ना करें सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग, हो सकती हैं ये गंभीर बीमारियां

देश की ज्यादातर आबादी आज भी खुले में शौच करती है. जहां भी सार्वजनिक शौचालय मौजूद भी हैं उनकी हालत भी खराब है. इन शौचालयों में शौचालय सीट गंदगी से भरी हुई होती हैं और फ्लश में पानी नहीं आता. पर सवाल ये है कि क्‍या सार्वजनिक शौचालय प्रयोग करने के लिये ठीक होते हैं?

तो जवाब है नहीं, सार्वजनिक शौचालय प्रयोग करने के लिए बिल्‍कुल भी अच्‍छे नहीं होते, क्‍योंकि ये पूरी तरह से संक्रमण से भरे हुए होते हैं. इनका प्रयोग करने से आपको तमाम तरह की जानलेवा बीमारियां हो सकती हैं. जरूरी है कि सार्वजनिक शौचालयों के प्रयोग के बाद आप अपने हाथ अच्छे से धो लें. इस खबर में हम आपको बताएंगे कि सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करने से आपको कौन सी बीमारियां हो सकती हैं.

  • सेक्शुअली ट्रांसमिटेड डिजीज (एसटीडी)

सार्वजनिक शौचालयों के इस्तेमाल से कई यौन बीनारियों के होने का खतरा होता है. गंदे शौचालय को यदि कोई एस टी डी का रोगी प्रयोग कर ले तो यह रोग फैलने के चांस बढ जाते हैं. यदि आपको इस रोग से बचना है तो शौचालय प्रयोग करने के बाद अपने हाथों को धोना बिल्‍कुल ना भूलें. इसके अलावा शौचालय की चीजों को केवल शौचालय पेपर से ही छूएं.

  • डायरिया

सार्वजनिक शौचालय में पाए जाने वाले बैक्‍टीरिया की वजह से पेट में दर्द और खूनी डायरिया हो सकता है.

  •  संक्रमण

यदि पबलिक शौचालय को कोई संक्रमित व्‍यक्‍ति प्रयोग करे, तो आंत का संक्रमण होने की संभावना हो सकती है. असके अलावा इसके प्रयोग से आपको गले और त्‍वचा का संक्रमण भी लग सकता है.

  • यूटीआई

गंदे शौचालय को प्रयोग करने से मूत्र संक्रमण बड़ी तेजी से फैलता है. ये समस्या महिलाओं में ज्‍यादा पाई जाती है. इस लिए शौचालय की सीट पर बैठने से पहले एक बार फ्लश जरुर चलाएं.

19 दिन 19 टिप्स: सेक्स चाहिए बच्चा नहीं

विवाह के बाद जोड़े सेक्स का तो जम कर लुत्फ उठाते हैं पर बच्चा पैदा करने से परहेज करते हैं. कई युवा ऐसे भी हैं जो विवाह किए बगैर सेक्स का मजा लेते रहते हैं. कई युवा कंडोम, कौपर टी, गर्भनिरोधक गोलियों आदि का इस्तेमाल कर जिस्मानी रिश्ते बना रहे हैं. इस के पीछे उन का मकसद केवल सेक्स का मजा लेना ही होता है न कि बच्चे को जन्म देना. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो वे उसे गिराने में जरा भी देर नहीं लगाते हैं.

सेक्स का आनंद नैचुरल और सेफ तरीके से उठाया जाए तो मजा दोगुना हो जाता है. ऐसा नहीं करने से कई तरह की बीमारियों और परेशानियों में फंसने की गुंजाइश रहती है.

आजकल मातृत्व और पितृत्व की भावना कम होती जा रही है. औरत और मर्द का रिश्ता केवल सेक्ससुख का ही रह गया है. इसी वजह से यह चलन चल पड़ा है कि लोग मांबाप बनने से कतराते हैं. समाजविज्ञानी हेमंत राव कहते हैं कि महज सेक्स का सुख उठाने वाले जोड़े 30-35 साल की उम्र तक तो यह आनंद उठा सकते हैं लेकिन उस आयु तक अगर बच्चा पाने से परहेज किया जाए तो तरहतरह की जिस्मानी और दिमागी परेशानियां शुरू हो जाती हैं. कई ऐसे मामले हैं जहां लंबे समय तक बच्चे न चाहने वाले जोड़ों को बाद में काफी दिक्कतें उठानी पड़ती हैं.

हर चीज का समय होता है. बारबार गर्भपात कराने पर बच्चेदानी कमजोर हो जाती है, उस के फटने के आसार भी बढ़ जाते हैं. बारबार गर्भपात कराने से बां झपन की समस्या के होने का भी खतरा होता है. अगर बच्चा ठहर भी जाता है तो जन्म लेने वाले बच्चे के कमजोर और बीमार होने का खतरा बना रहता है. कई ऐसे उदाहरण हैं जहां देर से बच्चा होने पर वह दिमागी और जिस्मानी तौर पर बहुत कमजोर होता है. उस के कई अंगों का ठीक से विकास नहीं हो पाता है.

आज के युवा बच्चे को ऐसेट नहीं बल्कि लाइबिलिटी मानते हैं. यही वजह है कि ‘सेक्स का मजा लो और फिर अपने काम में लग जाओ’ की सोच बढ़ती जा रही है. अब वंश आगे बढ़ाने और मांबाप बनने का आनंद उठाना गुजरे जमाने की बात जैसी होती जा रही है. पहले के लोग बच्चे को बुढ़ापे का सहारा मानते थे पर आज के लोगों की सोच ऐसी नहीं है. उन की सोच है कि पैसा है तो सबकुछ खरीदा जा सकता है. कैरियर बनाओ, पैसा कमाओ और सेक्स का भरपूर मजा उठाओ, यही आज के युवाओं की सोच है.

हमारे देश में आज भी शादी की तमाम रस्मों और हनीमून की प्लानिंग तो की जाती है पर बच्चों की नहीं, जिस का नतीजा अनचाहा गर्भ या गर्भपात ही होता है. डा. नीरू अरोरा कहती हैं, ‘‘गर्भनिरोधक यानी कौंट्रासैप्टिव के चुनाव के मामले में आज कई दंपती यह तय ही नहीं कर पाते हैं कि कौन सा गर्भनिरोधक उन के लिए उपयुक्त है.’’

गर्भनिरोधकों के बारे में महिलाओं के मन में अनेक गलत धारणाएं रहती हैं, जैसे गर्भनिरोधक गोली से भविष्य में गर्भधारण में समस्या होगी, सेक्स की चाहत नहीं रहेगी, कैंसर की संभावना बढ़ेगी, वजन बढ़ जाएगा वगैरह. ये सारी धारणाएं गलत हैं.

‘गर्भनिरोधक गोलियों के प्रयोग से ओवेरियन कैंसर व सिस्ट के चांसेस कम होते हैं. इन के प्रयोग से घबराना नहीं चाहिए.’’

गर्भनिरोधक 2 प्रकार के होते हैं, प्राकृतिक व कृत्रिम.

A. प्राकृतिक गर्भनिरोधक

प्राकृतिक गर्भनिरोधक तरीकों का प्रयोग करते समय किसी भी तरह की गर्भनिरोधक दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता. इस के खास तरीके में सिर्फ मासिक चक्र को ध्यान में रखते हुए ‘सेफ पीरियड’ में ही सेक्स किया जाता है.

1 सुरक्षित मासिक चक्र :

परिवार नियोजन के प्राकृतिक तरीकों में से एक सुरक्षित मासिक चक्र है. इस तरीके के तहत ओव्यूलेशन पीरियड के दौरान शारीरिक संबंध न रखने की सावधानियां बरती जाती हैं.

आमतौर पर महिलाओं में अगला पीरियड शुरू होने के 14 दिन पहले ही ओव्यूलेशन होता है. ओव्यूलेशन के दौरान शुक्राणु व अंडे के फर्टिलाइज होने की ज्यादा संभावना होती है. दरअसल, शुक्राणु सेक्स के बाद 24 से 48 घंटे तक जीवित रहते हैं, जिस से इस दौरान गर्भधारण की संभावना बढ़ जाती है.

फायदा :

इस में न किसी दवा की, न किसी कैमिकल की और न ही किसी गर्भनिरोधक की जरूरत होती है. इस में किसी भी तरह का रिस्क या साइडइफैक्ट का डर भी नहीं रहता.

नुकसान :

यह तरीका पूरी तरह से कामयाब नहीं कहा जा सकता. यदि पीरियड समय पर नहीं होता तो गर्भधारण की संभावना ज्यादा बढ़ जाती है.

2 कैलेंडर वाच :

प्राकृतिक तरीकों में एक कैलेंडर वाच है, जिसे सालों से महिलाएं प्रयोग में लाती हैं. इस में ओव्यूलेशन के संभावित समय को शरीर का टैंप्रेचर चैक कर के जाना जाता है और उसी के अनुसार सेक्स करने या न करने का निर्णय लिया जाता है. इस में महिलाओं को तकरीबन रोज ही अपने टैंप्रेचर को नोट करना होता है. जब ओव्यूलेशन होता है तो शरीर का तापमान आधा डिगरी बढ़ जाता है.

फायदा :

इस में किसी भी प्रकार की दवा या कैमिकल का उपयोग नहीं होता. इस से कोई साइड इफैक्ट नहीं पड़ता और न सेहत के लिए ही कोई नुकसान होता.

नुकसान :

यह उपाय भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है, खासकर उन महिलाओं के लिए जिन की माहवारी नियमित नहीं होती.

3 स्खलन विधि :

इस विधि में स्खलन से पहले सेक्स क्रिया रोक दी जाती है, ताकि वीर्य योनि में न जा सके.

फायदा : इस का कोई भी साइड इफैक्ट नहीं है.

नुकसान : सहवास के दौरान हर पल दिमाग में इस की चिंता रहती है. लिहाजा, सेक्स का पूरापूरा आनंद नहीं मिल पाता. इस के अलावा शुरू में निकलने वाले स्राव में कुछ मात्रा में स्पर्म्स भी हो सकते हैं. इसलिए यह विधि कामयाब नहीं है.

