बहन का सुहाग: भाग 2- चंचल रिया की चालाकी

दोनों में नजदीकियां बढ़ गई थीं. राजवीर सिंह का रुतबा विश्वविद्यालय में काफी बढ़ चुका था और निहारिका को भी यह अच्छा लगने लगा था कि एक लड़का जो संपन्न भी है, सुंदर भी और विश्वविद्यालय में उस की अच्छीखासी धाक भी है, वह स्वयं उस के आगेपीछे रहता है.

थोड़ा समय और बीता तो राजवीर ने निहारिका से अपने मन की बात कह डाली, ‘‘देखो निहारिका, अब तक तुम मेरे बारे में सबकुछ जान चुकी हो… मेरे घर वालों से भी तुम मिल चुकी हो… मेरा घर, मेरा बैंक बैलेंस, यहां तक कि मेरी पसंदनापसंद को भी तुम बखूबी जानती हो…

“और आज मैं तुम से कहना चाहता हूं कि मैं तुम से शादी करना चाहता हूं और मैं यह भी जानता हूं कि तुम इनकार नहीं कर पाओगी.”

बदले में निहारिका सिर्फ मुसकरा कर रह गई थी.

‘‘और हां, तुम अपने मम्मीपापा की चिंता मत करो. मैं उन से भी बात कर लूंगा,‘‘ इतना कह कर राजवीर सिंह ने निहारिका के होंठों को चूमने की कोशिश की, पर निहारिका ने हर बार की तरह इस बार भी यह कह कर टाल दिया कि ये सब शादी से पहले करना अच्छा नहीं लगता.

राजवीर सिंह ने खुद ही निहारिका के घर वालों से बात की. वह एक पैसे वाले घर से ताल्लुक रखता था, जबकि निहारिका एक सामान्य घर से.
निहारिका के मम्मीपापा को भला इतने अच्छे रिश्ते से क्या आपत्ति होती और इस से पहले भी वे निहारिका के मुंह से कई बार राजवीर के लिए तारीफ सुन चुके थे. ऐसे में उन्हें रिश्ते को न कहने की कोई वजह नहीं मिली.

ग्रेजुएशन करते ही निहारिका की शादी राजवीर सिंह से तय हो गई.

और शादी ऐसी आलीशान ढंग से हुई, जिस की चर्चा लोग महीनों तक करते रहे थे. इलाके के लोगों ने इतनी शानदार दावत कभी नहीं खाई थी. बरात में ऊंट, घोड़े और हाथी तक आए थे.

शादी के बाद निहारिका के सपनों को पंख लग गए थे. इतना अच्छा घर, सासससुर और इतना अच्छा पति मिलेगा, इस की कल्पना भी उस ने नहीं की थी.

‘‘राजवीर… जा, बहू को मंदिर ले जा और कहीं घुमा भी ले आना,‘‘ राजवीर को आवाज लगाते हुए उस की मां ने कहा.

राजवीर और निहारिका साथ घूमतेफिरते और अपने जीवन के मजे ले रहे थे. रात में वे दोनों एकदूसरे की बांहों में सोए रहते.

सैक्स के मामले में राजवीर किसी भूखे भेड़िए की तरह हो जाता था. वह निहारिका को ब्लू फिल्में दिखाता और वैसा ही करने के लिए उस पर दबाव डालता.

निहारिका को ये सब पसंद नहीं था. राजवीर के बहुत कहने पर भी वह ब्लू फिल्मों के सीन को उस के साथ नहीं कर पाती थी. कई बार तो निहारिका को ऐसा करते समय उबकाई सी आने लगती.

ये राजवीर का एक नया और अलग रूप था, जिस से निहारिका पहली बार परिचित हो रही थी.

अपनी इस समस्या के लिए निहारिका ने इंटरनैट का सहारा लिया और पाया कि कुछ पुरुषों में पोर्न देखने और वैसा ही करने की कुछ अधिक प्रवत्ति होती है और यह बिलकुल ही सहज है.

निहारिका ने सोचा कि अभी नईनई शादी हुई है, इसलिए  अधिक उत्साहित है. थोड़ा समय बीतेगा, तो वह मेरी भावनाओं को भी समझेगा, पर बेचारी निहारिका को क्या पता था कि ऐसा कभी नहीं होने वाला था.

शादी के 5 महीने बीत चुके थे. निहारिका की छोटी बहन रिया अपने पापा आनंद रंजन के साथ निहारिका से मिलने आई थी. पापा आनंद रंजन तो अपनी बेटी निहारिका से मिल कर चले गए, पर रिया निहारिका के पास ही रुक गई थी.

राजवीर सिंह ने निहारिका के पापा आनंद रंजन को बताया कि वे सब आगरा जाने का प्लान बना रहे हैं और इस में रिया भी साथ रहेगी, तो निहारिका को भी अच्छा लगेगा.

निहारिका के पापा आनंद रंजन को कोई आपत्ति नहीं हुई.

रिया के आने के बाद तो राजवीर के चेहरे पर चमक और भी बढ़ गई थी, बढ़ती भी क्यों नहीं, दोनों का रिश्ता ही कुछ ऐसा था. अब तो दोनों में खूब चुहलबाजियां होतीं. अपने जीजा को छेड़ने का कोई भी मौका रिया अपने हाथ से जाने नहीं देती थी.

वैसे भी रिया को हमेशा से ही लड़कों के साथ उठनाबैठना, खानापीना अच्छा लगता था और अब जीजा के रूप में उसे ये सब करने के लिए एक अच्छा साथी मिल गया था.

एक रात की बात है, जब खाने के बाद रिया अपने कमरे में सोने के लिए चली गई तो उसे याद आया कि उस के मोबाइल का पावर बैंक तो जीजाजी के कमरे में ही रह गया है. अभी ज्यादा देर नहीं हुई थी, इसलिए वह अपना पावर बैंक लेने जीजाजी के कमरे के पास गई और दरवाजे के पास आ कर अचानक ही ठिठक गई. दरवाजा पूरी तरह से बंद नहीं था और अंदर का नजारा देख रिया रोमांचित हुए बिना न रह सकी. कमरे में जीजाजी निहारिका के अधरों का पान कर रहे थे और निहारिका भी हलकेफुलके प्रतिरोध के बाद उन का साथ दे रही थी और उन के हाथ जीजाजी के सिर के बालों में घूम रहे थे.

किसी जोड़े को इस तरह प्रेमावस्था में लिप्त देखना रिया के लिए पहला अवसर था. युवावस्था में कदम रख चुकी रिया भी उत्तेजित हो उठी थी और ऐसा नजारा उसे अच्छा भी लग रहा था और मन में देख लिए जाने का डर भी था, इसलिए वह तुरंत ही अपने कमरे में लौट आई.

