बीती ताहि बिसार दे – भाग 4 : देवेश के दिल की

शानिका उस से थोड़ी देर बातें करती रही. उसे पता नहीं था कि देवेश की मुग्ध निगाहें उस के चेहरे को सहला रही हैं. एकाएक शानिका ने नजरें उठाईं तो निगाहें देवेश की निगाहों से जा टकराईं. देवेश अचकचा कर निगाहें फेर उठ खड़ा हुआ और अपने स्टडीरूम में चला गया.

रागिनी ने सब कुछ ताड़ लिया. समझ गई, भोलीभाली शानिका पितापुत्र दोनों के मन में बिंध गई.

सभी लड़कियां उठ कर ड्राइंगरूम में बैठ कर गपशप करने लगीं. तभी रागिनी शानिका से बोली, ‘‘तुझे किताबें चाहिए, तो भैया से ले ले. फिर वे औफिस के लिए निकल जाएंगे.’’

‘‘तू ले आ न,’’ शानिका उस से अनुनय करती हुई बोली.

‘‘अरे मुझे क्या पता तुझे कौनकौन सी किताब चाहिए. फिर मुझे तो मना भी कर सकते पर तुझे औपचारिकतावश नहीं कर पाएंगे.’’ शानिका दुविधा में खड़ी रही.

‘‘जा न. भैया इस समय स्टडीरूम में ही हैं. 10-15 मिनट में चले जाएंगे…’’

रागिनी के जोर देने पर शानिका स्टडीरूम में चली गई. देवेश आरामकुरसी पर अधलेटा सा आंखें मूंदे बैठा था. उसे ऐसे देख कर शानिका वापस मुड़ गई.

तभी आहट सुन कर देवेश ने आंखें खोल दीं. बोला, ‘‘अरे आप, कुछ काम था मुझ से,’’ वह बोला.

आप के पास बहुत अच्छी किताबें हैं…मुझे कुछ किताबें चाहिए थीं, पढ़ने के लिए. पढ़ कर लौटा दूंगी.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. जोजो चाहिए ले लीजिए,’’ देवेश बोला.

शानिका शेल्फ खोल कर अपनी पसंद की किताबें निकालने लगी.

‘‘बहुत शौक है आप को पढ़ने का?’’ देवेश ने पूछा.

‘‘जी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा शौक है, पर कालेज की पढ़ाई के साथ कैसे कर लेती हैं ये सब?’’

‘‘बस शौक होता है तो हो जाता है. ये किताबें ले जा रही हूं. जल्दी पढ़ कर लौटा दूंगी.’’

‘‘हांहां, जब पढ़ लें तब दे दीजिएगा… जो भी किताब पढ़ना चाहें बेझिझक ले जाया करें,’’ वह प्यार भरी नजर उस पर डालते हुए बोला.

‘‘जी, थैंकयू,’’ कह कर शानिका स्टडीरूम से बाहर निकल गई. बाहर आ कर रागिनी से बोली, ‘‘तेरे भैया तो बहुत ही अच्छे हैं बात करने में. तू तो बेकार डरती है उन से. उन्होंने कहा है कि मैं जब भी किताब ले जाना चाहूं, ले जा सकती हूं.’’

रागिनी जानती थी कि इस बात से बिलकुल अनभिज्ञ है कि वह उस के भैया के दिल में कहां तक उतर गई है.

अब शानिका अकसर आती. कभी देवेश की मौजूदगी में तो कभी गैरमौजूदगी में.

कभी किताबें रख जाती कभी ले जाती. उसे पढ़ते देख देवेश भी नित नएनए लेखकों की किताबें लाता रहता. शानिका जब भी उस की मौजूदगी में आती, देवेश की मुग्ध निगाहों का घेरा उसे अपने आगोश में ले लेता. शनी तो उस से इतना घुलमिल गया था कि उसे 1 मिनट भी नहीं छोड़ता था. जब वह जाने लगती तो रोरो कर आसमान सिर पर उठा लेता. उस के साथ जाने की जिद्द करने लगता.

रागिनी सब कुछ समझ रही थी. शानिका की मौजूदगी ने देवेश को मुसकराना सिखा दिया था. उस की खोईखोई निगाहों में उसे शानिका की तसवीर दिखती. उसे लगता कि शानिका भी देवेश को पसंद करती है, पर कितना पसंद करती है, यह वह समझ नहीं पाती.

मियांबीवी राजी : क्यों करें रिश्तेदार दखलअंदाजी – भाग 1

‘‘दादू …’’ लगभग चीखती हुई झूमुर अपने दादू से लिपट गई.

‘‘अरेअरे, हौले से भाई,’’ दादू बैठे हुए भी झूमुर के हमले से डगमगा गए, ‘‘कब बड़ी होगी मेरी बिटिया?’’

