गलत हैं मोहन भागवत : देश बांटने की साजिश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों एक सभा में कहा था कि जाति भगवान ने नहीं बनाई है, बल्कि पंडितों ने बनाई है. भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं. उन में कोई जाति या वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई जो कि गलत था.

आगे उन्होंने कहा कि देश में विवेक, चेतना सभी एक हैं. उस में कोई अंतर नहीं है, बस मत अलगअलग हैं… हमारे समाज में बंटवारे का ही फायदा दूसरों ने उठाया है. इसी से हमारे देश पर आक्रमण हुए और बाहर से आए लोगों ने फायदा उठाया.

उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि हिंदू समाज देश में नष्ट होने का भय दिख रहा है क्या? यह बात कोई ब्राह्मण नहीं बता सकता. आप को समझना होगा. हमारी आजीविका का मतलब समाज के प्रति भी जिम्मेदारी होती है. जब हर काम समाज के लिए है तो कोई ऊंचा, कोई नीचा या कोई अलग कैसे हो गया?

मोहन भागवत को यह दिव्य ज्ञान अचानक क्यों हुआ? वे किस बूते पर कहते हैं कि जातियां भगवान ने नहीं बनाई हैं, जबकि अधिकांश ग्रंथ भरे हुए हैं जिन में यही कहा गया है कि जातियां भगवान ने बनाई हैं? हां, ये ग्रंथ पंडितों के लिखे गए हैं पर भगवान भी तो पंडितों ने गढ़े हैं.

‘ऋग्वेद’ के ‘पुरुष सूक्त’ में लिखा हुआ है कि जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण के विभिन्न अंगों से हुई. क्या मोहन भागवत इस ‘ऋग्वेद’ को हिंदुओं को भगवान द्वारा स्वयं दिया गया ज्ञान नहीं मानते? आज मोहन भागवत अपनी जान बचाने के लिए और शूद्रों व दलितों को खुश करने के लिए अपौराणिक बातें कहने लगे हैं.

‘गीता’ के श्लोक 4/13 में कृष्ण ‘भगवान’ कहते हैं:

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश,

तस्य कर्तारमंपि मां विद्धयकर्तार मव्ययम्.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन

4 वर्णों का समूह और कर्म मेरे द्वारा रचे गए हैं.

मोहन भागवत आज चाहते हैं कि ‘गीता’ की मान्यता भी रहे, ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और सैकड़ों दूसरे ग्रंथ भी रहें और वे पहले की तरह पिछड़ी, निचली व अछूत जातियों पर राज करने की तरकीब इन ग्रंथों के आधार पर तय करते रहें.

यह इसलिए हुआ कि विपक्षी दल संघ की मेहनत और चाल को समझ कर उस के कमजोर हिस्सों पर चोट करने लगे हैं, जिन में तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में बिखरा ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रचार है.

इसी के बलबूते पर मुगल राज में शूद्र यानी आज के ओबीसी और अस्पृश्य यानी आज के एससी मुगलों से मिल गए थे और ब्राह्मणों के हुक्म पर सेवा करने को मजबूर हुए थे.

मुगल राजाओं ने हिंदू धर्मग्रंथों को आदर का स्थान दिया था और उन के फारसी में अनुवाद बाबर के जमाने से होने लगे थे जो औरंगजेब तक चले. इस में संस्कृत का हिंदवी अनुवाद ब्राह्मण करते थे और फिर ईरानी फारसी में. मुगल, जो उज्बेकिस्तान के आसपास के इलाके के थे, फारसी या संस्कृत दोनों ही नहीं जानते थे.

मुगल राजाओं के खिलाफ कभी ब्राह्मणों ने देश की आम जनता को विद्रोह करने के लिए उकसाया नहीं. विनायक दामोदर सावरकर ने मुसलमानों के खिलाफ जो भी कहा वह अंगरेजों की राजनीति के मुताबिक ही था.

अंगरेजों ने भी मुगलों की तरह जातिवाद के खिलाफ कुछ नहीं किया और समाज को कंट्रोल करने की जिम्मेदारी ब्राह्मणों पर छोड़ दी. कांग्रेस के ज्यादातर नेता भी कट्टरवादी ब्राह्मण या उन के कट्टर भक्त कायस्थ और बनिए रहे हैं और आज भी यही चल रहा है. वे सरकार के विरोधी नहीं थे.

सीनियर एडवोकेट व मानवाधिकार कार्यकर्ता राजेश चौधरी ने कहा कि जब यह बात मोहन भागवत को पता थी, पर आज तक संघ का प्रमुख किसी एससी, एसटी और ओबीसी को नहीं बनने दिया गया. संघ प्रमुख शंकराचार्य की तरह सिर्फ एक ही वर्ण के बनाए जाते हैं. लोगों के जेहन में ये खास फैक्टर हैं, जिस का जवाब संघ से जुड़े लोग नहीं दे पा रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी ने बंगारू लक्ष्मण को मजबूरी में अध्यक्ष बनाया था और फिर संघ के आदेश पर साजिश रच कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. संघ के इशारे पर चलने वाले राजनीतिक दल भाजपा ने आज तक कितने एससी, एसटी और ओबीसी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया?

दरअसल, मोहन भागवत इस बयान को दे कर भारत के एससी, एसटी और ओबीसी को हिंदू राष्ट्र के नाम पर भाजपा के पाले में सुरक्षित रखना चाहते हैं. एससी, एसटी और ओबीसी, जो एक बड़ी आबादी है, के बारे में धार्मिक ग्रंथों में लिखी भद्दी और बेइज्जत करने वाली टिप्पणी के चलते जो एकजुटता हो रही है, उसे मोहन भागवत जल्दी रोक देना चाहते हैं.

मोहन भागवत अपने इस कथन से ओबीसी जनगणना की मांग को खत्म भी करना चाहते हैं. वे हिंदू धार्मिक ग्रंथों को भी पोल खुलने से बचाना चाहते हैं.

मोहन भागवत अच्छी तरह जानते हैं कि हिंदू धार्मिक ग्रंथों में एससी, एसटी, ओबीसी के खिलाफ जो अमर्यादित और अमानवीय बातें लिखी हुई हैं. यही ग्रंथ पंडितों की दानदक्षिणा से आमदनी का इंतजाम करते हैं, क्योंकि इन ग्रंथों में ही दानदक्षिणा से पिछले जन्म से जुड़ी जाति व्यवस्था का बखान किया गया है.

डर है कि यह मुद्दा अगर लंबे समय तक चला तो उस के चलते देश में बहुजन समाज के लोग बहुत तेजी से एकजुट हो जाएंगे.

मोहन भागवत का सब से बड़ा डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि भारत का यह एससी, एसटी, ओबीसी वर्ग फिर से अपने मूल धर्म बौद्ध को स्वीकार कर ले और फिर 10 फीसदी वाला वे पौराणिक हिंदू धर्म की पोल खोल कर भारत में बड़ी पार्टियों के वजूद में पलीता न लगा दे. याद रहे कि श्रीलंका में सिंहली बौद्ध और तमिल हिंदुओं का विवाद गृहयुद्ध की शक्ल ले चुका है.

अगर अगर मोहन भागवत यह जान चुके हैं कि जाति ईश्वर ने नहीं बनाई, ब्राह्मणों या पंडितों ने बनाई है तो फिर वे ब्राह्मण होने के नाते एससी, एसटी, ओबीसी पर आज तक हो रहे जुल्मों को गलती मानने का काम क्यों नहीं शुरू करते?

भाजपा सरकार का रिमोट कंट्रोल संघ के पास है, तो उसे आदेश दे कर देश की हर नौकरी, ताकतवर जगह बराबरी का सिस्टम लाने की कोशिश क्यों नहीं कराते? राज्य और केंद्र में खाली पड़े पदों को संवैधानिक प्रतिनिधित्व के आधार पर क्यों नहीं भरे जाते हैं? संविधान में मिले मूल मौलिक अधिकारों को एससी, एसटी, ओबीसी को क्यों नहीं लेने देते?