कमरे में आ कर रिया ने सोने की बहुत कोशिश की, पर नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. वह बारबार करवट बदलती थी, पर उस की आंखों में दीदी और जीजाजी का आलिंगनबद्ध नजारा याद आ रहा था. मन ही मन वह अपनी शादी के लिए राजवीर सिंह जैसे गठीले बदन वाले बांके के ख्वाब देखने लगी.

किसी तरह सुबह हुई, तो सब से पहले जीजाजी उस के कमरे में आए और चहकते हुए बोले, ‘‘हैप्पी बर्थ डे रिया.‘‘

‘‘ओह… अरे जीजाजी, आप को मेरा बर्थडे कैसे पता… जरूर निहारिका  दीदी ने बताया होगा.’’

‘‘अरे नहीं भाई… तुम्हारे जैसी खूबसूरत लड़की का बर्थडे हम कैसे भूल सकते हैं?‘‘ राजवीर की आंखों में शरारत तैर रही थी.

‘‘ओह… तो आप ने मुझ से पहले ही बाजी मार ली, रिया को हैप्पी बर्थडे विश कर के…‘‘ निहारिका ने कहा.

‘‘हां… हां… भाई, क्यों नहीं… तुम से ज्यादा हक है मेरा… आखिर जीजा हूं मैं इस का,‘‘ हंसते हुए राजवीर बोला.

कमरे में एकसाथ तीनों के हंसने की आवाजें गूंजने लगीं.

शाम को एक बड़े होटल में केक काट कर रिया का जन्मदिन मनाया गया. बहुत बड़ी पार्टी दी थी राजवीर ने और राजनीतिक पार्टी के कई बड़े नेताओं को भी इसी बहाने पार्टी में बुलाया था.

रिया आज बहुत खूबसूरत लग रही थी. कई बार रिया को राजवीर सिंह के साथ खड़ा देख लोगों ने उसे ही मिसेज राजवीर समझ लिया और जबजब कोई रिया को मिसेज राजवीर कह कर संबोधित करता तो एक शर्म की लाली उस के चेहरे पर दौड़ जाती.

घर का चिराग: भाग 3- क्या बेटे और बेटी का फर्क समझ पाई नीता

केशव बाबू गंभीर हो गए. पत्नी के प्रति घृणा करते हुए भी उन्होंने सहानुभूतिपूर्ण स्वयं में कहा, ‘‘तुम चिंता मत करो, लड़के के सिर पर अभी प्रेम का भूत सवार है. ऐसे प्रेम में गंभीरता और स्थायित्व नहीं होता. लिवइन रिलेशनशिप बंधनरहित होते हैं, इन में एक न एक दिन खटास अवश्य आती है, चाहे शादी को ले कर, चाहे बच्चों को ले कर या कमाई को ले कर या फिर उन के बीच में कोई तीसरा आ जाता है. जो रिश्ते शारीरिक आकर्षण पर आधारित होते हैं उन की नियति और परिणति यही होती है. जहां परिवार और समाज नहीं होता, वहां उच्छृंखलता और निरंकुशता होती है. देख लेना, एक दिन विप्लव और उस लड़की का रिश्ता टूट जाएगा.’’

‘‘परंतु वह कुछ करताधरता नहीं है. उस का भविष्य चौपट हो जाएगा.’’

‘‘वह तो होना ही है, जिस तरह की परवरिश और संस्कार तुम ने उस को दिए हैं, उस में उस का बिगड़ना आश्चर्यजनक नहीं है. न बिगड़ता तो आश्चर्य होता. अब हम कुछ नहीं कर सकते. ठोकर खा कर अगर वह सुधर गया, तो समझो सुबह का भूला शाम को घर वापस आ गया. वरना…’’

‘‘परंतु उस का खर्चा कहां से चलेगा?’’

‘‘मुझे लगता है, वह लड़की कहीं न कहीं नौकरी अवश्य करती होगी. जब तक उस के मन में विप्लव के लिए प्रेम रहेगा, वह उस का खर्चा उठाती रहेगी. जिस दिन उसे लगा कि विप्लव उस के लिए बोझ है या कोई अन्य लड़का उस के जीवन में आ गया, वह विप्लव को ठोकर मार देगी.’’ नीता रोने लगी. केशव बाबू ने उसे चुप नहीं कराया. कोई फायदा नहीं था. यह नीता की नासमझी का परिणाम था, परंतु विप्लव के पतन के लिए वह अकेली दोषी नहीं थी. इस में विप्लव का भी बहुत बड़ा हाथ था. कोई भी युवक नासमझ नहीं होता कि उसे अपने कर्मों के परिणामों का पता नहीं होता. प्यार उस ने अपनी बुद्धि और विवेक से किया था और उस ने कुछ सोचसमझ कर अपनी प्रेमिका के साथ रहना स्वीकार किया होगा. पढ़ने में वह कमजोर था, तो इस में उस की नालायकी और कामचोरी थी. हम जो कर्म करते हैं, उन के लिए स्वयं जिम्मेदार होते हैं. हम अपनी गलतियों के लिए किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते.

केशव बाबू के लिए यह चिंता का विषय था कि बेटा बिगड़ गया था, परंतु वे बहुत अधिक परेशान नहीं थे. पत्नी की हठधर्मी और मनमानी में उन का कोई हाथ नहीं था. उन्होंने तो हर कदम पर उसे रोकने और समझाने की कोशिश की, परंतु वह उलटी खोपड़ी की औरत थी. हर सही बात उसे गलत लगती और हर गलत काम अच्छा. उस का दुष्परिणाम एक न एक दिन सब के सामने आना ही था. कहां तो नीता को चिंता थी कि ज्यादा पढ़ाने से बेटी बिगड़ जाएगी, कहां बेटा बिगड़ गया. जिसे वंश आगे बढ़ाना था, खानदान का नाम रोशन करना था, वही घर के सारे चिराग बुझा कर खुद अंधेरे में गुम हो गया था. अनिका के बीटैक का यह अंतिम वर्ष था. एक दिन उस ने पापा को फोन किया, ‘‘पापा, एक खुशखबरी है.’’

‘‘क्या बेटा, बोलो?’’ केशव बाबू ने उल्लास से पूछा.

‘‘पापा, मेरा सेलैक्शन हो गया है,’’ अनिका खुशी से चहक रही थी. केशव बाबू का हृदय खुशी से झूम उठा. शरीर में एक झुरझुरी सी उठी. उन्हें लगा, जैसे तपती दोपहरी में पसीने से तरबतर शरीर के ऊपर किसी ने वर्षा की ठंडी बूंदें टपका दी हों. वे हर्षित होते हुए बोले, ‘‘मुबारक हो बेटा, कहां हुआ है सेलैक्शन? ले किन अभी तो तुम्हारी फाइनल की परीक्षाएं बाकी हैं.’’

‘‘हां, वो तो है, परंतु ये कैंपस सेलैक्शन है. पिछले अंकों के आधार पर हुआ है. परीक्षा के बाद ही नियुक्तिपत्र मिलेगा. परंतु अभी एक शर्त है कि पहली पोस्ंिटग मुंबई में होगी.’’

