहुत समझदार थीं. कभी भी उस के और इषिता के रिश्ते पर शक नहीं किया था.

इषिता के पापा समय से पहले ही आ गए. गौतम के साथसाथ उस की मां और बहन ने भी उन का भरपूर स्वागत किया.

उन्होंने मुद्दे पर आने में बहुत देर नहीं लगाई. पर उन चंद लमहों में ही अपने शालीन व्यक्तित्व की खुशबू से पूरे घर को महका दिया था. इतनी आत्मीयता उड़ेल दी थी वातावरण में कि उसे लगने लगा कि उन से जनमजनम का रिश्ता है.

कुछ देर बाद इषिता के पापा को गौतम के साथ कमरे में छोड़ कर मां और बहन चली गईं तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इषिता तुम्हें प्यार करती है और शादी करना चाहती है. उस ने श्रेया के बारे में भी सबकुछ बता दिया है.

‘‘श्रेया से तुम्हारा रिश्ता टूट चुका है तो इषिता से शादी क्यों नहीं करना चाहते? वैसे तो बिना कारण भी कोई किसी को नापसंद कर सकता है. यदि तुम्हारे पास इषिता से विवाह न करने का कारण है तो बताओ. मिलबैठ कर कारण को दूर करने की कोशिश करें.’’

उसे लगा जैसे अचानक उस के मन में कोई बड़ी सी शिला पिघलने लगी है. उस ने मन की बात बता देना ही उचित समझा.

‘‘इषिता में कोई कमी नहीं है अंकल. उस से जो भी शादी करेगा उस का जीवन सार्थक हो जाएगा. कमी मु?ा में है. श्रेया से धोखा खाने के बाद लड़कियों से मेरा विश्वास उठ गया है.

‘‘लगता है कि जिस से भी शादी करूंगा वह भी मेरे साथ बेवफाई करेगी. ऐसा भी लगता है कि श्रेया को कभी भूल नहीं पाऊंगा और पत्नी को प्यार नहीं कर पाऊंगा,’’ गौतम ने दिल की बात रखते हुए बताया.

‘‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो? तुम मेरी परवरिश पर विश्वास रखो बेटा. तुम्हारी पत्नी बन कर इषिता तुम्हें इतना प्यार करेगी कि तुम्हारे मन में लड़कियों के प्रति जो गांठ पड़ गई है वह स्वयं खुल जाएगी.’’

वे बिना रुके कहते रहे, ‘‘प्यार या शादी के रिश्ते में मिलने वाली बेवफाई से हर इंसान दुखी होता है, पर यह दुख इतना बड़ा भी नहीं है कि जिंदगी एकदम से थम जाए.

‘‘किसी एक औरतमर्द या लड़कालड़की से धोखा खाने के बाद दुनिया के तमाम औरतमर्द या लड़केलड़की को एकजैसा सम?ाना सही नहीं है.

‘‘यह जीवन का सब से बड़ा सच है कि कोई भी रिश्ता जिंदगी से बड़ा नहीं होता. यह भी सच है कि हर प्रेम संबंध का अंजाम शादी नहीं होता.

‘‘जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनने का अधिकार है. यह अलग बात है कि कोई सही रास्ता चुनता है कोई गलत.

‘‘श्रेया के मन में गलत विचार भरे पड़े थे. इसलिए चंद कदम तुम्हारे साथ चल कर अपना रास्ता बदल लिया. अब तुम भी उसे भूल कर जीने की सही राह पर आ जाओ. गिरते सब हैं पर जो उठ कर तुरंत अपनेआप को संभाल लेता है, सही माने में वही साहसी है.’’

थोड़ी देर बाद इषिता के पापा चले गए. गौतम ने मंत्रमुग्ध हो कर उन की बातें सुनी थीं.

श्रेया के कारण लड़कियों के प्रति मन में जो गांठ पड़ गई थी वह खुल गई.

अब देर करना उस ने मुनासिब नहीं समझा. इषिता के पापा को फोन किया, ‘‘अंकल, कल अपने घर वालों के साथ इषिता का हाथ मांगने आप के घर आना चाहता हूं.’’

उधर से इषिता के पापा ने कहा, ‘‘वैलकम बेटे. देर आए दुरुस्त आए. अब तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. तुम ने अपने भीतर के डर पर विजय जो प्राप्त कर ली है.’’

काशी वाले पंडाजी : अंधविश्वास का कुचक्र

रबी की फसल तैयार होने के बाद काशी वाले पंडाजी का इलाके में आना हुआ. लेकिन इस बार पंडाजी के साथ एक पहलवान चेला भी था, जिस की उम्र तकरीबन 35 साल के आसपास थी. पर देखने में वह 21-22 साल का ही लगता था.

हाथ में कई अंगूठियां, छोटेछोटे काले बाल, प्रैस

की हुई खादी की धोती और पैर में कोल्हापुरी चप्पल उस पर खूब फबती थी.

पंडाजी बांस की बनी एक छोटी डोलची ले कर चलते थे. डोलची के हैंडिल के सहारे 2 छोटीछोटी गोल रंगीन शीशियां बंधी रहती थीं.

पंडाजी बड़ी सावधानी से शीशी खोलते और बहुत ही थोड़ा जल निकाल कर यजमान के बरतन में डालते. इस के बाद पहलवान चेला शुरू हो जाता, ‘‘यह प्रयाग का गंगाजल है. पंडाजी ने नवरात्र के समय मंदिर में इसे कठिन साधना के साथ मंत्रों से पढ़ा है.

‘‘इस गंगाजल में शुद्ध जल मिला कर घर के चारों तरफ छिड़क दें. इस के बाद सारा उपद्रव शांत हो जाएगा. बालबच्चे खुश रहेंगे और यजमान का कल्याण होगा.’’

उस पहलवान चेले की बात खत्म होते ही लाल और पीले धागे वाले

2 तावीज वह पंडाजी की ओर बढ़ा देता और कुछ क्षण बाद तावीजों को ले कर यजमान के हाथों में रखते हुए कहता, ‘‘पंडाजी बता रहे हैं कि लाल धागे वाला तावीज यजमान बाएं हाथ में मंगलवार को पहनें और पीले धागे वाला तावीज बुधवार को यजमान दाहिने हाथ में पहनें. इस के बाद सब तरह की बाधा दूर हो जाएगी और हर काम में तरक्की होगी.’’

यजमान दोनों हथेलियों पर 2 रंगों वाले तावीजों को इस तरह देखने लगता, मानो वह तावीज नहीं, कुबेर के खजाने की कुंजी और दवा हो.

चेला दक्षिणा उठा कर गिनता. अगर वह 51 रुपए होती, तो चुपचाप पंडाजी की दाहिनी जेब से पर्स निकाल कर उस में रख देता और अगर पैसा इस से कम होता, तो कहता, ‘‘यह तो नवरात्र का खर्च भी नहीं है. लौट कर भी तो अनुष्ठान करना होगा.’’

तब यजमान कुछ रुपए निकाल कर चेले को बढ़ा देता. चेला नोटों की गिनती किए बिना पर्स के हवाले कर देता.

पंडाजी यजमानों द्वारा दी गई दक्षिणा के हिसाब से ही अपना कीमती समय देते थे. पर वे माई के घर पर घंटों आसन जमाते. माई बहुत दिनों तक परदेश में रही थीं और उन की तीनों कुंआरी बेटियां भी देखने में खूबसूरत थीं.

पंडाजी के गांव में पधारते ही माई के दरवाजे पर उन के आसन का इंतजाम हो गया था. तीनों बेटियां भी अच्छी तरह सजसंवर कर तैयार हो चुकी थीं.

पंडाजी के पहुंचते ही माई ने उन की आवभगत की. पंडाजी आसन पर बैठने ही वाले थे कि एक लड़की ने आ कर उन के पैर छुए. उन्होंने पूछा, ‘‘हां, क्या नाम है?’’

‘‘जी… संजू.’’

