सजा के बाद सजा : भाग 3

जज साहब ने विनय को अपनी बेटी की नाबालिग सहेली के साथ बलात्कार करने के लिए 10 साल की सजा सुना दी. वे खुद को बेगुनाह बताते रहे, पर किसी ने उन पर विश्वास नहीं किया. जेल में भी उन के साथ गलत बरताव हुआ. उन्होंने हवलदार के खिलाफ मानवाधिकार आयोग में शिकायत दर्ज करा दी, पर उस के हाथ जोड़ने पर वे पिघल गए. इसी बीच विनय ने अपने घर पर कई चिट्ठियां लिखीं, पर कोई जवाब नहीं आया.

‘विनय को जेल में 10 साल पूरे होने में कुछ समय ही रह गया था. कभीकभी वे सोचते रहते कि 50 साल के उस विनय में ऐसा क्या था कि उन की बेटी की सहेली, जो 17 साल की होगी, उन पर रीझ गई? प्यार था, खिंचाव था या बेहूदा फिल्में?

अगर विनय ‘हां’ कर देते, तो शायद यह नौबत नहीं आती. लेकिन उम्रदराज आदमी आगे की सोचता है और इसी सोच के चलते उन्होंने उसे अपनी बच्ची समझ कर समझाया, लेकिन वह बच्ची नहीं थी. उस में तो जवानी का उफान था. उन्होंने जो किया, ठीक किया. लेकिन उन के मना करते ही वह लड़की घायल नागिन की तरह बिफर गई थी.

उस लड़की ने जा कर सीधे थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी. एक अच्छीखासी कहानी बना कर. उस लड़की ने रिपोर्ट में लिखवाया था कि हमेशा की तरह वह अपनी सहेली से मिलने उस के घर गई. सहेली और उस की मां व भाई अचानक अपने मामा के यहां गए थे. घर में अकेले अंकल थे. उन्होंने उसे बिठाया, बताया और जूस पिलाया. जूस में न जाने क्या मिलाया था कि वह बेहोश हो गई. जब होश आया, तो वह लुट चुकी थी.

यह तो ठीक है कि उस दिन विनय की पत्नी और बच्चे मामा के घर गए थे. वह लड़की आई भी थी. उसे जूस भी पिलाया था, लेकिन यह बलात्कार कहां से आ गया. फिर उस के घर वालों के मुताबिक वह रातभर घर नहीं आई थी, तो कहां गई होगी? क्या अपनी सैक्स की आग बुझाने के लिए अपने किसी यार के साथ रातभर रही और सुबह घर पहुंची? तभी तो मैडिकल रिपोर्ट में वीर्य होने की पुष्टि पाई गई थी. लेकिन वह वीर्य किस का था, यह तो साफ नहीं हुआ था.

जज ने भी माना कि एक नाबालिग लड़की क्यों झूठ बोलेगी? वह 50 साल के बूढ़े को क्यों फंसाना चाहेगी? उस लड़की के मातापिता ने कहा था कि उन की लड़की अपनी सहेली के घर हमेशा पढ़ने जाती थी. आसपड़ोस का मामला था. लड़की अकसर रात में सहेली के घर रुक भी जाती थी. वह उस दिन भी बोल कर गई थी कि सहेली के घर जा रही है, फिर अकेली लड़की और कहीं रात में कैसे जा सकती है और क्यों?

यह भी साबित हो गया था कि उस रात विनय का परिवार घर पर नहीं था. वे अकेले थे. साफ था कि बलात्कार करने वाले वही थे. विनय ने बताया कि लड़की सैक्स करना चाहती थी और उन्होंने मना कर दिया, तो गुस्से में लड़की यह आरोप लगा रही है. उन्होंने तो उसी समय उसे अपने घर से बाहर कर दिया था.

ये बातें सुन कर विपक्ष का वकील क्या, मजिस्ट्रेट, खुद विनय का वकील भी हंसने लगा था. उन का सच कितना खोखला साबित हुआ था. अच्छे चालचलन के चलते विनय की रिहाई समय से पहले ही आ गई. शायद साढ़े 9 साल के बाद विनय जब जेल के बड़े दरवाजे से बाहर निकलने लगे, तो वही हवलदार मिला, जो कभी उन्हें गालियां दे कर बेइज्जत करता था. वह अब सबइंस्पैक्टर की पोस्ट पर था.

उस ने हंस कर कहा, ‘‘रिहाई की बधाई हो भाई.’’ ‘‘जी सर, पर आप से एक बात कहूं. अब तो मैं ने पूरी सजा भी काट ली, लेकिन मैं ने कोई बलात्कार नहीं किया था. वह मेरी बेटी की सहेली थी. मैं ने उस से कभी उस की जाति भी नहीं पूछी थी,’’ यह बात विनय ने इतनी पीड़ा भरी आवाज में कही कि उस हवलदार बने इंस्पैक्टर की भी आंखें भर आईं.

उस ने कहा, ‘‘मुझे आप की बात पर पूरा भरोसा है. मैं ने आप की जो बेइज्जती की थी, वह गुस्से में आ कर की थी. बाकी कुछ भी न सोचा. जब मेरे साथ गुजरी, तो समझ आया कि धर्म और जाति से ऊपर सब से बड़ी जाति एक ही है, औरत जाति और मर्द जाति. मुझे माफ कर देना.’’ विनय बाहर आ कर अपनी ससुराल गए, तो पहला धक्का उन्हें तब लगा, जब पता चला कि उन की पत्नी को गुजरे काफी समय हो गया है. उन्होंने पूछा, ‘‘मुझे क्यों नहीं बताया गया? क्यों नहीं बुलाया गया?’’

उन के साले ने शांत लहजे में कहा, ‘‘तुम्हें बुलाने के लिए कोर्ट की इजाजत लेनी पड़ती, फिर कोई सिपाही तुम्हें हथकड़ी में बांध कर लाता. फिर नए सिरे से बहस और बातें शुरू हो जातीं.’’ ‘‘मेरी बेटी कहां है?’’ विनय ने रो कर पूछा.

साले ने कहा, ‘‘उस का कहीं भी रिश्ता नहीं हो पा रहा था. हम जहां रिश्ता ले कर जाते, आप की बदनामी पहले पहुंच जाती. आखिर में हम ने यह कहना शुरू कर दिया कि इस का बाप मर गया है. दहेज देने को था नहीं. आखिरकार सब ने मिल कर तय किया और उस की शादी एक विधुर से करा दी, जिस का पहले से एक बच्चा था. ‘‘आप से निवेदन है कि अगर अपनी बेटी की जिंदगी बरबाद नहीं करना चाहते, तो उस से मिलने की कोशिश भी मत करना.’’

विनय की आंखों में आंसू आ गए. किस गुनाह की सजा मिल रही है उन्हें? क्या उन की सजा अभी खत्म नहीं हुई है? क्या वे 6 महीने पहले छूट जाने का हर्जाना भर रहे हैं? विनय ने अपने बेटे के बारे में पूछा, तो उन्हें बेटे का पता दे दिया गया. लेकिन कोई उन के साथ जाने को तैयार नहीं हुआ.

विनय पता ले कर बेटे के घर की तरफ निकल पड़े. उन्हें अपने साले से ही पता चला कि बेटा एक अच्छी सरकारी नौकरी में है. उस की शादी भी हो चुकी है. वह एक बेटी का पिता भी है. उन्होंने दरवाजे पर खड़े दरबान से कहा, ‘‘साहब से कहो कि उन के पिताजी आए हैं.’’

दरबान ने यह बात भीतर जा कर कही, तो बेटे ने दरबान से कहा, ‘‘उन्हें मेरे दफ्तर का पता दे कर वहीं मिलने को कहो.’’ जब दरबान ने विनय से यह बात कही, तो उन्हें तगड़ा झटका लगा. वे वहीं गश खा कर गिरतेगिरते बचे. वे समझ गए कि बेटा उन से बच रहा है.

विनय ने सोचा भी कि बेटा उन से नहीं मिलना चाहता, तो वे क्यों उस के दफ्तर जाएं. लेकिन उन के पास न रुपएपैसे थे और न कोई ठिकाना. फिर पिता का दिल था. वे चाहते थे कि एक बार अपने बेटे की शक्ल तो देख लें. विनय बेटे के दफ्तर पहुंचे. पिता को देख कर उस ने उन्हें अपने केबिन में बुलाया और बेमन से पैर छूने की कोशिश की.

यह देख कर विनय की आंखों में आंसू आ गए. उन्होंने बेटे को गले लगाने की सोची कि इतने में वह अपनी कुरसी पर बैठ गया. उस ने घंटी बजा कर चपरासी को चाय लाने के लिए कहा. पिताबेटे की आपस में आंखें मिलीं. बेटे ने पूछा, ‘‘आप कब छूटे?’’

‘‘कल ही.’’ ‘‘मेरा पता किस ने दिया?’’ बेटे के पूछने से साफ जाहिर हो रहा था कि वह नहीं चाहता था कि पिता को उस का पता भी लगे.

‘‘तुम्हारे मामा ने,’’ पिता ने कहा. ‘‘ओह, मामाजी भी…’’ कुछ बुदबुदाते हुए बेटे ने कहा.

‘‘क्या…?’’ विनय ने पूछा. ‘‘जी, कुछ नहीं,’’ बेटे ने कहा.

कुछ देर की चुप्पी के बाद बेटे ने कहा, ‘‘देखिए, मैं एक अच्छी नौकरी पर हूं. घर में एक बेटी है, मेरी पत्नी है. हम ने सब को यही बताया है कि मेरे पिता नहीं हैं. अब आप के बारे में पता चलेगा, तो मेरे ससुराल वाले क्या कहेंगे. लोग गड़े मुरदे उखाड़ेंगे, फिर तमाशा होगा. मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक

नहीं रहूंगा.’’ ‘‘लेकिन बेटा, तुम तो जानते हो कि मैं बेकुसूर हूं,’’ विनय ने अपनी सफाई

में कहा. ‘‘मेरे जानने या मानने से क्या होता है? पुलिस ने आप को मुलजिम बनाया. अदालत ने आप को मुजरिम. आप सजा काट कर आए हैं. प्रैस, मीडिया, समाज, रिश्तेदार आप किसकिस को सफाई देंगे. फिर उस रात हम लोग घर पर नहीं थे. क्या हुआ था, हमें क्या पता?’’

बेटे के मुंह से आखिरी शब्द सुन कर विनय की आंखों में आंसू आ गए. विनय उठने लगे, तो बेटे ने कहा, ‘‘आप किसी वृद्धाश्रम में रह लें. मैं सारा बंदोबस्त कर दूंगा. लेकिन आप किसी को बताना नहीं कि आप से मेरा क्या रिश्ता है और न ही अपने गुनाह के बारे में बताना.’’

विनय कुरसी से उठने लगे और बोले, ‘‘कौन सा गुनाह? वह गुनाह, जो मैं ने किया ही नहीं. वृद्धाश्रम में ही रहना है, तो किसी भी शहर में रह लूंगा. जब अपना खून ही भरोसा नहीं कर रहा, तो फिर किसी को क्या सफाई देनी…’’ विनय ने जाते हुए पूछा, ‘‘क्या तुम उस लड़की का पता बता सकते हो, जिस ने मुझे जेल भिजवाया था?’’

बेटे ने विनय के हाथ में कुछ रुपए थमा कर कहा, ‘‘उस लड़की ने अपने किसी प्रेमी को धोखा देने पर उसे फंसाने के लिए पूरे घर के सामने मिट्टी का तेल डाल कर खुद को जलाने का नाटक किया था, लेकिन वह जल कर अस्पताल में भरती हो गई.’’

‘‘मरतेमरते वह यह बयान दे कर मरी कि प्रेमी से तंग आ कर उस ने आत्महत्या की कोशिश की. पुलिस ने धारा 302 के आरोप में लड़के को जेल भिजवा दिया.’’ विनय बाहर आ कर सोच रहे थे, ‘मेरी तो जिंदगी बरबाद कर ही दी, मरतेमरते उस ने दूसरे को भी जेल भिजवा दिया.’

ऐसे लोगों का अंत ऐसा ही होता है. अदालतों को इस बात पर गौर करना चाहिए. मरने वाले के बयान भी झूठे हो सकते हैं, क्योंकि मरता हुआ शख्स, जिसे कानून मरने वाले का आखिरी बयान मानती है, झूठ बोल सकता है. क्योंकि जब वह बयान देता है, तो जिंदा होता है. तो फिर वह मरने वाले का सच्चा बयान कैसे हुआ? कानून को यह भी सोचना चाहिए कि अगर कोई नाबालिग लड़की बलात्कार की झूठी कहानी नहीं गढ़ सकती, तो घरपरिवार, नौकरी वाला

50 साल की उम्र का क्यों और कैसे बलात्कार कर सकता है, जबकि इस उम्र में न वह जोश होता है,

न जुनून. फिर विनय ने ऐसे केस भी तो देखे हैं कि लड़की ने अपनी मरजी से लड़के के साथ रात गुजारी, फिर शादी का दबाव बनाने लगी. शादी के लिए मना किया, तो लड़के को बलात्कारी बना दिया.

लड़की के अंग में लड़के का वीर्य पाए जाने का मतलब यह तो नहीं कि उस ने बलात्कार किया हो. अपनी मरजी से रात गुजारी, फिर बलात्कार का आरोप लगा दिया. ऐसे मामलों में न जाने कितने लड़के जेल में पड़े हैं. वही लड़की फिर बयान से मुकरने के लिए लाखों रुपए मांग रही है. समय बदल गया है. सोच बदल गई है. बालिग होने की उम्र भी बदलनी चाहिए. कानून के नुमाइंदों को हर पहलू पर सोच कर धाराएं लगानी चाहिए. एससी और एसटी ऐक्ट लगाने से, मीडिया की जातिगत टिप्पणी से समाज में गुस्सा फैलने लगता है. अगड़ेपिछड़ों में तनाव बढ़ता है.

विनय ने तो उस लड़की को कभी अपने घर पर आने से भी नहीं रोका. उसे केवल अपनी बेटी की सहेली माना और कानून ने उन पर एससी, एसटी ऐक्ट लगा दिया. विनय को लगा कि उन की असली सजा तो अब शुरू हुई है. समाज की सजा. अकेले भटकने की सजा. अपनों द्वारा मुंह मोड़ने की सजा और ये सजाएं तो उन की सब से बड़ी सजाएं थीं, जो तन से ज्यादा मन भोग रहा था. यह कभी न खत्म होने वाली सजा थी.

इतना सोचतेसोचते विनय को पता भी नहीं चला कि कब वे एक ट्रक की चपेट में आ गए. उन का बूढ़ा जिस्म अब लाश में बदल चुका था.

मामला कुछ और था : एक जोड़ी चप्पल का क्या था राज?

सुबह का वक्त था. शहर के किनारे बसे गांव की बड़ी सड़क पर भीड़ जमा थी. कुछ अखबारों के पत्रकार भी खड़े थे और थोड़ी ही देर में पुलिस भी वहां आ पहुंची. लोकल अखबार के एक पत्रकार ने अपने एक दोस्त को भी फोन कर के वहीं बुला लिया, जो लोकल न्यूज चैनल में पत्रकार था.

सड़क पर बारिश का पानी भरा पड़ा था. एक गड्ढे के पास एक जोड़ी चप्पलें पड़ी हुई थीं, जो किसी औरत की थीं.