‘‘और कितना बड़ी होऊं? कालेज भी पास कर लिया, अब तो नौकरी भी लग गई है मुंबई में,’’ झूमुर की अपने दादू से बहुत अच्छी घुटती थी. अब भी वह मातापिता व अपने छोटे भाई के साथ सपरिवार उन से मिलने अपने ताऊजी के घर आती, झूमुर बस दादू से ही चिपकी रहती. ‘‘अब की बार मुझे बीकानेर भी दिल्ली जितना गरम लग रहा है वरना यहां की रात दिल्ली की रात से ठंडी हुआ करती है.’’

‘‘चलो आओ, खाना लग गया है. आप भी आ जाएं बाबूजी,’’ ताईजी की पुकार पर सब खाने की मेज पर एकत्रित हो गए. मेज पर शांति से सब ने भोजन किया. अकसर परिवारों में जब सब भाईबहन इकट्ठा होते हैं तो खूब धमाचौकड़ी मचती है. लेकिन यहां हर ओर शांति थी. यहां तक कि पापड़ खाने में भी आवाज नहीं आ रही थी. ऐसा रोब था राधेश्याम यानी सब से बड़े ताऊजी का. यों देखने में उन्हें कोई इतना सख्त नहीं मान सकता था- साधारण कदकाठी, पतली काया. किंतु रोब सामने वाले के व्यक्तित्व में होता है, शरीर में नहीं. राधेश्याम का रोब पूरे परिवार में प्रसिद्घ था. न कोई उन से बहस कर सकता था और न ही कोई उन के विरुद्घ जा सकता था. कम बोलने वाले मगर अमिताभ बच्चन की स्टाइल में जो बोल दिया, सो बोल दिया.

हर साल एक बार सभी ताऊ, चाचा व बूआ अपनेअपने परिवार सहित बीकानेर में एकत्रित हुआ करते थे. पूरे परिवार को एकजुट रखने में इस एक हफ्ते की छुट्टियों का बड़ा योगदान था. चूंकि दादाजी यहीं रहते थे राधेश्याम के परिवार के साथ, इसलिए यही घर सब का हैड औफिस जैसा था.

राधेश्याम के फैक्टरी जाते ही सब भाईबहन अपने असली रंग में आ गए. शाम तक खूब मस्ती होती रही. सारी महिलाएं कामकाज निबटाने के साथ ढेर सारी गपें भी निबटाती रहीं. झूमुर के पापा व चाचा अखबार की सुर्खियां चाट कर, थोड़ी देर सुस्ता लिए.  इसी बीच झूमुर फिर अपने दादू के पास हो ली,  ‘‘कुछ बढि़या से किस्से सुनाओ न दादू.’’ बुजुर्गों को और क्या चाहिए भला. पोतेपोतियां उन के जमाने के किस्से सुनना चाहें तो बुजुर्गों में एक नूतन उमंग भर जाती है.

‘‘बात 1950 की है जब मैं हाईस्कूल में पढ़ता था. हमारे एक मास्साब थे, मतलब टीचर हरगोविंद सर. एक बार…,’’ इस से पहले कि दादू आगे किस्सा सुनाते, झूमुर बीच में ही कूद पड़ी, ‘‘स्कूल का नहीं दादू, कोई और किस्सा. अच्छा यह बताइए, आप दादी से कैसे मिले थे. आप ठहरे राजस्थानी और दादी तो बंगाल से थीं. तो आप दोनों की शादी कैसे हुई?’’

‘‘अच्छा, तो आज दादूदादी की प्रेमकहानी सुननी है?’’ कह दादू हंसे. दादी को इस जग से गए काफी समय बीत चुका था. कई वर्षों से वे अकेले थे, बिना जीवनसाथी के. अब केवल दादी की यादें ही उन का साथ देती थीं. पूर्ण प्रसन्नता से उन्होंने अपनी कहानी आरंभ की, ‘‘बात 1957 की है. मैं ने अपना नयानया कारोबार शुरू किया था. बाजार से ब्याज पर 3,500 रुपए उठा कर मैं ने यहीं बीकानेर में बंधेज के कपड़ों का कारखाना शुरू किया था. लेकिन राजस्थान का काम राजस्थान में कितना बिकता और मैं कितना  मुनाफा कमा लेता? फिर मुझे बाजार से उठाया असल और सूद भी लौटाना था, और अपने पैरों पर खड़ा भी होना था…’’

‘‘ओहो दादू, आप तो अपने कारोबार के किस्सों में उलझ गए. असली मुद्दे पर आओ न,’’ झूमुर खीझ कर बोली.

‘‘थोड़ा धीरज रख, उसी पर आ रहा हूं. कारोबार को आगे बढ़ाने हेतु मैं कोलकाता पहुंचा. वहां तुम्हारी दादी के पिताजी की अपनी बहुत बड़ी दुकान थी कपड़ों की, लाल बाजार में. उन से मुलाकात हुई. मैं ने अपना काम दिखाया, बंधेज की साडि़यों व चुन्नियों के कुछ सैंपल उन के पास छोड़े. कुछ महीनों में वहां भी मेरा काम चल निकला.’’