वैसे तो मंदिर ही जातिवाद को बढ़ावा देने का काम करते हैं और हर जाति को अपना मंदिर दे दिया गया है. दलितों के लिए आमतौर पर तीसरे दर्जे के देवीदेवताओं को रिजर्व कर दिया गया है. फिर भी मंदिरों में हर जाति के पुरोहित, पंडे क्यों नहीं होते?

हिंदू धार्मिक गं्रथों में लिखी गई अपमानजनक भाषा से इस वर्ग के लोगों के अंदर स्वाभिमान जगा है और तेजी से लोग जागरूक हो रहे हैं. इसी वजह से संघ प्रमुख मोहन भागवत बुरी तरह घबराए हुए हैं, क्योंकि वे बेहतर तरीके से जानते हैं कि अगर ऐसे ही यह वर्ग तेजी से एकजुट होता रहा तो देश के किसी भी राज्य में किसी भी कट्टरवादी पार्टी की सरकार नहीं बन पाएगी, बल्कि वह हमेशाहमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.

 

किसान आंदोलन में खालिस्तान शामिल

पंजाब में शुरू हो चुके खालिस्तान आंदोलन और अमृतपाल ङ्क्षसह की अगुवाई में वारिस पंजाब दे के पनपने के लिए सीधेसीधे भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराना होगा. यह मामला कोई नया नहीं है क्योंकि भाजपा के पिट्टुओं ने 2 साल पहले चले किसान आंदोलन में खालिस्थानियों की बात उसी\ तरह खुल कर कही थी जैसे के देश की सरकार के खिलाफ बोलने वाले हर जने को पाकिस्तानी, अरबन नक्सल, देशद्रोही कह देते हैं.

सिखों में बेचैनी होने लगी थी यह इस से साफ है कि जब भाजपा के नरेंद्र मोदी को पूरे देश में गूंज ही रहा हो, पंजाब में पहले कांग्रेस की सरकार थी और फिर आम आदमी पार्टी की. भाजपा से अकाली दल का पूरी तरह नाता तोडऩा कोई सिर्फ राजनीतिक दावपेंच नहीं था, यह सिखों का बिफरना है.

जब भी ङ्क्षहदू, भारत माता, वंदेमातरम की बात की जाती है और पूरे देश की जनता को कहा जाता है कि इसे ही अपना मूलमंत्र माने मुसलिम ही नहीं, सिख, ईसाई, जैन, बौध और दूसरे छोटेछोटे संप्रदायों के लो कसमसाने लगते है. ङ्क्षहदू राष्ट्र की सोच इस कदर भाजपा के मंत्रियों की सोच में घुस गई है कि वे उस के बाहर सोच ही नहीं पा रहे और भूल रहे है कि यहां हर तरह के लोग सदियों से बसे हैं और नारों से न उन का रंगढंग बदला जा सकता है, न सोच.

आज का युग वैसे साइंस का है टैक्नोलोजी का है. उस में धर्म की कहीं कोई जगह ही नहीं है, गुंजाइश ही नहीं है, जरूरत ही नहीं है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान का हाल हम देख रहे है जहां धर्म जनता पर हावी हो गया और लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई है.

अमृतपाल ङ्क्षसह जैसे लोग ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं कि कौर्य, धर्म, जाति के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर सकें. किसान आंदोलन जो शुरू में फरम किसानों के नेताओं की अगुवाई में चला और राकेश टिकैत बाद में उभरे, सिखा गया कि देश की सरकार को सीधा करा जा सकता है. जरूरत है मुद्दे की जिस के सरकार बेबात में मौके देती रहती है.

आजकल मंदिर, मसजिद, गुरूद्वारों में कमाई करने की होड़ मची हुई है और चूंकि भक्ति का माहौल सरकारी पार्टी ही बात रही है, जिम्मेदारी उसी पर आती है. आजकल चारों और अगर कुछ बड़ा बन रहा है तो वह धर्म से जुड़ा है. अयोध्या तक में एक बड़ी सुंदर आकर्षक मसजिद की प्लाङ्क्षनग चल है रही है और पक्का है कि गरीबी में रह रहे मुसलमान भी पेट काट कर उस के लिए पैसा जमा कर लेंगे. जब ङ्क्षहदू और मुसलमानों की बात रोज होगी तो सिखों की क्यों नहीं होगी.

अमृतपाल ङ्क्षसह ने इसी का फायदा उठाया है और अजचलों में उस के साथियों ने एक कट्टरपंथी को पुलिस से फुड़वा कर साबित कर दिया कि उन की भीड़ जुटाने की वक्त है. अमृतपाल ङ्क्षसह गिरफ्तार होता है या वह कहीं विदेश में पहुंच जाता है अभी नहीं कह सकते. वह केंद्र सरकार के लोहे के बच निकलने की सोच भी सकता था, यही यह दिखाने के लिए बाफी है धर्म के नाम पर सुलगाई आग कब काबू से बाहर हो जाए और किस के घर जला दे कहां नहीं जा सकता. उम्मीद की जानी चाहिए कि अमृतपाल ङ्क्षसह के पंजाब का अमन खराब करने की इजाजत नहीं मिलेगी और सरकार इस मसले को जिद और पुलिस के

पाकिस्तान : तोशाखाना ने तोड़ी इमरान खान की हनक

हाल ही में पाकिस्तान में इमरान खान पर सरकारी शिकंजे के साथसाथ 2 और खबरें भी सुर्खियों में बनी हुई थीं. पहली खबर यह थी कि भुखमरी झेल रहे इस देश में एक ऐसा एटीएम है, जो गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड में इसलिए दर्ज है, क्योंकि वह दुनिया में सब से ऊंचाई पर बना हुआ है. कुछ लोग इस एटीएम को ‘सैल्फी एटीएम’ भी कहते हैं. वजह, जो लोग इस एटीएम से पैसे निकालने जाते हैं, वे उस के साथ एक सैल्फी ले कर सोशल मीडिया पर जरूर पोस्ट करते हैं.

दरअसल, चीन और पाकिस्तान के बीच एक जगह है, जिसे खंजराब दर्रे की सीमा कहा जाता है. यह जगह बर्फीली पहाड़ियों से घिरी हुई है. यह एटीएम इसी जगह पर 4,693 मीटर की ऊंचाई पर बना है.

दूसरी खबर यह थी कि 17-18 मार्च, 2023 की रात को जम्मूकश्मीर के सांबा जिले में इंटरनैशनल बौर्डर से सटे रामगढ़ सैक्टर में एक तेंदुआ पाकिस्तान से भारत की सरहद में घुस आया था. इस की जानकारी मिलते ही सुरक्षा गार्डों ने रामगढ़ के सांबा में अलर्ट जारी कर दिया था. साथ ही, जंगल महकमे की टीमों को तेंदुए की तलाश में लगा दिया गया था.

इस तेंदुए वाली खबर के बाद सोशल मीडिया पर भारतीय लोगों ने मजे लेने शुरू कर दिए थे. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था की तुलना करते हुए एक यूजर ने कहा था, ‘यहां तक ​​कि पाक में जानवरों को भी खाद्य संकट का सामना करना पड़ रहा है’, तो दूसरे यूजर ने कहा था, ‘अब जानवर भी पाकिस्तान को पसंद नहीं करते.’

एटीएम और तेंदुए की खबरों के बीच अब उस खबर को खंगालते हैं, जिस ने पाकिस्तान में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं, जिस से वहां पैसे और भोजन के संकट पर पूरी दुनिया में बात हो रही है.

यह मामला पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके इमरान खान और उन की पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ और वर्तमान सरकार के टकराव से जुड़ा है. हुआ यों कि हाल ही में पाकिस्तान पुलिस ने इमरान खान के तकरीबन एक दर्जन नेताओं पर तोड़फोड़, सिक्योरिटी वालों पर हमला करने को ले कर कड़ा ऐक्शन लिया था.

पुलिस ने पद से हटाए गए प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई के दौरान अदालत परिसर के बाहर हंगामा करने में शामिल होने के आरोप में आतंकवाद निरोधक कानून की विभिन्न धाराओं के तहत रविवार, 19 मार्च, 2023 को मामला दर्ज किया था.