पत्रकारों ने कैमरे से उन चप्पलों की कई तसवीरें पहले ही खींच ली थीं. पुलिस भी उन चप्पलों को देख कर तरहतरह की कानाफूसी कर रही थी.

कुछ ही देर में सारे पत्रकार एक नौजवान लड़के के पास जमा हो गए, जो लोटे में पानी लिए खड़ा था. शायद वह शौच के लिए जा रहा होगा, लेकिन तब तक पत्रकारों की टोली ने उसे रोक लिया. थोड़ी ही देर में पता चला कि उस नौजवान लड़के की वजह से ही यहां भीड़ जमा थी.

दरअसल, कुछ देर पहले जब वह लड़का शौच के लिए जा रहा था, तभी उस की नजर इन एक जोड़ी चप्पलों पर पड़ी थी, जो किसी औरत की ही थीं. उसे किसी अनहोनी का डर हुआ.

उस नौजवान लड़के ने झट से अपना कैमरे वाला मोबाइल फोन निकाला और उन चप्पलों की तसवीर खींच कर सोशल साइट पर डाल दी. नीचे लिख दिया, ‘आज फिर एक औरत दरिंदों की शिकार हो गई.’

चप्पलें भी इस तरह पड़ी हुई थीं, मानो सचमुच में वे किसी औरत के भागने के दौरान ही उतरी हों.

जब लोगों ने उन चप्पलों वाली तसवीर को इंटरनैट पर नीचे लिखी हुई लाइन समेत देखा, तो हल्ला मच गया.

अखबार के एक पत्रकार की नजर भी इस तसवीर पर पड़ गई. वह तुरंत इस जगह आ पहुंचा. उस के पहुंचते ही दूसरे कई पत्रकार और पुलिस भी पहुंच गई. पत्रकारों और पुलिस के पहुंचते ही गांव के लोगों की भीड़ भी जमा हो गई.

गांव की कुछ औरतें, जो भीड़ में खड़ी थीं, अलगअलग तरह की बातें कर रही थीं. उन में से कुछ का कहना था कि उन्होंने रात को किसी जनाना चीख को अपने कानों से सुना था. इतना कहना था कि भीड़ में यह बात आग की तरह फैल गई.

पत्रकारों के कान में जब यह बात पड़ी, तो उन्होंने उन औरतों की तरफ अपना ध्यान लगा दिया. सब के सब औरतों से यही पूछते थे कि उन्होंने कितने बजे चीख सुनी थी? कितनी औरतों की चीख थी या सिर्फ एक औरत की चीख थी?

औरतें भरी भीड़ में अपना घूंघट भी ठीक से नहीं उठा पा रही थीं, तो बोलतीं क्या?

अखबारों के पत्रकार तो कौपी में खबर लिख रहे थे, तसवीरे खींच रहे थे, लेकिन लोकल टीवी चैनल के पत्रकार का कैमरा और माइक अभी तक इस जगह पर पहुंचा नहीं था. वैसे, उस ने फोन कर दिया था, तो थोड़ी ही देर में उस का कैमरामैन उस के पास पहुंचने ही वाला था.

पुलिस के आला अफसरों को भी इस घटना की खबर हो गई थी. वे वहां मौजूद पुलिस वालों से पलपल की जानकारी ले रहे थे. वह कौन औरत थी, जिस के साथ अनहोनी हुई थी, यह अभी तक पता नहीं चल सका था, जबकि पुलिस इस बात का पता लगाने की कोशिश कर रही थी.

पुलिस ने अब उस नौजवान लड़के से पूछताछ शुरू कर दी, जिस ने सब से पहले इन चप्पलों को पड़े हुए देखा था. नौजवान जितना खुल कर पत्रकारों से बोल रहा था, पुलिस से उतना ही दब कर बोल रहा था.

उस लड़के ने बताना शुरू किया, ‘‘साहब, मैं सुबह शौच के लिए जा रहा था कि तभी मेरी नजर इन बिखरी पड़ी चप्पलों पर पड़ गई.

‘‘मैं ने टैलीविजन पर अभी कुछ दिन पहले ही खबर देखी थी कि एक जगह इसी तरह औरतों के कपड़े बिखरे पड़े थे. बाद में पता चला कि वहां औरतों के साथ घिनौनी हरकत हुई थी.

‘‘यही सोच कर मैं ने इन चप्पलों की तसवीर खींच कर सोशल साइट पर डाल दी, फिर बाकी का तो आप जानते ही हैं.’’

उस नौजवान को ज्यादा बातें पता नहीं थीं, उस ने केवल चप्पलों को वहां  देख कर ही अंदाजा लगा लिया था. लेकिन औरतों की मंडली की तरफ से रात की चीख वाली खबर से लोगों की सोच यकीन में बदल गई.

गांव के लोग पत्रकारों से गांव की तारीफ कर कहते थे कि इस गांव में आज से पहले इस तरह की कोई घटना नहीं हुई है, लेकिन आजकल पता नहीं चलता कि कब क्या हो जाए, पर एक बात पक्की है, यह जो भी हुआ है, इस को हमारे गांव के किसी आदमी ने अंजाम नहीं दिया होगा, यह जरूर कोई बाहर का आदमी होगा, जो इतनी घिनौनी हरकत कर गया.

इस बात पर गांव के सभी लोगों का एक मत था. औरतें भी यही कह रही थीं. उन का कहना था कि वे आधी रात को भी सड़कों पर निकली हैं, लेकिन गांव के किसी भी आदमी ने उन को बुरी नजर से नहीं देखा. यहां तक कि रात को गांव के कुत्ते भी औरतों पर नहीं भूंकते. हां, कोई मर्द रात में आए तो कुत्ते उसे घर का रास्ता दिखा देते हैं.

टैलीविजन चैनल के पत्रकार का कैमरा आ चुका था, जिसे उस का कैमरामैन ले कर आया था. पत्रकार और कैमरामैन दोनों ने मिल कर झटपट तैयारी की और कैमरा उन चप्पलों पर फोकस कर दिया.

कैमरा चालू हुआ. पत्रकार ने बोलना शुरू किया. इतने में लोगों का हुजूम टैलीविजन चैनल के पत्रकार के पीछे जा खड़ा हुआ.

लोगों को खुद को टैलीविजन पर दिखने का खासा खौक था. टीवी चैनल का पत्रकार जिस अंदाज में खबर को कह रहा था, उस के कहने के अंदाज से लोगों के सीने में धड़कनों का औसत बढ़ गया था.

कुछ की तो हालत ऐसी थी कि अगर वह दरिंदा इस वक्त उन के सामने आ जाता, तो वे उस का खून पी जाते. औरतें उस का मुंह नोच कर उसे चप्पलों से पीटपीट कर मार डालतीं, बच्चे उस की आंखें फोड़ देते.

लेकिन पुलिस वाले सहमे हुए खड़े थे. उन्हें देख कर लगता था, जैसे वे उस दरिंदे को बचा लेते या उसे छोड़ कर खुद यहां से भाग जाते.

टैलीविजन चैनल के पत्रकार ने उस नौजवान लड़के से कैमरे के सामने बात की, जिस ने सब से पहले इन चप्पलों को देखा था. वह नौजवान कैमरे के सामने 2-4 बातों को बढ़ाचढ़ा कर कह चुका था. पुलिस वाले भी उस की बातों को ध्यान से सुन रहे थे.

नौजवान लड़के ने अभी जो कहा, वह पुलिस के बारबार पूछने पर भी नहीं बताया था. शायद सारी बड़ी खबर वह टैलीविजन पर ही देना चाहता होगा.

नौजवान लड़के से पूछने के बाद पत्रकार ने पुलिस के दारोगा से बात करनी शुरू कर दी. नौजवान शौच के लिए खेतों की तरफ खिसकने लगा, शायद उस से अब रुका नहीं जा रहा था. लेकिन, उस लड़के ने जातेजाते  2-3 लोगों को खुद के टैलीविजन पर आने की खबर फोन पर दे दी. अगरइस समय उसे शौच के लिए जाने की जल्दी न होती, तो वह यहीं पर खड़ा होता, लेकिन मामला उस के हाथ में नहीं था.

पूरा रास्ता लोगों से भर गया था. जो भी इस खबर को सुनता, सीधा वहीं दौड़ा चला आता.

गहमागहमी का माहौल चल रहा था, तभी एक 20 साल की लड़की भीड़ में आ खड़ी हुई. उस की नजर उन चप्पलों पर पड़ी, तो बरबस ही उन की तरफ बढ़ गई. जब तक कोई उस से कुछ कहता, उस ने ?ाट से दोनों चप्पलें उठा लीं.

लड़की के चप्पलें उठाते ही पुलिस वालों ने उसे रोक दिया. दारोगा कड़क आवाज में बोले, ‘‘ऐ लड़की, ये चप्पलें कहां लिए जाती हो…’’

लड़की को देख कर लगता था कि वह नींद से उठ कर आई थी.

वह भर्राई आवाज में बोली, ‘‘ये मेरी चप्पलें हैं. आप को यकीन न हो, तो

मेरे घर में जा कर पूछ लो.’’

लड़की के इतना कहते ही पुलिस वाले सतर्क हो गए. पत्रकारों का हुजूम लड़की के बगल में आ कर खड़ा हो गया. भीड़ भी लड़की के इर्दगिर्द जमा हो गई.

दारोगा लड़की की बात ध्यान से सुन रहे थे. उन्होंने फिर से सवाल किया, ‘‘लेकिन, तुम्हारी चप्पलें यहां कैसे आ गईं? क्या तुम्हारे साथ कोई हादसा हुआ था?’’

लड़की ने फिर सहमी सी आवाज में बताया, ‘‘रात में मेरी भैंस खुल गई थी और इसी तरफ भाग आई. उस को पकड़ने के चक्कर में मैं भी उस के पीछे भाग ली, लेकिन भागते समय मेरी चप्पलें यहीं रह गईं.

‘‘भैंस को तो मैं पकड़ कर ले गई, लेकिन चप्पलों को डर के मारे लेने न आई. मैं ने सोचा कि सुबह ले जाऊंगी.’’

पत्रकारों और पुलिस वालों के मुंह हैरत से खुले हुए थे. दारोगा ने लड़की को ध्यान से देखा. उसे देख कर लगता था कि वह सच बोल रही है.

दारोगा ने पक्का करने के लिए फिर से पूछा, ‘‘बेटी, क्या सचमुच यही बात है? तुम कोई बात छिपा तो नहीं रही हो? अगर कोई बात हो, तो तुम बिना डरेसहमे हम से कह सकती हो.’’

लड़की अब खुद हैरत में पड़ गई. वह बोली, ‘‘मैं सच बोल रही हूं.’’

दारोगा ने उस लड़की और उस के पिता का नाम पूछ लिया, जिस से बाद में कोई बात होने पर उस से पूछताछ की जा सके.

यह देख कर पत्रकारों ने अपना सिर पीट लिया. उन में से एक कह रहा था कि अगर यह लड़की अभी न आती, तो न जाने कितना बड़ा बवाल खड़ा हो गया होता.

टैलीविजन चैनल के पत्रकार ने भी अपना कैमरा बंद कर दिया. भीड़ से भी लोगों के सवालजवाब की आवाजें आने लगीं.

पुलिस के पास फिर से बड़े अफसर का फोन आया. इस बार दारोगा ने पूरी बात उन्हें बताई. बड़े अफसर ने सोशल साइट पर उस नौजवान लड़के की डाली हुई तसवीर हटवाने की बात कह कर फोन काट दिया.

दारोगा ने उस नौजवान लड़के को तलाशना शुरू कर दिया, लेकिन वह कहीं नहीं दिखा. दारोगा ने सिपाहियों को उसे ढूंढ़ने का आदेश दे दिया.

किसी लड़की ने बताया कि वह नौजवान उस तरफ के खेत में बैठा है. सिपाही भागते हुए उस नौजवान लड़के को पकड़ने के लिए खेत की तरफ जा पहुंचे.

सिपाहियों को अपनी तरफ आता देख वह जल्दी से उठ खड़ा हुआ और कपड़े ठीक कर खेत से बाहर निकल आया. सिपाही उस नौजवान लड़के को ले कर दारोगा के पास आ पहुंचे.

दारोगा ने उस नौजवान लड़के को फटकारते हुए कहा, ‘‘क्यों भाई, तुम ने बिना कुछ जाने ही चप्पलों की तसवीर खींच कर नीचे लिख दिया कि किसी औरत के साथ दरिंदगी हो गई है, जबकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं है.

‘‘आज तो तुम्हें छोड़ दे रहे हैं, पर आगे से ऐसा कुछ हुआ तो तुम्हारी खैर नहीं. अब जल्दी से उन तसवीरों को सोशल साइट से हटा दो.’’

लड़के ने फटाफट मोबाइल फोन निकाला और कुछ ही देर में अपनी डाली हुई तसवीरें हटा लीं.

दारोगा ने उस लड़के को जाने के लिए कह दिया और खुद भी उस जगह से चल दिए.

पत्रकारों की टोली भी वहां से चल दी. हर आदमी के पास किसी न किसी का फोन आ रहा था. लोग पूछ रहे थे कि क्या हुआ और हर आदमी यही कह रहा था कि मामला कुछ और था.

लालच : किस ने दिया किस को झांसा?

उ त्तर प्रदेश में बिजनौर जिले के एक गांव में निजाम अपनी बीवी साजिदा के साथ बड़े प्यार से जिंदगी गुजरबसर कर रहा था. निजाम के पास पुरखों की जमीन थी, जिस में वह खेती कर के अच्छाखासा कमा लेता था और बढि़या ढंग से जिंदगी गुजारता था.

निजाम और साजिदा के 2 बेटे थे. घर में काफी खुशहाली थी. बेटों की उम्र महज 7 साल और 5 साल थी.

साजिदा देखने में बहुत खूबसूरत थी. उस की खूबसूरती की चर्चा आसपास के गांवों में भी होती थी. और हो भी क्यों न. साजिदा के सुर्ख गाल, गुलाबी होंठ ऐसे लगते थे मानो गुलाब की पंखुडि़यां खिलने को बेताब हों. उस के काले, घने और लंबे बालों में चमचमाता गोरा चेहरा ऐसा लगता था मानो बादलों को चीर कर चांद बाहर निकल आया हो.

नवंबर का महीना था. दीवाली आसपास ही थी. एक सवेरे जैसे ही निजाम उठा, उस ने देखा कि उस के घर की जमीन अपनेआप ऊपर उठी हुई है.

जब यह सब साजिदा ने देखा, तो वह बोली, ‘‘इस के नीचे जरूर कोई खजाना गड़ा है.’’

निजाम ने उस जगह खोदा तो वहां एक खाली घड़ा मिला. साजिदा बोली, ‘‘माया ऐसे ही नहीं मिल जाती. वह तो जिस की किस्मत में होती है, उसे ही मिलती है.’’

निजाम भी खाली घड़े को देख कर मायूस हो गया.

अभी इस घटना को एक हफ्ता भी नहीं गुजरा था कि घर में फिर से जमीन उभरने लगी. इस बार निजाम ने जल्दबाजी नहीं की. उस ने कुछ दिन इंतजार किया कि गड़ी दौलत खुद बाहर आ जाएगी, लेकिन कई दिन बीत जाने के बाद भी कुछ बाहर नहीं आया. हां, जमीन इन दिनों में और ऊपर उभर गई थी.