‘‘और दादी? वे तो अभी तक पिक्चर में नहीं आईं,’’ झूमुर एक बार फिर उतावली हो उठी.

‘‘तेरा नाम शांति रखना चाहिए था. जरा भी धैर्य नहीं. आगे सुन, दादी के पिताजी ने ही हमारी शादी की बात चलाई. मेरे पिताजी को रिश्ता भा गया और हमारी शादी हो गई.’’

यही सच है: आखिर क्या थी वह त्रासदी?

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Father’s Day Special: लाडो का पीला झबला

न जाने कितनी ख्वाहिशें  दम तोड़ती हैं दिल में, तब कहीं परवरिश होती है मुकम्मल. सुबहसुबह ही शाहिस्ता ने सोहेल से कहा, ‘‘आज वक्त निकाल कर अपने लिए नई पतलून ले आइए. अब तो रफू के धागे भी जवाब दे चुके हैं.’’

सोहेल ने बड़ी बुलंद आवाज में कहा, ‘‘बेगम का हुक्म सिरआंखों पर. आज तो दिन भी बाजार का.’’

हर जुमेरात पर शहर के छोर पर नानानानी पार्क के पास वाली सड़क पर बाजार लगता था. सोहेल ने जल्दीजल्दी अपना काम खत्म कर के बाजार का रुख कर लिया. दिमाग में हिसाब चालू था. 2 ईद गुजर चुकी थीं, उसे खुद के लिए नया जोड़ा कपड़ा लिए हुए. इस बार 25 रुपए बचे हैं, महीने के हिसाब से…

पूरे 12 किलोमीटर चलने के बाद बाजार आ ही गया. शाम बीतने को थी. अंधेरा हो चुका था. बाजार ट्यूबलाइट और बल्ब की रोशनी से जगमगा रहा था.

सोहेल ने अपनी जेब की गहराई के मुताबिक दुकान समझी और यहांवहां नजर दौड़ाने लगा. अचानक उस की नजर एक तरफ सजे हुए झबलों पर पड़ी. नीले, लाल, हरे, पीले और बहुत से रंग.

दुकानदार ने सोहेल को कुछ पतलूनें दिखाईं. मोलभाव शुरू हुआ. 20 रुपए की पतलून तय हुई.

सोहेल ने पूछा, ‘‘भाई, बच्चों के वे रंगबिरंगे झबले कितने के हैं?’’

दुकानदार ने कहा, ‘‘25 के 3. कोई मोलभाव नहीं हो पाएगा इस में.’’सोहेल ने जेब से पैसे निकाले और 3 झबले ले लिए. 12 किलोमीटर चल के घर आतेआते रात काफी हो चली थी. घर का दरवाजा खटखटाते ही शाहिस्ता ने दरवाजा तुरंत खोला, मानो वह दरवाजे से चिपक कर ही खड़ी थी.

सोहेल ने पूछा, ‘‘हमारी लाडो सो गई क्या?’’

शाहिस्ता ने जवाब दिया, ‘‘वह तो कब की सो गई. मैं तो तुम्हारी नई पतलून का इंतजार कर रही थी.’’

सोहेल ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘बेगम, आप का इंतजार और लंबा हो गया.’’

शाहिस्ता ने पैकेट खोला और उस में से निकले 3 झबले. उस ने बिना कुछ कहे खाना निकालना सही समझा. खाना लगा कर उस ने सिलाई मशीन में तेल डाला, काला धागा निकाला और पुरानी पतलून को रफू करने लगी.

सोहेल ने खाना खाते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘लाडो के ऊपर पीला झबला तो बड़ा ही खूबसूरत लगेगा. क्यों शाहिस्ता…’’

शाहिस्ता ने दांतों से धागा काटते हुए कहा, ‘‘लो, तुम्हारी पतलून फिर से तैयार हो गई.’’

Father’s Day Special- मरीचिका: बेटी की शादी में क्यों दीवार बना एक बाप?

रूपाली के पांव जमीन पर कहां पड़   रहे थे. आज उसे ऐसा लग रहा था मानो सारी खुशियां उस की झोली में आ गिरी थीं. स्कूलकालेज में रूपाली को बहुत मेधावी छात्रा नहीं समझा जाता था. इंजीनियरिंग में दाखिला भी उसे इसलिए मिल गया क्योंकि वहां छात्राओं के लिए आरक्षण का प्रावधान था. हां, दाखिला मिलने के बाद रूपाली ने पढ़ाई में अपनी सारी शक्ति झोंक दी थी. अंतिम वर्ष आतेआते उस की गिनती मेधावी छात्रों में होने लगी थी.