दरअसल, इमरान खान तोशाखाना मामले की सुनवाई में पेश होने के लिए लाहौर से इसलामाबाद आए थे और उस दौरान इसलामाबाद न्यायिक परिसर के बाहर उन के समर्थकों और सिक्योरिटी वालों के बीच झड़प हुई थी.

पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच शनिवार, 18 मार्च, 2023 को हुई झड़प के दौरान 25 सिक्योरटी वाले घायल हो गए थे, जिस के बाद अवर जिला व सत्र न्यायाधीश जफर इकबाल ने सुनवाई 30 मार्च, 2023 तक के लिए स्थगित कर दी थी.

इसी बीच पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी ने केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन पाकिस्तान डैमोक्रेटिक मूवमैंट को चुनाव की तारीखों पर बातचीत करने का प्रस्ताव दिया था, ताकि इस साल होने वाले चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से निबट जाएं.

दरअसल, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने देश को आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से निकालने के लिए सभी दलों के ‘राजनीतिक नेतृत्व’ को मिलने की दावत दी थी. इस के बाद इमरान खान ने ट्विटर पर संदेश दिया था कि वे ‘लोकतंत्र के लिए किसी से भी बात करने के लिए तैयार हैं.’

इमरान खान और पाकिस्तान की सरकार में छिड़ी यह जंग आगे क्या रूप लेगी और इस का वहां के सियासी माहौल पर क्या और कितना असर पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर जरा उस तोशाखाना मामले पर भी नजर डाल लेते हैं, जिस के चलते इमरान खान का राजनीतिक कैरियर ही खतरे में पड़ता दिख रहा है.

याद रहे कि इमरान खान की सरकार गिरने के बाद इसी तोशाखाना मामले में उन की संसद की सदस्यता चली गई थी. चुनाव आयोग ने इस को ले कर बाकायदा सुनवाई की थी, लेकिन इमरान खान की दलीलों से संतुष्ट नहीं होने पर पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के चेयरमैन की सदस्यता रद्द कर दी गई थी.

दरअसल, तोशाखाना पाकिस्तान कैबिनेट का एक महकमा है, जहां दूसरे देशों की सरकारों, राष्ट्रप्रमुखों और विदेशी मेहमानों द्वारा दिए गए बेशकीमती उपहारों को रखा जाता है. नियमों के तहत किसी दूसरे देशों के प्रमुखों या गणमान्य लोगों से मिले उपहारों को तोशाखाना में रखा जाना जरूरी है.

इमरान खान साल 2018 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे. उन्हें अरब देशों की यात्राओं के दौरान वहां के शासकों से महंगे गिफ्ट मिले थे. उन्हें कई यूरोपीय देशों के राष्ट्रप्रमुखों से भी बेशकीमती गिफ्ट मिले थे, जिन्हें इमरान ने तोशाखाना में जमा करा दिया था, लेकिन इमरान खान ने बाद में तोशाखाना से इन्हें सस्ते दामों पर खरीदा और बड़े मुनाफे में बेच दिया. इस पूरी प्रक्रिया को उन की सरकार ने बाकायदा कानूनी इजाजत दी थी.

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान खान ने 2.15 करोड़ रुपए में इन गिफ्टों को तोशाखाना से खरीदा था और इन्हें बेच कर 5.8 करोड़ रुपए का मुनाफा कमा लिया था. इन गिफ्टों में एक ग्राफ घड़ी, कफलिंक का एक जोड़ा, एक महंगा पैन, एक अंगूठी और 4 रोलैक्स घड़ियां भी थीं.

पाकिस्तानी मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान खान को सत्ता से हटाए जाने के कुछ महीनों बाद सत्तारूढ़ गठबंधन के कुछ सांसदों ने नैशनल असेंबली के अध्यक्ष राजा परवेज अशरफ ने सामने एक आरोपपत्र दायर किया था. इस में इमरान खान पर आरोप लगाए गए थे कि जो गिफ्ट उन्हें मिले, उस का ब्योरा तोशाखाना को नहीं सौंपा गया था. उन्हें बेच कर पैसे कमाए गए.

पाकिस्तान के स्पीकर ने इस मामले में जांच कराई, जिस के बाद इमरान खान को नोटिस मिला था. उन्होंने इस नोटिस का जवाब दिया था और कहा था कि प्रधानमंत्री रहते हुए मिले 4 गिफ्टों को उन्होंने बेच दिया था. बाद में वही गिफ्ट इमरान खान के गले की हड्डी बन गए और तोशाखाना ने उन का खाना खराब कर दिया.

‘राहुल गांधी माफी मांगो’ का अनोखा मजाक: सत्ता पक्ष का उतरा नकाब

राहुल गांधी को ले कर जिस तरह देश की संसद में सरकार में बैठे हुए ‘बड़े चेहरे’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और दूसरों ने ‘माफी मांगो’ और ‘देशद्रोह का मामला’ कहने की गूंज लगाई है, वह बताती है कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार राहुल गांधी से कितना डरी हुई है. राहुल गांधी के लिए ‘पप्पू’ शब्द का इस्तेमाल कर के उन्हें राजनीति में नकारा साबित करने की सोच वाले ये चेहरे आज राहुल गांधी के बयान के बाद बेबस और बेचारे दिखाई दे रहे हैं.

कहते हैं कि चोर की दाढ़ी में तिनका. ऐसे ही अगर राहुल गांधी की बातों में कोई सच नहीं है तो भाजपा के ये कद्दावर नेता इतना चिंतित क्यों हैं? जब देश राहुल गांधी को गंभीरता से नहीं लेता तो फिर इतने घबराने का काम ये बड़ेबड़े चेहरे क्यों कर रहे हैं? संसद में हुई कार्यवाही को देखने से साफ हो जाता है कि राहुल गांधी ने जो कहा है, उस से ये चेहरे डरे हुए हैं, क्योंकि सच सामने खड़े हो कर जवाब मांग रहा है और देश की जनता में यह संदेश जा रहा है कि राहुल गांधी की बातें कितनी सच्ची और गंभीर हैं.

जैसे, देश में इन दिनों सब से गंभीर मामला है गौतम अडानी का जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद से दुनिया के दूसरे नंबर के पैसे वाले बन गए हैं, मगर पोल खुलते ही वे 40वें नंबर पर पहुंच गए. इस पर नरेंद्र मोदी कुछ बोलने को तैयार हैं और न ही सरकार कुछ ऐक्शन लेने को गंभीर दिखाई देती है. कुल जमा धीरेधीरे राहुल गांधी देश और दुनिया में अपने सच और साहस के चलते इज्जत की नजर से देखे जाने लगे हैं और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी, जिन्हें देश ने बड़े विश्वास के साथ प्रधानमंत्री बनाया और सत्ता की चाबी दी, धीरेधीरे नीचे की ओर आ रहे हैं.

राहुल गांधी की लोकप्रियता

दरअसल, जैसा कि कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी की टिप्पणी को ले कर ‘संसद’ में जम कर हंगामा सत्ता  पक्ष द्वारा किया गया, यह अपनेआप में एक बड़ी ऐतिहासिक घटना है. यह सब राहुल गांधी की लोकप्रियता को दिखाता है. यह एक अनोखा नजारा था कि राज्यसभा के साथ लोकसभा में सत्तापक्ष के सांसदों ने लंदन में की गई राहुल गांधी की टिप्पणी को ले कर सदन के अंदर ‘माफी मांगो’ के नारे लगाए. वह सब देश और दुनिया में देखा गया गया और अब सरकार के चेहरे से नकाब उतरने लगे हैं.

दूसरी तरफ लोकसभा में विपक्षी सदस्यों ने अडाणी समूह मामले में संयुक्त संसदीय समिति गठन की मांग की और हंगामा करते हुए अध्यक्ष ओम बिरला के आसन के सामने आ गए. हंगामे की वजह से दोनों सदन एक बार स्थगित कर दिए गए और शून्यकाल हंगामे की भेंट चढ़ गया.