निजाम ने जमीन खोदने की सोची तो साजिदा ने उसे रोक लिया और कहा कि हम ऐसे यह दौलत हासिल नहीं कर सकते. इसे हासिल करने के लिए किसी पहुंचे हुए बाबा की मदद लेनी पड़ेगी, जो हमें अपनी तंत्रविद्या से इस दौलत को दिला देगा.

निजाम अब किसी पहुंचे हुए बाबा की तलाश में लग गया. कई दिन बीतने के बाद उसे एक जंगल में एक ऐसा तांत्रिक बाबा मिल गया, जो बीमार लोगों का इलाज करने का दावा करता था. निजाम ने यहां तक सुन रखा था कि यह बाबा पैसा डबल भी कर देता है.

निजाम अगले दिन बाबा के पास गया और बोला, ‘‘बाबा, मेरी घर की जमीन अपनेआप ऊपर उठ जाती है. मुझे लगता है कि उस में कोई खजाना गड़ा है.’’

बाबा को समझते देर न लगी कि निजाम लालची है और बिना मेहनत किए ही दौलत हासिल करना चाहता है.

बाबा ने निजाम से कहा है, ‘‘ऐसा होता है. पुराने लोग जमीन में पैसे गाड़ देते थे, जिस पर कोई माया कब्जा कर लेती थी. उसे हासिल करना इतना आसान नहीं है. माया जिस की किस्मत में होती है, उसी के पास पहुंच जाती है और एक जगह से दूसरी जगह बदलती रहती है.’’

बाबा की बात सुन कर निजाम बोला, ‘‘क्या मैं अपने घर में दबी इस दौलत को हासिल नहीं कर सकता?’’

बाबा बोला, ‘‘ऊपर वाला ही जानता है कि वह किसे मिलेगी. हां, कुछ तंत्रविद्या से उसे और कहीं जाने से रोका जा सकता है और बाद में उसे हासिल किया जा सकता है.

‘‘उसे पाने के लिए तुम्हारे घर जा कर मंत्र पढ़ने पड़ेंगे. और हम बाबा लोग जंगल मे रहते हैं. आज यहां कल कहां, हमें खुद को नहीं पता. हम तो लोगों की मदद करने के लिए एक जगह से दूसरी जगह पर घूमतेफिरते हैं. हम किसी के घर नहीं जाते.’’ निजाम मायूस हो कर वहां से घर लौट आया.

घर आ कर निजाम ने सारी बातें साजिदा को बताईं और कहा कि बाबा ने घर पर आने से मना कर दिया है. पता नहीं, अब यह दौलत हमें कैसे मिलेगी.

यह सुन कर साजिदा बोली, ‘‘हम दोनों कल दोबारा उन के पास चलते हैं. सुना है कि बाबा लोग औरतों पर बड़ा रहम करते हैं. मैं उन से मिन्नत करूंगी, शायद उन का दिल पिघल जाए.’’

अगले दिन निजाम और साजिदा तांत्रिक बाबा के पास पहुंचे. साजिदा जैसी हसीन खूबसूरत औरत को देख कर बाबा के अंदर का शैतान जाग गया. वह मन ही मन साजिदा के जिस्म को पाने के लिए बेकरार हो उठा.

जैसे ही निजाम और साजिदा ने बाबा से घर चल कर उस खजाने को निकालने की मिन्नत की, बाबा पहले तो ऊपरी मन से मना करता रहा, पर फिर साजिदा के हाथ को अपने हाथ में पकड़ते हुए बोला, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हारे घर चल कर वह खजाना तुम्हें दिलवा दूंगा, पर काम करते समय कोई मु?ा से सवालजवाब नहीं करेगा और इस काम में कम से कम 10 दिन लगेंगे.

‘‘मैं जैसा कहूंगा, तुम दोनों को वैसा ही करना होगा. अगर तुम्हें मेरी यह शर्त मंजूर है, तो मैं तुम्हारे घर चलने के लिए तैयार हूं.’’

निजाम और साजिदा की मानो मन की मुराद ही पूरी हो गई हो. साजिदा ने फौरन कहा, ‘‘हम आप की हर शर्त मानने को तैयार हैं, बस आप किसी भी तरह वह खजाना हमें हासिल करा दो.’’

तांत्रिक बाबा निजाम और साजिदा के साथ उन के घर आ कर रहने लगा. उसे  वहीं कमरा दे दिया गया, जहां जमीन ऊपर उठ रही थी. बाबा 3 दिन तक उस में अपनी तंत्रविद्या का ढोंग करता रहा.

इन 3 दिनों में जमीन और ऊपर उठ चुकी थी. यह देख कर निजाम और साजिदा उस बाबा की काफी सेवा में लगे थे, उसे बढि़याबढि़या खाना परोसा जा रहा था. बाबा सम?ा चुका था कि अब ये दोनों पूरी तरह से उस के चंगुल में फंस चुके हैं. अब बस उसे नया ड्रामा शुरू करना था.

एक दिन कुछ सोच कर बाबा निजाम और साजिदा से बोला, ‘‘तुम्हारे पास कुछ रुपया या जेवर वगैरह हो तो ले आओ. 2 दिन के अंदर सब डबल हो जाएगा. इतने में मैं माया को काबू में कर के उस दौलत को हासिल करूंगा और तुम्हें दूंगा. उस से पहले मैं तुम्हारा सारा धन डबल कर देता हूं, क्योंकि माया पर काबू पाने में अभी समय लगेगा.

‘‘तुम दोनों ने मेरी इतनी खिदमत की है, जिस से मैं बहुत खुश हूं. मै चाहता हूं कि तुम्हारी मदद कर के तुम्हें अमीर बना दूं.’’

दौलत के अंधे लालची वे दोनों बाबा की बातों में आ गए. साजिदा अपने जेवर ले आई और निजाम नकद 30,000 रुपए.

बाबा बोला, ‘‘जो भी डबल होगा, वह एक ही बार हो सकता है, इसलिए मैं पहले ही बता देता हूं कि जितना भी ज्यादा इंतजाम कर सकते हो, कर लो.’’

निजाम बोला, ‘‘अभी हमारे पास इतना ही है. अगर कुछ समय मिलता है, तो हम अपनी जमीन गिरवी रख देते हैं. जब पैसा डबल हो जाएगा, हम उसे अदा कर के अपनी जमीन छुड़ा लेंगे.’’

बाबा बोले, ‘‘ठीक है, तुम जल्दी से पैसे का इंतजाम कर लो.’’ निजाम ने जल्दी में अपनी सारी जमीन गिरवी रख एक ठेकेदार से 10 लाख रुपए एक हफ्ते के लिए उधार ले लिए.

पैसा ले कर निजाम साजिदा के साथ बाबा के कमरे में पहुंचा और बोला, ‘‘मैं 10 लाख रुपए ले आया हूं.’’

बाबा अपनी खुशी छिपाते हुए बोला, ‘‘इन पैसों को एक पोटली में डाल दो और जो जेवर तुम ने मु?ो दिए हैं, उन्हें भी पोटली में रख दो.’’

सब एक जगह कर के बाबा ने निजाम से कहा, ‘‘एक गड्ढा खोदो और दोनों मिल कर अपने हाथ से इस पोटली को उस में दबा दो. सुबह तक सब डबल हो जाएगा.’’

निजाम और साजिदा ने ऐसा ही किया. फिर बाबा बोला, ‘‘अब तुम दोनों नहा कर आ जाओ. रात होते ही मैं मंत्रों का उच्चारण शुरू कर दूंगा. तुम दोनों आज रात यहीं मेरे साथ मंत्रों को दोहराते रहना. तब तक मैं तुम्हारे लिए स्पैशल प्रसाद तैयार करता हूं.’’

ठंड अपने उफान पर थी. रात के 10 बज चुके थे. निजाम और साजिदा बाबा के पासे बैठे उस के बोले हुए मंत्रों को दोहरा रहे थे. ठंड से साजिदा और निजाम थरथर कांप रहे थे, तभी बाबा ने उन्हें अपने झले से प्रसाद निकाल कर खाने के लिए दिया.

आज उन दोनों ने खाना भी नहीं खाया था. इस भागदौड़ और दौलत के लालच में वे इतने ज्यादा अंधे हो चुके थे कि उन्होंने जल्दीजल्दी बाबा का दिया हुआ प्रसाद खाना शुरू कर दिया, लेकिन देखते ही देखते वे दोनों नींद में झुमने लगे, क्योंकि उस प्रसाद में नशा मिला हुआ था.

कुछ ही पलों में वे दोनों बेहोश हो गए. बाबा साजिदा की तरफ बढ़ा, तो उस के गोरे और गदराए बदन को

देख कर हक्काबक्का रह गया. बेहोशी की हालत में उस के जिस्म के कपड़े इधरउधर हो रहे थे. उस का दुपट्टा उस के बदन से अलग हो चुका था.

बाबा ने बिना समय गंवाए साजिदा के बदन से एकएक कर के सारे कपड़े हटा दिए. उस का गोरा बदन देख कर बाबा जल्द ही कामुक हो चुका था. वह अपनेआप पर काबू नहीं रख पा रहा था. उस ने जल्दीजल्दी साजिदा के बदन को रौंदना शुरू कर दिया.

जब बाबा साजिदा की इज्जत लूट कर पूरी तरह शांत हो चका था, तो उस ने सारा सामान उठाया और रात के अंधेरे में वहां से रफूचक्कर हो गया.

सुबह जब साजिदा और निजाम की आंख खुली, तो वे सामने का नजारा देख कर दंग रह गए. जब निजाम ने वह गड्ढा खुदा हुआ देखा, तो उस के होश उड़ चुके थे. उस में से रुपए और जेवर की पोटली गायब थी.

दोनों एकदूसरे के गले लग कर रो रहे थे और एकदूसरे से कह रहे थे कि दौलत के लालच में उन्होंने अपना सबकुछ गंवा दिया.

निजाम ने कई दिन तक उस बाबा को ढूंढ़ने की कोशिश की, उस जंगल में भी गया, पर उसे कुछ न मिला.

निजाम और साजिदा अपनेआप को कोस रहे थे. उन्होंने अंधविश्वास के चलते दौलत के लालच में अपनी जमीन और पैसा तो गंवाया ही, साथ ही साजिदा ने अपनी इज्जत भी उस पाखंडी बाबा को लुटा दी थी.

किसना का दर्द : महल्ला आवारा औरतों का

झारखंड का एक बड़ा आदिवासी इलाका है अमानीपुर. जिले के नए कलक्टर ने ऐसे सभी मुलाजिमों की लिस्ट बनाई, जो आदिवासी लड़कियां रखे हुए थे. उन सब को मजबूर कर दिया गया कि वे उन से शादी करें और फिर एक बड़े शादी समारोह में उन सब का सामूहिक विवाह करा दिया गया.

दरअसल, आदिवासी बहुल इलाकों के इन छोटेछोटे गांवों में यह रिवाज था कि वहां पर कोई भी सरकारी मुलाजिम जाता, तो किसी भी आदिवासी घर से एक लड़की उस की सेवा में लगा दी जाती. वह उस के घर के सारे काम करती और बदले में उसे खानाकपड़ा मिल जाता.

बहुत से लोग तो उन में अपनी बेटी या बहन देखते, मगर उन्हीं में से कुछ अपने परिवार से दूर होने के चलते उन लड़कियों का हर तरह से शोषण भी करते थे.

वे आदिवासी लड़कियां मन और तन से उन की सेवा के लिए तैयार रहती थीं, क्योंकि वहां पर ज्यादातर कुंआरे ही रहते थे, जो इन्हें मौजमस्ती का सामान समझते और वापस आ कर शादी कर नई जिंदगी शुरू कर लेते. मगर शायद आधुनिक सोच को उन पर रहम आ गया था, तभी कलक्टर को वहां भेज दिया था. उन सब की जिंदगी मानो संवर गई थी.

मगर यह सब इतना आसान नहीं था. मुखिया और कलक्टर का दबदबा होने के चलते कुछ लोग मान गए, पर कुछ लोग इस के विरोध में भी थे. आखिरकार कुछ लोग शादी के बंधन में बंध गए और लड़कियां दासी जीवन से मुक्त हो कर पत्नी का जीवन जीने लगीं.

मगर 3 साल बाद जब कलक्टर का ट्रांसफर हो गया, तब शुरू हुआ उन लड़कियों की बदहाली का सिलसिला. उन सारे मुलाजिमों ने उन्हें फिर से छोड़ दिया और  शहर जा कर अपनी जाति की लड़कियों से शादी कर ली और वापस उसी गांव में आ कर शान से रहने लगे.

तथाकथित रूप से छोड़ी गई लड़कियों को उन के समाज में भी जगह नहीं मिली और लोगों ने उन्हें अपनाने से मना कर दिया. ऐसी छोड़ी गई लड़कियों से एक महल्ला ही बस गया, जिस का नाम था ‘किस बिन पारा’ यानी आवारा औरतों का महल्ला.

उसी महल्ले में एक ऐसी भी लड़की थी, जिस का नाम था किसना और उस से शादी करने वाला शहरी बाबू कोई मजबूर मुलाजिम न था. उस ने किसना से प्रेम विवाह किया था और उस की 3 साल की एक बेटी भी थी. पर समय के साथ वह भी उस से ऊब गया, तो वहां से ट्रांसफर करा कर चला गया.

किसना को हमेशा लगता था कि उस की बेटी को आगे चल कर ऐसा काम न करना पड़े. वह कोशिश करती कि उसे इस माहौल से दूर रखा जाए.

लिहाजा, उस को किसना ने दूसरी जगह भेज दिया और खुद वहीं रुक गई, क्योंकि वहां रुकना उस की मजबूरी थी. आखिर बेटी को पढ़ाने के लिए पैसा जो चाहिए था. बदलाव बस इतना ही था कि पहले वह इन लोगों से कपड़ा और खाना लेती थी, पर अब पैसा लेने लगी थी. उस में से भी आधा पैसा उस गांव की मुखियाइन ले लेती थी.

उस दिन मुखियाइन किसना को नई जगह ले जा रही थी, खूब सजा कर. वह मुखियाइन को काकी बोलती थी.

वे दोनों बड़े से बंगले में दाखिल हुईं. ऐशोआराम से भरे उस घर को किसना आंखें फाड़ कर देखे जा रही थी.

तभी किसना ने देखा कि एक तगड़ा 50 साला आदमी वहां बैठा था, जिसे सब सरकार कहते थे. उस आदमी के सामने सभी सिर झुका कर नमस्ते कर रहे थे.

उस आदमी ने किसना को ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर रूमाल से मोगरे का गजरा निकाल कर उस के गले में डाल दिया. वह चुपचाप खड़ी थी.

सरकार ने उस की आंखों में एक अजीब सा भाव देखा, फिर मुखियाइन को देख कर ‘हां’ में गरदन हिला दी.

तभी एक बूढ़ा आदमी अंदर से आया और किसना से बोला, ‘‘चलो, हम तुम्हारा कमरा दिखा दें.’’

किसना चुपचाप उस के पीछे चल दी. बाहर बड़ा सा बगीचा था, जिस के बीचोंबीच हवेली थी और किनारे पर छोटे, पर नए कमरे बने थे.

वह बूढ़ा नौकर किसना को उन्हीं बने कमरों में से एक में ले गया और बोला, ‘‘यहां तुम आराम से रहो. सरकार बहुत ही भले आदमी हैं. तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है…’’

किसना ने अपनी पोटली वहीं बिछे पलंग पर रख दी और कमरे का मुआयना करने लगी.