कालेज के अंतिम वर्ष में कैंपस चयन के दौरान अमेरिका की एक मल्टीनैशनल कंपनी ने उसे चुन लिया तो उस के हर्ष की सीमा न रही. कंपनी ने उसे प्रशिक्षण के लिए अमेरिका के अटलांटा स्थित अपने कार्यालय भेजा. वहां से प्रशिक्षण ले कर लौटने पर रूपाली को कंपनी ने उसी शहर में स्थित अपने कार्यालय में ही नियुक्त कर दिया. आसपास की कंपनियों में उस के कई मित्र व सहेलियां काम करते थे. कुछ ही दिनों बाद रूपाली का घनिष्ठ मित्र प्रद्योत भी उसी कंपनी में नियुक्ति पा कर आ गया तो उसे लगा कि जीवन में और कोई चाह रह ही नहीं गई है. 23 वर्ष की आयु में 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष का वेतन तथा अन्य सुविधाएं. प्रद्योत जैसा मित्र तथा मित्रों व संबंधियों द्वारा प्रशंसा की झड़ी. ऐसे में रूपाली के मातापिता भी कुछ कहने से पहले कई बार सोचते थे.

‘‘हमारी रूपाली तो बेटे से बढ़ कर है. पता नहीं लोग क्यों बेटी के जन्म पर आंसू बहाते हैं,’’ पिता गर्वपूर्ण स्वर में रूपाली की गौरवगाथा सुनाते हुए कहते. कंपनी 8 लाख रुपए सालाना वेतन देती थी तो काम भी जम कर लेती थी. रूपाली 7 बजे घर से निकलती तो घर लौटने में रात के 10 बज जाते थे. सप्ताहांत अगले सप्ताह की तैयारी में बीत जाता. फिर भी रूपाली और प्रद्योत सप्ताह में एक बार मिलने का समय निकाल ही लेते थे. मां वीणा और पिता मनोहर लाल को रूपाली व प्रद्योत के प्रेम संबंध की भनक लग चुकी थी. इसलिए उन्हें दिनरात यही चिंता सताती रहती थी कि कहीं ऐसा न हो कि कोई कुपात्र लड़का उन की कमाऊ बेटी को ले उड़े और वे देखते ही रह जाएं.

उधर अच्छी नौकरी मिलते ही विवाह के बाजार में रूपाली की मांग साधारण लड़कियों की तुलना में कई गुना बढ़ गई थी. अब उस के लिए विवाह प्रस्तावों की बाढ़ सी आने लगी थी. वीणा और मनोहर लाल का अधिकांश समय उन प्रस्तावों की जांचपरख में ही बीतता. समस्या यह थी कि जो भी प्रस्ताव आते उन की तुलना, जब वे अपनी बेटी के साथ करते तो तमाम प्रस्ताव उन्हें फीके जान पड़ते. ऐसे में रूपाली ने जब प्रद्योत के साथ  विवाह करने की बात उठाई तो मां  वीणा के साथ पिता मनोहर लाल भी भड़क उठे. ‘‘माना कि कालेज के समय से तुम प्रद्योत को जानती हो, पर तुम ने उस में ऐसा क्या देखा जो उस से विवाह करने की बात सोचने लगीं?’’ मनोहर लाल ने गरज कर पूछा.

‘‘पापा, उस में क्या नहीं है? वह सभ्य, सुसंस्कृत परिवार का है. उस का अच्छा व्यक्तित्व है. सब से बड़ी बात तो यह है कि वह हर क्षण मेरी सहायता को तत्पर रहता है और हम एकदूसरे को बहुत चाहते भी हैं.’’

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई अपने बारे में इस प्रकार के निर्णय लेने की? कान खोल कर सुन लो, यदि तुम ने मनमानी की तो समझ लेना कि हम तुम्हारे लिए मर गए,’’ मनोहर लाल के तीखे स्वर ने रूपाली को बुरी तरह डरा दिया.

‘‘पापा, आप एक बार प्रद्योत से मिल तो लें, मुझे पूरा विश्वास है कि आप उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे.’’

‘‘इतना समझाने के बाद भी तुम ने प्रद्योत के नाम की रट लगा रखी है? वह न हमारी भाषा बोलता है न हमारे क्षेत्र का है. हमारे रीतिरिवाजों तक को नहीं जानता. एक साधारण से परिवार के प्रद्योत में तुम्हें बड़ी खूबियां नजर आ रही हैं. कमाता क्या है वह? तुम से आधा वेतन है उस का. हम तुम्हारी खुशी के लिए तुम्हारे छोटे भाईबहन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकते,’’ मनोहर लाल का प्रलाप समाप्त हुआ तो रूपाली फूटफूट कर रो पड़ी. पिता का ऐसा रौद्ररूप उस ने पहले कभी नहीं देखा था.

मांदेर तक उस की पीठ पर हाथ फेर कर उसे चुप कराती रहीं, ‘‘तू तो मेरी बहुत समझदार बेटी है. ऐसे थोड़े ही रोते हैं. तेरे पापा तेरी भलाई के लिए ही कह रहे हैं. कल ही कह रहे थे कि हमारी रूपाली ऐसीवैसी नहीं है. 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष वेतन पाती है. वे तो ऐसा वर ढूंढ़ रहे हैं जो कम से कम 20 लाख प्रतिवर्ष कमाता हो.’’