‘‘कुंभ राशि. कन्या के लक्षण तो अति विलक्षण हैं. यह तो पिछले जन्म में राजकन्या थी. कुछ चूक हो जाने के चलते इसे इस कुल में आना पड़ा, तभी तो यह इतनी सुंदर और चंचला है.’’

सुंदर और चंचला शब्द सुनते ही संजू के गाल और भी लाल हो उठे और वह रोमांचित हो कर पंडाजी के और करीब होने लगी.

तभी दूसरी लड़की रंजू ने कहा, ‘‘पंडाजी, इस को घरवर कैसा मिलेगा? इस की शादी कब तक होगी? हम तो इसी चिंता में परेशान रहते हैं. इस साल ही इस के हाथ पीले होने का कोई जतन बताइए न.’’

रंजू की बातें सुन कर पंडाजी चेले की ओर देखने लगे. संजू के यौवन में भटकता चेला अचकचा कर पंडाजी की ओर देखता हुआ कुछ पल चुप रहने के बाद बोला, ‘‘बीते सावन में इस के हाथ से जो सांप मर गया, वह कुलदेवता था. कुलदेवता इस पर बहुत गुस्सा हैं. इस के लिए मंत्र और तंत्र दोनों की साधनाएं करनी होंगी.

‘‘अच्छा है कि आज मंगलवार है. आज रात यह अनुष्ठान हो जाए, तो सब बिगड़ा काम बन सकता है.’’

चेले का यह सु?ाव माई को डूबते को तिनके का सहारा जैसा लगा.

सभी समस्याओं का समाधान निकल आने से माई की जान में जान आई. ठीक 5 बजे अनुष्ठान शुरू करने की बात कह कर पंडाजी चेले के साथ कैथीटोला गांव की ओर चल पड़े.

रात 9 बजे से माई के आंगन में अनुष्ठान का काम पंडाजी और चेले ने शुरू किया. हर तरह से सजीसंवरी तीनों बहनें भी आ कर लाइन से बैठ गईं.

कुछ देर तक मंत्र पढ़ने के बाद आग जला कर उन्होंने माई के साथसाथ संजू, रंजू और मंजू को भभूत मिला प्रसाद खाने को दिया. इस के बाद चेले ने वहां मौजूद पासपड़ोस के लोगों को बाहर जाने का इशारा किया.

इशारा पाते ही सभी वहां से चले गए. फिर उस के बाद रात में क्या हुआ, गांव वालों को इस का क्या पता…

अगली सुबह माई के घर में हाहाकार मचा हुआ था. माई और उस की छोटी बेटी मंजू छाती पीटपीट कर चिल्ला रही थीं, ‘‘कोई हमारी संजू… रंजू को वापस ला दो. वह पंडा पुरोहित नहीं, ठग था.

‘‘हम दोनों को बेहोश कर के पंडा और चेला मेरी दोनों बेटियों को उठा

कर कहां ले गए… कुछ मालूम नहीं. हमारी बेटियों को वापस ला दो. उन्हें बचा लो.’’

गांव वालों को माजरा समझते देर नहीं लगी.

राजमणि काका ने तुरंत रेलवे स्टेशन और बसस्टैंड के लिए कुछ लोगों को भेजा, लेकिन वे सभी खाली हाथ निराश लौट आए. तब पुलिस में मामले को ले जाया गया. लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.

माई के पास कलेजे पर पत्थर रख कर संजू और रंजू को भूलने के अलावा कोई चारा नहीं था.

इधर उन दोनों बहनों ने समझदारी से काम लिया. पंडा और चेले की गलत मंसा भांपते हुए चालाकी से संजू ने पंडाजी से और रंजू ने चेले से ब्याह कर मौजमस्ती से जिंदगी बिताने का प्रस्ताव रखा.

पंडा और चेला इस प्रस्ताव को सुन कर बहुत खुश हुए. रंजू ने कहा, ‘‘लेकिन, इस के लिए जरूरी है कि हमारे घरपरिवार, गांव के लोग आगे आएं. कोई कानूनी दांवपेंच नहीं लगाएं और हमें पुलिस के चक्कर में नहीं पड़ना पड़े, सो हम लोग बिना समय गंवाए कोर्ट मैरिज कर लें.’’

संजू और रंजू के रूपजाल में फंसे पंडा और चेला कोर्ट मैरिज के कागजात के साथ अदालत में जज के सामने हाजिर हुए.

जब जज ने संजू और रंजू से उन की रजामंदी के बारे में पूछा, तो संजू कहने लगी, ‘‘जज साहब, ये दोनों हमारे गांव में पंडापुजारी बन कर आए थे. भोलेभाले गांव वालों के सामने तंत्रमंत्र का मायाजाल फैला कर इन ढोंगियों ने उन्हें खूब लूटा.

‘‘हम तीनों बहनों पर तो ये लट्टू बने थे. माई को घरपरिवार पर देवी का प्रकोप बता कर तांत्रिक अनुष्ठान कराने के लिए इन दोनों ने इसलिए मजबूर किया, ताकि उस की आड़ में हमें भोग सकें.

‘‘इन की खराब नीयत को भांप कर हम दोनों बहनों ने आपस में विचार किया और इन दोनों को कानून के हवाले करने के लिए यह नाटक खेला है, ताकि कानून इन ढोंगियों को ऐसी सजा दे, ताकि फिर कभी इस तरह की घटना न होने पाए.’’

संजू और रंजू के बयान को दर्ज करते हुए अदालत ने पंडा और चेले को जेल भेजने का आदेश दिया.

संजू और रंजू ने जब गांव वालों को यह दास्तान सुनाई, तो सभी कहने लगे, ‘सचमुच, तुम्हारी दोनों बेटियां बड़ी बहादुर हैं माई. इन दोनों ने वह कर दिखाया है, जो बहुत कम लोग ही कर पाते हैं. पूरे गांव को इन पर नाज है.’

माई की आंखों में भी खुशी और संतोष के आंसू छलछला रहे थे.

गलती का एहसास : 2 जिस्मों की प्यास

सौरभ दफ्तर के काम में बिजी था कि अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजी. मोबाइल की स्क्रीन पर कावेरी का नाम देख कर उस का दिल खुशी से उछल पड़ा.

कावेरी सौरभ की प्रेमिका थी. उस ने मोबाइल फोन पर ‘हैलो’ कहा, तो उधर से कावेरी की आवाज आई, ‘तुम्हारा प्यार पाने के लिए मेरा मन आज बहुत बेकरार है. जल्दी से घर आ जाओ.’

‘‘तुम्हारा पति घर पर नहीं है क्या?’’ सौरभ ने पूछा.

‘नही,’ उधर से आवाज आई.

‘‘वह आज दफ्तर नहीं आया, तो मुझे लगा कि वह छुट्टी ले कर तुम्हारे साथ मौजमस्ती कर रहा है,’’ सौरभ मुसकराते हुए बोला.

‘ऐसी बात नहीं है. वह कुछ जरूरी काम से अपने एक रिश्तेदार के घर आसनसोल गया है. रात के 10 बजे से पहले लौट कर नहीं आएगा, इसीलिए मैं तुम्हें बुला रही हूं. तनमन की प्यास बुझाने के लिए हमारे पास अच्छा मौका है. जल्दी से यहां आ जाओ.’

‘‘मैं शाम के साढ़े 4 बजे तक जरूर आ जाऊंगा. जिस तरह तुम मेरा प्यार पाने के लिए हर समय बेकरार रहती हो, उसी तरह मैं भी तुम्हारा प्यार पाने के लिए बेकरार रहता हूं.

‘‘तुम्हारे साथ मु?ो जो खुशी मिलती है, वैसी खुशी अपनी पत्नी से भी नहीं मिलती है. हमबिस्तरी के समय वह एक लाश की तरह चुपचाप पड़ी रहती है, जबकि तुम प्यार के हर लमहे में खरगोश की तरह कुलांचें मारती हो. तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं फिदा हूं.’’

थोड़ी देर तक कुछ और बातें करने के बाद सौरभ ने मोबाइल फोन काट दिया और अपने काम में लग गया.