दूसरे दिन सरकार खुद ही उसे बुलाने कमरे तक आए और सारा काम समझाने लगे. रात के 10 बजे से सुबह के 6 बजे तक उन की सेवा में रहना था.

किसना ने भी जमाने भर की ठोकरें खाई थीं. वह तुरंत समझ गई कि यह बूढ़ा क्या चाहता है. उसे भी ऐसी सारी बातों की आदत हो गई थी.

वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘हम अपना काम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं सरकार, आप को शिकायत का मौका नहीं देंगे.’’

कुछ ही दिनों में किसना सरकार के रंग में रंग गई. उन के लिए खाना बनाती, कपड़े धोती, घर की साफसफाई करती और उन्हें कभी देर हो जाती, तो उन का इंतजार भी करती. सरकार भी उस पर बुरी तरह फिदा थे. वे दोनों हाथों से उस पर पैसा लुटाते.

एक रात सरकार उसे प्यार कर रहे थे, पर किसना उदास थी. उन्होंने उदासी की वजह पूछी और मदद करने की बात कही.

‘‘नहीं सरकार, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ किसना बोली.

‘‘देख, अगर तू बताएगी नहीं, तो मैं मदद कैसे करूंगा,’’ सरकार उसे प्यार से गले लगा कर बोले.

किसना को उन की बांहें किसी फांसी के फंदे से कम न लगीं. एक बार तो जी में आया कि धक्का दे कर बाहर चली जाए, पर वह वहां से हमेशा के लिए जाना  चाहती थी. उसे अच्छी तरह मालूम था कि यह बूढ़ा उस पर जान छिड़कता है. सो, उस ने अपना आखिरी दांव खेला, ‘‘सरकार, मेरी बेटी बहुत बीमार है. इलाज के लिए काफी पैसों की जरूरत है. मैं पैसा कहां से लाऊं? आज फिर मेरी मां का फोन आया है.’’

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘नहीं सरकार, मुझे आप से पैसे नहीं चाहिए… मुखियाइन मुझे मार देगी. मैं पैसे नहीं ले सकती.’’

सरकार ने उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा, ‘‘मुखियाइन को कौन बताएगा? मैं तो नहीं बताऊंगा.’’

‘‘एक लाख रुपए चाहिए.’’

‘‘एक… लाख…’’ बड़ी तेज आवाज में सरकार बोले और उसे दूर झटक दिया. किसना घबरा कर रोने लगी.

‘‘अरे… तुम चुप हो जाओ,’’ और सरकार ने अलमारी से एक लाख रुपए निकाल कर उस के हाथ पर रख दिए, फिर उस की कीमत वसूलने में लग गए.

बेचारी किसना उस सारी रात क्याक्या सोचती रही और पूरी रात खुली आंखों में काट दी.

शाम को जब सरकार ने किसना को बुलाने भेजा था, तो वह कमरे पर नहीं मिली. चिडि़या पिंजरे से उड़ चुकी थी. आखिरी बार उसे माली काका ने देखा था. सरकार ने भी अपने तरीके से ढूंढ़ने की कोशिश की, पर वह नहीं मिली.

उधर किसना पैसा ले कर कुछ दिनों तक अपनी सहेली पारो के घर रही और कुछ समय बाद अपने गांव चली गई.

किसना की सहेली पारो बोली, ‘‘किसना, अब तू वापस मत आना. काश, मैं भी इसी तरह हिम्मत दिखा पाती. खैर छोड़ो…’’

किसना ने अपना चेहरा घूंघट से ढका और बस में बैठते ही भविष्य के उजियारे सपनों में खो गई. इन सपनों में खोए 12 घंटों का सफर उसे पता ही नहीं चला. बस कंडक्टर ने उसे हिला कर जगाया, ‘‘ऐ… नीचे उतर, तेरा गांव आ गया है.’’

किसना आंखें मलते हुए नीचे उतरी. उस ने अलसाई आंखों से इधरउधर देखा. आसमान में सूरज उग रहा था. ऐसा लगा कि जिंदगी में पहली बार सूरज देखा हो.

आज 30 बसंत पार कर चुकी किसना को ऐसा लगा कि जैसे जिंदगी में ऐसी सुबह पहली बार देखी हो, जहां न मुखियाइन, न दलाल, न सरकार… वह उगते हुए सूरज की तरफ दोनों हाथ फैलाए एकटक आसमान की तरफ निहारे जा रही थी. आतेजाते लोग उसे हैरत से देख रहे थे, तभी अचानक वह सकुचा गई और अपना सामान समेट कर मुसकराते हुए आगे बढ़ गई.

किसना को घर के लिए आटोरिकशा पकड़ना था. तभी सोचा कि मां और बेटी रोशनी के लिए कुछ ले ले, दोनों खुश हो जाएंगी. उस ने वहां पर ही एक मिठाई की दुकान में गरमागरम कचौड़ी खाई और मिठाई भी ली.

किसना पल्लू से 5 सौ का नोट निकाल कर बोली, ‘‘भैया, अपने पैसे काट लो.’’

दुकानदार भड़क गया, ‘‘बहनजी, मजाक मत करिए. इस नोट का मैं क्या करूंगा. मुझे 2 सौ रुपए दो.’’

‘‘क्यों भैया, इस में क्या बुराई है.’’

‘‘तुम को पता नहीं है कि 2 दिन पहले ही 5 सौ और एक हजार के नोट चलना बंद हो गए हैं.’’

किसना ने दुकानदार को बहुत समझाया, पर जब वह न माना तो आखिर में अपने पल्लू से सारे पैसे निकाल कर उसे फुटकर पैसे दिए और आगे बढ़ गई.

अभी किसना ढंग से खुशियां भी न मना पाई थी कि जिंदगी में फिर स्याह अंधेरा फैलने लगा. अब क्या करेगी? उस के पास तो 5 सौ और एक हजार के ही नोट थे, क्योंकि इन्हें मुखियाइन से छिपा कर रखना जो आसान था.

रास्ते में बैंक के आगे लगी भीड़ में जा कर पूछा तो पता लगा कि लोग नोट बदल रहे हैं. किसना को तो यह डूबते को तिनके का सहारा की तरह लगा. किसी तरह पैदल चल कर ही वह अपने घर पहुंची.

बेटी रोशनी किसना को देखते ही लिपट गई और बोली, ‘‘मां, अब तुम यहां से कभी वापस मत जाना.’’

किसना उसे प्यार करते हुए बोली, ‘‘अब तेरी मां कहीं नहीं जाएगी.’’

बेटी के सो जाने के बाद किसना ने अपनी मां को सारा हाल बताया. उस की मां ने पूछा, ‘‘अब आगे क्या करोगी?’’

किसना ने कहा, ‘‘यहीं सिलाईकढ़ाई की दुकान खोल लूंगी.’’

दूसरे दिन ही किसना अपने पैसे ले कर बैंक पहुंची, मगर मंजिल इतनी आसान न थी. सुबह से शाम हो गई, पर उस का नंबर नहीं आया और बैंक बंद हो गया.

ऐसा 3-4 दिनों तक होता रहा और काफी जद्दोजेहद के बाद उस का नंबर आया, तो बैंक वालों ने उस से पहचानपत्र मांगा. वह चुपचाप खड़ी हो गई.

बैंक के अफसर ने पूछा कि पैसा कहां से कमाया? वह समझाती रही कि यह उस की बचत का पैसा है.

‘‘तुम्हारे पास एक लाख रुपए हैं. तुम्हें अपनी आमदनी का जरीया बताना होगा.’’

बेचारी किसना रोते हुए बैंक से बाहर आ गई. किसना हर रोज बैंक के बाहर बैठ जाती कि शायद कोई मदद मिल जाए, मगर सब उसे देखते हुए निकल जाते.

तभी एक दिन उसे एक नौजवान आता दिखाई पड़ा. जैसेजैसे वह किसना के नजदीक आया, किसना के चेहरे पर चमक बढ़ती चली गई. उस के जेहन में वे यादें गुलाब के फूल पर पड़ी ओस की बूंदों की तरह ताजा हो गईं. कैसे यह बाबू उस का प्यार पाने के लिए क्याक्या जतन करता था? जब वह सुबहसुबह उस के गैस्ट हाउस की सफाई करने जाती थी, तो बाबू अकसर नजरें बचा कर उसे देखता था.

वह बाबू किसना को अकसर घुमाने ले जाता और घंटों बाग में बैठ कर वादेकसमें निभाता. वह चाहता कि अब हम दोनों तन से भी एक हो जाएं. किसना अब उसे एक सच्चा प्रेमी समझने लगी और उस की कही हर बात पर भरोसा भी करती थी, मगर किसना बिना शादी के कोई बंधन तोड़ने को तैयार न थी, तो उस ने उस से शादी कर ली, मगर यह शादी उस ने उस का तन पाने के लिए की थी.

किसना का नशा उस की रगरग में समाया था. उस ने सोचा कि अगर यह ऐसे मानती है तो यही सही, आखिर शादी करने में बुराई क्या है, बस माला ही तो पहनानी है. उस ने आदिवासी रीतिरिवाज से कलक्टर और मुखिया के सामने किसना से शादी कर ली, लेकिन उधर लड़के की मां ने उस का रिश्ता कहीं और तय कर दिया था.

एक दिन बिना बताए किसना का बाबू कहीं चला गया. इस तरह वे दोनों यहां मिलेंगे, किसना ने सोचा न था.

जब वह किसना के बिलकुल नजदीक आया, तो किसना चिल्ला कर बोली, ‘‘अरे बाबू… आप यहां?’’

वह नौजवान छिटक कर दूर चला गया और बोला, ‘‘क्या बोल रही हो? कौन हो तुम?’’

‘‘मैं तुम्हारी किसना हूं? क्या तुम अब मुझे पहचानते भी नहीं हो? मुझे तुम्हारा घर नहीं चाहिए. बस, एक छोटी सी मदद…’’

‘‘अरे, तुम मेरे गले क्यों पड़ रही हो?’’ वह नौजवान यह कहते हुए आगे बढ़ गया और बैंक के अंदर चला गया.

अब तो किसना रोज ही उस से दया की भीख मांगती और कहती कि बाबू, पैसे बदलवा दो, पर वह उसे पहचानने से मना करता रहा.

ऐसा कहतेकहते कई दिन बीत गए, मगर बाबू टस से मस न हुआ.

आखिरकार किसना ने ठान लिया कि अब जैसे भी हो, उसे पहचानना ही होगा. उस ने वापस आ कर सारा घर उलटपलट कर रख दिया और उसे अपनी पहचान का सुबूत मिल गया.

सुबह उठ कर किसना तैयार हुई और मन ही मन सोचा कि रो कर नहीं अधिकार से मांगूंगी और बेटी को भी साथ ले कर बैंक गई. उस के तेवर देख कर बाबू थोड़ा सहम गया.

उसे किनारे बुला कर किसना बोली, ‘‘यह रहा कलक्टर साहब द्वारा कराई गई हमारी शादी का फोटो. अब तो याद आ ही गया होगा?’’

‘‘हां… किसना… आखिर तुम चाहती क्या हो और क्यों मेरा बसाबसाया घर उजाड़ना चाहती हो?’’

किसना आंखों में आंसू लिए बोली, ‘‘जिस का घर तुम खुद उजाड़ कर चले आए थे, वह क्या किसी का घर उजाड़ेगी, रमेश बाबू… वह लड़की जो खेल रही है, उसे देखो.’’

रमेश पास खेल रही लड़की को देखने लगा. उस में उसे अपना ही चेहरा नजर आ रहा था. उसे लगा कि उसे गले लगा ले, मगर अपने जज्बातों को काबू कर के बोला, ‘‘हां…’’

किसना तकरीबन घूरते हुए बोली, ‘‘यह तुम्हारी ही बेटी है, जिसे तुम छोड़ आए थे.’’

रमेश के चेहरे के भाव को देखे बिना ही बोली, ‘‘देखो रमेश बाबू, मुझे तुम में कोई दिलचस्पी नहीं है. मैं एक नई जिंदगी जीना चाहती हूं. अगर इन पैसों का कुछ न हुआ, तो लौट कर फिर वहीं नरक में जाना पड़ेगा.

‘‘मैं अपनी बेटी को उस नरक से दूर रखना चाहती हूं, नहीं तो उसे भी कुछ सालों में वही कुछ करना पड़ेगा, जो उस की मां करती रही है. अपनी बेटी की खातिर ही रुपया बदलवा दो, नहीं तो लोग इसे वेश्या की बेटी कहेंगे.

‘‘अगर तुम्हारे अंदर जरा सी भी गैरत है, तो तुम बिना सवाल किए पैसा बदलवा लाओ, मैं यहीं तुम्हारा इंतजार कर रही हूं.’’

रमेश ने उस से पैसों का बैग ले लिया और खेलती हुई बेटी को देखते हुए बैंक के अंदर चला गया और कुछ घंटे बाद वापस आ कर रमेश ने नोट बदल कर किसना को दे दिए और कुछ खिलौने अपने बेटी को देते हुए गले लगा लिया.

तभी किसना ने आ कर उसे रमेश के हाथों से छीन लिया और बेटी का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर बोली, ‘‘रमेश बाबू… चाहत की अलगनी पर धोखे के कपड़े नहीं सुखाए जाते…’’ और बेटी के साथ सड़क की भीड़ में अपने सपनों को संजोते हुए खो गई.

क्लेम : परमानंद और बाढ़ का मुआवजा

जब आंखें खुलीं, तो परमानंद ने देखा कि दिन निकल आया था. रात को सोते समय उस ने सोचा था कि सुबह वह जल्दी उठेगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल थी, वरना कुछ कमाई हो जाती. वैसे, आज के समय तांगा कौन लेता है? सभी तेज भागने वाली सवारी लेना चाहते हैं. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से कुछ उम्मीद बंधी थी, पर सिर भारी हो रहा था. बुखार सा लग रहा था. इच्छा हुई, आराम कर ले, पर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या? और उस का रुस्तम? उस का क्या होगा?

परमानंद जल्दी से उठा और रुस्तम को चारापानी डाल कर तैयार होने के लिए चल दिया. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटा कर उस ने तांगा तैयार किया और सड़क पर जा पहुंचा. जल्दी ही सवारी भी मिल गई.

2 लोगों ने हाथ दिखा कर उसे रोका. उन में एक अधेड़ था और दूसरा नौजवान.

‘‘कलक्ट्रेट चलना है?’’ अधेड़ आदमी ने पूछा.

‘‘जी, चलेंगे,’’ परमानंद बोला.

‘‘क्या लोगे? पहले तय कर लो,

नहीं तो बाद में  झंझट करोगे,’’ नौजवान ने कहा.

‘‘आप ही मुनासिब समझ कर दे दीजिएगा. झंझट किस बात का?’’

‘‘नहींनहीं, पहले तय हो जाना चाहिए. हम 30 रुपए देंगे. चलना है

तो बोलो, नहीं तो हम दूसरी सवारी देखते हैं.’’

‘‘ठीक है साहब,’’ परमानंद बोला.

‘‘और देखो, कलक्ट्रेट के भीतर पहुंचाना होगा. बीच में ही मत छोड़ देना.’’

‘‘गांधी मैदान का भाड़ा ही 30 रुपए होता है. भीतर अंदर तक तो 50 रुपए होगा.’’

‘‘देखो, हम ने जो कह दिया, सो कह दिया. चलना है तो चलो,’’ नौजवान की आवाज सख्त थी.