राहुल गांधी पर सब से बड़ा हमला रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा किया गया. लोकसभा में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘लोकसभा सदस्य राहुल गांधी ने लंदन में भारत को बदनाम करने की कोशिश की है. उन्होंने (राहुल गांधी) कहा है कि भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से तहसनहस हो गया है और विदेशी ताकतों को आ कर लोकतंत्र को बचाना चाहिए.’

राजनाथ सिंह ने आगे कहा, ‘उन्होंने (राहुल गांधी) भारत की गरिमा व प्रतिष्ठा पर गहरी चोट पहुंचाने की कोशिश की है. पूरे सदन को उन के (राहुल गांधी) इस व्यवहार की निंदा करनी चाहिए और आप की (अध्यक्ष) ओर से यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि राहुल संसद के मंच पर क्षमायाचना करें.’

हंगामे के बीच ही संसदीय कार्यमंत्री प्रल्हाद जोशी ने भी राहुल गांधी पर विदेशी धरती पर भारत का अपमान करने का आरोप लगाया. दूसरी तरफ हंगामे के बाद लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने अध्यक्ष ओम बिरला को एक चिट्ठी लिखी, जिस में अनुरोध किया गया कि सदन में राहुल गांधी को ले कर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रल्हाद जोशी ने जो टिप्प्णी की है, उसे सदन की कार्यवाही से हटा दिया जाना चाहिए.

भाजपा के बड़े नेताओं का राहुल गांधी के बयान से चिंतित होना यह दिखाता है कि राहुल की बातों में उन के चेहरे से नकाब उतारने का काम हुआ है और दुनियाभर में भारत में जो हो रहा है, वह चर्चा का विषय है, जिस से ये चेहरे मुंह दिखाने के काबिल नहीं हैं. अच्छा है सत्ता पक्ष का एकएक शब्द आज लोकसभा और राज्यसभा के रिकौर्ड में अंकित हो गया है. यह एक तरह से लोकतंत्र के लिए एक काले दिन के रूप में जाना जाएगा, जब सत्ता पक्ष ही राहुल गांधी के लिए प्रलाप कर रहा था.

फेसबुक पोस्ट : राहुल गांधी ने ब्रिटेन में जो कहा है, उस से भारत में बैठे सत्ता पक्ष के दिग्गज हिल गए हैं और वे संसद में ‘गांधी माफी मांगो’ के नारे लगाने पर मजबूर हो गए हैं. यह भारत के लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक तौर पर ‘काला दिन’ कहा जाएगा. तो क्या अब भारतीय जनता पार्टी को अपनी सत्ता खोने का डर सताने लगा है?

दिल्ली : मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी, सियासत के फंदे में दिल्ली की आधी सरकार

अरविंद केजरीवाल की मजबूत दिल्ली सरकार में वित्त, योजना, शिक्षा, भूमि और भवन, जागरूकता, सेवा, श्रम, रोजगार, लोक निर्माण विभाग, कला और संस्कृति और भाषाएं, ऊर्जा, आवास, शहरी विकास, जल, सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण, इंडस्ट्रीज, आबकारी, स्वास्थ्य के अलावा कई और मंत्रालय संभालने वाले उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को 26 फरवरी, 2023 को शराब घोटाला मामले में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया था.

मंत्रालयों के लिहाज से दिल्ली की आधी सरकार चलाने वाले मनीष सिसोदिया को शायद इस बात की भनक पहले से ही लग गई थी, तभी तो सीबीआई दफ्तर रवाना होने से पहले उन्होंने दिल्ली वालों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी, जिसे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शेयर किया था.

इस चिट्ठी में मनीष सिसोदिया ने किसी का नाम लिए बगैर कहा था कि ‘ये लोग आज मुझे गिरफ्तार करने वाले हैं. उन्होंने मुझ पर झूठे आरोप लगाए हैं. मुझे यकीन है कि ये सभी मामले अदालत में खारिज हो जाएंगे, लेकिन इस में कुछ समय लग सकता है. हो सकता है मुझे कुछ समय के लिए जेल में रहना पड़े , लेकिन मैं इसे ले कर बिलकुल भी चिंतित नहीं हूं.’

मनीष सिसोदिया का ‘ये लोग’ कहना एक बड़ा इशारा है कि किस तरह देश की केंद्र सरकार दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कमजोर करने के लिए सरकारी एजेंसियों का सहारा ले रही है और दिल्ली में शिक्षा की बेहतरी को बड़ा आंदोलन बनाने वाले ‘शरीफ उपमुख्यमंत्री’ पर ही बड़ा वार किया है.

दूसरी ओर आबकारी घोटाला मामले में सीबीआई का आरोप था कि मनीष सिसोदिया के कंप्यूटर से कुछ फाइलें डिलीट कर दी गई थीं. इन्हें फौरैंसिक टीम ने रिट्राइव किया. इन में मनीष सिसोदिया के खिलाफ अहम सबूत मिले.

इस मामले में सीबीआई ने 17 अगस्त, 2022 को मामला दर्ज किया था. सीबीआई ने 6 महीने की जांच और कई ठिकानों पर छापेमारी के बाद मनीष सिसोदिया के खिलाफ यह कार्यवाही की. इस से पहले मनीष सिसोदिया को अक्तूबर, 2022 में भी पूछताछ के लिए बुलाया गया था.

याद रहे कि सीबीआई ने 17 अगस्त, 2022 को नई आबकारी नीति (2021-22) में धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी के आरोप में मनीष सिसोदिया समेत 15 लोगों पर मामला दर्ज किया था. 19 अगस्त, 2022 को सीबीआई ने मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के 3 और सदस्यों के आवास पर छापा मारा था.

मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से सीबीआई को क्या मिलेगा या मनीष सिसोदिया का आगे क्या होगा, यह तो देरसवेर पता चल ही जाएगा, पर एक बड़ा सवाल यहां यह उठता है कि अब अरविंद केजरीवाल 33 में से 18 महकमे संभालने वाले मनीष सिसोदिया की भरपाई कैसे करेंगे और कौन ऐसा चेहरा होगा जो दिल्ली की आम आदमी पार्टी को मजबूती देगा?

यह सवाल पूछने की सब से बड़ी वजह यह है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के पास कोई भी महकमा नहीं है. आम आदमी पार्टी के कद्दावर नेता सत्येंद्र जैन पहले से ही जेल में बंद हैं. मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी भी चुन कर ऐसे समय हुई, जब बोर्ड के इम्तिहान शुरू हो गए थे. दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के कामों पर इस गिरफ्तारी का यकीनन असर पड़ेगा.

इतना ही नहीं, पंजाब में जो अलगाववाद का ढिंढोरा पीटा जा रहा है और वहां आम आदमी पार्टी को कमजोर किए जाने की जो कोशिश हो रही है, उसी के साथसाथ राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं और साल 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में भी यह पार्टी जुटी हुई है. पर अब मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी से आम आदमी पार्टी की राह में सियासी दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं.

तो क्या यह समझ लिया जाए कि आगामी चुनावों के मद्देनजर यह केंद्र सरकार द्वारा आम आदमी पार्टी को कमजोर करने की कोई साजिश है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि जिस तरह से अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के बाद पंजाब में अपनी जीत का परचम लहराया है, वह किसी चमत्कार से कम नहीं है.

कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के साथसाथ अकाली दल भी इसी मुगालते में था कि पंजाब के लोग अरविंद केजरीवाल पर भरोसा नहीं करेंगे, पर उन सब दलों ने मुंह की खाई और बेशक आम आदमी पार्टी का कोई सियासी विचार या नीतियां नहीं हैं, फिर भी उस ने एक बार को वह कर के दिखा दिया जो उस ने कहा था.

केंद्रीय एजेंसियों का शिकार बन चुके शिव सेना के तेजतर्रार नेता संजय राउत ने इस मसले पर मनीष सिसोदिया का पक्ष लेते हुए कहा, “सिसोदिया पर हुई कार्यवाही बताती है कि केंद्र सरकार विपक्ष का मुंह बंद कराना चाहती है. हम सिसोदियाजी के साथ हैं. महाराष्ट्र हो, झारखंड हो, दिल्ली हो, केंद्र सीबीआई और ईडी का इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को जेल भेज रही है या उन्हें समर्पण करने पर मजबूर कर रही है, चाहे वे सिसोदिया हों, नवाब मलिक हों, अनिल देशमुख हों या फिर मैं. क्या भाजपा में सारे संत हैं?” संजय राउत का यह उछलता सवाल भाजपा कैच कर पाएगी या नहीं, यह तो फिलहाल कहा नहीं जा सकता, पर जनता यह सोचने पर जरूर मजबूर होगी कि क्या वाकई भाजपा में सारे संत हैं?