4 बजे तक उस ने अपना काम निबटा लिया और दफ्तर से निकल गया.

सौरभ कावेरी के घर पहुंचा. उस समय शाम के साढ़े 4 बज गए थे. कावेरी उस का इंतजार कर रही थी.

जैसे ही सौरभ ने दरवाजे की घंटी बजाई, कावेरी ने ?ाट से दरवाजा खोल दिया. मानो वह पहले से ही दरवाजे पर खड़ी हो.

वे दोनों वासना की आग से इस तरह झलस रहे थे कि फ्लैट का मेन दरवाजा बंद करना भूल गए और झट से बैडरूम में चले गए.

कावेरी को बिस्तर पर लिटा कर सौरभ ने उस के होंठों को चूमा, तो वह भी बेकरार हो गई और सौरभ के बदन से मनमानी करने लगी.

जल्दी ही उन दोनों ने अपने सारे कपड़े उतारे और धीरेधीरे हवस की मंजिल की तरफ बढ़ते चले गए.

अभी वे दोनों मंजिल पर पहुंच भी नहीं पाए थे कि किसी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘यह सब क्या हो रहा है?’’

वे दोनों घबरा गए और ?ाट से एकदूसरे से अलग हो गए.

सौरभ ने दरवाजे की तरफ देखा, तो बौखला गया. दरवाजे पर कावेरी का पति जयदेव खड़ा था. उस की आंखों से अंगारे बरस रहे थे.

उन दोनों को इस बात का एहसास हुआ कि उन्होंने मेन दरवाजा बंद नहीं किया था.

कावेरी ने ?ाट से पलंग के किनारे रखे अपने कपड़े उठा लिए. सौरभ ने भी अपने कपड़े उठाए, मगर जयदेव ने उन्हें पहनने नहीं दिया.

जयदेव उन को गंदीगंदी गालियां देते हुए बोला, ‘‘मैं चुप रहने वालों में से नहीं हूं. अभी मैं आसपड़ोस के लोगों को बुलाता हूं.’’

कावेरी ने जयदेव के पैर पकड़ लिए. उस ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘‘प्लीज, मु?ो माफ कर दीजिए. अब ऐसी गलती कभी नहीं करूंगी.’’

‘‘मैं तुम्हें हरगिज माफ नहीं कर सकता. तुम तो कहती थीं कि मैं कभी किसी पराए मर्द को अपना बदन छूने नहीं दूंगी. फिर अभी सौरभ के साथ क्या कर रही थीं?’’

कावेरी कुछ कहती, उस से पहले जयदेव ने सौरभ से कहा, ‘‘तुम तो अपनेआप को मेरा अच्छा दोस्त बताते थे. यही है तुम्हारी दोस्ती? दोस्त की पत्नी के साथ रंगरलियां मनाते हो और दोस्ती का दम भरते हो. मैं तुम्हें भी कभी माफ नहीं करूंगा.

‘‘फोन कर के मैं तुम्हारी पत्नी को बुलाता हूं. उसे भी तो पता चले कि उस का पति कितना घटिया है. दूसरे की पत्नी के साथ हमबिस्तरी करता है.’’

‘‘प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी पत्नी को कावेरी के बारे में पता चल जाएगा, तो वह मुझे छोड़ कर चली जाएगी.

‘‘मैं कसम खाता हूं कि अब कभी कावेरी से संबंध नहीं बनाऊंगा,’’ सौरभ ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

सौरभ के गिड़गिडाने का जयदेव पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने सौरभ से कहा, ‘‘मैं तुम दोनों को कभी माफ नहीं कर सकता. तुम दोनों की करतूत जगजाहिर करने के बाद आज ही कावेरी को घर से निकाल दूंगा. उस के बाद तुम्हारी जो मरजी हो, वह करना. कावेरी से संबंध रखना या न रखना, उस से मु?ो कोई लेनादेना नहीं.’’

जयदेव चुप हो गया, तो कावेरी फिर गिड़गिड़ा कर उस से माफी मांगने लगी. सौरभ ने भी ऐसा ही किया. जयदेव के पैर पकड़ कर उस से माफी मांगते हुए कहा कि अगर वह उसे माफ नहीं करेगा, तो उस के पास खुदकुशी करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाएगा, क्योंकि वह अपनी पत्नी की नजरों में गिर कर नहीं जी पाएगा.

आखिरकार जयदेव पिघल गया. उस ने सौरभ से कहा, ‘‘मैं तुम्हें माफ तो नहीं कर सकता, मगर जबान बंद रखने के लिए तुम्हें 3 लाख रुपए देने होंगे.’’

‘‘3 लाख रुपए…’’ यह सुन कर सौरभ की घिग्घी बंध गई. उस का सिर भी घूमने लगा.

बात यह थी कि सौरभ की माली हालत ऐसी नहीं थी कि वह जयदेव को 3 लाख रुपए दे सके. उसे जितनी तनख्वाह मिलती थी, उस से परिवार का गुजारा तो चल जाता था, मगर बचत नहीं हो पाती थी.

सौरभ ने अपनी माली हालत के बारे में जयदेव को बताया, मगर वह नहीं माना. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी माली हालत से मुझे कुछ लेनादेना नहीं है. अगर तुम मेरा मुंह बंद रखना चाहते हो, तो रुपए देने ही होंगे.’’

सौरभ को सम?ा नहीं आ रहा था कि वह इस मुसीबत से कैसे निबटे?

सौरभ को चिंता में पड़ा देख कावेरी उस के पास आ कर बोली, ‘‘तुम इतना सोच क्यों रहे हो? रुपए बचाने की सोचोगे, तो हमारी इज्जत चली जाएगी. लोग हमारी असलियत जान जाएंगे.

‘‘तुम खुद सोचो कि अगर तुम्हारी पत्नी को सबकुछ मालूम हो जाएगा, तो क्या वह तुम्हें माफ कर पाएगी?

‘‘वह तुम्हें छोड़ कर चली जाएगी, तो तुम्हारी जिंदगी क्या बरबाद नहीं हो जाएगी? मेरी तो कोई औलाद नहीं है. तुम्हारी तो औलाद है, वह भी बेटी. अभी उस की उम्र भले ही 6 साल है, मगर बड़ी होने के बाद जब उसे तुम्हारी सचाई का पता चलेगा, तो सोचो कि उस के दिल पर क्या गुजरेगी. तुम से वह इतनी ज्यादा नफरत करने लगेगी कि जिंदगीभर तुम्हारा मुंह नहीं देखेगी.’’

सौरभ पर कावेरी के सम?ाने का तुरंत असर हुआ. वह जयदेव को

3 लाख रुपए देने के लिए राजी हो गया, मगर इस के लिए उस ने जयदेव से एक महीने का समय मांगा.

कुछ सोचते हुए जयदेव ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक महीने की मुहलत दे सकता

हूं, मगर इस के लिए तुम्हें कोई गारंटी देनी होगी.’’

‘‘कैसी गारंटी?’’ सौरभ ने जयदेव से पूछा.

‘‘मैं कावेरी के साथ तुम्हारा फोटो खींच कर अपने मोबाइल फोन में

रखूंगा. बाद में अगर तुम अपनी जबान से मुकर जाओगे, तो फोटो सब को

दिखा दूंगा.’’

मजबूर हो कर सौरभ ने जयदेव की बात मान ली. जयदेव ने कावेरी के साथ सौरभ का बिना कपड़ों वाला फोटो खींच कर अपने मोबाइल में सेव कर लिया.

शाम के 7 बजे जब सौरभ कावेरी के फ्लैट से बाहर आया, तो बहुत परेशान था. वह लगातार यही सोच रहा था कि 3 लाख रुपए कहां से लाएगा?

सौरभ कोलकाता का रहने वाला था. उलटाडांगा में उस का पुश्तैनी मकान

था. उस की शादी अनीता से तकरीबन

8 साल पहले हुई थी.