परमानंद इनकार करने ही जा रहा था कि बुजुर्ग ने तांगे पर चढ़ते हुए कहा, ‘‘चलो, तुम 40 रुपए ले लेना. हम भी तो परेशानी में पड़े हैं.’’

अब परमानंद इनकार न कर सका. उस के सिर का दर्द बढ़ता जा रहा था और वह तकरार के मूड में नहीं था.

‘‘ठीक है, 40 रुपए ही सही,’’ परमानंद ने धीरे से कहा. तांगा सड़क पर सरपट दौड़ने लगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से सड़क खाली सी थी. रुस्तम भी रात के आराम से तरोताजा हो कर तेजी से दौड़ रहा था.

दोनों सवारी आपस में बातें कर रहे थे. पता चला, वे एक परिवार के नहीं हैं, बल्कि अलगअलग परिवारों से हैं. शायद दूर का रिश्ता हो. दोनों बाढ़ के नुकसान के अनुदान के सिलसिले में कलक्टर साहब के दफ्तर जा रहे थे.

थोड़ा आगे जाने पर सड़क की दूसरी ओर एक गिरजाघर दिखाई पड़ा. परमानंद ने देखा कि अंधेड़ ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से सिर झुकाया.

नौजवान ने हैरानी से पूछा, ‘‘आप ईसाई गिरजाघर को प्रणाम करते हैं?’’

अधेड़ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, किस देवी या देवता का आशीर्वाद मिल जाए और काम बन जाए?’’

वे अधेड़ बता रहे थे, ‘‘इस क्लेम को पाने के लिए मैं 50-60 हजार रुपए खर्च कर चुका हूं. क्लेम 2 लाख रुपए का किया है. अपने एकमंजिला मकान को दोमंजिला दिखाया है. खेती का नुकसान भी दोगुना दिखाया है,’’ और एक लंबी आह भरते हुए उन्होंने आगे जोड़ा, ‘‘देखें, कितना पास होता है और मिलता क्या है?’’

नौजवान ने हामी भरी, ‘‘मैं ने भी अपना नुकसान खूब बढ़ाचढ़ा कर दिखाया है. मुखिया तो मानता ही न था. 30 हजार रुपए दे कर उसे किसी तरह मनाया. मुलाजिम और चपरासी के हाथ अलग से गरम करने पड़े.

‘‘और कलक्ट्रेट में तो खुलेआम लूट है. सभी मुंह खोले रहते हैं. बिना पैसा लिए कोई काम ही नहीं करता. फाइल आगे बढ़ाने के लिए हर बार चपरासी को चढ़ावा देना पड़ता है. लगता है कि सभी बाढ़ और सूखे के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहते हैं.’’

आगे गंगा किनारे एक मंदिर था. उन्होंने तांगा रुकवाया, उतर कर बगल की दुकान से तमाम तरह की मिठाइयां खरीदीं और मंदिर में प्रवेश किया.

जब वे वापस आए, तो नौजवान ने कहा, ‘‘इतनी सारी मिठाइयां चढ़ाने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘सुना नहीं… जितनी ज्यादा शक्कर डालोगे, हलवा उतना ही मीठा होगा. लंबाचौड़ा क्लेम है, चढ़ावा तो बड़ा करना ही होगा. पंडितजी ने कहा है कि जितना ज्यादा चढ़ावा चढ़ाओगे, तो जल्दी फल मिलेगा.’’

इस बाढ़ में तो परमानंद ने अपना सबकुछ खो दिया है. उस का सारा परिवार, उस की प्यारी पत्नी, उस के 2 छोटेछोटे बच्चे, उस का बूढ़ा पिता. सब को इस बाढ़ ने निगल लिया था. एक छोटा सा मिट्टी का घर था, गंगा किनारे सरकारी जमीन पर. सबकुछ, सारे लोग, घर का सारा सामान, रात के अंधेरे में गंगा में समा गए. कुछ भी नहीं बचा.

यह तो रुस्तम की मेहरबानी थी कि वह बच गया, नहीं तो वह भी गंगा की भेंट चढ़ गया होता. पता नहीं, जानवरों को कैसे आने वाली मुसीबत का पता चल जाता है? शायद उसी के चलते उस दिन रुस्तम, जो बाहर बंधा था, रस्सी तोड़ कर जोरों से हिनहिनाते हुए भाग खड़ा हुआ. परमानंद उस के पीछे दौड़ा. दौड़तेभागते वे दूर निकल गए.

रुस्तम लौटने को तैयार ही नहीं था, इसलिए परमानंद भी वहीं रह गया. जब वह लौटा, तो सबकुछ खत्म हो गया था. तेज धारा के कटाव से उस का घर गंगा में बह गया था. तब उस के जीने की इच्छा भी मर गई थी. वह तो जिंदा रहा सिर्फ रुस्तम के लिए, जो उस का घोड़ा नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा था. वह उस का बेटा था और अब तो उस की जिंदगी बचाने वाला भी.

‘‘जरा जल्दी चलो, दिनभर ले लोगे क्या?’’ नौजवान ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘पहले ही इतनी देरी हो गई है.’’

तांगा तेजी से भाग रहा था… और दिनों से कहीं ज्यादा तेज.

‘क्या उड़ा कर ले चलें? तांगा ही तो है, मोटरगाड़ी नहीं,’ परमानंद ने मन ही मन कहा, पर उन लोगों को खुश रखने के लिए उस ने घोड़े को ललकारा, ‘‘चल बेटा, अपनी चाल दिखा. साहब लोगों को देर हो रही है.’’

लेकिन उस ने चाबुक नहीं उठाया. वह रुस्तम को कभी भी नहीं मारता था.

जल्दी ही वे दोनों कलक्ट्रेट पहुंच गए. अधेड़ ने सौ का नोट निकाला, ‘‘बाकी के 60 रुपए दे दो भाई.’’

छुट्टे के नाम पर परमानंद के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी.

‘‘मैं छुट्टे कहां से लाऊं?’’ उस ने आसपास नजर दौड़ाई. छुट्टे पैसे देने वाला उसे कोई न दिखा.

‘‘छुट्टे ले कर चलना चाहिए न?’’ नौजवान बोला. अपने बटुए से उस ने

30 रुपए निकाले, ‘‘मेरे पास तो बस यही छुट्टे हैं.’’

‘‘ले लो भाई. आज ये ही रख

लो. बाकी फिर कभी ले लेना,’’ अधेड़ ने कहा.

परमानंद ने वे 30 रुपए ले लिए. पहली सवारी में ही घाटा. फिर उस ने रुस्तम को देखा और उस की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘चलो, तेरे लिए चारापानी का इंतजाम तो हो गया.’’

परमानंद सोच रहा था कि बाढ़ के अनुदान का अधिकार इन लोगों से ज्यादा तो उस का था. उस का इन लोगों से ज्यादा नुकसान हुआ था, पर वह कोई क्लेम नहीं कर सका था. घूस देने के लिए उस के पास पैसे न थे. जमीनजायदाद न थी. उस का घर मिट्टी का था, जो सरकारी जमीन पर बना था. मुखिया 10 हजार रुपए मांग रहा था. मुलाजिम की मांग अलग थी और कलक्ट्रेट का खर्च अलग. कहां से लाता वह यह सब? बाढ़ में सबकुछ खो देने के बाद उसे कुछ भी मुआवजा नहीं मिला.

किसी ने सुझाया था, ‘रुस्तम को बेच दो.’

ऐसा परमानंद कैसे कर सकता था? कोई अपने बेटे को बेच सकता है भला? उस ने अपने रुस्तम को प्यार से थपथपाया, ‘‘मेरा क्लेम तो तू ही है. मेरी सारी जरूरतों को तू ही पूरा करता है.’’

रुस्तम ने गरदन हिला कर सहमति जताई. गले में बंधी घंटियां बज उठीं और परमानंद के कानों में मधुर संगीत गूंज उठा.

मकान मालकिन : क्यों थीं प्रभा देवी आंटी खड़ूस?

‘‘साहबजी, आप अपने लिए मकान देख रहे हैं?’’ होटल वाला राहुल से पूछ रहा था.

पिछले 2 हफ्ते से राहुल एक धर्मशाला में रह रहा था. दफ्तर से छुट्टी होने के बाद वह मकान ही देख रहा था. उस ने कई लोगों से कह रखा था. होटल वाला भी उन में से एक था.

होटल का मालिक बता रहा था कि वेतन स्वीट्स के पास वाली गली में एक मकान है,

2 कमरे का. बस, एक ही कमी थी… उस की मकान मालकिन.

पर होटल वाले ने इस का एक हल निकाला था कि मकान ले लो और साथ में दूसरा मकान भी देखते रहो. उस मकान में कोई 2 महीने से ज्यादा नहीं रहा है.

‘‘आप मकान बता रहे हो या डरा रहे हो?’’ राहुल बोला, ‘‘मैं उस मकान को देख लूंगा. धर्मशाला से तो बेहतर ही रहेगा.’’

अगले दिन दफ्तर के बाद राहुल अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ मकान देखने चला गया. मकान उसे पसंद था, पर मकान मालकिन ने यह कह कर उस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि रात को 10 बजे के बाद गेट नहीं खुलेगा.

राहुल ने सोचा, ‘मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर देर रात हो जाती है…’ वह बोला, ‘‘आंटी, मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर रात को देर हो सकती है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ आंटी बोलीं, ‘‘अगर पसंद न हो, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल कुछ देर खड़ा रहा और बोला, ‘‘आंटी, आप उस हिस्से में एक गेट और लगवा दो. उस की चाबी मैं अपने पास रख लूंगा.’’

आंटी ने अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मेरे पास खर्च करने के लिए एक भी पैसा नहीं है.’’

राहुल ने गेट बनाने का सारा खर्च खुद उठाने की बात की, तो आंटी राजी हो गईं. इस के साथ ही उस ने झगड़े की जड़ पानी और बिजली के कनैक्शन भी अलग करवा लिए. दोनों जगहों के बीच दीवार खड़ी करवा दी. उस में दरवाजा भी बनवा दिया, लेकिन दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ.

सारा काम पूरा हो जाने के बाद राहुल मकान में आ गया. उस ने मकान मालकिन द्वारा कही गई बातों का पालन किया.

राहुल दिन में अपने मकान में कम ही रहता था. खाना भी वह होटल में ही खाता था. हां, रात में वह जरूर अपने कमरे पर आ जाता था. उस के हिस्से में ‘खटखट’ की आवाज से आंटी को पता चल जाता और वे आवाज लगा कर उस के आने की तसल्ली कर लेतीं.

उन आंटी का नाम प्रभा देवी था. वे अकेली रहती थीं. उन की 2 बेटियां थीं. दोनों शादीशुदा थीं.

आंटी के पति की मौत कुछ साल पहले ही हुई थी. उन की मौत के बाद वे दोनों बेटियां उन को अपने साथ रखने को तैयार थीं, पर वे खुद ही नहीं रहना चाहती थीं. जब तक शरीर चल रहा है, तब तक क्यों उन के भरेपूरे परिवार को परेशान करें.

अपनी मां के एक फोन पर वे दोनों बेटियां दौड़ी चली आती थीं. आंटी और उन के पति ने मेहनतमजदूरी कर के अपने परिवार को पाला था. उन के पास अब केवल यह मकान ही बचा था, जिस को किराए पर उठा कर उस से मिले पैसे से उन का खर्च चल जाता था.

एक हिस्से में आंटी रहती थीं और दूसरे हिस्से को वे किराए पर उठा देती थीं. पर एक मजदूर के  पास मजदूरी से इतना बड़ा मकान नहीं हो सकता. पतिपत्नी दोनों ने खूब मेहनत की और यहां जमीन खरीदी. धीरेधीरे इतना कर लिया कि मकान के एक हिस्से को किराए पर उठा कर आमदनी का एक जरीया तैयार कर लिया था.

राहुल अपने मांबाप का एकलौता बेटा था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. नौकरी पर वह यहां आ गया और आंटी का किराएदार बन गया. दोनों ही अकेले थे. धीरेधीरे मांबेटे का रिश्ता बन गया.

घर के दोनों हिस्सों के बीच का दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ. हमेशा खुला रहा. राहुल को कभी ऐसा नहीं लगा कि आंटी गैर हैं.

आंटी के बारे में जैसा सुना था, वैसा उस ने नहीं पाया. कभीकभी उसे लगता कि लोग बेवजह ही आंटी को बदनाम करते रहे हैं या राहुल का अपना स्वभाव अच्छा था, जिस ने कभी न करना नहीं सीखा था. आंटी जो भी कहतीं, उसे वह मान लेता.

आंटी हमेशा खुश रहने की कोशिश करतीं, पर राहुल को उन की खुशी खोखली लगती, जैसे वे जबरदस्ती खुश रहने की कोशिश कर रही हों. उसे लगता कि ऐसी जरूर कोई बात है, जो आंटी को परेशान करती है. उसे वे किसी से बताना भी नहीं चाहती हैं. उन की बेटियां भी अपनी मां की समस्या किसी से नहीं कहती थीं.

वैसे, दोनों बेटियों से भी राहुल का भाईबहन का रिश्ता बन गया था. उन के बच्चे उसे ‘मामामामा’ कहते नहीं थकते थे. फिर भी वह एक सीमा से ज्यादा आगे नहीं बढ़ता था. लोग हैरान थे कि राहुल अभी तक वहां कैसे टिका हुआ है.

आज रात राहुल जल्दी घर आ गया था. एक बार वह जा कर आंटी से मिल आया था, जो एक नियम सा बन गया था. जब वह देर से घर आता था, तब यह नियम टूटता था. हां, तब आंटी अपने कमरे से ही आवाज लगा देती थीं.

रात के 11 बज रहे थे. राहुल ने सुना कि आंटी चीख रही थीं, ‘मेरा बच्चा… मेरा बच्चा… वह मेरे बच्चे को मुझ से छीन नहीं सकता…’ वे चीख रही थीं और रो भी रही थीं.

पहले तो राहुल ने इसे अनदेखा करने की कोशिश की, पर आंटी की चीखें बढ़ती ही जा रही थीं. इतनी रात को आंटी के पास जाने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी, भले ही उन के बीच मांबेटे का अनकहा रिश्ता बन गया था.

राहुल ने अपने दोस्त प्रशांत को फोन किया और कहा, ‘‘भाभी को लेता आ.’’ थोड़ी देर बाद प्रशांत अपनी बीवी को साथ ले कर आ गया.

आंटी के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था. यह उन के लिए हैरानी की बात थी. तीनों अंदर घुसे. राहुल सब से आगे था. उसे देखते ही पलंग पर लेटी आंटी चीखीं, ‘‘तू आ गया… मुझे पता था कि तू एक दिन जरूर अपनी मां की चीख सुनेगा और आएगा. उन्होंने तुझे छोड़ दिया. आ जा बेटा, आ जा, मेरी गोद में आ जा.’’

राहुल आगे बढ़ा और आंटी के सिर को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगा. आंटी को बहुत अच्छा लग रहा था. उन को लग रहा था, जैसे उन का अपना बेटा आ गया. धीरेधीरे वे नौर्मल होने लगीं.