‘‘तो इस में परेशानी क्या है? तुम होस्टल में रह चुकी हो. मुंबई में भी तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.’’

‘‘हां, वह तो सही है. बस, मैं यह सोच रही थी कि आप अकेले हो जाएंगे.’’

‘‘नहीं, बेटा, पहले तुम अपने भविष्य की चिंता करो. वैसे भी शादी के बाद तुम हम सब को छोड़ कर चली जाओगी.’’

‘‘नहीं पापा, मैं आप को छोड़ कर कभी नहीं जाऊंगी.’’ केशव बाबू मन ही मन मुसकराए, परंतु आंतरिक खुशी के बावजूद उन की आंखों में आंसू छा गए. अपने को संभाल कर बोले, ‘‘अच्छा ठीक है. तुम अपना खयाल रखना.’’

‘‘ओके पापा.’’

‘‘मम्मी को बताया?’’

‘‘बता दूं, क्या?’’ अनिका ने पूछा.

‘‘बता दे तो अच्छा रहेगा, तुम्हारी मम्मी हैं, अच्छी हैं या बुरी, सदा तुम्हारी मां रहेंगी. वैसे भी आजकल उन के व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है. मेरे साथ मीठा व्यवहार करती हैं. बेटे ने उन की आशाओं और अपेक्षाओं पर जो चोट की है, उस से उन का विश्वास डगमगा गया है. उन को अब कहीं कोई सहारा दिखाई नहीं देता.’’

‘‘ठीक है, मैं अभी फोन करती हूं.’’

शाम को जब केशव बाबू घर पहुंचे, तो नीता ने मुसकराते हुए उन का स्वागत किया. यह एक अच्छा संकेत था. केशव बाबू को अच्छा लगा. नीता ने कहा, ‘‘आप को मालूम है न?’’

‘‘क्या?’’ उन्होंने मन की खुशी को दबाते हुए पूछा.

‘‘अनिका की नौकरी लग गई है.’’

‘‘हैं,’’ वे आश्चर्य प्रकट करते हुए मुड़े, ‘‘मुझे तो नहीं मालूम. तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘अनिका ने स्वयं फोन कर के बताया है. आप को नहीं बताया?’’

‘‘नहीं, चलो, कोई बात नहीं. तुम को बता दिया तो मुझे बता दिया,’’ वे सामान्य दिखने की चेष्टा करते हुए बोले. बहुत दिनों बाद उन के घर में खुशियों ने अपने पंख फैलाए थे. अनिका की परीक्षाएं समाप्त हो गईं. उसे होस्टल खाली करना था. केशव बाबू उसे कार से स्वयं लेने गए थे. नीता भी जाना चाहती थी, परंतु उन्होंने मना कर दिया. लौटते समय रास्ते में केशव बाबू ने अनिका की पसंद की कुछ चीजें खरीदीं, उसे उपहार जो देना था. जानपहचान वालों के लिए मिठाई के डब्बे खरीदे और जब वे घर पहुंचे तो नीता उन्हें दरवाजे पर ही खड़ी मिली. कार के रुकते ही वह बाहर की तरफ लपकी और अनिका के कार से उतरते ही उसे अपने गले से लगा लिया. अनिका भी मां के गले से इस तरह लिपट गई जैसे सालों से उन के ममत्व, प्रेम और स्नेह को तरस रही थी. ‘‘मेरी बेटी, मेरी बेटी.’’ इस के बाद नीता का गला भर आया. उस की आंखों में आंसू उमड़ आए. उसे लग रहा था, जैसे अपनी खोई हुई बेटी को पा लिया हो.

‘‘मम्मी,’’ अनिका के भर्राये हुए गले से निकला.

कई पलों तक मांबेटी एकदूसरे के गले लगी रहीं. केशव बाबू के टोकने पर वे दोनों अलग हुईं. ‘‘सारा प्यार बाहर ही उड़ेल दोगी, या घर के लिए भी बचा कर रखोगी तुम दोनों.’’ नीता ने खिसियानी हंसी के साथ कहा, ‘‘आप को क्या पता, बेटी को इतने दिनों बाद पा कर कैसा लगता है.’’

‘‘सच कह रही हो, मां के दिल को मैं कैसे समझ सकता हूं.’’ अनिका का हाथ पकड़ कर नीता अंदर ले आई, बोली, ‘‘बेटी, मैं ने सदा तेरे साथ बुरा बरताव किया. तुझे पराया समझती रही, आज मुझे अपनी गलती का एहसास हो रहा है. मेरी समझ में नहीं आता कि कैसे एक मां अपनी जायी बेटी के साथ दुर्व्यवहार कर सकती है, उसे एक बोझ समझ सकती है. लगता है, मेरे ही संस्कारों में कोई कमी रह गई थी.’’

‘‘मां, आप कैसी बातें कर रही हैं? मैं ने तो कभी ऐसा नहीं समझा. मां हमेशा अपने बच्चों का भला चाहती है.’’

भावातिरेक में नीता का गला भर आया. कुछ न कह कर उस ने अनिका को अपने अंक में समेट लिया. जिस दिन अनिका अपने प्रथम असाइनमैंट पर मुंबई जा रही थी, उस दिन फिर नीता की आंखों में आंसू भरे थे. उसे अपने अंक में समेटते हुए बोली, ‘‘बेटी, जातेजाते मैं एक बात स्वीकार करती हूं कि जिसे मैं घर का चिराग समझती थी वह जुगनू भी नहीं निकला और मैं जिसे कंकड़ समझ कर ठुकराती रही, वह हीरा निकला. बेटा, तुम्हीं मेरे घर का चिराग हो. आशा करती हूं कि अपने जीवन में कोई ऐसा कदम नहीं उठाओगी, जो हमें, बेटे की तरह दुख दे जाए.’’ अनिका मां का आशय समझ गई. दृढ़स्वर में बोली, ‘‘मम्मी, आप मेरी तरफ से निश्चिंत रहें. अव्वल तो ऐसा कुछ होगा नहीं, परंतु परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य भी बदलता रहता है. अगर ऐसा कुछ हुआ तो आप की और पापा की सहमति व स्नेह से ही ऐसा होगा. मैं आप दोनों को कभी दुख नहीं दे सकती. आप पापा का खयाल रखना.’’ केशव बाबू स्वयं को बहुत दृढ़ समझते थे, परंतु बेटी से जुदा होते हुए उन की आंखों में आंसुओं का समंदर लहरा रहा था.

बहन का सुहाग: भाग 1- चंचल रिया की चालाकी

आनंद रंजन अर्बन बैंक में क्लर्क थे. उन की आमदनी ठीकठाक ही थी. घर में सुघड़ पत्नी के अलावा 2 बेटियां और 1 बेटा बस इतना सा ही परिवार था आनंद रंजन का.