अमीरों की ऐसी हरकत ने करा डाली बेइज्जती

पूरा देश गांव वालों और गरीबों को कोसता रहता है कि वे जहां चाहे पैंट खोल कर पेशाब कर देते हैं. गनीमत है कि अब अमीरों की पोल खोल रही है. एक शंकर मिश्राजी बिजनैस क्लास का महंगा टिकट ले कर न्यूयौर्क से 26 नवंबर को दिल्ली एयर इंडिया की फ्लाइट में आ रहे थे. उन्होंने इतनी पी रखी थी कि उन्हें होश नहीं था कि क्या कर रहे हैं. उन के बराबर बैठी एक महिला को शायद उन्होंने गली की दीवार सम?ा कर उस पर पैंट खोल कर पेशाब कर दिया. ऐसा काम जो अगर गरीब या गांव वाले कर देते तो तुरंत उन की मारकुटाई शुरू हो जाती. पर ये ठहरे मिश्राजी, इन्हें कौन कुछ कहेगा.

जब मामला जनवरी के पहले सप्ताह में शिकायत करने पर सामने आया तो इस महान उच्च कोटि में जन्म लेने वाले, एक विदेशी कंपनी में काम करने वाले की खोज हुई वरना एयरलाइंस ने इस मामले को रफादफा कर दिया क्योंकि इस से जगदगुरु भारत की और एयर इंडिया कंपनी की बेइज्जती होती.

मामला खुलने के कई दिन बाद तक इस मिश्राजी को पकड़ा नहीं जा सका. उस के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने दिल्ली में कुछ मामले दर्ज किए हैं पर पक्का है कि गवाहों के अभाव में वह कुछ साल में छूट जाएगा और देश की दीवारों पर गरीबों के लिए लिखता रहेगा कि यहां पेशाब करना मना है, जुर्म है.

मरजी से जहां भी पेशाब करना और जहां भी जितना भी पीना शायद यह भी उच्च कोटि में जन्म लेने से मिलने वाले हकों में से एक है. घरों की दीवारों पर कोई निचली जाति का पेशाब तो छोडि़ए थूक भी दे तो हंगामे खड़े हो जाते हैं पर ऊंचे लोग जो भी चाहे कर लें, उन के लिए अलग कानून हैं. ये अलग कानून किताबों में नहीं लिखे, संविधान में नहीं हैं पर हर पुलिस वाले के मन में हैं, हर बेचारी औरत के मन में हैं और जजों के मन में लिखे हुए हैं.

गरीबों के मकान ढहा दो, गांवों की जमीन सस्ते में सरकार खरीद ले, सरकार किसान से ट्रैक्टर, खाद, डीजल पर जम कर टैक्स ले पर उस की फसल की उसे सही कीमत न दे या ऐसा माहौल बना दे कि प्राइवेट व्यापारी भी न दे, यह मंजूर है.

भारत की गंदगी के लिए ऊंची जातियां ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि जब वे घरों या फैक्टरियों से कूड़ा निकालती हैं तो चिंता नहीं करतीं कि कौन कैसे इन्हें निबटाएगा और उस का हाल क्या होगा. उन के लिए तो सफाई वाले दलित, किसान, मजदूर और हर जाति की औरतें एक बराबर हैं. शंकर मिश्रा को तलब लगी होती तो भी वह किसी पुरुष पर पेशाब नहीं करता. एक प्रौढ़ औरत को उस की दबीछिपी ऊंची भावना ने नीच मान रखा है और उस पर पेशाब कर डाला.

अब देश की सारी दीवारों से ‘यहां पेशाब करना मना है’ मिटा देना चाहिए और अगर लगाना है तो एयर इंडिया की फ्लाइटों में लगाएं और औरत पैसेंजरों को पेशाब प्रूफ किट दें जैसे कोविड के दिनों में दी गई थीं. ऊंची जाति वालों का राज आज जोरों पर है. ऐसे मामले और कहां हो रहे होंगे, पर खबर नहीं बन रहे, क्या पता. यह भी तो डेढ़ महीने बाद सामने आया.

 

सरकार की नीति: रोजगार एक अहम मुद्दा

गूगल पर बेरोजगारों के फोटो खंगालते हुए बहुत से फोटो दिखे जिन में बेरोजगार प्रदर्शन के समय तखतियां लिए हुए थे जिन पर लिखा था ‘मोदी रोजी दो वरना गद्दी छोड़ो’, ‘शिक्षा मंत्री रोजी दो वरना त्यागपत्र छोड़ो’, ‘रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी हैं.’

ये नारे दिखने में अच्छे लगते हैं. बेरोजगारों का गुस्सा भी दर्शाते हैं पर क्या किसी काम के हैं. रोजगार देना अब सरकारों का काम हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हो या जापान के प्रधानमंत्री हर समय बेरोजगारी के आंकड़ों पर उसी तरह नजर रखते हैं जैसे शेयर होल्डर अडानी के शेयरों के दामों पर. पर न तो यह नजर रखना नौकरियां पैदा करती है और न शेयरों के दामों को ऊंचानीचा करती है.

रोजगार पैदा करने के लिए के लिए जनता खुद जिम्मेदार है. सरकार तो बस थोड़ा इशारा करती है. सरकार उस ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह होती है जो ट्रैफिक उस दिशा में भेजता है जहां सडक़ खाली है. पर ट्रैफिक के घटतेबढऩे में पुलिसमैन की कोई भी वेल्यू नहीं है. सरकारें भी नौकरियां नहीं दे सकतीं, हां सरकारें टैक्स इस तरह लगा सकती हैं, नियमकानून बना सकती हैं कि रोजगार पैदा करने का माहौल पैदा हो.

हमारे देश में सरकारें इस काम को इस घटिया तरीके से करती हैं कि वे रोजगार देती हैं तो केवल टीचर्स को, हर ऐसे टीचर्स जो रोजगार पैदा करने लायक स्टूडेंट बना सकें.

ट्रैफिक का उदाहरण लेते हुए कहा जा सकता है कि ट्रैफिक कांस्टेबल को वेतन और रिश्वत का काम किया जाता है. खराब सडक़ें बनाई जाती हैं जिन पर ट्रैफिक धीरेधीरे चले, सडक़ों पर कब्जे होने दिए जाते हैं ताकि सडक़ें छोटी हो जाए और दुकानोंघरों से वसूली हो सके.

ऐसे ही पढ़ाई में हो रहा है. टीचर्स एपायंट करना, स्कूल बनवाने, बुक बनवाने, एक्जाम करने में सरकार आगे पर नौकरी लगा पढ़ाने में कोई नहीं. सरकार जानबूझ कर माहौल पैदा करती है कि बच्चे पढ़ें ही नहीं, खासतौर पर किसानों, मजदूरों, मैकेनिकों, सफाई करने वालों को तो पढ़ाते ही नहीं है. वे सिर्फ मोबाइलों पर फिल्में देखना जानते हैं. ट्रैफिक पुलिसमैन बनी सरकार अपनी जेब भर रही है.

मोदी सरकार अगर इस्तीफा दे देगी तो जो नई सरकार आएगी वह भी उसी ढांचे में ढली होगी क्योंकि यहां पढ़ाने का मतलब होता है पौराणिक पढ़ाई जिस में पढ़ाने वाला गुरू होता है जो मंत्रों को रटवाता है और उस के बदले दान, दक्षिणा, खाना, गाय, औरतें, घर पाना है और गॢमयों में पंखों के नीचे और सॢदयों में धूप में सुस्ताना है, कोङ्क्षचग में वह सिर्फ पेपर लीक करवा कर पास कराने का ठेका लेता है.