प्रशांत और उस की बीवी भी वहीं आ कर बैठ गए. उन्होंने आंटी से पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने टाल दिया. वे राहुल की गोद में ही सो गईं. उन की नींद को डिस्टर्ब न करने की खातिर राहुल बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद प्रशांत और उस की बीवी चले गए. राहुल रातभर वहीं बैठा रहा. सुबह जब आंटी ने राहुल की गोद में अपना सिर देखा, तो राहुल के लिए उन के मन में प्यार हिलोरें मारने लगा. उन्होंने उस को चायनाश्ता किए बिना जाने नहीं दिया.

राहुल ने दफ्तर पहुंच कर आंटी की बड़ी बेटी को फोन किया और रात में जोकुछ घटा, सब बता दिया. फोन सुनते ही बेटी शाम तक घर पहुंच गई. उस बेटी ने बताया, ‘‘जब मेरी छोटी बहन 5 साल की हुई थी, तब हमारा भाई लापता हो गया था. उस की उम्र तब 3 साल की थी. मांबाप दोनों काम पर चले गए थे.

‘‘हम दोनों बहनें अपने भाई के साथ खेलती रहतीं, लेकिन एक दिन वह खेलतेखेलते घर से बाहर चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया.

‘‘उस समय बच्चों को उठा ले जाने वाले बाबाओं के बारे में हल्ला मचा हुआ था. यही डर था कि उसे कोई बाबा न उठा ले गया हो.

‘‘मां कभीकभी हमारे भाई की याद में बहक जाती हैं. तभी वे परेशानी में अपने बेटे के लिए रोने लगती हैं.’’

आंटी की बड़ी बेटी कुछ दिन वहीं रही. बड़ी बेटी के जाने के बाद छोटी बेटी आ गई. आंटी को फिर कोई दौरा नहीं पड़ा.

2 दिन हो गए आंटी को. राहुल नहीं दिखा. ‘खटखट’ की आवाज से उन को यह तो अंदाजा था कि राहुल यहीं है, लेकिन वह अपनी आंटी से मिलने क्यों नहीं आया, जबकि तकरीबन रोज एक बार जरूर वह उन से मिलने आ जाता था. उस के मिलने आने से ही आंटी को तसल्ली हो जाती थी कि उन के बेटे को उन की फिक्र है. अगर वह बाहर जाता, तो कह कर जाता, पर उस के कमरे की ‘खटखट’ बता रही थी कि वह यहीं है. तो क्या वह बीमार है? यही देखने के लिए आंटी उस के कमरे पर आ गईं.

राहुल बुखार में तप रहा था. आंटी उस से नाराज हो गईं. उन की नाराजगी जायज थी.

उन्होंने उसे डांटा और बोलीं, ‘‘तू ने अपनी आंटी को पराया कर दिया…’’

वे राहुल की तीमारदारी में जुट गईं. उन्होंने कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे मांबाप जब तक आएंगे, तब तक हम ही तेरे अपने हैं.’’

राहुल के ठीक होने तक आंटी ने उसे कोई भी काम करने से मना कर दिया. उसे बाजार का खाना नहीं खाने दिया. वे उस का खाना खुद ही बनाती थीं.

राहुल को वहां रहते तकरीबन 9 महीने हो गए थे. समय का पता ही नहीं चला. वह यह भी भूल गया कि उस का जन्मदिन नजदीक आ रहा है.

उस की मम्मी सविता ने फोन पर बताया था, ‘हम दोनों तेरा जन्मदिन तेरे साथ मनाएंगे. इस बहाने तेरा मकान भी देख लेंगे.’

आज राहुल की मम्मी सविता और पापा रामलाल आ गए. उन को चिंता थी कि राहुल एक अनजान शहर में कैसे रह रहा है. वैसे, राहुल फोन पर अपने और आंटी के बारे में बताता रहता था और कहता था, ‘‘मम्मी, मुझे आप जैसी एक मां और मिल गई हैं.’’

फोन पर ही उस ने अपनी मम्मी को यह भी बताया था, ‘‘मकान किराए पर लेने से पहले लोगों ने मुझे बहुत डराया था कि मकान मालकिन बहुत खड़ूस हैं. ज्यादा दिन नहीं रह पाओगे. लेकिन मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं देखा.’’

तब उस की मम्मी बोली थीं, ‘बेटा, जब खुद अच्छे तो जग अच्छा होता है. हमें जग से अच्छे की उम्मीद करने से पहले खुद को अच्छा करना पड़ेगा. तेरी अच्छाइयों के चलते तेरी आंटी भी बदल गई हैं,’ अपने बेटे के मुंह से आंटी की तारीफ सुन कर वे भी उन से मिलने को बेचैन थीं.

राहुल मां को आंटी के पास बैठा कर अपने दफ्तर चला गया. दोनों के बीच की बातचीत से जो नतीजा सामने आया, वह हैरान कर देने वाला था.

राहुल के लिए तो जो सच सामने आया, वह किसी बम धमाके से कम नहीं था. उस की आंटी जिस बच्चे के लिए तड़प रही थीं, वह खुद राहुल था.

मां ने अपने बेटे को उस की आंटी की सचाई बता दी और बोलीं, ‘‘बेटा, ये ही तेरी मां हैं. हम ने तो तुझे एक बाबा के पास देखा था. तू रो रहा था और बारबार उस के हाथ से भागने की कोशिश कर रहा था. हम ने तुझे उस से छुड़ाया. तेरे मांबाप को खोजने की कोशिश की, पर वे नहीं मिले.

‘‘हमारा खुद का कोई बच्चा नहीं था. हम ने तुझे पाला और पढ़ाया. जिस दिन तू हमें मिला, हम ने उसी दिन को तेरा जन्मदिन मान लिया. अब तू अपने ही घर में है. हमें खुशी है कि तुझे तेरा परिवार मिल गया.’’

राहुल बोला, ‘‘आप भी मेरी मां हैं. मेरी अब 2-2 मांएं हैं.’’

इस के बाद घर के दोनों हिस्से के बीच की दीवार टूट गई.

 

अंधेरी गुफा : जब मासूम बच्चों ने टीचर की लगाई क्लास

मैं अपनी कक्षा के छात्रों से कहता रहता था कि पढ़ने के अलावा और भी अच्छीअच्छी बातें सीखें. मन में कोई सवाल हो पूछ लें, मैं जवाब दे दूंगा.

पहले तो बच्चे झिझके, पर एक दिन उन्होंने मुझ पर ऐसे सवालों की बौछार कर दी कि मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा.

‘‘मास्टरजी, रशीद मेरा दोस्त है. हम दोनों साथसाथ खेलते हैं, साथसाथ स्कूल आते हैं, मेला देखने भी साथसाथ जाते हैं. हम में बहुत प्यार है. ईद पर वह मुझे अपने घर से सेवइयां ला कर खिलाता है और मैं दीवाली पर उसे घर की बनी गुझिया और समोसे खिलाता हूं. क्या बड़े लोग हमारी तरह मिलजुल कर एकसाथ नहीं रह सकते? कल ही एक खबर में पढ़ा था कि 4-5 लोगों ने एक मुसलिम को सरेआम सड़क पर मार डाला.’’

मेरा सिर धरती से लगता जा रहा था. मेरा सारा जोश हवा हो चुका था. लग रहा था कि मैं कुछ जानता ही नहीं. बहुत जानने का गुमान चूरचूर हो गया था. मासूम बच्चों से भरी उस क्लास में सब से गंवार और अनपढ़ मैं खुद था, क्योंकि उन के किसी भी सवाल का सही जवाब मेरे पास नहीं था.

जब मैं स्कूल में नयानया आया था, तब ऐसा सवाल पूछने की हिम्मत किसी भी छात्र में नहीं थी. यह बदलाव मैं ही उन में लाया था.

दरअसल, बीऐड के बाद बहुत हाथपैर मारने के बाद एक देहाती सरकारी स्कूल में नौकरी मिली. उस स्कूल में 12वीं जमात तक की पढ़ाई होती थी.

नईनई नौकरी थी. किसी स्कूल में मास्टर बनने का पहला मौका था. मन में उमंग थी, लगन थी. बच्चों को कुछ नया सिखाने की उमंग थी. उस समय मेरे लिए मास्टरी केवल रोजीरोटी का धंधा भर नहीं थी, बल्कि मेरे मन में बच्चों को पढ़ाने के अलावा उन्हें अच्छीअच्छी बातें सिखाने की चाहत भी हिलोरें मार रही थीं. बच्चों को स्कूली किताबें पढ़ाने के अलावा कुछ जरूरी जानकारियां देना भी मैं अपना फर्ज समझता था.

15 अगस्त का दिन था. स्कूल में तिरंगा झंडा फहराने के बाद छुट्टी हो गई. अगले दिन मैं छठी कक्षा के लड़कों को पढ़ा रहा था. अचानक मैं उन से पूछ बैठा, ‘‘15 अगस्त को तिरंगा झंडा क्यों फहराते हैं?’’ ज्यादातर बच्चे चुप रह गए. 2-4 बच्चों ने जवाब दिए भी तो आधेअधूरे.

‘‘हमारे देश की राजधानी कहां हैं?’’ मेरे इस सवाल पर भी कोई खास हरकत नहीं हुई. मुझे अचरज के साथ अफसोस भी हुआ. छठी में पढ़ने वाले लड़कों को ये बातें तो जरूर मालूम होनी चाहिए. लेकिन कोई भी मास्टर इस बात पर ध्यान नहीं देता था. कोई बच्चा पढ़े, या न पढ़े, किसी को कोई मतलब नहीं था.

पूरी कक्षा में कुछेक बच्चों के पास ही किताबें रहती थीं. बाकी बच्चे ताकझांक कर या मास्टरों के पास अपने घरों से दूध, घी, गुड़ या दूसरी चीजें पहुंचा कर काम चला लिया करते थे. मास्टरजी उन चीजों की वजन परख कर उसी के मुताबिक इम्तिहान में नंबर दे देते थे.

यह तो कभीकभार ही होता था कि कक्षा में मास्टर और बच्चे दोनों मौजूद रहें. जब बच्चे आते तो मास्टर नहीं, और जब मास्टर आते तो बच्चे नहीं. हां, स्कूल के रजिस्टरों से अलबत्ता यह कमी दूर कर दी जाती.

स्कूल में पढ़ाई की यह हालत देख कर मेरा दिल जख्मी हो उठा. जो बच्चे अपने देश की राजधानी तक न बता पाएं, वे आगे चल कर क्या करेंगे? यह सोच कर मैं बहुत चिंतित हो उठा.

स्कूल में ही एक छोटा सा पुस्तकालय भी था, जिस में कुछ छोटीमोटी किताबों के अलावा 2-3 दिन के बासी अखबार भी रहते थे. मैं ने अपने बच्चों को उन अखबारों में छपी छोटीमोटी खबरें व कहानियां पढ़ने के लिए कहा.

मैं ने उन्हें यह भी कहा कि अगर कोई बात समझ में न आए, तो तुम लोग मुझ से उस का मतलब पूछ सकते हो. हालांकि सब के घरों में टैलीविजन नहीं थे, पर ज्यादातर बच्चे कहीं न कहीं जा कर टैलीविजन के कार्यक्रम जरूर देखते थे. मैं ने उन से रेडियो, टैलीविजन पर खबरें सुनते रहने के लिए भी कहा. कुछ के बड़े भाइयों के पास मोबाइल फोन थे. दिन में वे रील्स देखते थे या ह्वाट्सएप पर कुछ पढ़ते थे.

कई दिनों तक बच्चों को खबरें पढ़नेसुनने की सलाह देते रहने के बाद मैं ने बच्चों के रुझान में होने वाले बदलाव का पता लगाने के लिए पूछा, ‘‘तुम में से कितने बच्चे अखबार की खबरें पढ़ते हैं या टैलीविजन पर न्यूज देखते हैं? हाथ उठाओ.’’

मेरे पूछने पर जब उठने वाले हाथों की तादाद बढ़ने लगी, तो मुझे बड़ी खुशी हुई.

एक दिन मुझे लगा कि मेरी क्लास के लड़कों की मासूम आंखों में खबरों के बारे में कुछ छोटे व गंभीर सवाल तैर रहे हैं. मैं ने उन्हें ढांढ़स देते हुए कहा कि वे जो भी पूछना चाहें, पूछ सकते हैं.

कुछ देर के सन्नाटे के बाद पहला सवाल स्प्रिंग की तरह उछल कर सामने आया.

‘‘हत्या किसे कहते हैं? उसे कैसे करते हैं?’’ एक बच्चे ने आगे बढ़ कर पूछा.

‘‘दुश्मनी में लोग एकदूसरे को जान से मार डालते हैं. इसी को हत्या करना कहते हैं, ‘‘बच्चे के सवाल का कुछ सकपकाते हुए मैं ने जवाब दिया.

‘‘जो लोग हत्या करते हैं, वे गंदे लोग होते हैं न मास्टरजी?’’ एक भोली सी सूरत पर फैली मासूम आंखों में नफरत तैर रही थी.

उधर से मैं अपनी गरदन मोड़ भी नहीं पाया था कि एक लड़की ने जानना चाहा, ‘‘जो लोग हत्या करते हैं, उन्हें डर नहीं लगता? वे तो बच्चों की भी हत्या कर देते हैं. उन की बच्चों से क्या लड़ाई होती है?’’

आवाज मेरे गले में अटकने लगी. तभी एक दूसरे लड़के का सवाल चाबुक की मार सा घाव दे गया, ‘‘जो बच्चे मरते हैं, उन की मां तो रोती होंगी न?’’

‘‘मास्टरजी, युवती किसे कहते हैं?’’ एक कोने से आवाज आई.

उस लड़की का सवाल मुझे जवाब देने लायक लगा. मैं ने कहा, ‘‘देखो, जब तुम कुछ और बड़ी हो जाओगी, तब तुम्हें युवती कहेंगे.’’

जब मैं ने उस से पूछा कि उस का सवाल किस घटना से जुड़ता हुआ है, तो टूटेफूटे शब्दों में जोकुछ भी वह समझा पाई, उसे पूरा सुनने से पहले ही मैं ने अपने कानों में उंगली डाल ली.

‘‘रात को 4 बदमाशों ने एक युवती के साथ…’’ इस से आगे वह न तो अपनी बात पूरी कर पाई और न ही मैं सुन पाया.

मैं समझ नहीं पा रहा था कि इन सवालों की बौछार से बचने के लिए कहां व किस कोने में जा छिपूं. तभी मुझे सबकुछ जानने वाला समझ कर एक दूसरी लड़की ने अपना एक भोलाभाला मासूम सवाल मेरे सामने रख दिया, ‘‘अगले महीने मेरे सुरेश भैया की शादी होगी, तो क्या मेरी मां पर उन की बहू पुलिस का केस कर देगी?’’

‘‘मैं तो कभी शादी नहीं करूंगा,’’ एक दूसरे लड़के की एक जोड़ी आंखें डर से फैल गईं.

मेरा कद बारबार बौना होता जा रहा था. मुझे संभलने का मौका दिए बगैर एक हथगोला सा क्लास की पहली लाइन से आ कर मेरे माथे पर लगा, ‘‘मास्टरजी, लोग दूसरों के घर क्यों जला देते हैं?’’

मेरी बेचैनी बढ़ गई और पसीना पोंछते हुए मैं क्लास से बाहर निकल आया और कैद कर लिया खुद को उन सवालों की अंधेरी गुफा में, जिन का मेरे पास कोई जवाब नहीं था, लेकिन फिर भी चैन नहीं मिला.