गांव में अम्मांबाबूजी बड़े भाई के साथ रहते थे, इसलिए उन की तरफ की जिम्मेदारियों से आनंद मुक्त थे, हां… पर गांव में हर महीने पैसे जरूर भेज दिया करते थे.

वैसे तो आनंद रंजन का किसी के साथ कोई मनमुटाव नहीं था. सब के साथ उन का मृदु स्वभाव उन्हें लोगों के बीच लोकप्रिय बनाए रखता था, चाहे बैंक का काम हो या सामाजिक काम, सब में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे वे. साथ ही साथ अपने परिवार को आनंद रंजन पूरा समय भी देते थे. जहां हमारे देश में एक लड़के को ही वंश चलाने के लिए जरूरी माना जाता है और लड़कियों के बजाय लोग लड़कों को वरीयता देते हैं, वहीं आनंद की दोनों बेटियां, बड़ी बेटी निहारिका और छोटी बेटी रिया उन की आंखों का तारा थीं. बड़ी बेटी सीधीसादी और छोटी बेटी रिया थोड़ी चंचल थी.

आनंद रंजन बेटे और बेटियों दोनों को समान रूप से ही प्यार करते थे और यही वजह है कि जब बड़ी बेटी को इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ जाने की बात आई, तो आनंद रंजन सहर्ष ही बेटी को लखनऊ भेजने के लिए मान गए थे और लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन के लिए खुद वे अपनी बेटी निहारिका के साथ कई बार लखनऊ आएगए.

निहारिका को लखनऊ विश्वविद्यालय में एडमिशन मिल गया था और उस के रहने का इंतजाम भी आनंद रंजन ने एक पेइंग गेस्ट के तौर पर करा दिया था.

एक छोटे से कसबे से आई निहारिका एक बड़े शहर में आ कर पढ़ाई कर रही थी. एक नए माहौल, एक नए शहर ने उस की आंखों में और भी उत्साह भर दिया था.

यूनिवर्सिटी में आटोरिकशा ले कर पढ़ने जाना और वहां से आ कर रूममेट्स के साथ में मिलनाजुलना, निहारिका के मन में एक नया आत्मविश्वास जगा रहा था.

वैसे तो यूनिवर्सिटी में रैगिंग पर पूरी तरह से बैन लगा हुआ था, पर फिर भी सीनियर छात्र नए छात्रछात्राओं से चुहलबाजी करने से बाज नहीं आते थे.

‘‘ऐ… हां… तुम… इधर आओ…‘‘ अपनी क्लास के बाहर निकल कर जाते हुए निहारिका के कानों में एक भारी आवाज पड़ी.

एक बार तो निहारिका ने कुछ ध्यान नहीं दिया, पर दोबारा वही आवाज उसे ही टारगेट कर के आई तो निहारिका पलटी. उस ने देखा कि क्लास के बाहर बरामदे में 5-6 लड़कों का एक ग्रुप खड़ा हुआ था. उस में खड़ा एक दाढ़ी वाला लड़का उंगली से निहारिका को पास आने का इशारा कर रहा था.

यह देख निहारिका ऊपर से नीचे तक कांप उठी थी. उस ने यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने से पहले विद्यार्थियों की रैगिंग के बारे में खूब सुन रखा था.

‘तो क्या ये लोग मेरी रैगिंग लेंगे…? क्या कहेंगे मुझ से ये…? मैं क्या कह पाऊंगी इन से…?‘ मन में इसी तरह की बातें सोचते हुए निहारिका उन लड़कों के पास जा पहुंची.

‘‘क्या नाम है तुम्हारा?”

‘‘ज… ज… जी… निहारिका.‘‘

‘‘हां, तो… इधर निहारो ना… इधर… उधर कहां ताक रही हो… जरा हम भी तो जानें कि इस बार कैसेकैसे चेहरे आए हैं बीए प्रथम वर्ष में,‘‘ दाढ़ी वाला लड़का बोला.

हलक तक सूख गया था निहारिका का. उन लड़कों की चुभती नजरें निहारिका के पूरे बदन पर घूम रही थीं. अपनी किताबों को अपने सीने से और कस कर चिपटा लिया था निहारिका ने.

‘‘अरे, तनिक ऊपर भी देखो न, नीचेनीचे ही नजरें गड़ाए रहोगे, तो गरदन में दर्द हो जाएगा,‘‘ उस ग्रुप में से दूसरा लड़का बोला.

निहारिका पत्थर हो गई थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इन लड़कों को क्या जवाब दे. निश्चित रूप से इन लड़कों को पढ़ाई से कोई लेनादेना नहीं था. ये तो शोहदे थे जो नई लड़कियों को छेड़ने का काम करते थे.

‘‘अरे क्या बात है… क्यों छेड़ रहे हो… इस अकेली लड़की को भैया,‘‘ एक आवाज ने उन लड़कों को डिस्टर्ब किया और वे सारे लड़के वास्तव में डिस्टर्ब तो हो ही गए थे, क्योंकि राजवीर सिंह अपने दोस्तों के साथ वहां पहुंचा था और उस अकेली लड़की की रैगिंग होता देख उसे बचाने की नीयत से वहां आया था.

‘‘और तुम… जा सकती हो  यहां से… कोई तुम्हें परेशान नहीं करेगा,’’ राजवीर की कड़क आवाज निहारिका के कानों से टकराई थी.

निहारिका ने सिर घुमा कर देखा तो एक लड़का, जिस की आंखें इस समय उन लड़कों को घूर रही थीं, निहारिका तुरंत ही वहां से लंबे कदमों से चल दी थी. जातेजाते उस के कान में उस लड़के की आवाज पड़ी थी, जो उन शोहदों से कह रहा था, ‘‘खबरदार, किसी फ्रेशर को छेड़ा तो ठीक नहीं होगा… ये कल्चर हमारे लिए सही नहीं है.‘‘

निहारिका मन ही मन उस अचानक से मदद के लिए आए लड़के का धन्यवाद कर रही थी और यह भी सोच रही थी कि कितनी मूर्ख है वह, जो उस लड़के को थैंक्स भी नहीं कह पाई… चलो, कोई बात नहीं, दोबारा मिलने पर जरूर कह देगी.

उस को थैंक्स कहने का मौका अगले ही दिन मिल गया, जब निहारिका क्लास खत्म कर के निकल रही थी. तब वही आवाज उस के कानों से टकराई, ‘‘अरे मैडम, आज किसी ने आप को छेड़ा तो नहीं ना.‘‘

देखा तो कल मदद करने वाला लड़का ही अपने दोनों हाथों को नमस्ते की शक्ल में जोड़ कर खड़ा हुआ था और निहारिका की आंखों में देख कर मुसकराए जा रहा था.