B. कृत्रिम गर्भनिरोधक

प्रैग्नैंसी रोकने की जिम्मेदारी अकसर महिलाओं को ही उठानी पड़ती है. इसलिए उन्हें इस के लिए इस्तेमाल होने वाले कौंट्रासैप्टिव की जानकारी होना बेहद जरूरी है.

  1. गर्भनिरोधक गोलियां : गर्भनिरोधक गोलियां भी कई प्रकार की होती हैं :

साइकिल गर्भनिरोधक गोली : इस का पूरा कोर्स 21 दिन का होता है. इस की 1 गोली माहवारी के पहले दिन से ही रोज ली जाती है. इस के साथ ही 3 हफ्ते तक बिना नागा यह गोली लेनी चाहिए.

फायदा :

इस के उपयोग से माहवारी के समय दर्द से भी आराम मिलता है.

नुकसान :

आप यदि एक दिन भी गोली खाना भूल गईं तो प्रैग्नैंट हो सकती हैं, साथ ही सिरदर्द, जी मिचलाना, वजन बढ़ना आदि समस्याएं भी हो जाती हैं.

ओनली कौंट्रासैप्टिव पिल :

इसे ओसीपी भी कहा जाता है. इस का भी कोर्स 21 दिनों का होता है, जिस में 7 गोलियां हीमोग्लोबिन की भी होती हैं. इस तरीके से महिलाओं को एनीमिया की शिकायत नहीं होती क्योंकि इस में प्रोजेस्टेरोन और इस्ट्रोजन हार्मोन होते हैं.

आपातकालीन गोलियां: असुरक्षित सहवास के बाद अनचाहे गर्भ से बचने के लिए इस का इस्तेमाल किया जाता है.

फायदा :

इस गोली का सेवन यौन संबंध बनाने के 72 घंटों के अंदर किया जाता है तो यह 96 फीसदी तक प्रभावशाली होती है.

नुकसान :

इस का प्रयोग करना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है.

2. कौपर टी :

गर्भनिरोधक के रूप में यह विश्व में सब से ज्यादा इस्तेमाल होती है. यह अंगरेजी के टी (ञ्ज) अक्षर के शेप की होती है और इस में पतला सा तार लगा होता है. इसे गर्भाशय के भीतर लगाया जाता है. इस से गर्भ नहीं ठहर पाता. जब भी बच्चे की चाहत हो इसे निकलवाया जा सकता है.

फायदा :

इस में 99 फीसदी तक फायदा है. एक बार बच्चा होने के बाद दूसरा बच्चा होने के समय में गैप के लिए कौपर टी एक अच्छा जरिया है.

नुकसान :

कौपर टी लगाने के बाद 2-3 महीने तक माहवारी ज्यादा आती है, लेकिन बाद में ठीक हो जाती है. इसे डाक्टर के द्वारा ही लगाया और निकलवाया जाता है.

3. गर्भनिरोधक इंजैक्शन :

यह इस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरौन का इंजैक्शन है. यह 2 महीने या 3 महीने में लगाया जाता है. यह ओव्यूलेशन रोकता है, जिस से गर्भ नहीं ठहरता.

फायदा :

इस का 99 फीसदी फायदा होता है. माहवारी भी कम दिनों तक होती है और माहवारी में दर्द नहीं होता.

नुकसान :

इस से वजन बढ़ जाता है. इस इंजैक्शन के बाद नियमित व्यायाम और खानपान में संतुलित आहार जरूरी है.

शादी से पहले बेहद जरूरी हैं ये 8 हेल्थ टैस्ट

कई फिल्मों में शादी के लिए कुंडली मिलान बहुत जरूरी बताया जाता है और कुंडली न मिलने पर पक्का रिश्ता भी टूट जाता है, लेकिन अधिकतर देखा गया है कि कुंडली मिला कर की गई शादियों में भी तलाक की दर बहुत अधिक है, इसलिए अब लोगों की सोच बदलने लगी है और उन्हें लगता है कि शादी के लिए कुंडली से ज्यादा जरूरी है कि दोनों एकदूसरे के लायक हों और शारीरिक रूप से फिट हों ताकि शादी के बाद किसी तरह की कोई परेशानी न आए.

शादी से पहले युवकयुवती को एकदूसरे के बारे में सबकुछ पता हो तो आगे चल कर सिचुएशन हैंडिल करने में काफी आसानी रहती है और दोनों एकदूसरे को उस की कमियों के साथ स्वीकारने की हिम्मत रखते हैं तो ऐसा रिश्ता काफी मजबूत बनता है. इसलिए दूल्हादुलहन शादी से पहले कई तरह के मैडिकल टैस्ट कराने से भी नहीं हिचकिचाते. आइए जानें, ये मैडिकल टैस्ट कौन से हैं और कराने क्यों जरूरी हैं :

1. एचआईवी टैस्ट

यदि युवक या युवती में से किसी एक को भी एचआईवी संक्रमण हो तो दूसरे की जिंदगी पूरी तरह से बरबाद हो जाती है. इसलिए शादी से पहले यह टैस्ट करवाना बहुत जरूरी है.  इस में आप की सजगता और समझदारी है.

2. उम्र का परीक्षण

कई बार शादी करने में काफी देर हो जाती है और उम्र अधिक होने के कारण युवतियों में अंडाणु बनने कम हो जाते हैं तथा बच्चे होने में परेशानी आ सकती है. इसलिए यदि बढ़ती उम्र में शादी कर रहे हैं तो टैस्ट जरूर कराएं.

3. प्रजनन क्षमता की जांच जरूरी

जिन कपल्स को शादी के बाद बच्चे पैदा करने में समस्या आती है, उन्हें प्रजनन क्षमता का टैस्ट जरूर कराना चाहिए ताकि पता चल सके कि कमी युवक में है या युवती में. वैसे तो यह टैस्ट शादी से पहले ही होना चाहिए, जिस से पता चल सके कि वे दोनों संतान पैदा करने योग्य हैं भी या नहीं.

4. ओवरी टैस्ट

इस टैस्ट को युवतियां कराती हैं ताकि पता चल सके कि उन्हें मां बनने में कोई मुश्किल तो नहीं है. कई युवतियां इस टैस्ट को कराने में हिचकिचाती हैं कि यदि कोईर् कमी पाई गई तो उन का रिश्ता होना मुश्किल हो जाएगा, जबकि ऐसा नहीं है. आज तो मैडिकल साइंस में हर चीज का इलाज है. अच्छा तो यह है कि समय रहते आप को प्रौब्लम के बारे में पता चल जाएगा. यदि टैस्ट सही आया तो आप को वैवाहिक जीवन में कोई तकलीफ नहीं होगी.

5. सीमन टैस्ट

इस टैस्ट में युवकों के वीर्य की जांच होती है कि वह बच्चा पैदा करने के लिए पूरी तरह से सक्षम है या नहीं और अगर कोई प्रौब्लम है तो उस का इलाज करवा कर पूरी तरह स्वस्थ हुआ जा सकता है. यह टैस्ट इसलिए करवाया जाता है ताकि पहले ही परेशानी के बारे में पता चल जाए और उसी के हिसाब से इलाज करवा कर बंदा शादी के लिए पूरी तरह से परफैक्ट हो जाए.

6. यौन परीक्षण

कुछ बीमारियां संक्रमित होती हैं, जो शारीरिक संपर्क के दौरान बढ़ती हैं. इन बीमारियों को सैक्सुअली ट्रांसमिटेड बीमारियां कहा जाता है और ये संभोग के बाद पार्टनर को भी बड़ी आसानी से लग जाती हैं. इसलिए ऐसी किसी भी बीमारी से बचने के लिए शादी से पहले ही यह जांच करवा लें ताकि भविष्य में किसी गंभीर बीमारी से पार्टनर और आप दोनों ही बच सकें.

7. ब्लड टैस्ट

ब्लड टैस्ट कराने से पता चल जाता है कि कहीं ब्लड में कोई ऐसी प्रौब्लम तो नहीं है, जिस का सीधा असर होने वाले बच्चे पर पड़ेगा. हीमोफीलिया या थैलेसीमिया ऐसे खतरनाक रोगों में से एक हैं जिन में बच्चा पैदा होते ही मर जाता है. इस में दोनों के ब्लड की जांच कराना आवश्यक है जिस से आर एच फैक्टर की सकारात्मकता व नकारात्मकता का पता चल सके. यह टैस्ट शादी से पहले कराना अतिआवश्यक है.

8. जैनेटिक टैस्ट

इस तरह के टैस्ट को परिवार की मैडिकल हिस्ट्री भी कहा जाता है. इस से जीन के विषय में पता चल जाता है कि आप को जैनेटिक डिजीज है भी या नहीं. इस टैस्ट से आनुवंशिक बीमारियों के बारे में भी पता चल जाता है जो पार्टनर को कभी भी हो सकती हैं.

जानिए क्या होता है फोबिया और उसके प्रकार

भय किसी वास्तविक या आभासी खतरे की एक मानसिक प्रतिक्रिया है. लोगों में भय होना आम बात है और यह अकसर सामान्य ही होता है यानी किसी वस्तु या घटना को देख कर उपजी इस स्थिति में कोई नुकसान नहीं होता. मसलन, कई लोग मकड़ी को देख कर डर जाते हैं, इसे देख कर उन में हलकीफुलकी उत्तेजना का अनुभव होता है.

फोबिया यानी खौफ वाकई एक भयंकर डर है लेकिन भय और फोबिया के बीच अंतर को महज इस की तीव्रता से नहीं आंका जा सकता. फोबिया किसी व्यक्ति की मानसिकता पर इतना गहरा असर डालता है कि बहुत कम समय के लिए उस का मस्तिष्क काम करना बंद कर देता है. यह एक बेवजह का तात्कालिक भय है.