‘‘मां, मैं भी पढ़ीलिखी हूं, अपने पैरों पर खड़ी हूं. जब आप ने मुझे हर क्षेत्र में स्वतंत्रता दी है तो अपना जीवनसाथी चुनने में क्यों नहीं देना चाहतीं?’’ रूपाली बिलख उठी थी.

‘‘क्योंकि हम तुम्हारा भला चाहते हैं. विवाह के बारे में उठाया गया तुम्हारा एक गलत कदम तुम्हारा जीवन तबाह कर देगा,’’ मां ने पुन: उसे समझाया.

मनोहर लाल ने भी पत्नी की हां में हां मिलाई.

‘‘आप का निर्णय सही ही होगा, इस का भरोसा आप दिला सकते हैं?’’ रूपाली आंसू पोंछ उठ खड़ी हुई.

‘‘देखा तुम ने?’’ मनोहर लाल बोले, ‘‘कितनी ढीठ हो गई है तुम्हारी बेटी. यह इस का ऊंचा वेतन बोल रहा है. अपने सामने तो किसी को कुछ समझती ही नहीं. पर मैं एक बात पूर्णतया स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि अपनी इच्छा से इस ने विवाह किया तो मेरा मरा मुंह देखेगी.’’

‘‘रूपाली, मैं तुझ से अपने सुहाग की भीख मांगती हूं. तू ने कुछ ऐसावैसा किया तो तेरे छोटे भाईबहन अनाथ हो जाएंगे,’’ मां वीणा ने बड़े नाटकीय अंदाज में अपना आंचल फैला दिया.

उस दिन बात वहीं समाप्त हो गई. अब दोनों ही पक्षों को एकदूसरे की चाल की प्रतीक्षा थी. रूपाली अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. यों उस ने प्रद्योत को सबकुछ बता दिया था. अब प्रद्योत को अपने परिवार की चिंता सताने लगी थी. हो सकता है वे भी इस विवाह को स्वीकार न करें.

‘‘यदि मेरे मातापिता ने भी इस विवाह का विरोध किया तो हम क्या करेंगे, रूपाली?’’ प्रद्योत ने प्रश्न किया.

‘‘विवाह नहीं करेंगे और क्या. तुम्हें नहीं लगता कि अभी हमें 4-5 वर्ष और प्रतीक्षा करनी चाहिए. शायद तब तक हमारे मातापिता भी हमारी पसंद को स्वीकार करने को तैयार हो जाएं,’’ रूपाली ने स्पष्ट किया.

‘‘तुम ठीक कहती हो. सच कहूं, तो मैं ने अभी तक विवाह के बारे में सोचा ही नहीं है,’’ प्रद्योत ने उस की हां में हां मिलाई तो रूपाली एक क्षण के लिए चौंकी अवश्य थी फिर एक फीकी सी मुसकान फेंक कर उठ खड़ी हुई.

उस के मातापिता का वरखोजी अभियान पूरे जोरशोर से चल रहा था. उन की 8 लाख रुपए प्रतिवर्ष वेतन पाने वाली बेटी के लिए योग्य वर जुटाना इतना सरल थोड़े ही था. अधिकतर तो उन के मापदंडों पर खरे ही नहीं उतरते थे. जो उन्हें पसंद आते उन के समक्ष इतनी शर्तें रख दी जातीं कि वे भाग खड़े होते. कोई 1-2 ठोकबजा कर देखने पर खरे उतरते तो उन्हें ई-मेल, पता आदि दे कर रूपाली से संपर्क करने की अनुमति मिलती.

अपने एक दूर के संबंधी के पुत्र मधुकर को मनोहर लाल ने भावी वरों की सूची में सब से ऊपर रखा था. इस बीच प्रद्योत को एक अन्य कंपनी में नौकरी मिल गई थी और वह शहर छोड़ कर चला गया था.

 

मनोहर लाल ने मधुकर के मातापिता से स्पष्ट कह दिया था कि उन की लाड़ली बेटी रूपाली हैदराबाद छोड़ कर मुंबई नहीं जाएगी. मधुकर को ही मुंबई छोड़ कर हैदराबाद आना पड़ेगा. मधुकर और उस के मातापिता के लिए यह आश्चर्य का विषय था. उन्होंने तो यह सोच रखा था कि रूपाली विवाह के बाद मधुकर के साथ रहने आएगी. पर मनोहर लाल ने साफ शब्दों में बता दिया था कि इतनी अच्छी नौकरी छोड़ कर रूपाली कहीं नहीं जाएगी. मधुकर ने रूपाली को समझाने का प्रयत्न अवश्य किया था पर उस ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह चाह कर भी मातापिता की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करेगी. बात आईगई हो गई थी. दोनों ही पक्ष एकदूसरे की ओर से पहल की आशा लगाए बैठे थे. दूसरे पक्ष की शर्तें मानने में उन का अहं आड़े आता था. फिर तो यह सिलसिला चल निकला, सुयोग्य वर ढूंढ़ा जाता. शुरुआती बातचीत के बाद फोन नंबर, ई-मेल आईडी आदि रूपाली को सौंप दिए जाते. विचारों का आदानप्रदान होता. घंटों फोन पर बातचीत होती पर बात न बनती.