‘‘ज… जी, नहीं… पर कल जो आप ने मेरी मदद की, उस का बहुत शुक्रिया.‘‘

‘‘शुक्रिया की कोई बात नहीं… आगे से अगर आप को कोई भी मदद चाहिए हो तो आप मुझे तुरंत ही याद कर सकती हैं… ये मेरा कार्ड है… इस पर मेरा फोन नंबर भी है,‘‘ एक सुनहरा कार्ड आगे बढाते हुए उस लड़के ने कहा.

कार्ड पर नजर डालते हुए निहारिका ने देखा, ‘राजवीर सिंह, बीए तृतीय वर्ष.’

राजवीर एक राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रखता था और उस ने एडमिशन तो विश्वविद्यालय में ले रखा था, पर उस का उद्देश्य प्रदेश की राजनीति तक पहुंचने का था और इसीलिए पढ़ाई के साथ ही उस ने छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए तैयारी शुरू कर दी थी.

निहारिका इतना तो समझ गई थी कि पढ़ाई संबंधी कामों में यह लड़का भले काम न आए, पर विश्वविद्यालय में एक पहचान बनाने के लिए इस का साथ अगर मिल जाए तो कोई बुराई  भी नहीं है.

तय समय पर विश्वविद्यालय में चुनाव हुए, जिस में राजवीर सिंह की भारी मतों से जीत हुई और अब वह कैंपस में जम कर नेतागीरी करने लगा.

पर, राजवीर सिंह के अंदर नेता के साथसाथ एक युवा का दिल भी धड़कता था और उस युवा दिल को निहारिका पहली ही नजर में अच्छी लग गई थी. निहारिका जैसी सीधीसादी और प्रतिभाशाली लड़की जैसी ही जीवनसंगिनी की कल्पना की थी राजवीर ने.

और इसीलिए वह मौका देखते ही निहारिका के आगेपीछे डोलता रहता. अब निहारिका को आटोरिकशा की जरूरत नहीं पड़ती. वह खुद ही अपनी फौर्चूनर गाड़ी निहारिका के पास खड़ी कर उसे घर तक छोड़ने का आग्रह करता और निहारिका उस का विनम्र आग्रह टाल नहीं पाती.

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मुझे आज भी अपने घर का पता ठीक से याद है. आज भी मुझे बाबूजी, अम्मां और लाड़ले भाई बिल्लू की बहुत याद आती है. आज भी हर रात मुझे जलता हुआ अपना घर, चीखते हुए लोग और नकाब पहन कर अपनी ओर आते काले साए दिखने लगते हैं.

यहां इस बदनाम बस्ती में लोग दिन में आते हुए घबराते हैं, क्योंकि वे शरीफ लोग होते हैं. लेकिन रात होते ही वही शरीफ अपने जिस्म की भूख मिटाने यहां चले आते हैं. यहां एक शरीफ घर की बेटी भी रहती है, जो कुछ साल पहले एकमुश्त रकम दे कर खरीदी गई थी और अब हर रात टुकड़ों में बिकती है.

हां, वह शरीफ घर की बेटी मैं ही हूं. पर लोग मेरे खानदान के बारे में जानने नहीं आते, बल्कि अपनी हवस मिटाने आते हैं. कई तो बाबूजी जैसे बूढ़े, कई मेरे सपनों के राजकुमार जैसे जवान और कई मेरे भाई बिल्लू जैसे मुझ से उम्र में छोटे लड़के भी यहां आए और गए.

मैं ने हर किसी को अपना पता बताया और विनती की कि मेरे घर खबर दे दो कि मैं इस गंदी नाली में फंसी हुई हूं. मुझे आ कर ले जाएं. पर लोग आते और अपनी भूख मिटा कर चले जाते.

एक दिन ‘मौसी’ ने बताया, ‘‘आज रात जरा सजसंवर के बैठियो बन्नो, नया दारोगा आ रहा है.’’

हम वहां 3 लड़कियां थीं. तीनों को दारोगा के सामने यों पेश किया गया, मानो पान की गिलौरियां हों. मैं ने नजर उठा कर देखना भी जरूरी नहीं समझा. सोचा, बूढ़ा, जवान या बच्चा, जो भी होगा, कि अपना काम कर के चला ही जाएगा.

दारोगा ने शायद मौसी को इशारा कर के बता दिया था कि मैं उसे पसंद हूं. मौसी उन दोनों लड़कियों को ले कर चली गई. कमरे में बाकी बची मैं और वह दारोगा. वह बोला, ‘‘बैठो, मुझ से डरो नहीं, अपना नाम बताओ.’’

पहली बार मैं ने नजरें उठा कर देखा. वह लंबा, तगड़ा, गोराचिट्टा नौजवान था. मैं हैरान सी उसे देखती रही, तो वह फिर बोला, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’

मै ने सोचा कि उस से पूछूं, ‘तुम्हें नाम से क्या काम?’ पर जबान ने साथ नहीं दिया.

मुझे चुप देख कर वह कुछ झुंझला गया और बोला, ‘‘क्या तुम गूंगी हो?’’

मैं ने जवाब दिया, ‘‘मैं गूंगी नहीं हूं, पर बेजबान हूं,’’

वह धीरे से बोला, ‘‘मेरा नाम निरंजन सिंह है. मैं मैनपुरी का रहने वाला हूं. बेसहारा लोगों की मदद करने के लिए ही पुलिस में भरती हुआ हूं. घर पर जमींदारी है, शौकिया नौकरी कर रहा हूं. जानना चाहता हूं, तुम यह काम शौकिया कर रही हो या मजबूरी में?’’

मैं खामोश ही रही. दारोगा निरंजन सिंह बोला, ‘‘अपना पता बताओ.’’

न चाहते हुए भी मैं ने अलीगढ़ का अपने घर का पता बता दिया. इस से पहले भी कितने ही आए और बहलाफुसला कर आस का दीया मेरे दिल में जला कर चले गए. इसी तरह मुझे यहां से नजात दिलाने का वादा कर के और घर का पता पूछ कर, मेरे जिस्म से खेल कर कितने ही जा चुके थे.

मैं ने सोचा कि चलो, इसे भी सह ही लूंगी. मौत बुलाने से आती तो कब की आ गई होतीअचानक दारोगा की आवाज सुन कर मैं ने उस की तरफ देखा. वह कह रहा था, ‘‘हाथमुंह धो कर ढंग के कपड़े पहन कर बाहर आओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.’’

दूसरे कमरे से मौसी और दारोगा की बात करने की आवाज अंदर आ रही थी. वह पूछ रहा था, ‘‘कितने में खरीदा था इसे? आज बेच दो. मैं साथ लिए जा रहा हूं. कीमत बोलो?’’

 

मौसी ने कहा, ‘‘सरकार, ले जाइए, जब मन भर जाए तो लौटा देना.’’

 

अब मैं ने आईने में खुद को देखा. लिपीपुती मैं कितनी गंदी लग रही थी. बहुत समय बाद खुद से नफरत होने लगी. मैं ने जल्दीजल्दी हाथमुंह धोया. एक सादा सा सूट पहना और बाहर चली आई.