जब असली काम की नौबत आती है, पढ़ालिखा सीरिया और तुर्की के मकानों की तरह भूकंप में छह जाता है. अब जब भूकंप के लिए…..एरडोगन और इरशाद जिम्मेदार नहीं तो मोदी क्यों. इसलिए चुप रहो, शोर न मचाओ.

आरक्षण : पिछड़े और दलितों को लड़ाने की साजिश

सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) यानी गरीब सवर्ण तबके के आरक्षण को बरकरार रखने का फैसला देते हुए आरक्षण के मामले में 50 फीसदी की सीमा रेखा को पार करने को जायज ठहरा दिया है, जबकि ओबीसी वर्ग को 50 फीसदी सीमा पार करने की जब बात होती है, तब सुप्रीम कोर्ट इस सीमा को संवैधानिक सीमा मान लेता है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से साल 1993 के अपने ही उस फैसले को पलट दिया है, जिस में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की पीठ ने 27 फीसदी पिछड़े वर्ग, 15 फीसदी दलित वर्ग और 7.5 फीसदी अतिदलित वर्ग के कुल योग 49.5 फीसदी आरक्षण से आगे बढ़ाने से मना कर दिया था.अब सवर्ण गरीबों के 10 फीसदी आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट से भी हरी ?ांडी मिलने के बाद आरक्षण 50 फीसदी की सीमा रेखा को लांघ कर 59.5 फीसदी पर पहुंच गया है. 7 नवंबर, 2022 को ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया. सुप्रीम कोर्ट के सवर्ण जजों ने सवर्णों के हक में स्वर्णिम फैसला सुना कर मोदी सरकार द्वारा साल 2019 में संविधान में संशोधन कर ईडब्ल्यूएस सवर्णों को जो 10 फीसदी आरक्षण दिया था, उस को जायज करार दे दिया.

मतलब, अब देश में 60 फीसदी आरक्षण हो गया है, जबकि इसी सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में, जब मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार ओबीसी को उस की आबादी के अनुपात में 52 फीसदी आरक्षण दिया जाना था, ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला सुनाया था कि देश में कुल आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए, क्योंकि एससीएसटी का 22-50 फीसदी आरक्षण पहले से ही था. इस का मतलब हुआ कि कुल 110 स्थानों में जहां पहले पिछड़ों और दलितों के 55 स्थान होते थे, अब 50 ही रह जाएं.

देश में ओबीसी विधायकों और सांसदों की संख्या 1,500 से भी ज्यादा है, लेकिन दुख की बात है कि ये नेता विधानसभाओं और लोकसभा में कभी भी ओबीसी के अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ते. कमोबेश यही हालत एससीएसटी विधायकसांसदों की है.

देश के ओबीसी अब यह अच्छी तरह सम?ा लें कि उन के अधिकारों की लड़ाई कोई राजनीतिक दल या उन के समाज के विधायकसांसद न कभी पहले लड़े थे और आगे भी कभी नहीं लड़ेंगे. जिस तरह एससीएसटी के लोगों ने अपने ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बचाने के लिए 2 अप्रैल, 2018  को बिना किसी नेता और राजनीतिक दल के पूरे देश में सड़कों पर उतर कर आंदोलन किया था और जिस के बाद मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए मजबूर होना पड़ा था और संविधान में संशोधन कर ऐट्रोसिटी ऐक्ट को बहाल किया था, वैसा ही अब कुछ करना होगा.

देखा जाए तो कुल जनसंख्या अनुपात में ओबीसी का आंकड़ा बड़ा है. भारत में समाज कल्याण की जितनी भी योजनाएं फेल हो रही हैं, उस का मुख्य कारण भी यही है कि ओबीसी समाज के पास जातिगत जनसंख्या का कोई आंकड़ा नहीं है. केंद्र में ओबीसी के लिए मंत्रालय बना है, ओबीसी आयोग बना है, विभिन्न राज्यों में ओबीसी मंत्रालय, विभाग व आयोग बने हुए हैं, मगर ओबीसी का आंकड़ा उपलब्ध न होने के कारण कम फंड जारी होता है, और जो जारी होता है वह या तो विभागों के वेतन पर ही खर्च हो जाता है या केंद्र का फंड राज्य के लिए उपयोग में ले लेते हैं, क्योंकि जनसंख्या का आंकड़ा उपलब्ध न होने का बहाना जरूर उपलब्ध है.

आज तो ओबीसी नेताओं और ओबीसी के जातीय संगठनों का हाल यह है कि वे ऊंचे वर्ग के सामने पूरी तरह से समर्पण कर चुके हैं और जो न्यायपूर्ण तरीके से 27 फीसदी आरक्षण मिला था, उस को भी नहीं बचा पा रहे हैं. ओबीसी का बुद्धिजीवी वर्ग सचाई लिखता तो है, मगर कोई सम?ाने या लड़ने वाला नहीं है. उस के वर्ग के अफसर बहुत हैं, पर वे हकों के लिए लड़ने को तैयार नहीं हैं.

ब्राह्मणवाद के शिकंजे में पिछड़ा समाज

साल 2011 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को ले कर लालू प्रसाद यादव ने दबाव बनाया था और गिनती हुई भी, लेकिन उस को जारी नहीं किया गया. उस के बाद लालू प्रसाद यादव को कई केसों में फंसा दिया गया. बाद में राजद के दबाव में नीतीश सरकार ने ओबीसी की जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा में पास कर के भेजा, लेकिन उस के बाद की प्रक्रिया पर विचारविमर्श बंद कर दिया गया.

अब पिछले दिनों केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि ओबीसी की जनगणना के आंकड़े साल 2021 के सैंसैक्स में शामिल नहीं किए जाएंगे. ऊंचे वर्गों की सरकारें ओबीसी समुदाय को पढ़ाई और सरकारी नौकरी के हकों में शामिल नहीं करना चाहती हैं, जबकि धर्मों की दुकानों में जाने के रास्ते खुले हैं.

अंगरेजों ने साल 1881 में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत की थी और उन आंकड़ों से जो सचाई सामने आई, उन को आधार बना कर महात्मा ज्योतिबाराव फुले ने सब से पहले विभिन्न जातियों को आबादी में उन के हिस्से के मुताबिक सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिए जाने की मांग उठाई थी.

आंकड़ों से साफ हो गया था कि सरकारी नौकरियों में जाति विशेष का एकछत्र कब्जा है. उन्होंने इस बारे में अपनी पुस्तक ‘शेतकर्याचा असुड़’ (किसान का चाबुक, 1883) में लिखा है.

साल 1901 की जनगणना को आधार बना कर कोल्हापुर के राजा शाहूजी महाराज ने साल 1902 में अपने राज्य में 50 फीसदी आरक्षण लागू किया था, जिस के लिए उन्हें ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. कांग्रेस के कद्दावर ब्राह्मण नेता बाल गंगाधर तिलक ने भी उन का विरोध किया था.

जाति आधारित जनगणना अंतिम बार साल 1931 में हुई थी और उस के अनुसार भारत में ओबीसी की संख्या

52 फीसदी थी. साल 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जनसंख्या का विवरण अटक गया और आजादी के बाद 1951 में पहली जनगणना हुई, मगर जाति आधारित जनगणना छोड़ दी गई.

भीमराव अंबेडकर ने संविधान में अनुच्छेद-340 के तहत ओबीसी के उत्थान का प्रावधान किया था, जिस के तहत सरकार को संविधान लागू करने के एक साल के भीतर ओबीसी आयोग का गठन करना था.

साल 1951 में जाति आधारित जनगणना न करने व ओबीसी आयोग का गठन न करने के कारण दुखी हो कर अंबेडकर ने 10 अक्तूबर, 1951 को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था.

नेहरू सरकार ने दबाव में आ कर 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में ओबीसी आयोग का गठन किया व इस आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी. कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं, हिंदू महासभा आदि ने यह कह कर इस को लागू करने से रोक दिया कि ओबीसी जनसंख्या के आंकड़े साल 1931 के हैं.

साल 1955 से ले कर साल 1977 तक जनगणना के समय जाति आधारित गिनती का यह कह कर विरोध करते रहे कि इस से देश कमजोर होगा व ओबीसी को हक देने की बात आती तो यह कह कर विरोध करने लग जाते कि नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए लागू नहीं किया जा सकता.