भय सामान्य होता है और असल में यह हमारे रक्षातंत्र का ही एक हिस्सा होता है. कुछ ऐसी चीजें होती हैं जिन से हमें डर लगता है, इसलिए हम भाग खड़े होते हैं या ऐसे हालात की अनदेखी कर देते हैं. मसलन, किसी वास्तविक खतरे को देख कर भय का एहसास होना लाजिमी है. यदि कोई व्यक्ति आप के ऊपर बंदूक तान दे तो जाहिर है कि आप डर जाएंगे. लेकिन इस भय का आलम उतना खौफनाक नहीं होता. यदि हम वाकई किसी खतरे का एहसास करते हैं तो भय होना स्वाभाविक है.

लेकिन फोबिया की स्थिति में भय का स्तर खौफनाक होता है, इसलिए इस की तीव्रता अतार्किक होती है. यह फोबिया वास्तविक खतरे पर आधारित नहीं होता, इसलिए इस के प्रति इतनी जबरदस्त प्रतिक्रिया व्यक्त करने का कोई वास्तविक आधार नहीं होता.

फोबिया के प्रकार

फोबिया को 3 प्रकार से बांटा जा सकता है – सोशल फोबिया, स्पेसिफिक फोबिया, एगोराफोबिया.

सोशल फोबिया

सोशल फोबिया के दौरान पीडि़त कुछ हालात से डरने लगता है. वह उन सामाजिक कार्यों को नजरअंदाज करता है और कभीकभी ऐसे हालात में उसे शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ती है.

इस में पीडि़त को हमेशा ऐसा लगता है कि लोग उस के बारे में बुरा सोचते हैं और उसे बहुत बुरा समझते हैं. लोग उस के पीठपीछे उस की बुराइयां करते रहते हैं. उस के ऊपर हंसते हैं. पीडि़त खुद को बहुत निम्न समझने लगता है. उस का आत्मविश्वास खो जाता है. किसी भी इंटरव्यू या फिर पब्लिक मीटिंग में वह बोल भी नहीं पाता है. उसे वहां खड़े होने में भी लड़खड़ाहट होने लगती है. हालांकि पीडि़त को यह पता होता है कि यह डर बेबुनियाद है लेकिन तब भी बेचैनी और घबराहट उस का पीछा नहीं छोड़ती है.

पीडि़त को किसी से बात करने और मिलने में भी डर लगता है. अगर वह किसी से बात कर ले तो उस के दिमाग में यही चलता रहता है कि अब तो लोग उस का मजाक उड़ाएंगे और दूसरों के साथ उस की तुलना करेंगे. बढ़तेबढ़ते हालात यहां तक पहुंच जाते हैं कि पीडि़त किसी शादीब्याह, मीटिंग या इंटरव्यू में जाना ही नहीं चाहता. ऐसे कार्यों को वह नजरअंदाज करने लगता है, जैसे नए लोगों से मिलना, सार्वजनिक शौचालयों का इस्तेमाल करना, कक्षा में अपना नाम बुलाए जाने पर, डेट पर जाना, किसी को फोन करना, औफिस में सब के सामने चुप रहना, अपनी बात को भी सब के सामने व्यक्त न कर पाना आदि.

स्पेसिफिक फोबिया

स्पेसिफिक फोबिया में किसी खास वस्तु या व्यक्ति या हालात से डर लगता है. ऐसे में व्यक्ति कभीकभी जरूरत से ज्यादा खुश भी हो सकता है या अधिक दुखी भी.

यह एक ऐसा साधारण डर होता है जोकि किसी निर्धारित वस्तु या फिर हालात को देख कर पैदा होता है. जैसे ही पीडि़त उन हालात के बारे में सोचता है, परेशान सा होने लगता है. उसे अत्यंत घबराहट होने लगती है. इन हालात में पीडि़त काम भी नहीं कर पाता है. उस की कार्यशैली प्रभावित होने लगती है. कुछ विशिष्ट प्रकार के फोबिया ये हैं :

एनिमल फोबिया : जानवरों से लगने वाला डर यानी कुछ लोगों को कुत्तों, बिल्लियों, सांप, कीड़ेमकोड़ों आदि से बेहद डर लगता है.

सिचुएशनल फोबिया : कुछ खास हालात जैसे उड़ना, घुड़सवारी करना, गाड़ी चलाना, किसी एक जगह पर अकेले हो जाना आदि कुछ लोगों को भयभीत कर देता है.

नैचुरल एनवायरमैंट फोबिया : पानी, तूफान, ऊंचाई आदि से डरना.

ब्लड, इंजैक्शन, चोट आदि से फोबिया : कई लोगों को खून देनालेना, अपना या किसी का खून निकलते हुए देख लेने से भी चक्कर आ जाते हैं. इंजैक्शन देख कर ही उन के पसीने छूट जाते हैं.

एगोराफोबिया

एगोराफोबिया में पीडि़त को भीड़ में भी अकेलेपन का एहसास होता है. वह किसी भी सुपरमार्केट में अकेला महसूस करने लगता है और यह एहसास व्यक्ति को बेहद कचोटने लगता है. इस स्थिति को एगोराफोबिया कहते हैं. यह भयाक्रांत हुए मरीजों में से एकतिहाई को प्रभावित करता है.

कभीकभी एगोराफोबिया से ग्रस्त मरीज अकेला घर से बाहर नहीं निकल पाता और परिवार के किसी खास सदस्य या मित्र के साथ ही कहीं जाता है. अपनेआप को सुरक्षित क्षेत्र में कैद कर लेने के बावजूद एगोराफोबिया से पीडि़त बहुत से लोगों को कई बार दौरा पड़ ही जाता है.

एगोराफोबिया से ग्रस्त मरीज अपनी स्थिति के चलते गंभीर रूप से पंगु बन जाते हैं. कुछ मरीज अपना काम नहीं कर पाते और अपने परिवार के दूसरे सदस्यों पर पूरी तरह से आश्रित होने पर मजबूर हो सकते हैं जो उन के लिए न सिर्फ खरीदारी करते हैं और उन की पारिवारिक समस्याओं को न समझते हैं बल्कि उस के द्वारा बनाए गए सुरक्षित क्षेत्र से बाहर भी उस के साथ जाते हैं. इस तरह एगोराफोबिया से ग्रस्त व्यक्ति परजीवी हो जाता है और बड़ी ही परेशानी में अपना जीवनयापन करता है.

फोबिया के कारण

शोधकर्ता अभी फोबिया के सही कारणों के बारे में आश्वस्त नहीं हैं. हालांकि आम धारणा यही है कि जब कोई फोबिया होता है तो कुछ खास प्रकार के कारकों की समानता देखी जा सकती है. इन कारकों में शामिल हैं :

आनुवंशिक : शोध से पता चला है कि परिवार में किसी खास प्रकार का फोबिया होता है. मसलन, अलगअलग जगह पलेबढ़े बच्चों में एक ही प्रकार का फोबिया हो सकता है. हालांकि एक प्रकार के फोबिया वाले कई लोगों की परिस्थितियों का आपस में कोई संबंध नहीं होता.

सांस्कृतिक कारक : कुछ फोबिया किसी खास प्रकार के सांस्कृतिक समूहों में ही पाए जाते हैं. यह एक ऐसा भय है जिस में लोग सामाजिक परिस्थितियों के कारण दूसरों पर हमला करते हैं या उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं. यह परंपरागत सोशल फोबिया से बिलकुल अलग होता है क्योंकि सोशल फोबिया में पीडि़त व्यक्ति अपमानित होने पर व्यक्तिगत शर्मिंदगी झेलने की आशंका से ग्रसित रहता है. सो संभव है कि फोबिया विकसित करने में संस्कृति की भूमिका हो.

जिंदगी के अनुभव : कई प्रकार के फोबिया वास्तविक जिंदगी की घटनाओं से जुड़े होते हैं जिन्हें होशोहवास में याद किया भी जा सकता है और नहीं भी. मसलन, किसी कुत्ते का फोबिया, यह व्यक्ति को उसी वक्त से हो सकता है जब बहुत छोटी उम्र में वह कुत्ते का हमला झेल चुका हो. सोशल फोबिया नाबालिग उम्र के अल्हड़पन या बचपन की शैतानी से विकसित हो सकता है.

हो सकता है कि इन कारकों का एक मिश्रित रूप किसी फोबिया के विकसित होने का कारण बना हो लेकिन निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले अभी और ज्यादा शोध की आवश्यकता है. किसी व्यक्ति में कोई फोबिया बचपन से ही होता है या किसी को बाद की उम्र में पनप सकता है. कोई भी फोबिया बचपन, जवानी या किशोरावस्था के दौरान विकसित हो सकता है. फोबिया से ग्रस्त लोगों का ताल्लुक अकसर किसी डरावनी घटना या तनावपूर्ण माहौल से रहा है हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि कुछ खास प्रकार के फोबिया क्यों विकसित होते हैं.

फोबिया के इलाज

फोबिया से पीडि़त व्यक्ति की सोच में बदलाव लाने में मदद करते हुए उन के फोबिक लक्षणों को कौग्निटिव बिहेवियरल थैरेपी यानी सीबीटी से कमी लाने में बहुत हद तक सफलता मिली है. यह लक्ष्य हासिल करने के लिए सीबीटी का इस्तेमाल 3 तकनीकों से किया जाता है :

शिक्षाप्रद सामग्री : इस चरण में व्यक्ति को फोबिया व इस के इलाज के बारे में शिक्षित किया जाता है और उसे उपचार के लिए सकारात्मक उम्मीद बनाए रखने में मदद की जाती है. इस के अलावा फोबिया से पीडि़त व्यक्ति को सहयोग देने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है.

संज्ञानात्मक अवयव : इस से विचारों तथा कल्पनाओं की पहचान करने में मदद मिलती है, जिस से व्यक्ति का बरताव प्रभावित होता है, खासकर ऐसे लोगों का जो पहले से ही खुद को फोबियाग्रस्त होने की धारणा पाल बैठते हैं.

व्यावहारिक अवयव : इस के तहत फोबियाग्रस्त व्यक्ति को समस्याओं से अधिक प्रभावी रणनीतियों के साथ निबटने की शिक्षा देने के लिए व्यवहार संशोधन तकनीक इस्तेमाल की जाती है.