सोचने लगा, ‘कब हम इतने समझदार और अच्छे रहनसहन वाले हो पाएंगे? कब हमारी पूरी बिरादरी अपना चालचलन सुधार कर मेलजोल से रहने लगेगी कि ऐसे सवालों से हमारा सिर शर्म से नहीं झुकेगा? वह वक्त कब आएगा, जब बच्चों के हर सवाल का जवाब हमारे पास रहेगा?’

पलटती बाजी : बेटी ने बाप को दी अनोखी सौगात

अपने पान के खोखे के भीतर बैठे तेज गरमी से उबलते उमराव का हाथ बारबार बढ़ी हुई दाढ़ी पर जाता, जो बेवजह खुजली कर के गरमी की बेचैनी को और बढ़ा रही थी. अकसर उस के खोखे तक लोग आते तो उन के लिहाज से वह हाथ धोता, मगर वे भी जाने क्यों पास की बड़ेबड़े शीशों वाली नई बनी दुकान की ओर मुड़ जाते. उस दुकान का मालिक सरजू भी एकदम टिपटौप था.

मगर उमराव की निगाह में सरजू कटखना कुत्ता था. उस ने दुकान में हजारों रुपए के तो शीशे लगवाए थे, माल ठसाठस भरा था, पर उमराव का रुपए 2 रुपए का माल भी बिक जाए तो उस की आंख में सूअर का बाल उग आता था. जैसे कमानेधमाने का हक सिर्फ सरजू को ही है. वह 2-4 बार धमकी भी दे चुका था, ‘‘दुकान उठवा कर फिंकवा दूंगा.’’

सरजू की दुकान पर आने वाले नशेड़ी और गुंडे, लफंगे उस की दुकान को न केवल हिकारत की नजर से देखते, बल्कि अबेतबे कह कर उस से पानीवानी भी मांगते यानी पान खाओ सरजू के यहां और बेगारी करे उमराव.

अरे भाई, कभीकभी एकाध बार ही बोहनी करवाओ तो उसे पानी देने में कोई तकलीफ नहीं, मगर खाली रोब कौन झेले, इसीलिए तो वह कभीकभार अपनेआप को आदमी समझने की गलती कर बैठता था और गाली खाने के साथ एकाध बार थप्पड़ भी खा चुका है.

उमराव बेचारा मुश्किल में था. उस की जिंदगी में जैसे रोब ही बदा था. गांव में ठाकुरों का रोब, यहां शोहदों का रोब. गांव में लोगों ने खेत हथियाए तो वह शहर आया. मगर शहर गांव का भी लक्कड़दादा निकला. यहां के सांपों के डसने का तो कोई मंत्र ही नहीं था.

दुकान पर ही जलालत होती तो वह झेल ले जाता, पर यहां तो उस के किराए की खोली भी एक मुसीबत थी, इसलिए नहीं कि वह आरामदेह न हो कर तंग, सीलन भरी और टीन की तपने वाली छत थी, बल्कि इसलिए कि उस की बिटिया बुधिया धीरेधीरे जवानी की डगर पर कदम रख रही थी.

कभीकभी उमराव सोचता कि काश, गरीबों की बेटियां जवान ही न होतीं तो कितना अच्छा होता. फिर तो गली के छिछोरे लफंगे उस की खोली के सामने ठहाके न लगाते और न ही सीटियां बजाते.

पर जिस बात पर बस नहीं है उस का किया ही क्या जाए. उस के बस में केवल इतना था कि वह 2-4 बार दुकान में ताला लगा कर खोली की तरफ चला जाता. कभीकभी तो खोली के सामने ऐसा जमघट होता कि उस का धड़कता दिल एकदम तेज दर्द करने लगता. मगर वह खोली के दरवाजे तक जाने की हिम्मत न कर पाता और उलटे पैर लौट आता.

हालांकि उसे बुधिया पर पूरा यकीन था. वह जानता था कि वह बेचारी बिगड़ी नहीं है और यही खयाल उसे और बेबस कर जाता, काश, उस में इतनी ताकत होती कि खोली के आगे ठहाके लगाने वालों के थप्पड़ रसीद कर सकता.

इस तरह की लाचारी में तो बुधिया को अनचाहे आंसू पीने के सिवा कोई चारा नहीं था और बूढ़े बाप की बेबसी के इस दौर में कुछ भी घट सकता था.

उमराव इन खयालों में बेचैन हो उठा. पड़ोस की दुकान पर सिगरेट पीता एक लड़का मोटरसाइकिल की गद्दी पर बैठा धुआं इस अंदाज से फेंक रहा था कि उमराव को अपना वजूद ही धुआंधुआं नजर आने लगा. उसे महसूस हुआ जैसे वह लड़का अपनी उल्लुओं जैसी आंखों से उसे ही घूर रहा हो.

उमराव ने इस विचार के आते ही अपने सीने में कुछ दबाव महसूस किया और सोचा कि हो सकता है कि खोली का भी यही हाल हो. वह तो फिर भी दुकान बंद कर सकता है, पर बेचारी बुधिया क्या करेगी. इसी खयाल के तहत उस ने खोखे को ताला मारा और गरमी की दोपहर के बावजूद खोली की ओर चल दिया.

रास्ते में लू के थपेड़ों और चुहचुहाते पसीने के बावजूद उमराव कुछ ताजगी महसूस करने लगा. यहां कम से कम उसे घूरने या दुत्कारने वाला तो कोई नहीं था. उस ने ताजा हवा फेफड़ों में भरी और मन को दिलासा दिया कि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं होने वाली है. हिम्मत से काम लेने की जरूरत है. ऐसे तो दुनिया का चलन ही गड़बड़ है, पर खुद ठीक हो तो सब ठीक है.

थोड़ी ही देर में उमराव अपनी खोली के दरवाजे पर खड़ा था. वहां सन्नाटा था. दरवाजा भिड़ा हुआ था, पर फिर भी कमरे का काफी हिस्सा बाहर से नजर आ रहा था.

पहले तो उसे बुधिया पर गुस्सा आया कि सांकल चढ़ा लेनी थी, कायदे से. ऐसी लापरवाही को इशारा समझ कर लफंगों की हिम्मत बढ़ती है. मगर दूसरे ही पल उस ने सोचा कि नहीं, वह भी हाड़मांस की बनी है. पूरी खुली दुकान में उसे गरमी लगती है तो यहां भट्ठी सी तपती खोली में बुधिया को भी ताजा हवा न सही, गरमी से राहत की जरूरत महसूस होती होगी.

अपनी गरीबी पर उस का दिल रो उठा. कितने सपनों से इसे पाला था. जब गोद में ही थी, तब मरतेमरते इस की मां ने इसे कभी कोई तकलीफ न होने देने का वचन ले कर उमराव की गोद में अपनी आंखें बंद कर ली थीं. कितने अरमान थे, एकलौती बेटी को ले कर. कहां अब उसे भूखे भेड़ियों से बचाना ही एक टेढ़ा मसला है.

उमराव ने देखा कि भोली हिरनी सी बुधिया अपने बाल संवार रही थी, दरवाजे की ओर पीठ कर के. वह एक पल को सिहर उठा. उसे क्या पता कि मां की कमी महसूस हुई. वह होती तो बेटी की कायदे से देखभाल करती. तब उमराव बेफिक्र हो कर दुकानदारी कर सकता था. मगर अब तो उस का दिल न दुकानदारी में लग पाता और न खोली में.

खोली के दरवाजे पर उस के खांसने से बुधिया ने मुड़ कर देखा. फिर दुपट्टा ठीक करते हुए बापू को बैठने का इशारा करती हुई पानी का गिलास उसे पकड़ाने लगी. पानी पी कर उसे कुछ चैन आया. कितनी समझदार है, बुधिया. काश, उस के सपनों की शान पर यह चढ़ पाती. वह धीरे से मुसकरा दिया.

उमराव की मुसकराहट देख कर बुधिया खिल उठी. बरबस उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘क्यों, क्या बात है बापू, आज बड़े खुश हो?’’

‘‘हां बेटी, एक बात मेरे मन में है, अगर तू माने,’’ वह हंस पड़ा.

‘‘बोलो बापू, क्या सोचा है?’’ कुछ मुसकराते हुए बुधिया ने कहा.

‘‘मुझे हमेशा तेरी चिंता लगी रहती है. मैं सोचता हूं कि अपने खोखे के पास एक बैंच डाल दूं और एक चाय की दुकान खोल दूं. तू चाय बनाना और मैं पान बेचूंगा. तेरे पास चाय पीने वाले मेरे पास पान खाएंगे. इसी तरह अपनी दुकानदारी चल निकलेगी. यहां चाय की कोई दुकान है भी नहीं,’’ उमराव एक ही सांस में कह गया.

‘‘हां, बापू, ठीक है. मेरा दिल भी वहां लगा रहेगा. चार पैसे भी जमा होंगे,’’ बुधिया बहुत खुश हुई.

‘‘हां, पर एक बात का खयाल रहे, कपड़ेलत्ते जरा साफ पहनने होंगे. वहां मातमी सूरत बना कर न बैठना, समझी?’’ पड़ोसी पान वाले की दुकान के चलने का राज समझ कर उमराव ने कहा.

‘‘हांहां, सब समझती हूं. बस एक तिरपाल डलवानी पड़ेगी. 2 मटके पानी और बैंच. कुल्हड़ों का इंतजाम कर लेना, गिलास धोने लगी तो चाय बनाना मुश्किल होगा…’’ बुधिया बोली, ‘‘वह चाय बनाऊंगी कि लोग खिंचे चले आएंगे.’’

उमराव का सोचा वाकई सच निकला. दुकान चल निकली थी. जो मोटरसाइकिलें पहले पड़ोसी की दुकान पर खड़ी होती थीं, वह अब बुधिया की चाय की दुकान पर खड़ी होने लगीं.

वह मुसकरा कर चाय देती. लोग अपने दोस्तों से कहते, ‘‘भई, चाय हो तो ऐसी.’’

ठंडे पानी के साथ बुधिया की तिरछी मुसकान का भी कुछ असर था. कई लोग एक प्याला चाय पीने का इरादा कर के आते और 2-2 पी कर जाते, क्योंकि बैठने, बतियाने के अलावा अखबार भी पढ़ने को मिल जाता. चलते समय वह बापू की दुकान की ओर इशारा कर देती और लोग वहीं से पान, सिगरेट खरीदते.

कल तक सुनसान रहने वाली उमराव की दुकान खूब चलने लगी थी. वह सोचता था कि अब कुछ ही दिनों में वह भी पड़ोसी की तरह अपनी दुकान में नीचे से ऊपर तक शीशे ही शीशे लगवा लेगा. पड़ोसी सरजू को लगता था कि उस की मक्खियां मारने की बारी आ गई है.

अब पैसे के आने के साथ बुधिया के जिस्म और कपड़ों पर भी निखार आ रहा था. उमराव को दुकान में बैठने वाले शोहदों से अब कोई तकलीफ नहीं थी और न ही बुधिया की तिरछी चितवन पर ही उस की छाती में कोई दर्द उठता था. वह कारोबार के गुर जान गया था. वह पड़ोसी की ठप होती दुकानदारी का मजा लेना भी जान गया था.

अभी कल ही पड़ोसी ने उमराव की मुसकान पर गुस्सा हो कर कुछ अंटशंट बका था तो वह तो चुप रहा था, पर बुधिया की दुकान पर चाय के बहाने हर रोज बैठने वाले लाल मोटरसाइकिल वाले हट्टेकट्टे समीर ने सरजू का कौलर पकड़ कर धक्का देते हुए कहा था, ‘‘अबे, बूढ़ा समझ कर उमराव पर टर्राता है. खबरदार, जो आइंदा उस की ओर देखा भी. क्या गरीब को रोटीरोजी का हक ही नहीं है? वह दो पैसे कमाने लगा तो तेरे पेट में मरोड़ होने लगी. अब की बार कुछ कहा तो दुकान की एकएक चीज नाली में पड़ी मिलेगी.’’

सरजू समझ गया था. बुधिया उसे अंगूठा दिखाती हुई हंस रही थी. सरजू तो जरूर जलाभुना होगा, मगर उमराव को उस पल बुधिया में अपना पहरेदार रूप नजर आया. वह सोचने लगा कि सालभर ऐसी ही कमाई हो जाए, तो फिर वह बुधिया के हाथ पीले करने में देर नहीं करेगा.

जिम्मेदार कौन : कमला चरित्रहीन क्यों थी?

‘‘किशोरीलाल ने खुदकुशी कर ली…’’ किसी ने इतना कहा और चौराहे पर लोगों को चर्चा का यह मुद्दा मिल गया.

‘‘मगर क्यों की…?’’  भीड़ में से सवाल उछला.

‘‘अरे, अगर खुदकुशी नहीं करते, तो क्या घुटघुट कर मर जाते?’’ भीड़ में से ही किसी ने एक और सवाल उछाला.

‘‘आप के कहने का मतलब क्या है?’’ तीसरे आदमी ने सवाल पूछा.

‘‘अरे, किशोरीलाल की पत्नी कमला का संबंध मनमोहन से था. दुखी हो कर खुदकुशी न करते तो वे क्या करते?’’

‘‘अरे, ये भाई साहब ठीक कह रहे हैं. कमला किशोरीलाल की ब्याहता पत्नी जरूर थी, मगर उस के संबंध मनमोहन से थे और जब किशोरीलाल उन्हें रोकते, तब भी कमला मानती नहीं थी,’’ भीड़ में से किसी ने कहा.

चौराहे पर जितने लोग थे, उतनी ही बातें हो रही थीं. मगर इतना जरूर था कि किशोरीलाल की पत्नी कमला का चरित्र खराब था. किशोरीलाल भले ही उस के पति थे, मगर वह मनमोहन की रखैल थी. रातभर मनमोहन को अपने पास रखती थी. बेचारे किशोरीलाल अलग कमरे में पड़ेपड़े घुटते रहते थे.

सुबह जब सूरज निकला, तो कमला के रोने की आवाज से आसपास और महल्ले वालों को हैरान कर गया. सब दौड़ेदौड़े घर में पहुंचे, तो देखा कि किशोरीलाल पंखे से लटके हुए थे.

यह बात पूरे शहर में फैल गई, क्योंकि यह मामला खुदकुशी का था या कत्ल का, अभी पता नहीं चला था.

इसी बीच किसी ने पुलिस को सूचना दे दी. पुलिस आई और लाश को पोस्टमार्टम के लिए ले गई.

यह बात सही थी कि किशोरीलाल और कमला के बीच बनती नहीं थी. कमला किशोरीलाल को दबा कर रखती थी. दोनों के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता था. कभीकभी झगड़ा हद पर पहुंच जाता था.

यह मनमोहन कौन है? कमला से कैसे मिला? यह सब जानने के लिए कमला और किशोरीलाल की जिंदगी में झांकना होगा.

जब कमला के साथ किशोरीलाल की शादी हुई थी, उस समय वे सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर थे. किशोरीलाल की कम तनख्वाह से कमला संतुष्ट न थी. उसे अच्छी साडि़यां और अच्छा खाने को चाहिए था. वह उन से नाराज रहा करती थी.

इस तरह शादी के शुरुआती दिनों से ही उन के बीच मनमुटाव होने लगा था. कुछ दिनों के बाद कमला किशोरीलाल से नजरें चुरा कर चोरीछिपे देह धंधा करने लगी. धीरेधीरे उस का यह धंधा चलने लगा.