सौरभ की पत्नी अनीता भी कोलकाता की थी. अनीता जब बीए के दूसरे साल में थी, तभी उस के मातापिता ने उस की शादी सौरभ से कर दी थी. सौरभ ने उस की पढ़ाई छुड़ा कर उसे घर के कामों में लगा दिया. अनीता भी आगे नहीं पढ़ना चाहती थी, इसलिए तनमन से घर संभालने में जुट गई थी.

शादी के समय सौरभ के मातापिता जिंदा थे, मगर 2 साल के भीतर उन दोनों की मौत हो गई थी. तब से अनीता ने घर की पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी.

मगर शादी के 5 साल बाद अचानक सौरभ ने अपना मन अनीता से हटा लिया था और वह मनचाही लड़की की तलाश में लग गया था.

बात यह थी कि एक दिन सौरभ ने अपने दोस्त के घर ब्लू फिल्म देखी थी. उस के बाद उस का मन बहक गया था. ब्लू फिल्म की तरह उस ने भी मजा लेने की सोची थी.

उसी दिन दोस्त से ब्लू फिल्म की सीडी ले कर सौरभ घर आया. बेटी जब सो गई, तो टैलीविजन पर उस ने अनीता को फिल्म दिखाना शुरू किया.

कुछ देर बाद अनीता सम?ा गई कि यह कितनी गंदी फिल्म है. फिल्म बंद कर के वह सौरभ से बोली, ‘‘आप को ऐसी गंदी फिल्म देखने की लत किस ने लगाई?’’

‘‘मैं ने यह फिल्म आज पहली बार देखी है. मुझे अच्छी लगी, इसलिए तुम्हें दिखाई है कि फिल्म में लड़की ने अपने मर्द साथी के साथ जिस तरह की हरकतें की हैं, उसी तरह की हरकतें तुम मेरे साथ करो.’’

‘‘मु?ा से ऐसा नहीं होगा. मैं ऐसा करने से पहले ही शर्म से मर जाऊंगी.’’

‘‘तुम एक बार कर के तो देखो, शर्म अपनेआप भाग जाएगी.’’

‘‘मु?ो शर्म को भगाना नहीं, अपने साथ रखना है. आप जानते नहीं कि शर्म के बिना औरतें कितनी अधूरी रहती हैं. मेरा मानना है कि हर औरत को शर्म

के दायरे में रह कर ही हमबिस्तरी

करनी चाहिए.

‘‘आप अपने दिमाग से गंदी बातें निकाल दीजिए. हमबिस्तरी में अब तक जैसा चलता रहा है, वैसा ही चलने दीजिए. सच्चा मजा उसी में है. अगर मुझ पर दबाव बनाएंगे, तो मैं मायके चली जाऊंगी.’’

उस समय तो सौरभ की बोलती बंद हो गई, मगर उस ने अपनी चाहत को दफनाया नहीं. उस ने मन ही मन ठान लिया कि पत्नी न सही, कोई और सही, मगर वह मन की इच्छा जरूर पूरी कर के रहेगा.

उस के बाद सौरभ मनचाही लड़की की तलाश में लग गया. इस के लिए एक दिन उस ने अपने दोस्त रमेश से बात भी की. रमेश उसी कंपनी में था, जिस में वह काम करता था.

रमेश ने सौरभ को सु?ाव दिया, ‘‘तुम्हारी इच्छा शायद ही कोई घरेलू औरत पूरी कर सके, इसलिए तुम्हें किसी कालगर्ल से संबंध बनाना चाहिए.’’

सौरभ को रमेश की बात जंच गई. कुछ दिन बाद उसे एक कालगर्ल मिल भी गई.

एक दिन सौरभ रात के 9 बजे कालगर्ल के साथ होटल में गया. वह कालगर्ल के साथ मनचाहा करता, उस से पहले ही होटल पर पुलिस का छापा पड़ गया. सौरभ गिरफ्तारी से बच न सका.

अंतहीन- भाग 3: क्यों गुंजन ने अपने पिता को छोड़ दिया?

रामदयाल के कानों में प्रभव की बात गूंज रही थी, ‘शादी अभी तो मुमकिन नहीं है, गुंजन की मजबूरियों के कारण. विधुर पिता के प्रति इकलौते बेटे की जिम्मेदारियां और लगाव कुछ ज्यादा ही होता है.’ लगाव वाली बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता था लेकिन प्रेमा की मृत्यु के बाद जब प्राय: सभी ने उस से कहा था कि पिता और घर की देखभाल अब उस की जिम्मेदारी है, इसलिए उसे शादी कर लेनी चाहिए तो गुंजन ने बड़ी दृढ़ता से कहा था कि घर संभालने के लिए तो मां से काम सीखे पुराने नौकर हैं ही और फिलहाल शादी करना पापा के साथ ज्यादती होगी क्योंकि फुरसत के चंद घंटे जो अभी सिर्फ पापा के लिए हैं फिर पत्नी के साथ बांटने पड़ेंगे और पापा बिलकुल अकेले पड़ जाएंगे. गुंजन का तर्क सब को समझ में आया था और सब ने उस से शादी करने के लिए कहना छोड़ दिया था. तभी प्रभव और राघव आ गए.

‘‘अंकल, गुंजन को आपरेशन के लिए ले गए हैं,’’ राघव ने बताया. ‘‘आपरेशन में काफी समय लगेगा और मरीज को होश आने में कई घंटे. हम सब को आदेश है कि अस्पताल में भीड़ न लगाएं और घर जाएं, आपरेशन की सफलता की सूचना आप को फोन पर दे दी जाएगी.’’

‘‘तो फिर अंकल घर ही चलिए, आप को भी आराम की जरूरत है,’’ प्रभव बोला.

‘‘हां, चलो,’’ रामदयाल विवश भाव से उठ खड़े हुए, ‘‘तुम्हें कहां छोड़ना होगा, राघव?’’

‘‘अभी तो आप के साथ ही चल रहे हैं हम दोनों.’’

‘‘नहीं बेटे, अभी तो आस की किरण चमक रही है, उस के सहारे रात कट जाएगी. तुम दोनों भी अपनेअपने घर जा कर आराम करो,’’ रामदयाल ने राघव का कंधा थपथपाया.

हालांकि गुंजन हमेशा उन के लौटने के बाद ही घर आता था लेकिन न जाने क्यों आज घर में एक अजीब मनहूस सा सन्नाटा फैला हुआ था. वह गुंजन के कमरे में आए. वहां उन्हें कुछ अजीब सी राहत और सुकून महसूस हुआ. वह वहीं पलंग पर लेट गए.

तकिये के नीचे कुछ सख्त सा था, उन्होंने तकिया हटा कर देखा तो एक सुंदर सी डायरी थी. उत्सुकतावश रामदयाल ने पहला पन्ना पलट कर देखा तो लिखा था, ‘वह सब जो चाह कर भी कहा नहीं जाता.’ गुंजन की लिखावट वह पहचानते थे. उन्हें जानने की जिज्ञासा हुई कि ऐसा क्या है जो गुंजन जैसा वाचाल भी नहीं कह सकता?

किसी अन्य की डायरी पढ़ना उन की मान्यताआें में नहीं था लेकिन हो सकता है गुंजन ने इस में वह सब लिखा हो यानी उस मजबूरी के बारे में जिस का जिक्र प्रभव कर रहा था. उन्होंने डायरी के पन्ने पलटे. शुरू में तो तनूजा से मुलाकात और फिर उस की ओर अपने झुकाव का जिक्र था. उन्होंने वह सब पढ़ना मुनासिब नहीं समझा और सरसरी निगाह डालते हुए पन्ने पलटते रहे. एक जगह ‘मां’ शब्द देख कर वह चौंके. रामदयाल को गुंजन की मां यानी अपनी पत्नी प्रेमा के बारे में पढ़ना उचित लगा.

‘वैसे तो मुझे कभी मां के जीवन में कोई अभाव या तनाव नहीं लगा, हमेशा खुश व संतुष्ट रहती थीं. मालूम नहीं मां के जीवनकाल में पापा उन की कितनी इच्छाआें को सर्वाधिक महत्त्व देते थे लेकिन उन की मृत्यु के बाद तो वही करते हैं जो मां को पसंद था. जैसे बगीचे में सिर्फ सफेद फूलों के पौधे लगाना, कालीन को हर सप्ताह धूप दिखाना, सूर्यास्त होते ही कुछ देर को पूरे घर में बिजली जलाना आदि.