 

मौसी ने मुझे चूम कर कहा, ‘‘दारोगा को खुश कर देना.’’

 

बाहर निकल कर मैं ने देखा कि दारोगा जीप में बैठा मेरा इंतजार कर रहा था. फिर एक लंबा सफर शुरू हुआ. सफर के दौरान मुझे कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

 

नींद तभी खुली, जब दारोगा ने कंधे से झकझोर कर उठाया और मेरे हाथ में चाय का एक गिलास पकड़ा दिया.

 

भौचक्की सी मैं कभी चाय तो कभी दारोगा को देख रही थी. सवेरा हो चुका था. सबकुछ एकदम अनोखा लग रहा था. हम एक ढाबे के बाहर थे.

 

‘‘अभी आधे घंटे में हम अलीगढ़ पहुंच जाएंगे. तुम एक बार फिर अपनों के बीच होगी,’’ दारोगा ने मुसकराते हुए कहा.

 

कैसे बताऊं, अपनी उस हालत को. ऐसा लगा, मानो मेरे कटे पंख फिर से उग आए हों. मैं अब आजाद हूं, उड़ने के लिए. मेरी आंखों से लगातार आंसू बहे जा रहे थे.

 

जल्दी ही हम अलीगढ़ पहुंच गए. सुबह के लगभग 7 बजे जीप हमारे घर के सामने जा कर रुक गई. दारोगा ने मुझे घर की कुंडी खटखटाने को कहा.

 

अंदर से एक मर्दाना आवाज आई, ‘‘कौन है?’’ और फिर कुंडी खुल गई.

 

आंगन में मां अंगीठी के लिए कोयले तोड़ रही थीं. दरवाजा खोलने वाला शायद मेरा भाई बिल्लू था. पिताजी चारपाई पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे. इन 8 सालों में मैं काफी बदल गई थी, तभी तो मुझे किसी ने नहीं पहचाना.

 

मैं ‘मां… मां’ कहती अंदर लपकी. मां मुझे पहचानते ही चीख पड़ीं, ‘‘अरे, मेरी लता? कहां थी बेटी? तुझे कहांकहां नहीं ढूंढ़ा,’’ और हम दोनों मांबेटी गले मिल कर रोने लगीं.

 

पर बिल्लू और पिताजी अजनबी बने दूर खड़े रहे. जब मैं पिताजी की तरफ बढ़ी तो वे बोले, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ भी लगाया. निकल जा इसी वक्त यहां से.’’

 

अब दारोगाजी पहली बार बोले, ‘‘आप अपनी बेटी को नहीं पहचानते. यह बेचारी किसी तरह लोगों के घरों में बरतन धोधो कर जिंदा रही, क्या आप की यही नफरत देखने के लिए?’’

 

पिताजी की कड़कदार आवाज गूंजी, ‘‘जी हां, इस के कई खरीदार आशिकों के खत मुझे पहले भी मिल चुके हैं. मैं जानता हूं कि यह बरतन नहीं हमारी इज्जत धोती रही है.’’

 

मुझे लगा कि जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं. ‘तो मेरे जिस्म को नोचने वालों में से कुछ ने यहां मेरे बताए पते पर खत डाले थे.’

 

तब तक बिल्लू बोल उठा, ‘‘तू जाती है या धक्के मार कर निकालूं बाहर?’’

 

मां रो रही थीं और पिताजी से कह रही थीं, ‘‘तुम्हें पता था, यह कहां है? और तुम इसे लेने नहीं गए. तुम ने मुझे भी कभी नहीं बताया. मेरी लता का क्या कुसूर है? इसे घर में रहने दो.’’

 

बिल्लू गुस्से से बोला, ‘‘मां, तुम तो पागल हो गई हो. दीदी तो 8 साल पहले मर गई… यह जाने कौन घुस रही है, हमारे घर में.’’

 

अब दारोगाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और सीधे ला कर जीप में बिठाया. फिर से एक अनजाना सफर शुरू हो गया. मैं काफी रो चुकी थी. अब तो आंसू भी सूख गए थे और दिल भी पत्थर बन चुका था.

 

मैनपुरी पहुंच कर हमारा सफर खत्म हुआ. जीप एक हवेली के सामने रुकी. दारोगाजी ने मुझे अपने साथ आने को कहा. 7-8 कमरे पार करने के बाद उन्होंने एक औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह मेरी पत्नी है, भानु… और भानु, यह लता है. इस के मांबाप और भाई सब एक हादसे में मारे गए. अब यह यहां रहेगी. इसे मेरी बहन समझ कर पूरी इज्जत देना.’’

 

फिर दारोगा मेरी तरफ मुड़ कर बोले, ‘‘लता, आज से तुम भानु की देखरेख में यहीं रहोगी.’’

 

मेरी आंखों में फिर आंसू भर आए. भानु भाभी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपने साथ अंदर ले गईं.

नजरिया: आखिर निखिल की मां अपनी बहू से क्या चाहती थी

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गुच्चूपानी: राहुल क्यों मायूस हो गया?

एकसाथ 3 दिन की छुट्टी देखते हुए पापा ने मसूरी घूमने का प्रोग्राम जब राहुल को बताया तो वह फूला न समाया. पहाड़ों की रानी मसूरी में चारों तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़, उन पर बने छोटेछोटे घर, चारों ओर फैली हरियाली की कल्पना से ही उस का मन रोमांचित हो उठा.

राहुल की बहन कमला भी पापा द्वारा बनाए गए प्रोग्राम से बहुत खुश थी. पापा की हिदायत थी कि वे इन 3 दिन का भरपूर इस्तेमाल कर ऐजौंय करेंगे. एक मिनट भी बेकार न जाने देंगे, जितनी ज्यादा जगह घूम सकेंगे, घूमेंगे.

निश्चित समय पर तैयार हो कर वे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गए. सुबह पौने 7 बजे शताब्दी ऐक्सप्रैस में बैठे तो राहुल काफी रोमांचित महसूस कर रहा था, उस ने स्मार्टफोन उठाया और साथ की सीट पर बैठी कमला के साथ सैल्फी क्लिक की.

तभी पापा ने बताया कि वे रास्ते में हरिद्वार में उतरेंगे और वहां घूमते हुए रात को देहरादून पहुंच जाएंगे. फिर वहां रात में औफिस के गैस्ट हाउस में रुकेंगे और सुबह मसूरी के लिए रवाना होंगे.

यह सुन कर राहुल मायूस हो गया. हरिद्वार का नाम सुनते ही जैसे उसे सांप सूंघ गया. उसे लग रहा था सारा ट्रिप अंधविश्वास की भेंट चढ़ जाएगा. यह सुनते ही वह कमला से बोला, ‘‘शिट् यार, लगता है हम घूमने नहीं तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं.’’