फोबिया कई बार अवसादरोधी या उत्तेजनारोधी उपचार से भी ठीक किया जाता है, जिस से प्रतिकूल स्थिति पैदा करने वाले शारीरिक लक्षणों में कमी लाई जाती है और शरीर में उत्तेजना का प्रभाव अवरुद्ध किया जाता है.

 

नपुंसकता: तन से नहीं मन से उपजा रोग

चिकित्सा की भाषा में नपुंसकता यानी इंपोटैंस उस स्थिति को कहते हैं जिस में व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से यौन क्रिया का आनंद नहीं ले पाता है. जरूरी नहीं कि यह बीमारी अधिक उम्र के पुरुष में ही हो, बल्कि कुछ नौजवान भी इस के शिकार हो जाते हैं. यह बीमारी प्रजननहीनता यानी इंफर्टिलिटी से अलग है जिस में व्यक्ति के वीर्य में या तो शुक्राणु नहीं होते या बहुत ही कम मात्रा में होते हैं जिस के कारण वह व्यक्ति यौन क्रिया तो सफलतापूर्वक कर लेता है लेकिन संतान उत्पन्न करने में असमर्थ होता है.

दरअसल, इस के पीछे शारीरिक व मानसिक दोनों कारण होते हैं. नए शोधों से पता चला है कि मधुमेह व हार्मोन के असंतुलन से नपुंसकता हो सकती है. शरीर में किसी प्रकार के संक्रमण के कारण व्यक्ति नपुंसकता का शिकार हो सकता है या फिर शरीर में चोट लगना, उच्च रक्तचाप, धूम्रपान व मदिरापान जैसे अन्य शारीरिक कारण भी हो सकते हैं.

हमारे जीवन में हार्मोंस का बहुत महत्त्व है या कहें कि हमारी दिनचर्या इन हार्मोंस के कारण ही संभव है. यदि किसी पुरुष में टेस्टोस्टेरोन का स्तर सामान्य हो तो उस के नपुंसक होने की संभावना काफी कम हो जाती है. दरअसल, सैक्स की इच्छा के लिए हार्मोन का शरीर में उचित अनुपात में बने रहना जरूरी है. आधुनिक अध्ययनों से साबित हो गया है कि नपुंसकता के 80 प्रतिशत मरीजों के पीछे मानसिक कारण होते हैं जबकि 20 प्रतिशत मरीज शारीरिक कारणों से जुड़े होते हैं. सही तरीके से खानपान व रहनसहन न होने से भी व्यक्ति नपुंसकता का शिकार हो सकता है.

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी, बढ़ते तनाव, प्रदूषण और कई बुरी आदतों के साथ असमय खानपान व रहनसहन ने स्वास्थ्य की कई परेशानियों व बीमारियों को जन्म दिया है. इन में नपुंसकता भी है. हालांकि, यह कोई नई बीमारी नहीं है लेकिन आज यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि भारत में हर 10वां व्यक्ति यौनक्रिया में अक्षम है. मधुमेह जैसी कुछ बीमारियां भी नपुंसकता पैदा कर सकती हैं. चूंकि मधुमेह से तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है इसलिए अगर व्यक्ति मधुमेह को नियंत्रित नहीं रखता तो उस में 5-10 साल बाद नपुंसकता आ सकती है. लिंग में रक्त बहाव में अंतर आने या लिंग में चोट आ जाने से भी नपुंसकता आ जाती है.

इस के अलावा वीर्य का पतला या गाढ़ा होना निरंतर वीर्य स्खलन पर आधारित होता है और यह देखा जा सकता है कि कितने दिनों के बाद वीर्य स्खलित हुआ है. शीघ्रपतन में वीर्य स्खलन अगर स्त्री के चरमानंद के पूर्व या संभोग से पूर्व ही हो जाता है, तो यह यौन शक्ति की कमी का लक्षण है. जो लोग सहवास के समय अत्यधिक उत्तेजित हो जाते हैं और स्खलन को नियमित नहीं कर पाते हैं, इस समस्या से ग्रसित हो जाते हैं. इस समस्या के मुख्य कारण संभोग के समय अत्यधिक घबराहट, जल्दबाजी में यौन संबंध स्थापित करना है, लेकिन इस का नपुंसकता से कोई ताल्लुक नहीं है.

विभिन्न जांचों द्वारा थायराइड हार्मोन, प्रोलैक्टिन हार्मोन तथा टेस्टोस्टेरोन हार्मोन के स्तर का पता लगाया जाता है. सैक्सोलौजिस्ट सब से पहले यह पता लगाते हैं कि शरीर में किस हार्मोन की कमी है. उस के बाद उस हार्मोन को पूरा करने के लिए मरीज को हार्मोन दिए जाते हैं. मधुमेह के कुछ रोगियों या मानसिक रोगियों पर दवाएं प्रभावित नहीं होती हैं तो ऐसे मरीजों में सर्जरी की मदद से कभीकभी पेनाइल प्रोस्थेटिक डिवाइस के प्रत्यारोपण की सलाह दी जाती है. कुछ दवाएं भी इलाज के लिए सहायक होती हैं.

यह मरीज पर निर्भर करता है कि वह कितना जल्दी अपनेआप को मानसिक तौर पर तैयार कर लेता है. आजकल थोड़ी सी जागरूकता समाज में आई है, लेकिन लोग कई बार नीमहकीम के चक्कर में पड़ जाते हैं और अपनी जिंदगी से काफी हताश हो चुके होते हैं, इलाज करने पर वे ठीक हो जाते हैं. लेकिन रोग जितना पुराना हो जाता  है या मरीज स्वयं को जितना हताश कर लेता है, डाक्टर को रोग ठीक करने में उतनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. जब भी किसी व्यक्ति को नपुंसकता की संभावना लगे, तुरंत किसी सैक्सोलौजिस्ट से उचित सलाह ले लेनी चाहिए.

संसार में धूम मचा देने वाली वियाग्रा को ले कर भी कई विरोधाभास हैं. वियाग्रा के सकारात्मक परिणाम कम नकारात्मक परिणाम ज्यादा आ रहे हैं क्योंकि जिस व्यक्ति की आयु 40 से कम है और नपुंसकता का शिकार है उसी व्यक्ति को वियाग्रा की गोली डाक्टर की सलाह पर लेनी चाहिए. लेकिन आज 60 वर्ष से ऊपर के वृद्ध भी इस दवा को ले रहे हैं, चूंकि 60 वर्ष के बाद अकसर कामवासना क्षीण हो जाती है. ऐसे में अपनी सेहत के साथ जबरदस्ती करने से निश्चित तौर पर इस के दुष्परिणाम ही होंगे.

वैसे भी आजकल बाजार में नपुंसकता को ठीक करने के लिए ढेर सारी दवाएं मिल रही हैं. अगर व्यक्ति की समझ ठीक है तो दवा की कोई जरूरत नहीं है. यदि किसी व्यक्ति को कोई शंका हो तो डाक्टर की सलाह के बाद ही उसे किसी दवा का इस्तेमाल करना चाहिए.

आधुनिक लाइफस्टाइल के कारण?भी युवा पीढ़ी में नपुंसकता की समस्या बढ़ती जा रही है. युवा पीढ़ी में नपुंसकता होने का मूल कारण है सही जानकारी का न होना. मातापिता तथा बच्चों में सही तालमेल की कमी.

आजकल इलैक्ट्रौनिक मीडिया तरहतरह की तसवीरें दिखा कर नवयुवकों को उत्तेजित करता है. जहां तक यौन शिक्षा का प्रश्न है, इसे पाठ्यक्रम में जरूर शामिल करना चाहिए क्योंकि किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथसाथ मानसिक विकास भी होता है. युवाओं में जानकारी प्राप्त करने की जो इच्छा है वह सही रूप से, सही जगह से, सही तरीके से मिले.

आने वाली पीढ़ी को नपुंसकता की भयानक त्रासदी से बचाने के लिए बच्चों को सही जानकारी की शुरुआत मांबाप के द्वारा ही की जानी चाहिए. अगर बच्चा कोई गलत हरकत करता है तो मांबाप को उसे समझाना चाहिए. उसे यौन शिक्षा के बारे में जानकारी देनी चाहिए.

साथ ही स्कूल के अध्यापकों को यौन शिक्षा के बारे में बच्चों को बताना चाहिए. मीडिया अपना जितना समय सैक्स संबंधी प्रचार करने में बरबाद कर रहा है उस की जगह यदि अच्छी सेहत या स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम दिखाए तो लोगों में जागरूकता आ सकती है क्योंकि जनजागृति इस रोग का अहम निदान है.

अगर आप भी करते हैं ईयरफोन का इस्तेमाल तो, जरुर पढ़ें ये 4 टिप्स

हमारे जीवन में बढ़ती टेक्नालजी की आवश्यकता अपने साथ कई तरह की बीमारियां भी लेकर आती है. इन्हीं में शामिल हैं ईयरफोन या हेडफोन, जिसके ज्यादा देर तक इस्तेमाल से आपको अपने कानों से सम्बन्धित समस्या का सामना करना पड़ सकता है. एक रिसर्च के मुताबिक यदि कोई व्यक्ति प्रतिदिन एक घंटे से अधिक वक्त तक 80 डेसीबेल्स से अधिक तेज आवाज में संगीत सुनता है, तो उसे सुनने में संबंधित समस्या का सामना करना पड़ सकता है या फिर वह स्थायी रूप से बहरा हो सकता है.

अगर आप भी ईयरफोन का ज्यादा देर तक इस्तेमाल करती हैं तो समय रहते संभल जाइये क्योंकि ये ना केवल आपके कानों को नुकसान पहुंचाता है बल्कि आपके शरीर को भी कई और तरह से नुकसान पहुंचाता है. आज हम आपको ईयरफोन का ज्यादा इस्तेमाल करने से होने वाले 4 बड़े नुकसान के बारे में बता रहें है.