वैसे, कमला ने लोगों को बताया था कि उस ने अगरबत्ती बनाने का घरेलू धंधा शुरू कर दिया है. इसी बीच उन के 2 बेटे हो गए, इसलिए जरूरतें और बढ़ गईं. मगर चोरीछिपे यह धंधा कब तक चल सकता था. एक दिन किशोरीलाल को इस की भनक लग गई. उन्होंने कमला से पूछा, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूं?’

‘क्या सुन रहे हो?’ कमला ने भी अकड़ कर कहा.

‘क्या तुम देह बेचने का धंधा कर रही हो?’ किशोरीलाल ने पूछा.

‘तुम्हारी कम तनख्वाह से घर का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था, तो मैं ने यह धंधा अपना लिया है. कौन सा गुनाह कर दिया,’ कमला ने भी साफ बात कह कर अपने अपराध को कबूल कर लिया.

यह सुन कर किशोरीलाल को गुस्सा आया. वे कमला को थप्पड़ जड़ते हुए बोले, ‘बेगैरत, देह धंधा करती हो तुम?’

‘तो पैसे कमा कर लाओ, फिर छोड़ दूंगी यह धंधा. अरे, औरत तो ले आया, मगर उस की हर इच्छा को पूरा नहीं करता है. मैं कैसे भी कमा रही हूं, तेरे से तो नहीं मांग रही हूं,’ कमला भी जवाबी हमला करते हुए बोली और एक झटके से बाहर निकल गई.

किशोरीलाल कुछ नहीं कर पाए. इस तरह कई मौकों पर उन दोनों के बीच झगड़ा होता रहता था.

इसी बीच शिक्षा विभाग से शिक्षकों की भरती हेतु थोक में नौकरियां निकलीं. कमला ने भी फार्म भर दिया. उसे सहायक टीचर के पद पर एक गांव में नौकरी मिल गई.

चूंकि गांव शहर से दूर था और उस समय आनेजाने के इतने साधन न थे, इसलिए मजबूरी में कमला को गांव में ही रहना पड़ा. गांव में रहने के चलते वह और आजाद हो गई.

कमला ने 10-12 साल इसी गांव में गुजारे, फिर एक दिन उस ने अपने शहर के एक स्कूल में ट्रांसफर करवा लिया. मगर उन की लड़ाई अब भी नहीं थमी.

बच्चे अब बड़े हो रहे थे. वे भी मम्मीपापा का झगड़ा देख कर मन ही मन दुखी होते थे, मगर उन के झगड़े के बीच न पड़ते थे.

जिस स्कूल में कमला पढ़ाती थी, वहीं पर मनमोहन भी थे. उन की पत्नी व बच्चे थे, मगर सभी उज्जैन में थे.

मनमोहन यहां अकेले रहा करते थे. कमला और उन के बीच खिंचाव बढ़ा. ज्यादातर जगहों पर वे साथसाथ देखे गए. कई बार वे कमला के घर आते और घंटों बैठे रहते थे.

कमला भी धीरेधीरे मनमोहन के जिस्मानी आकर्षण में बंधती चली गई. ऐसे में किशोरीलाल कमला को कुछ कहते, तो वह अलग होने की धमकी देती, क्योंकि अब वह भी कमाने लगी थी. इसी बात को ले कर उन में झगड़ा बढ़ने लगा.

फिर महल्ले में यह चर्चा चलती रही कि कमला के असली पति किशोरीलाल नहीं मनमोहन हैं. वे किशोरीलाल को समझाते थे कि कमला को रोको. वह कैसा खेल खेल रही है. इस से महल्ले की दूसरी लड़कियों और औरतों पर गलत असर पड़ेगा. मगर वे जितना समझाने की कोशिश करते, कमला उतनी ही शेरनी बनती.

जब भी मनमोहन कमला से मिलने घर पर आते, किशोरीलाल सड़कों पर घूमने निकल जाते और उन के जाने का इंतजार करते थे.

पिछली रात को भी वही हुआ. जब रात के 11 बजे किशोरीलाल घूम कर बैडरूम के पास पहुंचे, तो भीतर से खुसुरफुसुर की आवाजें आ रही थीं. वे सुनने के लिए खड़े हो गए. दरवाजे पर उन्होंने झांक कर देखा, तो शर्म के मारे आंखें बंद कर लीं.

सुबह किशोरीलाल की पंखे से टंगी लाश मिली. उन्होंने खुद को ही खत्म कर लिया था. घर के आसपास लोग इकट्ठा हो चुके थे. कमला की अब भी रोने की आवाज आ रही थी.

इस मौत का जिम्मेदार कौन था? अब लाश के आने का इंतजार हो रहा था. शवयात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी थी. जैसे ही लाश अस्पताल से आएगी, औपचारिकता पूरी कर के श्मशान की ओर बढ़ेगी.

काली की भेंट : पुजारी का फैलाया भरम

शहर के किनारे काली माता का मंदिर बना हुआ था. सालों से वहां कोई पुजारी नहीं रहता था. लोग मंदिर में पूजा तो करने जाते थे, लेकिन उस तरह से नहीं, जिस तरह से पुजारी वाले मंदिर में पूजा की जाती है.

एक दिन एक ब्राह्मण पुजारी काली माता के मंदिर में आए और अपना डेरा वहीं जमा लिया. लोगों ने भी पुजारीजी की जम कर सेवा की. मंदिर में उन की सुखसुविधा का हर सामान ला कर रख दिया.

पहले तो पुजारीजी बहुत नियमधर्म से रहते थे, सत्यअसत्य और धर्मअधर्म का विचार करते थे, लेकिन लोगों द्वारा की गई खातिरदारी ने उन का दिमाग बदल दिया. अब वे लोगों को तरहतरह की बातें बताते, अपनी हर सुखसुविधा की चीजों को खत्म होने से पहले ही मंगवा लेते.

काली माता की पूजा का तरीका भी बदल दिया. पहले पुजारीजी काली माता की सामान्य पूजा कराते थे, लेकिन अब उन्होंने इस तरह की पूजा करानी शुरू कर दी, जिस से उन्हें ज्यादा से ज्यादा चढ़ावा मिल सके.

धीरेधीरे पुजारीजी ने काली माता पर भेंट चढ़ाने की प्रथा शुरू कर दी. वे पशुओं की बलि काली माता को भेंट करने के नाम पर लोगों से बहुत सारा पैसा ऐंठने लगे. जब कोई किसी काम के लिए काली माता की भेंट बोलता, तो पुजारीजी उस से बकरे की बलि चढ़ाने के नाम पर 5 हजार रुपए ले लेते और बाद में कसाई से बकरे का खून लाते और काली माता को चढ़ा देते.

बकरे के नाम पर लिए हुए 5 हजार रुपए पुजारीजी को बच जाते थे, जबकि बकरे का मुफ्त में मिला खून काली माता की भेंट के रूप में चढ़ जाता था.

धीरेधीरे दूरदूर के लोग भी काली माता के मंदिर में आने शुरू हो गए. पुजारीजी दिनोंदिन पैसों से अपनी जेब भर रहे थे. लोग सब तरह के झंझटों से बचने के लिए पुजारीजी को रुपए देने में ही अपनी भलाई समझते थे.

लेकिन कुछ ऐसे भी लोग थे, जो पुजारीजी की इस प्रथा का विरोध करते थे. लेकिन पुजारीजी के समर्थकों की तुलना में ये लोग बहुत कम थे, इसलिए उन्हें ऐसा काम करने से रोक न सके.

जब पुजारीजी के ढोंग की हद बढ़ गई, तो कुछ लोगों ने पुजारी की अक्ल ठिकाने लगाने की ठान ली. शहर में रहने वाले घनश्याम ने इस का बीड़ा उठाया.

घनश्याम सब से पहले पुजारीजी के भक्त बने और 2-4 झूठी समस्याएं उन्हें सुना डालीं. साथ ही बताया कि उन के पास पैसों की कमी नहीं है, लेकिन इतना पैसा होने के बावजूद भी उन्हें शांति नहीं मिलती. अगर किसी तरह उन्हें शांति मिल जाए, तो वे किसी के कहने पर एक लाख रुपए भी खर्च कर सकते हैं.

एक लाख रुपए की बात सुन कर  पुजारीजी की लार टपक गई. उन्होंने तुरंत घनश्याम को अपनी बातों के जाल में फंसाना शुरू कर दिया.

पुजारी बोला, ‘‘देखो जजमान, अगर तुम इतने ही परेशान हो, तो मैं तुम्हें कुछ उपाय बता सकता हूं.

‘‘अगर तुम ने ये उपाय कर दिए, तो समझो तुम्हें मुंहमांगी मुराद मिल जाएगी. लेकिन इस सब में खर्चा बहुत होगा.’’

घनश्याम ने पुजारीजी को अपनी बातों में फंसते देखा, तो झट से बोल पड़े, ‘‘पुजारीजी, मुझे खर्च की चिंता नहीं है. बस, आप उपाय बताइए.’’

पुजारीजी ने काली माता की पूजा के लिए एक लंबी लिस्ट तैयार कर दी.

घनश्याम पुजारीजी की कही हर बात  मानता गया. पुजारीजी ने काली माता की भेंट के लिए 2 बकरों का पैसा भी घनश्याम से ले लिया. साथ ही, उन्हें घर में एक पूजा कराने को कह दिया.

पुजारीजी की इस बात पर घनश्याम तुरंत तैयार हो गए.

तीसरे दिन घनश्याम के घर पर पूजा की तारीख तय हुई, जबकि भेंट चढ़ाने के लिए पैसे तो पुजारीजी उन से पहले ही ले चुके थे. तीसरे दिन पुजारीजी घनश्याम के घर जा पहुंचे.

पुजारीजी ने अमीर जजमान को देख हर बात में पैसा वसूला और घनश्याम अपनी योजना को कामयाब करने के लिए पुजारी द्वारा की गई हर विधि को मानते गए.

जोरदार पूजा के बाद घनश्याम ने पुजारीजी के लिए स्वादिष्ठ पकवान बनवाए, बाजार से भी बहुत सी स्वादिष्ठ चीजें मंगवाई गईं.

पुजारीजी ने जम कर खाना खाया. उन्होंने आज तक इतना लजीज खाना नहीं खाया था.

जब पुजारीजी खाना खा चुके, तो उन्होंने घनश्याम से पूछा, ‘‘घनश्याम, तुम ने हमें इतना स्वादिष्ठ खाना खिला कर खुश कर दिया. ये कौन सा खाना है और किस ने बनाया है?

पुजारी के पूछने पर घनश्याम ने जवाब दिया, ‘‘पुजारीजी, कुछ खाना तो बाजार से मंगवाया था और कुछ यहीं पकाया था. सारा खाना ही बकरे के मांस से बना हुआ था.’’

घनश्याम ने बकरे के मांस का नाम लिया, तो पुजारीजी की सांसें अटक गईं, लेकिन उन्होंने सोचा कि शायद घनश्याम मजाक कर रहे हैं. वे बोले, ‘‘जजमान, आप मजाक बहुत कर लेते हैं, लेकिन हमारे सामने मांसाहारी चीज का नाम मत लो. हम तो मांसमदिरा को छूते भी नहीं, खाना तो बहुत दूर की बात है.’’

घनश्याम ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘‘मैं सच कह रहा हूं पुजारीजी. आप चाहें तो जिस बावर्ची ने खाना बनाया है, उस से पूछ लें.’’

घनश्याम की बात सुन पुजारीजी का दिल बैठ गया. मन किया कि उलटी कर दें. नफरत से भरे मन में घनश्याम के लिए गुस्सा भी बहुत था.

घनश्याम ने आवाज दे कर बावर्ची को बुला कर कहा, ‘‘जरा पुजारीजी को बताओ तो कि तुम ने क्या बनाया था.’’

बावर्ची अपने बनाए हुए खाने को बताने लग गया. सारा खाना बकरे के मांस से बनाया गया था.

पुजारीजी पैर पटकते हुए गुस्से से भरे घनश्याम के घर से चले गए. घर के बाहर आ कर उन्होंने गले में उंगली डाली और खाए हुए खाने को अपने पेट से खाली कर दिया, लेकिन मन की नफरत इतने से ही शांत नहीं हुई.

पुजारीजी ने बस्ती में हंगामा कर लोगों को जमा कर लिया, जिन में ज्यादातर उन के भक्त थे. उन्होंने घनश्याम द्वारा की गई हरकत सब लोगों को बताई, तो हर आदमी घनश्याम की इस हरकत पर गुस्सा हो उठा.

अब लोग पुजारीजी समेत घनश्याम के घर जा पहुंचे. सब ने घनश्याम को भलाबुरा कहा.

घनश्याम ने सब लोगों की बातें चुपचाप सुनीं, फिर अपना जवाब दिया, ‘‘भाइयो, मैं किसी भी गलती के लिए माफी मांगने के लिए तैयार हूं, लेकिन आप पहले मेरी बात ध्यान से सुनें,

उस के बाद जो आप कहेंगे, वह मैं करूंगा.’’

सब लोग शांत हो कर घनश्याम की बात सुनने लगे. घनश्याम ने बोलना शुरू किया, ‘‘देखो भाइयो, जब मैं पुजारीजी के पास गया और अपनी परेशानी बताई, तो इन्होंने मुझ से 2 बकरों की भेंट काली माता पर चढ़ाने के लिए रुपए लिए थे. साथ ही, मुझ से यह भी कहा था कि मैं घर में पूजा कराऊं.’’

‘‘मैं ने पुजारीजी के कहे मुताबिक ही पूजा कराई और घर में बकरे के मांस से बना खाना परोसा. पुजारीजी ने मुझ से पूछा नहीं और मैं ने बताया नहीं.’’

भीड़ में से एक आदमी ने लानत भेजते हुए कहा, ‘‘तो भले आदमी, तुम को तो सोचना चाहिए कि पुजारी को मांस खिलाना कितना अधर्म का काम है. क्या तुम यह नहीं जानते थे?’’

घनश्याम ने शांत लहजे में जवाब दिया, ‘‘भाइयो, मुझे नहीं लगता कि यह कोई अधर्म का काम है. जब ब्राह्मण पुजारी अपनी आराध्य काली माता पर बकरे की बलि चढ़ा सकता है, तो उस बकरे के मांस को खुद क्यों नहीं खा सकता? क्या पुजारी की हैसियत भगवान से भी ज्यादा है या भगवान ब्राह्मण से छोटी जाति के होते हैं?’’

लोगों में सन्नाटा छा गया. घनश्याम की बात पर किसी से कोई जवाब न मिल सका.

पुजारीजी का सिर शर्म से झुक गया. उन्होंने यह बात तो कभी सोची ही नहीं थी. लोग खुद इस बात को सोचे ही बिना काली माता के लिए बकरे की बलि देते रहे थे.

आज पंडितजी की समझ में आया कि भला भगवान किसी जानवर का मांस क्यों खाने लगे? वे तो किसी भी जीव की हत्या को बुरा मानते हैं, वहां मौजूद सभी लोग घनश्याम की बात का समर्थन करने लगे.

भीड़ के लोगों ने पुजारीजी को ही फटकार कर काली माता का मंदिर छोड़ देने की चेतावनी दे दी. उस दिन से काली माता के मंदिर पर पशु बलि की प्रथा बंद हो गई.

पुजारीजी का धर्म भ्रष्ट हो चुका था, ऊपर से लोगों की नजरों में उन की इज्जत न के बराबर हो गई थी. उन्होंने वहां से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी. अब मंदिर वीरान हो गया था. अब वहां जानवर बंधने लगे थे.

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