‘मुझे यकीन है कि मां की इच्छा की दुहाई दे कर पापा सर्वगुण संपन्न और मेरे रोमरोम में बसी तनु को नकार देंगे. उन से इस बारे में बात करना बेकार ही नहीं खतरनाक भी है. मेरा शादी का इरादा सुनते ही वह उत्तर प्रदेश की किसी अनजान लड़की को मेरे गले बांध देंगे. तनु मेरी परेशानी समझती है मगर मेरे साथ अधिक से अधिक समय गुजारना चाहती है. उस के लिए समय निकालना कोई समस्या नहीं है लेकिन लोग हमें एकसाथ देख कर उस पर छींटाकशी करें यह मुझे गवारा नहीं है.’ 

रामदयाल को याद आया कि जब उन्होंने लखनऊ की जायदाद बेच कर यह कोठी बनवानी चाही थी तो प्रेमा ने कहा था कि यह शहर उसे भी बहुत पसंद है मगर वह उत्तर प्रदेश से नाता तोड़ना नहीं चाहती. इसलिए वह गुंजन की शादी उत्तर प्रदेश की किसी लड़की से ही करेगी. उन्होंने प्रेमा को आश्वासन दिया था कि ऐसा करना भी चाहिए क्योंकि उन के परिवार की संस्कृति और मान्यताएं तो उन की अपनी तरफ की लड़की ही समझ सकती है.

गुंजन का सोचना भी सही था, तनु से शादी की इजाजत वह आसानी से देने वाले तो नहीं थे. लेकिन अब सब जानने के बाद वह गुंजन के होश में आते ही उस से कहेंगे कि वह जल्दीजल्दी ठीक हो ताकि उस की शादी तनु से हो सके.

अगली सुबह अखबार में घायलों में गुंजन का नाम पढ़ कर सभी रिश्तेदार और दोस्त आने शुरू हो गए थे. अस्पताल से आपरेशन सफल होने की सूचना भी आ गई थी फिर वह अस्पताल जा कर वरिष्ठ डाक्टर से मिले थे.

‘‘मस्तिष्क में जितनी भी गांठें थीं वह सफलता के साथ निकाल दी गई हैं और खून का संचार सुचारुरूप से हो रहा है लेकिन गुंजन की पसलियां भी टूटी हुई हैं और उन्हें जोड़ना बेहद जरूरी है लेकिन दूसरा आपरेशन मरीज के होश में आने के बाद करेंगे. गुंजन को आज रात तक होश आ जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा, ‘‘आप फिक्र मत कीजिए, जब हम ने दिमाग का जटिल आपरेशन सफलतापूर्वक कर लिया है तो पसलियों को भी जोड़ देंगे.’’

शाम को अपने अन्य सहकर्मियों के साथ तनुजा भी आई थी. बेहद विचलित और त्रस्त लग रही थी. रामदयाल ने चाहा कि वह अपने पास बुला कर उसे दिलासा और आश्वासन दें कि सब ठीक हो जाएगा लेकिन रिश्तेदारों की मौजूदगी में यह मुनासिब नहीं था.

पसलियों के टूटने के कारण गुंजन के फेफड़ों से खून रिसना शुरू हो गया था जिस के कारण उस की संभली हुई हालत फिर बिगड़ गई और होश में आ कर आंखें खोलने से पहले ही उस ने सदा के लिए आंखें मूंद लीं.

अंत्येष्टि के दिन रामदयाल को आएगए को देखने की सुध नहीं थी लेकिन उठावनी के रोज तनु को देख कर वह सिहर उठे. वह तो उन से भी ज्यादा व्यथित और टूटी हुई लग रही थी. गुंजन के अन्य सहकर्मी और दोस्त भी विह्वल थे, उन्होंने सब को दिलासा दिया. जनममरण की अनिवार्यता पर सुनीसुनाई बातें दोहरा दीं.

सीमा के साथ खड़ी लगातार आंसू पोंछती तनु को उन्होंने चाहा था पास बुला कर गले से लगाएं और फूटफूट कर रोएं. उन की तरह उस का भी तो सबकुछ लुट गया था. वह उस की ओर बढ़े भी लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर दूसरी ओर मुड़ गए.

कुछ दिनों के बाद एक इतवार की सुबह राघव गुंजन का कोट ले कर आया.

‘‘इस की जेब में गुंजन की घड़ी और पर्स वगैरा हैं. अंकल, संभाल लीजिए,’’ कहते हुए राघव का स्वर रुंध गया.

कुछ देर के बाद संयत होने पर उन्होंने पूछा, ‘‘यह तुम्हें कहां मिला, राघव?’’

‘‘तनु ने दिया है.’’

‘‘तनु कैसी है?’’

‘‘कल ही उस की बहन उसे अपने साथ पुणे ले गई है, जगह और माहौल बदलने के लिए. यहां तो बम होने की अफवाहों को सुन कर वह बारबार उन्हीं यादों में चली जाती थी और यह सिलसिला यहां रुकने वाला नहीं है. तनु के बहनोई उस के लिए पुणे में ही नौकरी तलाश कर रहे हैं.’’

‘‘नौकरी ही नहीं कोई अच्छा सा लड़का भी उस के लिए तलाश करें. अभी उम्र नहीं है उस की गुुंजन के नाम पर रोने की?’’

राघव चौंक पड़ा.

‘‘आप को तनु और गुंजन के बारे में मालूम है, अंकल?’’

‘‘हां राघव, मैं उस के दुख को शिद्दत से महसूस कर रहा था, उसे गले लगा कर रोना भी चाहता था लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या, अंकल? क्यों नहीं किया आप ने ऐसा? इस से तनु को अपने और गुंजन के रिश्ते की स्वीकृति का एहसास तो हो जाता.’’

‘‘मगर मेरे ऐसा करने से वह जरूर मुझ से कहीं न कहीं जुड़ जाती और मैं नहीं चाहता था कि मेरे जरिए गुंजन की यादों से जुड़ कर वह जीवन भर एक अंतहीन दुख में जीए.’’

अंकल शायद ठीक कहते हैं.

Father’s Day Special: रिटर्न गिफ्ट- भाग 3

‘‘अंकिता, जब कभी तुम्हें भी एहसास हो जाए कि मुझे रिटर्न गिफ्ट में क्या चाहिए तो खुद ही उसे मुझे दे देना. उस फकीर की तरह मैं भी कभी तुम्हें अपने मन की इच्छा अपने मुंह से नहीं बताना चाहूंगा,’’ उन्होंने बड़ी चालाकी से सारे मामले में पहल करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी थी.

‘‘जब मुझे आप की पसंद की गिफ्ट का एहसास हो जाएगा तो मैं अपना फैसला आप को जरूर बता दूंगी, अब यहां से चलें?’’

‘‘हां,’’ उन के चेहरे पर एक उदास सी मुसकान उभरी और हम वापस गेट की तरफ चल पड़े थे.

‘‘अब आप मुझे मेरे घर छोड़ दो, प्लीज,’’ मेरी इस प्रार्थना को सुन कर वह अचानक जोर से हंस पड़े थे.

‘‘अरे, अभी एक बढि़या सरप्राइज तुम्हारे लिए बचा कर रखा है. उस का मजा लेने के बाद घर जाना,’’ वह एकदम से सहज नजर आने लगे तो मेरा मन भी तनावमुक्त होने लगा था.

मुझे सचमुच उन के घर पहुंच कर जबरदस्त सरप्राइज मिला.

उन के ड्राइंगरूम में मेरी शानदार बर्थडे पार्टी का आयोजन शिखा ने बड़ी मेहनत से किया था. उस ने बड़ी शानदार सजावट की थी. मेरी खास सहेलियों को उस ने मुझ से छिपा कर बुलाया हुआ था.