1. कम सुनाई देना

लगभग हर ईयरफोन में हाई डेसीबल वेव्स होते हैं. इसका इस्तेमाल करने से आप हमेशा के लिए अपनी सुनने की क्षमता खो सकते हैं. इसके लगातार प्रयोग से सुनने की क्षमता 40 से 50 डेसीबेल तक कम हो जाती है. कान का पर्दा वाइब्रेट होने लगता है. दूर की आवाज सुनने में परेशानी होने लगती है. यहां तक कि इससे बहरापन भी हो सकता है. इसलिए 90 डेसीबल से अधिक आवाज में गाने न सुनें और ईयरफोन से गाने सुनने के दौरान समय-समय पर ब्रेक भी लेते रहें.

2. दिमाग पर बुरा प्रभाव

इसके लगातार इस्तमाल से दिमाग पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है. ईयरफोन से निकलने वाली विद्युत चुंबकीय तरंगे दिमाग के सेल्स को काफी क्षति पहुंचाती हैं. ईयरफोन्स के अत्यधिक प्रयोग से कान में दर्द, सिर दर्द या नींद न आने जैसी सामान्य समस्याएं हो सकती हैं. आज लगभग पचास प्रतिशत युवाओं में कान की समस्या का कारण ईयरफोन्स का अत्यधिक प्रयोग है.

3. कान का संक्रमण

ईयरफोन से लंबे समय तक गाना सुनने से कान में इंफेक्शन भी हो सकता है. जब भी किसी के साथ ईयरफोन शेयर करें तो उसे सेनिटाइजर से साफ करना न भूलें. बता दें कि आमतौर पर कान 65 डेसिबल की ध्वनि को ही सहन कर सकता है. लेकिन ईयरफोन पर अगर 90 डेसिबल की ध्वनि 40 घंटे से ज्यादा सुनी जाए तो कान की नसें पूरी तरह डेड हो जाती है.

4. कान सुन्न होना

लंबे समय तक ईयरफोन से गाना सुनने से कान सुन्न हो जाता है जिससे धीरे-धीरे सुनने की क्षमता कम हो सकती है. तेज आवाज में संगीत सुनने से मानसिक समस्याएं तो पैदा होती ही है साथ ही हृदय रोग और कैंसर का भी खतरा बढ़ जाता है़. उम्र बढ़ने के साथ बीमारियां सामने आने लगती है़ यह बाहरी भाग के कान के परदे को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ अंदरूनी हेयरसेल्स को भी तकलीफ पहुंचाता है़. डाक्टरों के अनुसार इनके ज्यादा उपयोग लेने से कानों में अनेक प्रकार की समस्या हो सकती है जिनमें कान में छन-छन की आवाज आना, चक्कर आना, सनसनाहट, नींद न आना, सिर और कान में दर्द आदि मुख्य है.

इससे बचने के लिए ईयरफोन का इस्तेमाल कम से कम करने की आदत डालें. अच्छी क्वालिटी के ही हेडफोन्स या ईयरफोन्स का प्रयोग करें और ईयरफोन की बजाय हेडफोन का प्रयोग करें क्योंकि यह बाहरी कान में लगे होते हैं. अगर आपको घंटों ईयरफोन लगाकर काम करना है, तो हर एक घंटे पर कम से कम 5 मिनट का ब्रेक लें.

बने रहें जवां : शान से जिएं जिंदगी

बचपन, युवावस्था और वृद्धावस्था. जिंदगी के ये 3 पड़ाव हैं. बचपन और युवावस्था तो गुज़र जाते हैं लेकिन वृद्धावस्था इंसान के साथ आखिरी सांस तक रहती है. सच है कि उम्र का बढ़ना तय है और हर किसी को वृद्धावस्था यानी बुढ़ापा से दोचार होना है. बूढ़ा होने से कोई खुद को रोक तो नहीं सकता लेकिन उस अवस्था को भी एंजौय जरूर कर सकता है. यानी, एक तरह से वह जवां बना रह सकता है.

जिंदगी की व्यस्तताओं ने इंसान को रोबोट सा बना दिया है. सुबह उठने से ले कर रात को सोने तक काम, काम और काम. टेबल पर खाना खाता इंसान एक मशीन सा बन कर रह गया है. हालात और ज्‍यादा खराब हो जाते हैं  जब इंसान अपनी सेहत, भोजन और नींद को भी नजरअंदाज करने लगता है.

वहीं, सच यह है कि बढ़ती उम्र के प्रभाव को कोई भी अपने चेहरे पर जल्दी नहीं देखना चाहता. अपनेआप को स्मार्ट दिखाने के लिए हर कोई परेशान रहता है और इंसान पूरी कोशिश करता है कि उस की झलक सब से अलग दिखे.

पुरुष दें ध्यान :

पुरुषों को अपनी त्वचा का खयाल रखने के लिए छोटी से छोटी बात पर ध्यान देने की जरूरत है. पुरुषों की त्वचा सख्त होती है, वे लंबे समय तक जवां दिखना चाहते हैं तो उन्हें कुछ आदतों को छोड़ कर अच्छी आदतों को अपनाना होगा. ऐसा करने से होने वाले फायदे कुछ ही दिनों में ही ज़ाहिर होना शुरू हो जाते हैं.

शाम को भी साफ़ करें चेहरा :

हर इंसान अपना चेहरा धोता है, लेकिन आमतौर पर सिर्फ सुबह. और यह उस की बचपन से ही आदत होती है. अच्छी आदत है. चेहरे की स्किन ज्यादा उम्र तक जवां बनी रहे, इस के लिए रोजाना शाम को भी फेसवौश या साबुन से चेहरे को धोना/साफ़ करना बेहद ज़रूरी है. ऐसा करने के नतीजे में आप के चेहरे पर मौजूद दिनभर की गंदगी भी साफ हो जाएगी और आप का चेहरा साफ रहेगा. इतना ही नहीं, रोजाना चेहरा अच्छी तरह साफ करने के चलते आप कई तरह के स्किन इंफैक्शन से बचे भी रहेंगे.

क्रीम नहीं मौइस्चराइजर है अनिवार्य:

ज़्यादातर युवा नहाने के बाद किसी क्रीम को ही लगाते हैं. दरअसल, युवाओं के चेहरे के लिए यह ठीक नहीं है. इस के चलते उन्हें रिऐक्शन हो सकता है और चेहरे पर पिंपल व दागधब्बों से भी जूझना पड़ सकता है. 30 साल की उम्र पार करने के बाद पुरुषों को नियमितरूप से नहाने के बाद मौइस्चराइजर का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए. यह स्किन पोर्स (त्वचा के महीनमहीन छिद्र) को खोलने में मदद करता है, जिस से चेहरे को खिलाखिला बनाए रखने में काफी मदद मिलती है. हां, मौइस्चराइजर के बाद चाहें तो कोई क्रीम लगा सकते हैं.

सप्ताह में 2 बार फेसपैक :

अकसर पुरुष समझते हैं कि फेसपैक का इस्तेमाल केवल महिलाएं करती हैं, जबकि ऐसा नहीं है. यह चेहरे पर मौजूद गंदगी को साफ करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, वह चेहरा महिला का हो या पुरुष का. इस के अलावा, यह चेहरे की स्किन को निखारने और दागधब्बे व मुहांसों को दूर करने के लिए भी काफी प्रभावी माना जाता है. यह चेहरे की रंगत को बरकरार रखता है और बढ़ती हुई उम्र के असर को भी चेहरे पर पूरी तरह से नहीं आने देता. फेसपैक किसी घरेलू नुस्खे के जरिए भी तैयार किया जा सकता है, अन्यथा बाज़ार में उपलब्ध हैं.

सप्ताह में स्क्रब जरूर :

चेहरा देख कर आमतौर पर लोग किसी की उम्र का पता लगा लेते हैं. बुढ़ापे का असर या कह लें ढलती हुई उम्र सब से पहले चेहरे पर अपना असर दिखाना शुरू कर करती है. इसलिए, चेहरे का खास खयाल रखते हुए हफ्ते में एक बार स्क्रब जरूर करें. स्क्रब किसी घरेलू नुस्खे के जरिए भी तैयार किया जा सकता है, अन्यथा बाज़ार में उपलब्ध हैं. स्क्रब करने से चेहरे की स्किन खिलीखिली लगती है.

बालों को भी दें समय :

चेहरे से ही इंसान जवां नहीं दिखता. जवां दिखने के लिए जरूरी नहीं कि कोई अपने जिस्म के सिर्फ एक हिस्से पर ही ध्यान दे बल्कि उस को सभी ब्यूटी टिप्स पर ध्यान देने की जरूरत है. बालों की अच्छी चमक हर किसी का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है. पुरुषों को अपने बालों की भी खास केयर करनी चाहिए. बढ़ती उम्र के साथसाथ उन्हें समयसमय पर हेयरकेयर टिप्स का इस्तेमाल कर के बालों को हैल्दी बनाए रखना चाहिए. कुछ घरेलू नुस्खों के ज़रिए भी बालों को काला करने और उन्हें मजबूती देने के लिए खास हेयरमास्क का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

बुरी आदतों से बचें :

शराब का सेवन और स्मोकिंग करना जिस्म के लिए नुकसानदायक हैं. किसी को अगर ये आदतें हैं तो उसे इन आदतों को छोड़ना पड़ेगा वरना उम्र से पहले वह बूढा नज़र आने लगेगा. इन आदतों के चलते चेहरे की स्किन के साथसाथ पूरे जिस्म के अंगों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. बढ़ती उम्र में ये बुरी आदतें जिस्म को विभिन्न प्रकार के नकारात्मक दोषों से नहीं बचा सकेंगी और इंसान के चेहरे पर बुढ़ापे की झलक साफ दिखने लगेगी.

जल्दी उठना, जल्दी सोना :

अर्ली टु बेड ऐंड अर्ली टु राइज… सुबह जल्दी उठने और रात में जल्दी सोने से इंसान की सेहत अच्छी रहती है. पुरुषों को सुबह जल्दी उठना चाहिए, यह उन की सेहत के लिए काफी अच्छा होता है. जल्दी उठने के लिए रात में जल्दी सोना होगा ताकि नींद का समय पूरा हो सके. वहीं, सुबह उठ कर बाहर टहलने की आदत डालनी चाहिए, क्योंकि सुबह की फ्रेश एयर इंसान के पूरे दिन को अच्छा बना देती है.