अब मनोहर बाबू जेब में रूपाली का फोटो और जन्मपत्रिका लिए घूमते. अब उन की शर्तें कम होने लगी थीं. स्तर भी घटने लगा था. अब उन्हें रूपाली से कम वेतन वाले वर को स्वीकार करने में भी कोई एतराज नहीं था.

इसी प्रकार 4 साल बीत गए पर कहीं बात नहीं बनती देख मनोहर लाल ने रूपाली के छोटे भाई व बहन के विवाह संपन्न करा दिए. अब रूपाली के लिए वर खोजने की गति भी धीमी पड़ने लगी थी. न जाने क्यों उन्हें लगने लगा था कि रूपाली का विवाह असंभव नहीं पर कठिन अवश्य है.

उस दिन सारा परिवार छुट्टी मनाने के मूड में था. मां वीणा ने रात्रिभोज का उत्तम प्रबंध किया था. मनोहर लाल नई फिल्म की एक सीडी ले आए थे.

फिल्म शुरू ही हुई थी कि दरवाजे की घंटी बजी.

‘‘कौन?’’ मां वीणा ने झुंझलाते हुए दरवाजा खोला तो सामने एक आकर्षक युवक खड़ा था.

‘‘कहिए?’’ मां ने युवक से प्रश्न किया.

‘‘जी, मैं रूपाली का मित्र, 2 दिन पहले ही आस्ट्रेलिया से लौटा हूं.’’

अपना नाम सुनते ही रूपाली दरवाजे की ओर लपकी थी.

‘‘अरे, प्रद्योत तुम? कहां गायब हो गए थे. मैं ने कई मेल भेजे पर सब व्यर्थ.’’

‘‘अब तो मैं स्वयं आ गया हूं मिलने. रूपाली, मेरी नियुक्ति इसी शहर में हो गई है,’’ प्रद्योत का उत्तर था.

कुछ देर बैठने के बाद उस ने जाने की अनुमति मांगी तो मनोहर लाल और वीणा ने उसे रात्रि भोज के लिए रोक लिया.

‘‘कहां रहे इतने दिन? और आज इस तरह अचानक यहां आ टपके?’’ एकांत मिलते ही रूपाली ने आंखें तरेरीं.

‘‘तुम ने खुद ही प्रतीक्षा करने के लिए कहा था. पर अब मैं और प्रतीक्षा नहीं कर सकता इसलिए तुम्हारा हाथ मांगने स्वयं ही चला आया,’’ प्रद्योत बोला तो रूपाली की आंखें डबडबा आईं.

‘‘मेरे मातापिता नहीं मानेंगे,’’ किसी प्रकार उस ने वाक्य पूरा किया.

‘‘मैं ने सब सुन लिया है. हम से पूछे बिना ही तुम ने कैसे सोच लिया कि हम नहीं मानेंगे,’’ दोनों का वार्त्तालाप सुन कर मनोहर लाल बोले थे.

‘‘पता नहीं मेरा वेतन रूपाली के वेतन से अधिक है या कम. हमारी भाषाक्षेत्र सब अलग है. पर मैं आप को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मैं आप की बेटी को सिरआंखों पर बिठा कर रखूंगा,’’ प्रद्योत ने हाथ जोड़ कर कहा तो मनोहर लाल ने उसे गले लगा लिया.

‘‘मैं भी न जाने किस मृगमरीचिका में भटक रहा था. बहुत देर से समझ में आया कि मन मिले हों तो अन्य किसी वस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता,’’ मनोहर लाल बोले.

रूपाली कभी प्रद्योत को तो कभी अपने मातापिता को देख रही थी. उस की आंखों में सैकड़ों इंद्रधनुष झिल- मिला उठे थे.

Father’s Day Special-पापा के लिए: सौतेली बेटी का त्याग

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Father’s Day Special- बेटी : पापा के प्यार को तरसती मरियम

जब वह छोटी थी, तो मां यह कह कर उसे बहला दिया करती थी कि पापा परदेश में नौकरी कर रहे हैं और उस के लिए ढेर सारा पैसा ले कर आएंगे. लेकिन मरियम अब बड़ी हो गई थी और स्कूल जाने लगी थी. एक बार मरियम ने मां से कहा, ‘‘मम्मी, न तो पापा खुद आते हैं, न ही कभी उन का फोन आता है. क्या वे हम से नाराज हैं?’’