‘‘हां, पापा आप भी न….’’ कमला ने कुछ कहना चाहा लेकिन कुछ सोच कर रुक गई.

लगभग 12 बजे हरिद्वार पहुंच कर उन्होंने टैक्सी ली, जो उन्हें 2-3 जगह घुमाती हुई शाम को गंगा घाट उतारती और फिर वहां से देहरादून उन के गैस्ट हाउस छोड़ देती.

राहुल ट्रिप के मजे में खलल से आहत चुपचाप चला जा रहा था. शाम को हरिद्वार में गंगा घाट पर घूमते हुए प्राकृतिक आनंद आया, लेकिन गंगा के घाट असल में उसे लूटखसोट के अड्डे ज्यादा लगे. जगहजगह धर्म व गंगा के प्रति श्रद्धा के नाम पर पैसा ऐंठा जा रहा था. उसे तब और अचंभा हुआ जब निशुल्क जूतेचप्पल रखने का बोर्ड लगाए उस दुकानदार ने उन से जूते रखने के 100 रुपए ऐंठ लिए. इस सब से उस के मन का रोमांच काफूर हो गया. फिर भी वह चुपचाप चला जा रहा था.

रात को वे टैक्सी से देहरादून पहुंचे और गैस्टहाउस में ठहरे. पापा ने गैस्टहाउस के रसोइए के जरिए मसूरी के लिए टैक्सी बुक करवा ली. टैक्सी सुबह 8 बजे आनी थी. अत: वे जल्दी खाना खा कर सो गए ताकि सुबह समय से उठ कर तैयार हो पाएं.

वे सफर के कारण थके हुए थे, सो जल्दी ही गहरी नींद में सो गए और सुबह गैस्टहाउस के रसोइए के जगाने पर ही जगे. तैयार हो कर अभी वे खाना खा ही रहे थे कि टैक्सी आ गई. राहुल अब भी चुप था. उसे यात्रा में कुछ रोमांच नजर नहीं आ रहा था.

टैक्सी में बैठते ही पापा ने स्वभावानुसार ड्राइवर को हिदायत दी, ‘‘भई, हमें कम समय में ज्यादा जगह घूमना है इसलिए भले ही दोचार सौ रुपए फालतू ले लेना, लेकिन देहरादून में भी हर जगह घुमाते हुए ले चलना.’’

ज्यादा पैसे मिलने की बात सुन ड्राइवर खुश हुआ और बोला, ‘‘सर, उत्तराखंड में तो सारा का सारा प्राकृतिक सौंदर्य भरा पड़ा है, आप जहां कहें मैं वहां घुमा दूं, लेकिन आप को दोपहर तक मसूरी पहुंचना है इसलिए एकाध जगह ही घुमा सकता हूं. आप ही बताइए कहां जाना चाहेंगे?’’

पापा ने मम्मी से सलाह की और बोले, ‘‘ऐसा करो, टपकेश्वर मंदिर ले चलो. फिर वहां से साईंबाबा मंदिर होते हुए मसूरी कूच कर लेना.’’

‘‘क्या पापा, आप भी न. हम से भी पूछ लेते, सिर्फ मम्मी से सलाह कर ली… और हम क्या तीर्थयात्रा पर हैं, जो मंदिर घुमाएंगे,’’ कमला बोली.

तभी नाराज होता हुआ राहुल बोल पड़ा, ‘‘क्या करते हैं आप पापा, सारे ट्रिप की वाट लगा दी. बेकार हो गया हमारा आना. अभी ड्राइवर अंकल ने बताया कि उत्तराखंड प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा है और एक आप हैं कि देखने को सूझे तो सिर्फ मंदिर, जहां सिर्फ ठगे जाते हैं. आप की सोच दकियानूसी ही रहेगी.’’

पापा कुछ कहते इस से पहले ही ड्राइवर बोल पड़ा, ‘‘आप का बेटा ठीक कह रहा है सर, घूमनेफिरने आने वाले ज्यादातर लोग इसी तरह मंदिर आदि देख कर यात्रा की इतिश्री कर लेते हैं और असली यात्रा के रोमांच से वंचित रह जाते हैं. तिस पर अपनी सोच भी बच्चों पर थोपना सही नहीं. तभी तो आज की किशोर पीढ़ी उग्र स्वभाव की होती जा रही है. हमें इन की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए.

‘‘यहां प्राकृतिक नजारों की कमी नहीं. आप कहें तो आप को ऐसी जगह ले चलता हूं जहां के प्राकृतिक नजारे देख आप रोमांचित हुए बिना नहीं रहेंगे. इस समय हम देहरादून के सैंटर में हैं. यहां से महज 8 किलोमीटर दूर अनार वाला गांव के पास स्थित एक पर्यटन स्थल है, ‘गुच्चूपानी,’ जिसे रौबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा भी कहा जाता है.

‘‘गुच्चूपानी एक प्राकृतिक पिकनिक स्थल है जहां प्रकृति का अनूठा अनुपम सौंदर्य बिखरा पड़ा है. दोनों ओर ऊंचीऊंची पहाडि़यों के मध्य गुफानुमा स्थल में बीचोंबीच बहता पानी यहां के सौंदर्य में चारचांद लगा देता है. दोनों पहाडि़यां जो मिलती नहीं, पर गुफा का रूप लेती प्रतीत होती हैं.

‘‘यहां पहुंच कर आत्मिक शांति मिलती है. प्रकृति की गोद में बसे गुच्चूपानी के लिए यह कहना गलत न होगा कि यह प्रेम, शांति और सौंदर्य का अद्भुत प्राकृतिक तोहफा है.

‘‘गुच्चूपानी यानी रौबर्स केव लगभग 600 मीटर लंबी है. इस के मध्य में पहुंच कर तब अद्भुत नजारे का दीदार होता है जब 10 मीटर ऊंचाई से गिरते झरने नजर आते हैं. यह मनमोहक नजारा है. इस के मध्य भाग में किले की दीवार का ढांचा भी है जो अब क्षतविक्षत हो चुका है.’’

‘‘गुच्चूपानी…’’ नाम से ही अचंभित हो राहुल एकदम रोमांचित होता हुआ बोला, ‘‘यह गुच्चूपानी क्या नाम हुआ?’’

तभी साथ बैठी कमला भी बोल पड़ी, ‘‘और ड्राइवर अंकल, इस का नाम रौबर्स केव क्यों पड़ा?’’

मुसकराते हुए ड्राइवर ने बताया, ‘‘दरअसल, गुच्चूपानी इस का लोकल नाम है. अंगरेजों के जमाने में इसे ‘डकैतों की गुफा’  के नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि उस समय डाकू डाका डालने के बाद छिपने के लिए इसी गुफा का इस्तेमाल करते थे. सो, अंगरेजों ने इस का नाम रौबर्स केव रख दिया.’’

‘‘तो क्या अब भी वहां डाकू रहते हैं. वहां जाने में कोई खतरा तो नहीं है?’’ कमला ने पूछा.