औयलीफूड और जंकफूड से बचें :

तेल की अधिक मात्रा में बने भोजन यानी औयलीफूड का सेवन कम से कम करना चाहिए, क्योंकि यह शरीर की एनर्जी को जल्द खत्म कर देता है. इस के साथ ही रात को थोड़ा हलका खाना खाएं. घर के बने खाने में अच्‍छे तेल का उपयोग करें, क्योंकि खराब क्वालिटी वाला तेल सेहत पर काफी बुरा प्रभाव डालता है. पुरुषों को जंक फूड से भी परहेज करना होगा. इस के ज्यादा खाने से शुक्राणुओं की गुणवत्‍ता में गिरावट आ जाती है. इस की जगह  फ्रूट्स, अंकुरित अनाज और जूस लिया जा सकता है.

रोजा करें ऐक्‍सरसाइज़ :

पुरुषों को मोटापा कम करने औऱ फिट रहने के लिए रोजाना ऐक्‍सरसाइज़ करनी चाहिए. अगर आप ऐक्सरसाइज़ नहीं कर सकते हैं, तो थोड़ाबहुत उछलकूद ही करें यानी जिस्म को हरकत दें ताकि पूरा जिस्म फिट बना रहे. मौर्निंग वौक हर इंसान को करना चाहिए.

इस तरह, कोई भी इंसान अपने जीवन के हर पड़ाव को एंजौय कर सकता है. वह वृद्धावस्था में भी अपने को जवां महसूस कर सकता है चूंकि जिस्म से फिट जो है. सो, आप भी अंतिम क्षणों को तक जीवन को एंजौय करें, खुद को जवां फील करें.

अगर आप भी करते हैं तंबाकू का सेवन तो हो जाइए सावधान

तंबाकू से बनी बीड़ी व सिगरेट में कार्बन मोनोऔक्साइड, थायोसाइनेट, हाइड्रोजन साइनाइड व निकोटिन जैसे खतरनाक तत्त्व पाए जाते हैं, जो न केवल कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को जन्म देते हैं, बल्कि शरीर को भी कई खतरनाक बीमारियों की तरफ धकेलते हैं. जो लोग तंबाकू या तंबाकू से बनी चीजों का सेवन नहीं करते हैं, वे भी तंबाकू का सेवन करने वाले लोगों खासकर बीड़ीसिगरेट पीने वालों की संगत में बैठ कर यह बीमारी मोल ले लेते हैं. इसे अंगरेजी भाषा में ‘पैसिव स्मोकिंग’ कहते हैं.

नुकसान ही नुकसान

तंबाकू के सेवन में न केवल लोगों की कमाई का ज्यादातर हिस्सा बरबाद होता है, बल्कि इस से उन की सेहत पर भी कई तरह के गलत असर देखने को मिलते हैं, जो बाद में कैंसर के साथसाथ फेफड़े, लिवर व सांस की नली से जुड़ी कई बीमारियों को जन्म देने की वजह बनते हैं. तंबाकू या सिगरेट का इस्तेमाल करने से सांस में बदबू रहती है व दांत गंदे हो जाते हैं. इस में पाए जाने वाला निकोटिन शरीर की काम करने की ताकत को कम कर देता है और दिल से जुड़ी तमाम बीमारियों के साथसाथ ब्लड प्रैशर की समस्या से भी दोचार होना पड़ता है.

पहचानें कैंसर को

डाक्टर वीके वर्मा का कहना है कि पूरी दुनिया में जितनी तादाद में मौतें होती हैं, उन में से 20 फीसदी मौतों की वजह सिर्फ कैंसर है. गाल, तालू, जीभ, होंठ व फेफड़े में कैंसर की एकमात्र वजह तंबाकू, पान, बीड़ीसिगरेट का सेवन है. अगर कोई शख्स तंबाकू या उस से बनी चीजों का इस्तेमाल कर रहा है, तो उसे नियमित तौर पर अपने शरीर के कुछ अंगों पर खास ध्यान देना चाहिए.

अगर आप पान या तंबाकू का सेवन करते हैं, तो यह देखते रहें कि जिस जगह पर आप पान या तंबाकू ज्यादातर रखते हैं, वहां पर कोई बदलाव तो नहीं दिखाई पड़ रहा है. इन बदलावों में मुंह में छाले, घाव या जीभ पर किसी तरह का जमाव, तालू पर दाने, मुंह का कम खुलना, लार का ज्यादा बनना, बेस्वाद होना, मुंह का ज्यादा सूखना जैसे लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, तो तुरंत नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर जा कर अपनी जांच कराएं. बताए गए सभी लक्षण कैंसर की शुरुआती दशा में दिखाई पड़ते हैं.

बढ़ती तंबाकू की लत

अकसर स्कूलकालेज जाने वाले किशोरों व नौजवानों को शौक में सिगरेट के धुएं के छल्ले उड़ाते देखा जा सकता है. यह आदत वे अपने से बड़ों से सीखते हैं. सरकार व कोर्ट द्वारा सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान करने पर पूरी तरह से रोक लगाई गई है और अगर ऐसा करते हुए किसी को पाया जाता है, तो उस पर जुर्माना भी लगाए जाने का कानून है, लेकिन यह आदेश सिर्फ आदेश बन कर ही रह गया है. हम गुटका खा कर जहांतहां थूक कर साफसुथरी जगहों को भी गंदा कर बैठते हैं, जो कई तरह की संक्रामक बीमारियों की वजह बनता है.

पा सकते हैं छुटकारा

एक सर्वे का आंकड़ा बताता है कि 73 फीसदी लोग तंबाकू खाना छोड़ना चाहते हैं, लेकिन इस का आदी होने की वजह से वे ऐसा नहीं कर पाते हैं. अगर आप में खुद पर पक्का यकीन है, तो आप तंबाकू की बुरी लत से न केवल छुटकारा पा सकते हैं, बल्कि तंबाकू को छोड़ कर दूसरों के लिए भी रोल मौडल बन सकते हैं.

तंबाकू या उस से बनी चीजों का सेवन करने वाला शख्स अगर कुछ देर इन चीजों को न पाए, तो वह अजीब तरह की उलझन यानी तलब का शिकार हो जाता है, क्योंकि उस का शरीर निकोटिन का आदी बन चुका होता है. ऐसे में लोग तंबाकू के द्वारा निकोटिन की मात्रा को ले कर राहत महसूस करते हैं, लेकिन यही राहत आगे चल कर जानलेवा लत भी बन सकती है.

इन सुझावों को अपना कर भी तंबाकू की लत से छुटकारा पाया जा सकता है:

* तंबाकू की लत को छोड़ने के लिए अपने किसी खास के जन्मदिन, शादी की सालगिरह या किसी दूसरे खास दिन को चुनें और आदत छोड़ने के लिए इस दिन को अपने सभी जानने वालों को जरूर बताएं.

* कुछ समय के लिए ऐसी जगह पर जाने से बचें, जहां तंबाकू उपयोग करने वालों की तादाद ज्यादा हो, क्योंकि ये लोग आप को फिर से तंबाकू के सेवन के लिए उकसा सकते हैं.

* तंबाकू, सिगरेट, माचिस, लाइटर, गुटका, पीकदान जैसी चीजों को घर से बाहर फेंक दें.

* तंबाकू या उस से बनी चीजों के उपयोग के लिए जो पैसा आप द्वारा खर्च किया जा रहा था, उस पैसे को बचा कर अपने किसी खास के लिए उपहार खरीदें. इस से आप को अलग तरह की खुशी मिलेगी.

* तंबाकू की तलब होने के बाद मुंह का जायका सुधारने के लिए दिन में 2 से 3 बार ब्रश करें. माउथवाश से कुल्ला कर के भी तलब को कम कर सकते हैं.

* हमेशा ऐसे लोगों के साथ बैठें, जो तंबाकू या सिगरेट का सेवन नहीं करते हैं और उन से इस बात की चर्चा करते रहें कि वे किस तरह से इन बुरी आदतों से बचे रहे हैं.

* बीड़ीसिगरेट पीने की तलब महसूस होने पर आप अपनेआप को किसी काम में बिजी करना न भूलें. पेंटिंग, फोटोग्राफी, लेखन जैसे शौक पाल कर तंबाकू की लत से छुटकारा पा सकते हैं.

इस मुद्दे पर डाक्टर मलिक मोहम्मद अकमलुद्दीन का कहना है कि अकसर उन के पास ऐसे मरीज आते रहते हैं, जो किसी न किसी वजह से नशे का शिकार होते हैं और वे अपने नशे को छोड़ना चाहते हैं. लेकिन नशे के छोड़ने की वजह से उन को तमाम तरह की परेशानियों से जूझना पड़ता है, जिस में तंबाकू या सिगरेट छोड़ने के बाद लोगों में दिन में नींद आने की शिकायत बढ़ जाती है और रात को नींद कम आती है.

सिगरेट छोड़ने वाले को मीठा व तेल वाला भोजन करने की ज्यादा इच्छा होती है. इस के अलावा मुंह सूखने का एहसास होना, गले, मसूढ़ों व जीभ में दर्द होना, कब्ज, डायरिया या जी मिचलाने जैसी समस्या भी देखने को मिलती है. इस की वजह से वह मनोवैज्ञानिक रूप से मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाता है.

ऐसी हालत में तंबाकू की लत के शिकार लोगों को एकदम से इसे छोड़ने की सलाह दी जाती है, क्योंकि धीरेधीरे छोड़ने वाले अकसर फिर से तंबाकू की लत का शिकार होते पाए गए हैं. तंबाकू छोड़ने के बाद अकसर कोई शख्स हताशा का शिकार हो जाता है. इस हालत में उसे चाहिए कि वह समयसमय पर किसी अच्छे मनोचिकित्सक से सलाह लेना न भूले.