साल 1977 में समाजवादियों के दबाव में वीपी मंडल की अध्यक्षता में दोबारा ओबीसी आयोग बनाया और उठापटक के बीच साल 1980 में रिपोर्ट देते हुए मंडल ने कहा कि मैं यह रिपोर्ट विसर्जित कर रहा हूं.उन को अंदेशा था कि कुछ होगा नहीं, मगर साल 1989 में वीपी सिंह की सरकार बनी और समाजवादियों के दबाव में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दे दिया गया.

मंडल के खिलाफ ब्राह्मण वर्ग ने कमंडल आंदोलन शुरू कर दिया और 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी के आंकड़ों का हवाला देते हुए 27 फीसदी तक आरक्षण सीमित कर दिया और ऊपर से क्रीमीलेयर थोप दिया गया. सब से बड़ा खेल यह किया गया कि ओबीसी आरक्षण को महज सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया गया.

कम्यूनिस्ट पार्टियों का इन आंकड़ों से कोई लेनादेना ही नहीं है, क्योंकि वे जाति संबंधी मुद्दों को नजरअंदाज करने का ढोंग करती आई हैं. एक तरह से मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ अभियान में कांग्रेस व भाजपा के साथ उन के ज्यादातर नेता ब्राह्मण वर्ग के ही थे. आरएसएस व सभी हिंदू समूह और ब्राह्मण सभाएं मंडल विरोधी आंदोलन की अगली लाइन में थीं.

एससीएसटी वर्ग के लोग जितने मंडल आयोग के समर्थन में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे, वे अब ओबीसी की जनगणना को ले कर उतने मुखर नजर नहीं आते हैं. इस के 2 कारण हो सकते हैं. पहला तो एससीएसटी की जनसंख्या की गणना होती है व दूसरा मंडल आयोग के समर्थन से जो ओबीसी नेताओं से उम्मीद थी, वह धूमिल हुई है.

नजरअंदाज ओबीसी की सरकार में भागीदारी

आंकड़ों के अनुसार, केंद्रीय मंत्रालयों में अवर सचिव से ले कर सचिव व निदेशक स्तर के 747 अफसरों में महज 60 अफसर एससी, 24 अफसर एसटी व 17 अफसर ओबीसी समुदाय के हैं यानी ऊंचे सरकारी पदों पर दलितों का प्रतिनिधित्व महज 15 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग से तकरीबन 85 फीसदी अफसर इन पदों पर कार्यरत हैं और ओबीसी समुदाय तो कहीं नजर ही नहीं आता है.

केंद्र सरकार में सचिव रैंक के

81 अधिकारी हैं, जिस में केवल 2 अनुसूचित जाति के और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं व ओबीसी शून्य. 70 अपर सचिवों में केवल 4 अनुसूचित जाति के और 2 अनुसूचित जनजाति के हैं व 3 ओबीसी के हैं. 293 संयुक्त सचिवों में केवल 21 अनुसूचित जाति के और 7 अनुसूचित जनजाति के व 11 ओबीसी के हैं. निदेशक स्तर पर 299 अफसरों में 33 अनुसूचित जाति के और 13 अनुसूचित जनजाति के और 22 ओबीसी के अधिकारी हैं.

केंद्र सरकार की ग्रुप ए की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 12.06 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 8.37 फीसदी है. सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 74.48 फीसदी है. गु्रप बी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 15.73 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 10.01 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 68.25 फीसदी है. गु्रप सी की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 17.30 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी का 17.31 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 57.79 फीसदी है.

वहीं केंद्र सरकार के उपक्रमों की नौकरियों में अनुसूचित जाति की भागीदारी का फीसदी 18.14 है, पिछड़ा वर्ग की भागीदारी 28.53 फीसदी है, जबकि सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 53.33 फीसदी है. यूजीसी के आरटीआई द्वारा मिले जवाब के मुताबिक, देशभर में कुल 496 कुलपति हैं. इन 496 में से केवल

6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी कुलपति हैं. इस के अलावा बाकी बचे सभी 448 कुलपति सामान्य वर्ग के हैं. मतलब, देश की 85 फीसदी आबादी (एससी, एसटी और ओबीसी) से 48 कुलपति और 11 फीसदी आबादी (सामान्य) से 448 कुलपति. प्रधानमंत्री के कार्यालय में एक भी ओबीसी अधिकारी नहीं है. जहां से पूरे देश के लिए नीति निर्माण के फैसले होते हैं, वहां देश की 65 आबादी का कोई प्रतिनिधित्व ही नहीं है. न्यायपालिका आजादी के समय ही दूर चली गई थी. सोशल जस्टिस की लड़ाई को धार्मिक ?ांडों के हवाले कर दिया गया है.

गरीबी का दोहरा मापदंड क्यों

जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने ईडब्ल्यूएस के 10 फीसदी आरक्षण को बरकरार रखने के अपने फैसले में कहा कि आरक्षण गैरबराबरी वालों को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है. इस के लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जा सकता है, बल्कि किसी और कमजोर क्लास को भी शामिल किया जा सकता है. जानकारों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के ईडब्ल्यूएस के पक्ष में फैसले और खासकर जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की टिप्पणी के बाद आने वाले दिनों में अन्य जातियां भी खुद को आरक्षण के दायरे में लाने की मांग करने लगेंगी और मुमकिन है कि इन में से कुछ नए वर्गों को आरक्षण के दायरे में लाने का रास्ता साफ हो, क्योंकि सरकार को अपनी वोट बैंक की राजनीति करनी है और इस के लिए वह किसी भी ऐसे तबके को नाराज नहीं करना चाहेगी, जिस का वोट बैंक किसी राज्य में हार या जीत तय करने की ताकत रखता हो. मसलन, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट इस निर्णायक भूमिका में रहते हैं.

केंद्र सरकार के सामने बड़ी चुनौती

अब आने वाले दिनों में आरक्षण के बंटवारे को ले कर देश में एक बड़ा विवाद छिड़ सकता है, जिसे शांत करने में सरकार के पसीने छूटेंगे, क्योंकि हर तबके के लोग अपने हिस्से की नौकरियों में किसी दूसरे तबके का किसी भी हालत में दखल नहीं चाहते हैं, इसलिए हर जाति और तबके के लोग अपनेअपने लिए आरक्षण की मांग सरकार से करते रहे हैं.

इस में कोई दोराय नहीं है कि आज पूरे देश में धर्म और जाति की राजनीति हो रही है, ऊपर से हर जाति के लोग अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं. ऐसे में सवर्णों के इस 10 फीसदी आरक्षण ने आग में घी का काम किया है, जिस के नतीजे अच्छे तो नहीं होने वाले, क्योंकि अगर आप को याद हो, तो ओबीसी आरक्षण लागू होने के समय को याद कीजिए, जब सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में ओबीसी आरक्षण की

52 फीसदी की मांग को घटा कर खुद 27 फीसदी किया था और कहा था कि आरक्षण को 50 फीसदी से ज्यादा नहीं किया जा सकता. आज यही आरक्षण 50 फीसदी के पार जा कर 59.5 फीसदी पर पहुंच चुका है. ऐसे में जाहिर है कि इस से अब आरक्षण को ले कर नएनए विवाद पैदा होंगे और बहुत सी जातियों के लोग, जिन्होंने अब तक अलग आरक्षण की मांग नहीं की है, सब के सब अब अलगअलग आरक्षण की मांग कर सकते हैं, जिस का असर आगामी आम चुनाव में साफसाफ दिखाई देगा.

जातिवाद के नाम पर हुई जनगणना

ऊंची जातियों, खासतौर पर ब्राह्मणों को एक परेशानी यह रहती है कि हिंदू समाज में चतुर्वर्ण के नाम से जानी जाने वाली 4 जातियों के लोग कितने मिलते हैं, यह न पता चले. 1872 से जब से अंगरेजों ने जनगणना शुरू की थी, उन्होंने जाति के हिसाब से ही लोगों की गिनती शुरू की थी. उन्होंने तो धर्म को भी बाहर कर दिया था.