‘‘हैप्पी बर्थडे, अंकिता,’’ मेरे अंदर घुसते ही सब ने तालियां बजा कर मेरा स्वागत किया तो मेरा मन खुशी से नाच उठा था.

अचानक मेरी नजर अपनी मम्मी पर पड़ी तो मैं जोशीले अंदाज में चिल्ला उठी, ‘‘अरे, आप यहां कैसे? इस शानदार पार्टी के बारे में आप को तो कम से कम मुझे जरूर बता देना चाहिए था.’’

‘‘हैप्पी बर्थडे, माई डार्लिंग. मुझे ही शिखा ने 2 घंटे पहले फोन कर के इस पार्टी की खबर दी तो मैं तुम्हें पहले से क्या बताती?’’ उन्होंने मुझे छाती से लगाने के बाद जब मेरा माथा प्यार से चूमा तो मेरी पलकें भीग उठी थीं.

कुछ देर बाद मैं ने चौकलेट वाला केक काटा. मेरी सहेलियों ने मौका नहीं चूका और मेरे गालों पर जम कर केक मला.

खाने का बहुत सारा सामान वहां था. हम सब सहेलियों ने डट कर पेट भरा और फिर डांस करने के मूड में आ गए. सब ने मिल कर सोफे दीवार से लगाए और कमरे में डांस करने की जगह बना ली.

मस्त हो कर नाचते हुए अचानक मेरी नजर राकेशजी पर पड़ी. वह मंत्रमुग्ध से हो कर मेरी मम्मी को देख रहे थे. तालियां बजा कर हम सब का उत्साह बढ़ा रही मम्मी को कतई अंदाजा नहीं था कि वह किसी की प्रेम भरी नजरों का आकर्षण केंद्र बनी हुई थीं.

उसी पल में बहुत सी बातें मेरी समझ में अपनेआप आ गईं, राकेशजी पिछले दिनों मम्मी को पाने के लिए मेरा दिल जीतने की कोशिश कर रहे थे और मैं कमअक्ल इस गलतफहमी का शिकार हो गई कि वह मुझ से इश्क लड़ाने के चक्कर में थे.

‘तो क्या मम्मी भी उन्हें चाहती हैं?’ अपने मन में उभरे इस सवाल का जवाब पाना मेरे लिए एकाएक ही बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया.

‘‘मैं पानी पी कर अभी आई,’’ अपनी सहेलियों से यह बहाना बना कर मैं ने नाचना रोका और सीधे राकेशजी के पास पहुंच गई.

‘‘तो आप मुझ से और ज्यादा गहरे और मजबूत संबंध मेरी मम्मी को अपनी जीवनसंगिनी बना कर कायम करना चाहते हैं?’’ मेरा यह स्पष्ट सवाल सुन कर राकेशजी पहले चौंके और फिर झेंपे से अंदाज में मुसकराते हुए उन्होंने अपना सिर कई बार ऊपरनीचे हिला कर ‘हां’ कहा.

‘‘और मम्मी क्या कहती हैं आप को अपना जीवनसाथी बनाने के बारे में?’’ मैं तनाव से भर उठी.

‘‘पता नहीं,’’ उन्होंने गहरी सांस छोड़ी.

‘‘इस ‘पता नहीं’ का क्या मतलब है, सर?’’

‘‘सारा आफिस जानता है कि तुम उन की जिंदगी में अपने सौतेले पिता की मौजूदगी को स्वीकार करने के हमेशा से खिलाफ रही हो. फिलहाल तो हम बस अच्छे सहयोगी हैं. अब तुम्हारी ‘हां’ हो जाए तो मैं उन का दिल जीतने की कोशिश शुरू करूं,’’ वह मेरी तरफ आशा भरी नजरों से देख रहे थे.

‘‘क्या आप उन का दिल जीतने में सफल होने की उम्मीद रखते हैं?’’ कुछ पलों की खामोशी के बाद मैं ने संजीदा लहजे में पूछा.

‘‘अगर मैं ने बेटी का दिल जीत लिया है तो फिर यह काम भी कर लूंगा.’’

‘मेरा तो बाजा ही बजवा दिया था आप ने,’ मैं मुंह ही मुंह में बड़बड़ा उठी और फिर उन के बारे में अपने मनोभावों को याद कर जोर से शरमा भी गई.

‘‘क्या कहा तुम ने?’’ मेरी बड़बड़ाहट को वह समझ नहीं सके और मेरे शरमाने ने उन्हें उलझन का शिकार बना दिया था.

‘‘मैं ने कहा है कि मैं अभी ही आप के सवाल पर मम्मी का जवाब दिलवा देती हूं. वैसे क्या शिखा को आप के दिल की यह इच्छा मालूम है, अंकल?’’ बहुत दिनों के बाद मैं ने उन्हें उचित ढंग से संबोधित किया था.

‘‘तुम ने हरी झंडी दिखा दी तो उस की खुशी का ठिकाना नहीं रहेगा,’’ उन्होंने बड़े अधिकार से मेरा हाथ पकड़ा और मुझे उन के स्पर्श में सिर्फ स्नेह और अपनापन ही महसूस हुआ.

‘‘आप चलो मेरे साथ,’’ उन्हें साथ ले कर मैं मम्मी के पास आ गई.

मैं ने मम्मी से थोड़ा इतराते हुए पूछा, ‘‘मौम, अगर अपने साथ के लिए मैं एक हमउम्र बहन बना लूं तो आप को कोई एतराज होगा?’’

‘‘बिलकुल नहीं होगा,’’ मम्मी ने मुसकराते हुए फौरन जवाब दिया.

‘‘राकेश अंकल रिटर्न गिफ्ट मांग रहे हैं.’’

‘‘तो दे दो.’’

‘‘आप से पूछना जरूरी है, मौम.’’

‘‘समझ ले मैं ने ‘हां’ कर दी है.’’

‘‘बाद में नाराज मत होना.’’

‘‘नहीं होऊंगी, मेरी गुडि़या.’’

‘‘रिटर्न गिफ्ट में अंकल आप की दोस्ती चाहते हैं. आप संभालिए अपने इस दोस्त को और मैं चली अपनी नई बहन को खुशखबरी देने कि उस की जिंदगी में बड़ी प्यारी सी नई मां आ गई हैं,’’ मैं ने अपनी मम्मी का हाथ राकेशजी के हाथ में पकड़ाया और शिखा से मिलने जाने को तैयार हो गई.

‘‘इस रिटर्न गिफ्ट को मैं सारी जिंदगी बड़े प्यार से रखूंगा,’’ राकेशजी के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर मम्मी जिस अंदाज में लजाईंशरमाईं, वह मेरी समझ से उन के दिल में अपने नए दोस्त के लिए कोमल भावनाएं होने का पक्का सुबूत था.

स्टूडैंट लीडर – भाग 2 : जयेश की जिद

नीलेंदु ने अभ्यागत को निहारा,

‘‘क्या है?’’

जयेश ने पूछा, ‘‘सर, आप छात्र संघ चुनाव के इंचार्ज हैं?’’

नीलेंदु ने सांस छोड़ कर कहा, ‘‘हां, हूं.’’

जयेश ने कहा, ‘‘सर, मु?ो महाविद्यालय का छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ना है.’’

नीलेंदु ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, ‘‘सही में…?’’

जयेश बोला, ‘‘जी सर.’’

नीलेंदु ने विस्मय से कहा, ‘‘ठीक है.’’

 

उन्होंने एक रजिस्टर अपनी डैस्क से निकाला और उस में एंट्री करते हुए कहा, ‘‘लेकिन, मैं तुम्हें बता दूं कि तुम किस के विरुद्ध खड़े हो रहे हो – अनुरंजन नावे.’’

जयेश को कोई फर्क नहीं पड़ा, ‘‘तो…?’’

प्राध्यापक नीलेंदु ने कहा, ‘‘छात्र संघ में सभी उसे पसंद करते हैं.’’