मरियम के इस सवाल पर फिरदौस कहतीं, ‘‘नहीं बेटी, तुम्हारे पापा तो दुनिया में सब से अच्छे पापा हैं. वे हम लोगों से बहुत प्यार करते हैं, लेकिन वे जहां नौकरी करते हैं, वहां छुट्टी नहीं मिलती है, इसीलिए आ नहीं पाते हैं.’’

मां की बातों से मरियम को तसल्ली तो मिल जाती, लेकिन पिता की याद कम नहीं हो पाती थी. समय हवा के झोंके की तरह बीतता रहा. मरियम अब 5वीं जमात की एक समझदार बच्ची बन चुकी थी. एक दिन स्कूल की छुट्टी के समय मरियम ने देखा कि उस के स्कूल की एक छात्रा सुमन ने दौड़ कर अपने पापा के गले से लिपट कर कहा कि आज हम पहले आइसक्रीम खाएंगे, उस के बाद घर जाएंगे. यह देख कर मरियम को अपने पापा की याद बहुत आई. वह स्कूल से घर आई, तो बगैर कुछ खाएपीए सीधे अपने कमरे में जा कर लेट गई. घर के काम निबटा कर फिरदौस मरियम के पास आ कर बैठ गईं और उस के काले खूबसूरत बालों में हाथ से कंघी करते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है, आज हमारी बेटी कुछ उदास लग रही है?’’ फिरदौस का इतना पूछना था कि मरियम फफक कर रो पड़ी, ‘‘मम्मी, आप मुझ से झूठ बोलती हैं न कि पापा दुबई में नौकरी करते हैं? अगर वे दुबई में हैं, तो फोन पर हम लोगों से बात क्यों नहीं करते हैं?’’

अब फिरदौस के लिए सचाई को छिपा कर रख पाना बहुत मुश्किल हो गया.

‘‘अच्छा, पहले तुम खाना खा लो. आज मैं तुम्हें सबकुछ सचसच बता दूंगी,’’ कहते हुए फिरदौस मरियम के लिए खाना लेने चली गईं. जब फिरदौस खाना ले कर कमरे आईं, तो मरियम ने उन से कहा, ‘‘मम्मी, आप को पापा के बारे में जोकुछ बताना है, बताती जाइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा इंजीनियर थे और दुबई में नौकरी करते थे. मैं भी उन्हीं के साथ रहती थी.’’

‘‘मम्मी, आप बारबार ‘थे’ शब्द का क्यों इस्तेमाल कर रही हैं? क्या पापा अब इस दुनिया में नहीं हैं?’’ इतना कह कर वह रोने लगी.

‘‘नहीं बेटी, पापा जिंदा हैं.’’

मरियम तुरंत आंसू पोंछ कर चुप हो गई. उसे डर था कि कहीं मम्मी सचाई बताए बगैर चली न जाएं. फिरदौस ने बात का सिलसिला फिर से शुरू करते हुए कहा, ‘‘12 साल पहले की बात है, जब तुम्हारे पापा और मैं दुबई से भारत आए थे. हम दोनों ही बहुत खुश थे, लेकिन हमें क्या पता था कि इस के बाद हम सब एक ऐसी मुसीबत में पड़ जाएंगे, जिस से छुटकारा पाना नामुमकिन हो जाएगा.’’

‘‘शहर में दंगा हो गया. हिंदू और मुसलमान एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. ‘‘जैसेतैसे कर के जब फसाद थोड़ा थमा, तो हम दुबई जाने के लिए तैयार हो गए. यह भी एक अजीब इत्तिफाक था कि जिस दिन हमारी फ्लाइट थी, उसी दिन शहर में बम धमाके हो गए. इस में काफी लोगों की जानें चली गईं. ‘‘हम लोग दुबई तो पहुंच गए, लेकिन भारत से आने वाली हर खबर बड़ी संगीन थी. बम धमाकों के अपराधियों में तुम्हारे पापा का नाम भी आ रहा था.

‘‘तुम्हारे पापा को यह बात नामंजूर थी कि उन्हें कोई देशद्रोही या आतंकवादी समझे. उन्होंने किसी तरह भारत में रहने वाले अपने घरपरिवार और दोस्तों के जरीए पुलिस तक यह बात पहुंचाई कि वे बेकुसूर हैं और अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए भारत आना चाहते हैं. कुछ दिनों के बाद तुम्हारे पापा भारत आ गए. ‘‘फिर वही हुआ, जिस का डर था. पुलिस ने हाथ आए तुम्हारे बेगुनाह मासूम पापा को उन बम धमाकों का मास्टरमाइंड बना कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया.

‘‘पिछले 12 सालों से तुम्हारे पापा जेल में हैं,’’ इतना कह कर फिरदौस फूटफूट कर रोने लगीं.

मरियम ने किसी संजीदा शख्स की तरह पूछा, ‘‘क्या मैं अपने पापा से मिल सकती हूं?’’