1949 में जब कांग्रेस सरकार आई तो वह मोटेतौर पर कट्टर तौर पर ब्राह्मणों की सरकार थी या उन की थी जो ब्राह्मणों के बोल को अपना भाग समझते थे. वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद जैसे नेता घोर जातिवादी थे. जवाहर लाल नेहरू ब्राह्मणवादी न होते हुए भी ब्राह्मण लौबी को मना नहीं पाए और भीमराव अंबेडकर की वजह से शैड्यूल कास्ट और शैड्यूल ट्राइबों की गिनती तो हुई पर बाकी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों व शूद्रों यानी पिछड़ों की जातियों की गिनती नहीं हुई. कांग्रेस ने 1951, 1961, 1971, 1981, 1991, 2001 (वाजपेयी), 2011 में जनगणना में जाति नहीं जोड़ी.

नरेंद्र मोदी की 2021 (जो टल गई) में तो जाति पूछने का सवाल ही नहीं उठता था. इसलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चौंकाने वाला फैसला लिया कि वे अलग से एक माह में बिहार में जातियों के हिसाब से गिनती कराएंगे.

गिनती इसलिए जरूरी है कि पिछड़े जो एक अंदाजे से हिंदू आबादी के 60 फीसदी हैं, सरकारी नौकरियों, पढ़ाई, प्राइवेट नौकरियों में मुश्किल से 10 फीसदी हैं. जनता की 3 फीसदी ऊंची ब्राह्मण जातियों ने सरकारी रुतबे वाले ओहदों में से 60-70 फीसदी पर कब्जा कर रखा है. प्राइवेट सैक्टर का 60-70 फीसदी 3 फीसदी बनियों के पास है. 60-70 फीसदी पिछड़ों और 20 फीसदी शैड्यूल कास्टों के पास निचले मजदूरी, किसानी, घरों में नौकरी करने, सेना में सिपाही बनने, पुलिस में कांस्टेबल, सफाई, ढुलाई, मेकैनिक बनने जैसे काम हैं. उन्हें शराब व धर्म का नशा बहकाता है और इसी के बल पर पहले कांग्रेस ने राज किया और अब भाजपा कर रही है.

पढ़ाई के दरवाजे खोलने और सरकारी रुतबों वाली नौकरियां देने के लिए रिजर्वेशन एक अच्छा और अकेला तरीका है और सही रिजर्वेशन तभी दिया जा सकता है जब पता रहे कि कौन कितने हैं. जाति की गिनती का काम इसलिए जरूरी है कि देश के पंडों ने ही हिंदुओं को जातियों में बांट रखा है और अब थोड़ी मुट्ठीभर सस्ती पढ़ाई की सीटें या रुतबे वाली कुरसियां हाथ से निकल रही हैं तो वे ‘जाति नहीं’ है का हल्ला मचा रहे हैं.

आज किसी युवक या युवती का शादी के लिए बायोडाटा देख लो. उस में जाति, उपजाति, गौत्र सब होगा. क्यों? अगर जाति गायब हो गई है तो लोग क्यों एक ही जाति में शादी करें. अगर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शादियां आपस में कर लें तो इसे अंतर्जातीय शादियां नहीं कहा जा सकता. समाज ब्राह्मण युवती के साथ जाट युवक और क्षत्रिय युवक के साथ शैड्यूल कास्ट युवती की शादी को जब तक आम बात न मान ले तब तक देश में जाति मौजूद है, माना जाएगा.

रिजर्वेशन के लिए जाति गणना जरूरी है पर यह सामाजिक बुराई दूर करने की गारंटी नहीं है. लोगों के दफ्तरों में जाति गुट बना लिए. छात्रों ने स्कूलों और कालेजों में बना लिए हैं. नीतीश कुमार के पास इस मर्ज की कोई वैक्सीन है क्या? रिजर्वेशन सरकारी शिक्षा की सीटें और पावर की सीटों पर छोटा सा हिस्सा देने के लिए ऐसा ही है जैसे कोविड के लिए डोलो, पैरासीटामोल (क्रोसीन) लेना, इस से ज्यादा नहीं. यह बीमारी से नहीं लड़ने की ताकत देती है, बीमार को राहत देती है. पर जब तक वैक्सीन न बने, यही सही.

 

इस दुनिया को तोड़ें नहीं, जोड़ें

दुनिया का मौसम बदल रहा है. पर्यावरण तो प्रदूषित हो ही रहा है, हर देश में शासन ऐसे लोगों के हाथों में आ रहा है जो संकुचित सोच वाले हैं और जब बोलते हैं तो जहर उगलते हैं और कुछ करते हैं तो शहर ही नहीं पूरे देश गंदे हो जाते हैं. हम तो ऐसे नेताओं के आदी हैं ही लेकिन अब अमेरिका हम से बाजी मार ले गया. अमेरिका ने राष्ट्रपति चुनावों में डौनल्ड ट्रंप को चुना, जो 2 माह बाद भी अपना सही कैबिनेट नहीं बना सका है, पर उसे परवा नहीं है. वह जब बोलता है या व्हाइट हाउस के ओवल रूम में बैठ कर कोई आदेश निकालता है तो उसे इस की चिंता नहीं होती कि इस से कहां किस का दम घुटेगा. इंगलैंड की जनता ने भी यूरोपीय यूनियन से निकलने का फैसला ले कर ट्रंप को जिताने जैसा बरबादी वाला कदम उठाया है. फ्रांस में ला पेन नाम की पुरातनपंथी पार्टी कोयले से चलने वाले इंजन मानो वापस लाने को तैयार है, जो धुएं से दम घोट दें.

भारत में नोटबंदी के जहर का असर अभी भी बाकी है पर फिर भी राज्यों के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी दमखम से उतरी. यानी दुनिया के ज्यादातर देशों की जनता को न प्रकृति के पर्यावरण की चिंता है न राजनीतिक प्रदूषण की. लोकतंत्र ने हरेक को वोट देने का हक दिया है कि आगे आने वाली पीढि़यों की सुरक्षा का बंदोबस्त उन के अपने मातापिता वोट देते समय कर सकें, पर यहां तो लगता है कि लोकतंत्र के वोटरों और इसलामी देशों के हथियारबंद जिहादियों में कुछ खास फर्क नहीं. दोनों ही अपनेअपने देशों को नष्ट करने में लगे हैं.

यह दुनिया बनी भी तो जंगलों में रहने लायक थी. बस लाखों ने आज और अब की नहीं कल की सोची. तरहतरह की किताबें लिखी गईं. दुनिया के रहस्य जानने के लिए कोई एवरेस्ट पर चढ़ा तो कोई गहरे समुद्र में गया. लोगों ने चांद पर जाने के लिए वाहन बनाए तो आम आदमी को दुनिया भर में घंटों में पहुंचाने के लिए हवाईजहाज बनाए. सरकारों ने इन का कितना साथ दिया यह आकलन करना कठिन है पर सरकारों ने बहुतों को रोका, यह साफ है.

अब इस रुकावट को शासन का तरीका माना जाने लगा है. हर देश में शासक अपने बाशिंदों को काले मध्य युग के से आदेश देने लगा है. दुनिया की जेलों में जगह नहीं बची है. हर जगह एक डर बैठ रहा है कि अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने, शहरों के प्रदूषण से, समुद्र में गंद भरने से ज्यादा नुकसान होगा या शासकों की गैर जिम्मेदारियों से.

आज का किशोर भ्रमित है कि कल क्या होगा? जिन्होंने अमेरिकाइंगलैंड जा कर पढ़ने की सोची थी उन का सपना धुंधला पड़ गया है. कल किस देश में सीरियाई आपसी युद्ध की बीमारी न फैल जाए यह अंदेशा होने लगा है. सारी दुनिया एक है, यह भ्रम टूट रहा है. जैसे गरमी के अंधड़ अपने साथ धूल लाते हैं, वैसा डर हर मन में धीरधीरे आ रहा है. उम्मीद करिए कि सद्बुद्धि जागेगी और लोग दुनिया को तोड़ेंगे नहीं, जोड़ेंगे.

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