जयेश इस बात से अनजान था. नीलेंदु ने पहली बार चुनाव लड़ने वाले इस छात्र का मनोबल परखना चाहा, ‘‘यह चुनाव लोकप्रियता पर निर्भर है. दरअसल यह लोकप्रियता प्रतियोगिता होती है. जो ज्यादा लोकप्रिय होता है, वही जीतता है.’’

यह सुन कर जयेश की भौहें तन गईं. नीलेंदु ने और हथौड़े का प्रहार किया, ‘‘स्नातकोत्तर छात्र है अनुरंजन. कितने वर्ष गुजारे हैं उस ने इस महाविद्यालय में और तुम तो अभीअभी आए हो. तुम्हें तो कोई जानता तक नहीं. मु?ो भी नहीं पता कि तुम कौन हो?’’

जयेश ने कठोरता से कहा, ‘‘चुनाव लोकप्रियता के बारे में नहीं होने चाहिए. उन्हें इस बारे में होना चाहिए कि किस के पास सब से अच्छे विचार हैं.’’

नीलेंदु ने मुंह बनाया, ‘‘और, तुम्हारे क्या विचार हैं?’’

जयेश ने तुरंत उत्तर दिया, ‘‘खेल पर कम खर्च और विज्ञान पर ज्यादा.’’

नीलेंदु उसे देखता रह गया.

शाम को जब जयेश की मुलाकात अपने मित्रों से हुई तो उस ने उन्हें इस प्रकरण से अवगत कराया, ‘‘मैं ने निश्चय किया है कि छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ं ूगा.’’

प्रसेनजीत खुश होते हुए बोला, ‘‘बहुत बढि़या.’’

संदेश ने विस्मय से प्रसेनजीत से कहा, ‘‘तुम इसे बढ़ावा दे रहे हो? चुनाव में इस का पूरा भाजीपाला निकल जाएगा. बुरी तरह से शिकस्त मिलेगी.’’

प्रसेनजीत ने नाराजगी से संदेश से कहा, ‘‘तुम्हें पूरी बात नहीं पता है.’’

संदेश बोला, ‘‘मु?ो तो यही लगता है.’’

प्रसेनजीत ने जयेश का मनोबल कायम रखने के लिए कहा, ‘‘जीत हो या हार, मु?ो तो इस बात की ही खुशी है कि तुम कोशिश कर रहे हो.’’

जयेश को शायद और प्रोत्साहन की जरूरत थी, ‘‘लेकिन तु?ो ऐसा लगता है कि मैं जीतूंगा?’’

प्रसेनजीत ने कहा, ‘‘मु?ो तो यही लगता है कि यह जीत निश्चित रूप से संभव है.’’

संदेश ने हुंकार भरी. प्रसेनजीत ने संदेश को अनदेखा कर जयेश से पूछा, ‘‘क्या तेरे पास अपने अभियान की कोई रणनीति है?’’

जयेश ने इस बारे में अभी सोचा नहीं

था, ‘‘नहीं.’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘कोई ऐसा नारा है, जो एकदम आकर्षक हो?’’

जयेश ने फिर कहा, ‘‘नहीं.’’

प्रसेनजीत ने जयेश को सम?ाते हुए कहा, ‘‘हमारी एक आंटी हैं, वृंदा कड़वे. वे हमारे इलाके का कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. मैं उन से बात करवा सकता हूं तुम्हारी.’’

प्रसेनजीत ने तुरंत अपने मोबाइल फोन से वृंदा कड़वे को फोन लगाया, ‘‘आंटी, मैं प्रसेनजीत.’’

वृंदा ने आतुर हो कर कहा, ‘‘हां, बोलो बेटा, क्या बात है?’’

प्रसेनजीत ने स्थिति सम?ाई, ‘‘मेरा एक मित्र छात्र संघ के लिए चुनाव लड़ रहा है. वह उम्मीद कर रहा है कि आप उसे कुछ सलाह दे सकती हैं.’’

 

प्रसेनजीत ने जयेश को मोबाइल थमा दिया. वृंदा ने पूछा, ‘‘बेटा, तुम कभी फेल हुए

हो क्या?’’

जयेश एक पल के लिए यह प्रश्न सुन कर चौंक गया. फिर संभल कर उस ने उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं हमेशा अव्वल दर्जे में पास हुआ हूं और मैं हमेशा सभी के साथ तमीज से पेश आता हूं. अपने व्यवहार के बारे में आज तक मैं ने किसी को कुछ कहने का मौका नहीं दिया है.’’

कारपोरेटर होने के कारण वृंदा कडवे सफाई को बेहद महत्त्व देती थीं, ‘‘तुम अपने आसपास स्वच्छता रखते हो?’’

जयेश ने जोश में कहा, ‘‘गंदगी तो मु?ो सर्वथा पसंद नहीं. आप तो खुद कारपोरेटर का चुनाव जीत चुकी हैं. क्या आप चुनाव जीतने के बारे में मु?ो कुछ सलाह दे सकती हैं?’’

 

वृंदा ने अपने अनुभव से कहा, ‘‘सब से महत्त्वपूर्ण बात है, बाहर निकलना और लोगों से जुड़ना.’’

जयेश को यह थोड़ा मुश्किल कार्य लगा. वह विज्ञान का छात्र था. वह बोला, ‘‘मु?ो लोगों से बहुत लगाव नहीं है.’’

कारपोरेटर वृंदा को अच्छे से इस बात का महत्त्व पता था, ‘‘ठीक है, तुम को

उस पर काबू पाने की आवश्यकता हो

सकती है.’’

जयेश ने इस के आगे का कदम जानना चाहा, ‘‘मान लें कि मैं यह कर सकता हूं. मैं उन से कैसे जुड़ं ू?’’

कारपोरेटर वृंदा बोली, ‘‘तुम्हारे लिए तो सब से अच्छी शुरुआत करने का तरीका है, सब के साथ दोस्ताना बना कर उन से हाथ मिलाओ.’’

हाथ मिलाने के नाम से ही जयेश के हाथ सिकुड़ गए.

अगले कुछ दिनों में जयेश ने अपना अभियान चलाया. उस ने महाविद्यालय में जगहजगह पोस्टर लगवाए. सभी छात्रों से बातचीत की और उन्हें बताया, ‘‘मेरा नाम जयेश है और मैं छात्र प्रतिनिधि बनने के लिए चुनाव लड़ रहा हूं.’’

प्रसेनजीत और संदेश ने उस का भरपूर साथ दिया. हर जगह, हर विभाग में पोस्टर दिखने लगे, ‘छात्र प्रतिनिधि के लिए जयेश को वोट दीजिए.’

सभी से मिलते समय जयेश ने उन्हें एकएक पेन देना उचित सम?ा. थोक में खरीदने पर हर पेन की कीमत महज 5 रुपए पड़ी.

ऐसे में अनजाने में उस की मुलाकात अपने प्रतिद्वंद्वी अनुरंजन नावे से हो गई. वाणिज्य विभाग की ओर जाते समय जयेश ने एक लंबे से युवक को जब पेन थमाते हुए कहा, ‘‘मैं जयेश हूं. मैं छात्र प्रतिनिधि का चुनाव लड़ रहा हूं.’’

इस पर उस युवक ने मुसकराते से कहा, ‘‘आखिरकार तुम से मुलाकात हो ही गई.’’

बड़े ही गर्मजोशी के साथ जयेश से हाथ मिला कर कहा, ‘‘मैं अनुरंजन नावे.’’

जयेश ने अपने विरोधी पक्ष पर गौर किया. उसे गौर से देखता देख अनुरंजन  ने विस्मय से पूछा, ‘‘इस पेन का क्या  करना है?’’

जयेश ने अस्पष्ट तरीके से कहा, ‘‘जो भी असाइनमैंट हम को करने के लिए मिलते हैं, वे इस से कर सकते हैं. मु?ो अपने शिक्षकों के दिए हुए असाइनमैंट न केवल अच्छे लगते हैं, बल्कि उन्हें करने में भी मजा आता है.’’