क्या आप पेनकिलर एडिक्टेड हैं तो पढ़ें ये खबर

आज की भागतीदौड़ती जिंदगी में हमारे पास आराम करने का बिलकुल भी समय नहीं है. ऐसे में भीषण दर्द की वजह से हमें बैठना पड़े तो उस से बड़ी मुसीबत कोई नहीं लगती है. कोई भी दर्द से लड़ने के लिए न तो अपनी एनर्जी लगाना चाहता है और न ही समय. इसलिए पेनकिलर टैबलेट खाना बहुत आसान विकल्प लगता है. बाजार में हर तरह के दर्द जैसे बदनदर्द, सिरदर्द, पेटदर्द आदि के लिए कई तरह के पेनकिलर मौजूद हैं.

अलगअलग तरह के पेनकिलर शरीर के विभिन्न दर्दों के लिए काम करते हैं और वह भी इतने बेहतर ढंग से कि कुछ ही मिनटों में दर्द गायब हो जाता है और व्यक्ति फिर से काम करने को तैयार हो जाता है.

शरीर में हलका सा दर्द होते ही हम एक पेनकिलर मुंह में डाल लेते हैं. इस से होता यह है कि शरीर की दर्द से लड़ने की क्षमता घट जाती है और हम शरीर को दर्द से स्वयं लड़ने देने के बजाय उसे यह काम करने के लिए पेनकिलर्स का मुहताज बना देते हैं. काम को सरल बनाने के लिए तरीकों का इस्तेमाल करना मानव प्रवृत्ति है और ईजी पेनकिलर एडिक्शन उसी प्रवृत्ति का परिणाम है.

क्या है पेनकिलर एडिक्शन

पेनकिलर ऐसी दवाइयां हैं जिन का इस्तेमाल मैडिकल कंडीशंस जैसे माइग्रेन, आर्थ्राइटिस, पीठदर्द, कमरदर्द, कंधे में दर्द आदि से अस्थायी तौर पर छुटकारा पाने के लिए किया जाता है. पेनकिलर बनाने में मार्फिन जैसे नारकोटिक्स, नौनस्टेरौइडल एंटी इन्फ्लेमेटरी ड्रग्स और एसेटेमिनोफेन जैसे नौननारकोटिक्स कैमिकल का इस्तेमाल होता है. पेनकिलर एडिक्शन तब होता है जब जिसे ये पेनकिलर दिए गए हों और वह शारीरिकतौर पर उन का आदी हो जाए.

इस एडिक्शन के कितने बुरे प्रभाव हो सकते हैं, यह बात हमारे दिमाग में जब चाहे मुंह में पेनकिलर टैबलेट्स डालते हुए आती ही नहीं है. अन्य एडिक्शन की तरह इस के भी साइड इफैक्ट्स समान ही होते हैं. कई बार दर्द न होने पर भी इस के एडिक्ट पेनकिलर खाने लगते हैं. इन्हें खाने वालों को तो लंबे समय तक पता ही नहीं चलता है कि वे इस के शिकार हो गए हैं. उन का मनोवैज्ञानिक स्तर अस्तव्यस्त हो जाता है. इस एडिक्शन से बाहर आने के लिए उन्हें चिकित्सीय मदद लेनी पड़ती है.

साइड इफैक्ट्स

पेनकिलर्स में सेडेटिव इफैक्ट्स होते हैं जिस की वजह से हमेशा नींद आने का एहसास बना रहता है. पेनकिलर लेने वालों में कब्ज की शिकायत अकसर देखी गई है. पेट में दर्द, चक्कर आना, डायरिया और उलटी इन्हें लेने वालों में आम देखी जाती है. इस के अतिरिक्त भारीपन महसूस होने के कारण सिरदर्द और पेट में दर्द रहने लगता है. मूड स्ंिवग्स और थकावट इन में आम बात हो जाती है. साथ ही, कार्डियोवैस्कुलर और रैस्पिरेट्री गतिविधियों पर भी असर होता है, हार्टबीट व ब्लडप्रैशर में तेजी से उतारचढ़ाव तक ऐसे मरीजों में देखा गया है. पेनकिलर एडिक्शन लिवर पर भी असर डालता है और इन का अधिक मात्रा में सेवन करने से जोखिम और बढ़ जाता है.

मिचली आना, उलटी होना, नींद आना, मुंह सूखना, आंखों की पुतली का सिकुड़ जाना, रक्तचाप का अचानक कम हो जाना, कौंसटिपेशन होना दर्दनिवारक दवाइयों के सेवन से होने वाले कुछ आम साइड इफैक्ट्स हैं. इस के अलावा खुजली होना, हाइपोथर्मिया, मांसपेशियों में तनाव जैसे साइड इफैक्ट्स भी पेनकिलर के सेवन से होते हैं.

फोर्टिस अस्पताल, वसंत कुंज, नई दिल्ली के कंसल्टैंट फिजिशियन डा. विवेक नांगिया के अनुसार, ‘‘अकसर मरीज हमारे पास यह शिकायत ले कर  आते हैं कि उन की किडनी ठीक ढंग से कार्य नहीं कर रही है. जब हम विस्तृत जानकारी लेते हैं तो पता चलता है कि मरीज एनएसएआईडी नौन स्टीरौयड एंटी इंफ्लेमेटरी ड्रग्स गु्रप की दवाइयां लंबे समय से ले रहा है.

‘‘न केवल किडनी फेलियर, बल्कि मरीज अल्सर या पेट में ब्लीडिंग की शिकायत ले कर भी हमारे पास आते हैं, जो अत्यधिक मात्रा में पेनकिलर लेने की वजह से होती है. पेनकिलर लेना ऐसे में एकदम बंद कर देना चाहिए. पैरासिटामोल जैसी सुरक्षित दवाइयां बिना डाक्टर की सलाह के ली जा सकती हैं, पर बहुत कम समय के लिए.’’

अकसर महिलाएं पीरियड्स के दिनों में भी दर्द से बचने के लिए पेनकिलर लेती हैं. हालांकि इस से राहत महसूस होती है पर इस का अधिक मात्रा में सेवन करने से एसिडिटी, गैसट्राइटिस, पेट में अल्सर आदि की समस्याएं हो सकती हैं. इस के अलावा, अगर पेनकिलर खाने से दर्द से राहत मिलती है तो भी चिकित्सकों की राय लें. अगर पेनकिलर्स का उपयोग गलत ढंग से किया जाए तो उस से दर्द और बढ़ सकता है. इसलिए दर्द कम करने के लिए अगर पेनकिलर ले रहे हों तो यह भी याद रखें कि इस से दर्द बढ़ भी सकता है.

प्रदूषण से बढ़ती हैं एलर्जी, जानें उपाय

प्रदूषण चाहे हवा का हो, पानी का हो या जमीन का, रोगों के पनपने का बड़ा कारण है. यह प्रकृति के नियमों में परिवर्तन करता है, प्रकृति के क्रियाकलाप में बाधा डालता है. प्रदूषण हवा, पानी, मिट्टी, रासायनिक पदार्थ, शोर या ऊर्जा किसी रूप में भी हो सकता है. इन सभी तत्त्वों का हमारे परिस्थितिकी तंत्र पर बुरा असर  पड़ता है जिस का प्रभाव मनुष्य के साथसाथ जानवरों और पेड़पौधों पर भी पड़ता है. चूंकि बच्चे और बुजुर्ग ज्यादा संवेदनशील होते हैं, इसलिए इन जहरीले तत्त्वों का असर उन पर सब से अधिक पड़ता है.

प्रदूषण कई प्रकार के होते हैं, जैसे वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मिट्टी का प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण. इन से कई प्रकार की खतरनाक बीमारियां और एलर्जी भी होती है.

वायु प्रदूषण की मार

वायु प्रदूषण में सौलिड पार्टिकल्स और कई तरह की गैसें शामिल होती हैं. दरअसल, एयर पौल्युटैंट हमारे शरीर में रेस्पिरेटरी ट्रैक्ट (श्वास नली) और लंग्स (फेफड़ों) द्वारा प्रवेश करते हैं. इन्हें रक्तवाहिकाएं सोख लेती हैं, जो शरीर के अन्य अंगों तक प्रसारित हो जाते हैं.

वायु प्रदूषण कई रोगों का कारण बनता है जिस की शुरुआत एलर्जी के रूप में आंख, नाक, मुंह और गले में साधारण खुजली या एनर्जी लेवल के कम होने, सिरदर्द आदि से हो सकती है. इस से गंभीर समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं.

  1. रेस्पिरेटरी और लंग्स डिजीज : किसी व्यक्ति में वायु प्रदूषण के चलते समस्या शुरू हो गई है तो उसे रेस्पिरेटरी और लंग्स डिजीज अपनी चपेट में ले सकती हैं.

इन के अंतर्गत अस्थमा अटैक, क्रोनिक औब्सट्रैक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी), लंग्स का कम काम करना, पल्मोनरी कैंसर, (एक खास तरह का लंग कैंसर मेसोथेलियोमा जिस का संबंध आमतौर पर एस्बेस्टोस की चपेट में आने से है आमतौर पर इस की चपेट में आने के 20-30 साल बाद यह नजर आता है), निमोनिया आदि बीमारियां आती हैं.

2. कार्डियोवैस्क्युलर डिजीज, हार्ट डिजीज और स्ट्रोक : सैकंडहैंड स्मोक के बारे में देखा गया है कि यह हृदय रोग को बढ़ाता है. कार्बन मोनोऔक्साइड और नाइट्रोजन डाईऔक्साइड भी इस में सहयोग देते हैं. वायु प्रदूषण को हृदय रोग का एक प्रमुख कारण माना जाता है क्योंकि एयर पौल्युटैंट लंग्स में प्रवेश करते हैं और रक्तवाहिकाओं में घुल जाते हैं जो इंफ्लेमेशन का कारण बनते हैं और हृदय की गति को बढ़ाते हैं. ये अस्थमा और लंग्स व सांस की एलर्जी का कारण बनते हैं.