‘‘हां बेटी, जरूर मिल सकती हो,’’ फिरदौस ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर रविवार को तुम्हारे पापा से मिलने जेल जाती हूं. अब तुम भी मेरे साथ चल सकती हो.’’ 12 साल की बेटी जब सामने आई, तो शहजाद ने अपना चेहरा छिपा लिया. अपनी बेटी के सामने वे एक अपराधी की तरह जेल की सलाखों के पीछे खड़े हो कर जमीन में धंसे जा रहे थे.

‘‘पापा, क्या आप सचमुच अपराधी हैं?’’ मरियम के इस सवाल पर शहजाद घबरा गए.

‘‘बेटी, तुम्हारे पापा बेकुसूर हैं. उन्होंने कोई जुर्म नहीं किया है. बस, हालात ने जेल की सलाखों के पीछे ला कर खड़ा कर दिया है,’’ इतना कह कर शहजाद बेटी की तरफ देखने लगे.

‘‘पापा, आप निश्चिंत हो जाइए. चाहे सारी दुनिया आप को अपराधी समझे, पर बेटी की नजर में आप एक ईमानदार नागरिक और देशभक्त रहेंगे.’’ अब मरियम हर रविवार को अपने पापा से मिलने जेल जाने लगी. वह जब भी पापा से मिलने जाती, तो उन की पसंद की खाने की कोई न कोई चीज बना कर ले जाती और अपने हाथों से खिलाती. बापबेटी की इस मुलाकात को 10 साल और गुजर गए. 22 साल की मरियम अब स्कूल से निकल कर कालेज में जाने लगी थी.

पिछले 10 सालों से जेल का पूरा स्टाफ पिता और बेटी का मुहब्बत भरा मेलमिलाप बड़े शौक से देखता चला आ रहा था. शहजाद ने अपनी जिंदगी के 22 साल जेल में कुछ इस तरह बिता दिए कि दुश्मन भी दोस्त बन गए. अनपढ़ कैदियों को पढ़ाना, बीमार कैदियों की सेवा करना व जरूरतमंद कैदियों की मदद करने की आदत ने उन्हें जेल में मशहूर बना दिया था. कानून अंधा होता है, यह सिर्फ कहावत ही नहीं, बल्कि सच भी है. वह उतना ही देखता है, जितना उसे दिखाया जाता है. कानून के रखवालों ने शहजाद को एक आतंकवादी बना कर पेश किया था. उन के खिलाफ जो तानाबाना बुना गया, वह इतना मजबूत था कि इस अपराध से छुटकारा पाना उन के लिए नामुमकिन हो गया. वैसे भी जिस पर आतंकवाद का ठप्पा लग जाए, फिर उस की सुनता कौन है? शहजाद के साथ मुल्क के नामीगिरामी वकील थे, लेकिन सब मिल कर भी उन्हें बेगुनाह साबित करने में नाकाम रहे.

निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक ने मौत की सजा को बरकरार रखा. मरियम और फिरदौस की दया की अपील को राष्ट्रपति महोदय ने भी ठुकरा दिया. फांसी की तारीख तय हो गई. सुबह 4 बजे शहजाद को फांसी दी जानी थी. मरियम और फिरदौस के साथ जेल के कैदी भी उदास थे. फिरदौस और मरियम आखिरी दीदार के लिए शहजाद की कोठरी में भेजे गए. बेटी और बीवी को देख शहजाद की आंखों की वीरानी और बढ़ गई. मरियम ने बाप की हालत देख कर कहा, ‘‘पापा, आप की मौत का हम लोग जश्न मनाएंगे. लीजिए, आखिरी बार बेटी के हाथ की बनी खीर खा लीजिए.’’

शहजाद एक फीकी मुसकराहट के साथ करीब आए, तो मरियम ने अपने हाथों से उन्हें खीर खिलाई. 2 चम्मच खीर खाने के बाद ही शहजाद का चेहरा जर्द पड़ने लगा. मुंह से खून की उलटी शुरू हो गई. शहजाद को उलटी करते देख जहां फिरदौस घबरा गईं, वहीं मरियम ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पापा, आप की बेगुनाही तो साबित न करा सकी, लेकिन आप को फांसी से बचा लिया.

‘‘अब दुनिया यह न कह सकेगी कि आतंकवाद के अपराध में शहजाद को फांसी पर लटका दिया गया. आप को इज्जत की जिंदगी तो न मिल सकी, पर हां, इज्जत की मौत जरूर मिल गई.’’ फिरदौस की चीख सुन कर जब तक पहरेदार शहजाद की खबर लेते, तभी मरियम ने भी जहरीली खीर के 2 चम्मच खा लिए. जेल की उस काल कोठरी में अब 2 लाशें पड़ी थीं. एक को अदालत ने आतंकवादी होने की उपाधि दी थी, तो दूसरी को समाज ने आतंकवादी की बेटी करार दिया था. दोनों ही समाज और दुनिया से अब आजाद हो चुके थे.

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