अनुरंजन ने मुसकराते हुए पैन ले लिया और कहा, ‘‘हम में से जो श्रेष्ठ है, उसी की जीत होगी.’’ और पैन ले कर वहां से चल दिया.

शाम को जयेश ने यह बात प्रसेनजीत को बताई, ‘‘वह वाकई में बहुत अच्छी तरह से पेश आया. उस का स्वभाव मु?ो अच्छा ही लगा.’’

तभी संदेश बोला, ‘‘तभी तो वह लोकप्रिय है.’’

प्रसेनजीत ने एक और रणनीति को कार्यान्वित किया, ‘‘अब ढेर सारे चौकलेट ले लेते हैं. चौकलेट सभी को पसंद आते हैं. इस से बाकियों के साथ आत्मीयता बढ़ेगी.’’

संदेश ने हामी भरी, ‘‘अच्छा तरीका है.’’

जयेश बोला, ‘‘अब मु?ो सम?ा में आ रहा है कि अमीर व्यक्ति लोगों का वोट कैसे खरीद सकते हैं.’’

परंतु अगले दिन जब जयेश महाविद्यालय पहुंचा तो उसे जैसे ?ाटका लगा. हर विभाग में उस के चित्र समेत पोस्टर लगे थे, जिन पर लिखा था, ‘जयेश को वोट देने का मतलब है ज्यादा असाइनमैंट और ज्यादा पढ़ाई.’ पोस्टर में नीचे इस प्रकार से लिखा था, ‘जयेश : ‘‘मु?ो असाइनमैंट अच्छे लगते हैं.’’ अगर आप को और असाइनमैंट नहीं चाहिए तो अनुरंजन नावे को वोट दीजिए.’

यह देख जयेश सकते में आ गया. उस ने पोस्टरों की लड़ी में से एक पोस्टर निकाल कर हाथ में ले लिया. रातोंरात अपने विरोधी पक्ष को अपने से ऊपर होता देख वह दंग रह गया. उस के ही मुंह से निकले हुए शब्द थे ये. वाणिज्य और कला के विद्यार्थी कहां असाइनमैंट जैसी चीज को पसंद करने वाले थे.

अनुरंजन नावे ने उस की यह बात पकड़ कर उसे इन दोनों विभागों के छात्रों से विमुख कर दिया था. मैनेजमैंट के छात्र भी कहां अधिक पढ़ाई चाहते थे और रही बात विज्ञान के छात्रों की तो वे भी ज्यादा बो?ा तले नहीं जीना चाहते थे. कुल मिला कर असाइनमैंट या गृहकार्य ही कोई नहीं चाहता था और अधिक की तो बात ही नहीं बनती. उस के विरोधी ने अपने हाथ खोल दिए थे. जयेश सम?ा गया कि उस का विरोधी किस हद तक जा सकता है. ऐसा काम कम से कम वह तो कभी न करता.

प्रसेनजीत ने जब वह पोस्टर देखा तो जयेश से कहा, ‘‘बहुत दुर्भाग्य की बात है.’’

जयेश ने कट्टरता से कहा, ‘‘दुर्भाग्य नहीं, बिलकुल अनुचित व्यवहार है.’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘तुम ने ये क्यों उस से कह दिया कि असाइनमैंट करना तुम को अच्छा लगता है?’’

जयेश बोला, ‘‘मैं ने तो ऐसे ही कह दिया था. मैं तो ऐसे ही सभी से यह कहता रहता हूं. मु?ो थोड़े ही पता था…’’

 

प्रसेनजीत बोला, ‘‘चुनाव के इंचार्ज नीलेंदु सर से शिकायत दर्ज कर के कोई फायदा नहीं है.’’

जयेश उन से कहने लगा, ‘‘लेकिन उस ने मेरे कथन को संदर्भ से बाहर कर दिया है और मेरे खिलाफ इस का इस्तेमाल कर रहा है.’’

प्रसेनजीत जयेश को सम?ाते हुए बोला, ‘‘कितनों को तुम संदर्भ बताते फिरोगे.’’

तभी संदेश भी वहां आ पहुंचा. सारा मसला उसे पता था. उस ने कहा, ‘‘राजनीति में ऐसा ही होता है. विरोधी पक्ष वाले सत्य को इस तरह से रबड़ की तरह खींच कर पेश करते हैं कि उस का मूल अर्थ ही गायब हो जाए.’’

जयेश बोला, ‘‘वे लोग गंदे हैं.’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘वह तो है. लेकिन मु?ो एक बात बताओ. तुम इस चुनाव को कितनी बुरी तरह से जीतना चाहते हो?’’

जयेश ने दृढ़ता से कहा, ‘‘अब तो किसी भी कीमत पर…’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘तो तु?ो सख्त होने की जरूरत है. राजनीति कमजोरों के लिए नहीं है.’’

 

यह सुन कर जयेश बोला, ‘‘तुम यह सु?ाव दे रहे हो कि मैं ईंट का जवाब पत्थर से दूं?’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘यही करना होगा. जो हो गया, उस पर विचार करते रहने से बात नहीं बनेगी.’’

संदेश ने कहा, ‘‘हमें भी कुछ सोचना पड़ेगा.’’

प्रसेनजीत ने संदेश से कहा, ‘‘संदेश, हम तीनों में से सब से ज्यादा निष्ठुर तुम हो. मैं ने कई बार तुम्हें क्रिकेट के मैदान में चीटिंग करते हुए भी देखा है.’’

संदेश को इस इलजाम से कोई फर्क नहीं पड़ा, ‘‘तो..?’’

प्रसेनजीत बोला, ‘‘इस की जवाबी कार्यवाही में क्या करना चाहिए?’’

संदेश ने सोचते हुए कहा, ‘‘अनुरंजन नावे के बारे में हमें ज्यादा कुछ पता नहीं है. हमें मनगढ़ंत कुछ बनाना पड़ेगा.’’

जयेश ने सत्य के प्रयोग पर बल दिया, ‘‘मैं ?ाठ का सहारा नहीं लूंगा.’’

संदेश बोला, ‘‘मैं छानबीन कर के पता लगाने की कोशिश करता हूं कि उस के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए कुछ मिल सकता है क्या?’’

जयेश बोला, ‘‘मैं ने तय कर लिया है कि मैं उस के स्तर तक नहीं गिरना चाहता. अगर मैं अपने विचारों की गुणवत्ता पर नहीं जीत सकता तो अपने सिर को ऊंचा रख कर हार जाना पसंद करूंगा.’’

प्रसेनजीत ने फिर भी संदेश को अनुरंजन नावे की पृष्ठभूमि खंगालने की अनुमति दे दी.

उसी दिन जयेश की मुलाकात उसी लैब के इंचार्ज से हो गई, जिस लैब में आग लगने की दुर्घटना घटी थी. उस ने लैब इंचार्ज को सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘मैं आप को यह बताना चाहता हूं कि मैं अभी भी अपने अभियान पर कड़ी मेहनत कर रहा हूं. विज्ञान विभाग के लिए और अधिक ग्रांट प्राप्त करने के लिए. आप की लैब के उपकरणों के लिए भी.’’

लैब इंचार्ज ने उदासीनता से कहा, ‘‘मु?ो दोपहर के प्रयोगों के लिए साधन जुटाने जाना है.’’

इस पर जयेश बोला, ‘‘निर्णायक जीत हासिल करने में आप जो कुछ भी मेरी मदद कर सकते हैं, वह कीजिए. लैब और प्रयोगशालाओं के उपकरणों के भविष्य का सवाल है.’’

लैब इंचार्ज ने उसी विरक्त भाव से कहा, ‘‘फैकल्टी को छात्र चुनाव में शामिल होने का अधिकार नहीं है.’’

जयेश बोला, ‘‘यह बात तो मु?ो भी सम?ा आती है कि आप को तटस्थ बने रहना है. लेकिन आप को अपनी प्रयोगशाला के लिए नए उपकरण चाहिए और मैं भी यही चाहता हूं कि आप को ऐसी मदद मिले. हमारा लक्ष्य एक ही है. हमें एकदूसरे का साथ देना चाहिए.’’

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