3. न्यूरो बिहेवियरल (शारीरिक और मानसिक) डिसऔर्डर : वायु में उपस्थित विषाक्त तत्त्व जैसे मरकरी आदि न्यूरोलौजिकल समस्याएं और विकास में बाधा का कारण बनते हैं.

4. लिवर और दूसरे तरह का कैंसर : कार्सिनोजेनिक वोलाटाइल कैमिकल में सांस लेने से लिवर की समस्या और कैंसर हो सकता है. यह भी वायु प्रदूषण के चलते ही होता है.

एक अध्ययन के मुताबिक, धुएं और विभिन्न कैमिकल्स के चलते होने वाले वायु प्रदूषण के चलते प्रतिवर्ष लगभग 30 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है.

जल प्रदूषण के खतरे

जीवन के लिए जल जितना आवश्यक है उतना ही प्रदूषित जल हमारे जीवन के लिए खतरनाक साबित होता है. जल प्रदूषण से कई खतरनाक बीमारियां और एलर्जी होती हैं जो अकसर जानलेवा भी साबित होती हैं.

इंफेलाइटिस, पेट में मरोड़ और दर्द, उलटी, हेपेटाइटिस, रेस्पिरेटरी एलर्जी, लिवर का डैमेज होना आदि बीमारियां जल प्रदूषण के चलते हो सकती हैं. प्रदूषित जल में पाए जाने वाले कैमिकल्स के संपर्क की वजह से किडनी भी खराब हो सकती है.

दूषित जल के प्रयोग से कई प्रकार की एलर्जी भी हो सकती है जिस में त्वचा में जलन, लाल चकत्ते पड़ना और फुंसियां होना आम बात है.

  1. न्यूरोलौजिकल समस्याएं : पानी में आमतौर पर पैस्टिसाइड्स  (जैसे डीडीटी) जैसे कैमिकल्स की उपस्थिति के कारण नर्वस सिस्टम क्षतिग्रस्त हो सकता है.

2. प्रजनन संबंधी समस्या : प्रदूषित पानी के सेवन के चलते जिस्म के अंदरूनी तंत्र के क्षतिग्रस्त होने से लैंगिक विकास में बाधा, बांझपन, इम्यून फंक्शन का कमजोर होना, उर्वरता की क्षमता कम होना जैसी बीमारियां भी हो सकती हैं.

जल प्रदूषण बढ़ने की वजह से मलेरिया का ब्रीडिंग ग्राउंड बन जाता है. यह मच्छरों द्वारा फैलता है. इसकी वजह से दुनियाभर में प्रतिवर्ष लगभग 10.2 लाख लोगों की मौत हो जाती है.

जल प्रदूषण के कारण कुछ सामान्य रोग भी होते हैं जो ज्यादा गंभीर नहीं होते, जैसे समुद्र प्रदूषित पानी में नहाना जिस से कई प्रकार की एलर्जी हो सकती है, जैसे रैशैज, कान में दर्द, आंखों का लाल होना आदि.

मिट्टी के प्रदूषण

हैवी मैटल्स, पैस्टिसाइड्स, सौल्वैंट्स और दूसरे मानव निर्मित कैमिकल्स, लेड और तेल की गंदगी आदि कुछ सामान्य तत्त्व हैं जो मिट्टी को प्रदूषित करने में अपना योगदान देते हैं. मिट्टी का प्रदूषण मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता को नष्ट कर देता है, उपयोगी सूक्ष्मजीवों को मार देता है और एक प्रकार से पैथोजैनिक सौइल इनवायरमैंट का निर्माण करता है.

मिट्टी प्रदूषण से होने वाले रोग प्रत्यक्षरूप से इस को प्रदूषित करने वाले तत्त्वों के संपर्क में आने से होते हैं, जैसे वायु में उत्पन्न तत्त्व में सांस लेना, फसलों पर ऐसे पानी का छिड़काव या ऐसी मिट्टी में फसल उगाना आदि. हालांकि मिट्टी प्रदूषण की चपेट में आना वायु और जल प्रदूषण की चपेट में आने जितना गंभीर नहीं होता. इसका खतरनाक असर बच्चों पर हो सकता है जो आमतौर पर जमीन पर खेलते हैं और इन जहरीले तत्त्वों के सीधे संपर्क में होते हैं.

प्रदूषित मिट्टी के कारण कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं, जैसे सिरदर्द, चक्कर आना, थकान के अलावा त्वचा पर रैशेज, आंखों में खुजली और बाद में इन की गंभीर स्थिति वाली एलर्जी भी हो सकती है.

  1. मस्तिष्क को क्षति : जब बच्चे लेड से प्रभावित मिट्टी के संपर्क में आते हैं तो उन के मस्तिष्क और नर्वस सिस्टम में क्षति हो सकती है. इस से उन के मस्तिष्क और न्यूरोमस्क्यूलर विकास प्रभावित होते हैं.

2. किडनी और लिवर को क्षति : मिट्टी में लेड की मिलावट लोगों को किडनी डैमेज के खतरे में डालती है. ऐसी मिट्टी के संपर्क में आना जिस में मरकरी और साइक्लोडाइन्स का मिश्रण हो, तो वह कभी न ठीक होने वाले किडनी रोग का कारण बन सकता है.

3. मलेरिया : जिन  क्षेत्रों में ज्यादा बारिश होती है और वहां पानी निकलने की ठीक से व्यवस्था नहीं होती तो वहां पानी के साथ मिट्टी मिल जाती है जिस से वहां के लोगों का प्रत्यक्षरूप से मलेरिया के संपर्क में आना सामान्य बात है. मलेरिया प्रोटोजोआ के कारण होता है जो मिट्टी में पैदा होता है. बरसात का पानी प्रोटोजोआ और मच्छरों को आगे बढ़ाने में मदद करता है जिस का परिणाम मलेरिया होता है.

ध्वनि प्रदूषण के साइड इफैक्ट्स

ध्वनि प्रदूषण मनुष्य को चिड़चिड़ा बना देता है. ध्वनि प्रदूषण का मनुष्य पर कई रूपों में प्रभाव पड़ता है.

  1. दक्षता की कमी : कई तरह के शोधों के बाद यह बात साबित हुई है कि मनुष्य के काम करने की क्षमता शोर के कम होने से ज्यादा बढ़ती है. कारखानों का शोर अगर कम कर दिया जाए तो वहां के काम करने वालों की दक्षता को बढ़ाया जा सकता है. इस से यह साबित होता है कि मनुष्य के काम करने की दक्षता का संबंध शोर से है.

2. एकाग्रता में कमी : कार्य के बेहतर परिणाम के लिए एकाग्रता की आवश्यकता होती है. तेज आवाज की वजह से ध्यान भंग होता है. बड़े शहरों में आमतौर पर दफ्तर मुख्य मार्गों पर स्थित होते हैं, ट्रैफिक का शोर या विभिन्न प्रकार के हौर्न्स की तेज आवाजें दफ्तर में काम करने वाले लोगों की एकाग्रता को भंग करती हैं.

3. थकान : ध्वनि प्रदूषण के कारण लोग अपने काम में एकाग्रता नहीं ला पाते. परिणामस्वरूप उन्हें अपना काम पूरा करने में ज्यादा वक्त लगता है जिस की वजह से उन्हें थकान महसूस होती है.

4. गर्भपात : गर्भावस्था के दौरान शांत और सुकून देने वाला वातावरण आवश्यक होता है. अनावश्यक शोर किसी भी महिला को चिड़चिड़ा बना सकता है. कई बार शोर गर्भपात की भी वजह बनता है.

5. ब्लडप्रैशर : शोर व्यक्ति पर कई प्रकार से हमला करता है. यह व्यक्ति के मस्तिष्क की शांति पर हमला करता है. आधुनिक जीवनशैली के चलते पहले से तनाव में रह रहे व्यक्ति के शोर तनाव को बढ़ाने का काम करता है. तनाव की वजह से कई प्रकार के रोग पैदा होते हैं, जैसे ब्लडप्रैशर, मानसिक रोग, डायबिटीज के अलावा दिल की बीमारी आदि. इसलिए तनाव से व्यक्ति को दूरी बना लेने में ही भलाई है.

6. अस्थायी या स्थायी बहरापन : मैकेनिक्स, लोकोमोटिव ड्राइवर्स, टैलीफोन औपरेटर्स आदि सभी को कानों में तेज ध्वनि सुननी पड़ती है. हम सभी लगातार शोर की चपेट में रहते हैं. 80 से 100 डैसिबिल की ध्वनि असुरक्षित होती है. तेज आवाज अस्थायी या स्थायी बहरेपन का कारण भी बन सकती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से कराए गए एक अध्ययन के अनुसार, हृदय रोगों के लिए जिम्मेदार कारकों में से एक ध्वनि प्रदूषण को माना जाता है. इस के अलावा ध्वनि प्रदूषण के कारण अनिद्रा और गंभीर चिड़चिड़ापन जैसे रोग भी होते हैं. एक अध्ययन के अनुसार, हर प्रकार के संक्रामक रोग में से 80 प्रतिशत जल प्रदूषण के कारण होते हैं. जल प्रदूषण के कारण दुनियाभर में लगभग 2.5 करोड़ लोगों की मौत हो जाती है.

प्रदूषण के जानलेवा आंकड़े

वायु प्रदूषण के चलते प्रतिवर्ष 30 लाख लोगों की मौत होती है.

– 80 से 100 डैसिबिल की ध्वनि, ध्वनि प्रदूषण की खतरनाक श्रेणी में आती है.

– दुनिया में हर साल 2.5 करोड़ लाख लोगों की मौत के पीछे की वजह जल प्रदूषण है.

– लगातार ध्वनि प्रदूषण की चपेट में रहने से शरीर में स्ट्रैस हार्मोंस जैसे एड्रेनालाइन, नोराड्रेनालाइन और कार्टीसोल का स्तर बढ़ जाता है. स्ट्रैस, जैसा कि माना जाता है, हार्ट फेलियर, इम्यूनिटी समस्या, हाइपरटैंशन और स्ट्रोक का कारण बनता है.

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