‘‘नहींनहीं, अब वहां ऐसी कोई बात नहीं बल्कि इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर दिया गया है. अब इस का रखरखाव उत्तराखंड सरकार द्वारा किया जाता है,’’ ड्राइवर ने बताया, फिर वह हंसते हुए बोला, ‘‘हां, एक डर है, पैरों के नीचे बहती नदी का पानी. दरअसल, पिछले साल जनवरी में भारी बरसात के कारण अचानक इस नदी का जलस्तर बढ़ गया था, जिस से यहां अफरातफरी मच गई थी. यहां कई पर्यटक फंस गए थे, जिस से काफी शोरशराबा मचा.

‘‘फिर मौके पर पहुंची एनडीआरएफ की टीमों ने पर्यटकों को सकुशल बाहर निकाला था. इस में महिलाएं और बच्चे भी थे. इसलिए जरा संभल कर जाइएगा.’’

‘‘अंकल आप भी न, डराइए मत, बस पहुंचाइए, ऐसी अद्भुत प्राकृतिक जगह पर,’’ राहुल रोमांचित होता हुआ बोला.

‘‘पहुंचाइए नहीं, पहुंच गए बेटा,’’ कहते हुए ड्राइवर ने टैक्सी रोकी और इशारा कर बताया कि उस ओर जाएं. जाने से पहले अपने जूते उतार लें व यहां से किराए पर चप्पलें ले लें.’’

राहुल और कमला भागते हुए आगे बढ़े और वहां बैठे चप्पल वाले से किराए की चप्पलें लीं. इन चप्पलों को पहन कर वे पहुंच गए गुच्चूपानी के गेट पर. यहां 25 रुपए प्रति व्यक्ति टिकट था. पापा ने सब के टिकट लिए और सब ने पानी में जाने के लिए अपनीअपनी पैंट फोल्ड की व ऐंट्री ली.

चारों ओर फैले ऊंचे पहाड़ों के बीच बसा यह क्षेत्र अद्भुत सौंदर्य से भरा था. पानी में घुसते ही दिखने वाला वह 2 पहाडि़यों के बीच का गुफानुमा रास्ता और मध्य में बहती नदी के बीच चलना, जैसा ड्राइवर अंकल ने बताया था, उस से भी अधिक रोमांचित करने वाला था.

मम्मीपापा भी यह नजारा देख स्तब्ध रह गए थे. पहाड़ों के बीच बहते पानी में चलना उन्हें किसी हौरर फिल्म के रौंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य की भांति लगा, जैसे अभी वहां छिपे डाकू निकलेंगे और उन्हें लूट लेंगे.

अत्यंत रोमांचक इस मंजर ने उन्हें तब और रोमांचित कर दिया जब बिलकुल मध्य में पहुंचने पर ऊपर से गिरते झरने ने उन का स्वागत किया. राहुल तो पानी में ऐसे खेल रहा था मानो उसे कोई खजाना मिल गया हो. सामने खड़ी किले की क्षतविक्षत दीवार के अवशेष उन्हें काफी भा रहे थे. इस मनोरम दृश्य को देख किस का मन अभिभूत नहीं होगा.

इस पूरे नजारे की उन्होंने कई सैल्फी लीं. एकदूसरे के फोटो खींचे और वीडियो क्लिप भी बनाई. पानी में उठखेलियां करते जब वे बाहर आ रहे थे तो पापा भी कह उठे, ‘‘अमेजिंग राहुल, वाकई तुम ने हमारी आंखें खोल दीं. हम तो सिर्फ मंदिर आदि देख कर ही लौट जाते. प्रकृति का असली आनंद व यात्रा की पूर्णता तो वाकई ऐसे नजारे देखने में है.’’

फिर बाहर आ कर उन्होंने ड्राइवर का भी धन्यवाद किया ऐसी अनूठी जगह का दीदार करवाने के लिए. साथ ही हिदायत दी कि मसूरी में भी धार्मिक स्थलों पर आस्था के नाम पर लूट का शिकार होने के बजाय ऐसे स्थान देखेंगे. इस पर जब राहुल ने ठहाका लगाया तो पापा बोले, ‘‘बेटा, हमें मसूरी के ऐसे अद्भुत स्थल ही देखने चाहिए. जल्दी चलो, कहीं समय की कमी के कारण कोई नजारा छूट न जाए.’’

अब टैक्सी मसूरी की ओर रवाना हो गई थी. टैक्सी की पिछली सीट पर बैठे राहुल और कमला रहरह कर गुच्चूपानी में ली गईं सैल्फी, फोटोज और वीडियोज में वहां के अद्भुत दृश्य देख कर रोमांचित हो रहे थे, इस आशा के साथ कि मसूरी यानी पहाड़ों की रानी में भी ऐसा ही रोमांच मिलेगा.

खोखले चमत्कार: कैसे दूर हुआ दादी का अंधविश्वास

संजू की दादी का मन सुबह से ही उखड़ा हुआ था. कारण यह था कि जब वे मंदिर से पूजा कर के लौट रही थीं तो चौराहे पर उन का पैर एक बुझे हुए दीए पर पड़ गया था. पास ही फूल, चावल, काली दाल, काले तिल तथा सिंदूर बिखरा हुआ था. वे डर गईं और अपशकुन मनाती हुई अपने घर आ पहुंचीं .

घर पर संजू अकेला बैठा हुआ पढ़ रहा था. उस की मां को बाहर काम था. वे घर से जा चुकी थीं. पिताजी औफिस के काम से शहर से बाहर चले गए थे. उन्हें 2 दिन बाद लौटना था.

दादी के बड़बड़ाने से संजू चुप न रह सका. वह अपनी दादी से पूछ बैठा, ‘‘दादी, क्या बात हुई? क्यों सुबहसुबह परेशान हो रही हो?’’

अंधविश्वासी दादी ने सोचा, ‘संजू मुझे टोक रहा है.’ इसलिए वे उसे डांटती हुई फौरन बोलीं, ‘‘संजू, तू भी कैसी बातें करता है. बड़ा अपशकुन हो गया. किसी ने चौराहे पर टोनाटोटका कर रखा था. उसी में मेरा पैर पड़ गया. उस वक्त से मेरा जी बहुत घबरा रहा है.’’

संजू बोला, ‘‘दादी, अगर ऐसा है तो मैं डाक्टर को बुला लाता हूं.’’  पर दादी अकड़ गईं और बोलीं, ‘‘तेरा भेजा तो नहीं फिर गया कहीं. ऐसे टोनेटोटके में डाक्टर को बुलाया जाता है या ओझा को. रहने दे, मैं अपनेआप संभाल लूंगी. वैसे भी आज सारा दिन बुरा निकलेगा.’’

संजू ने उन की बात पर कोई ध्यान न दिया और अपना होमवर्क करने लगा. संजू स्कूल चला गया तो दादी घर पर अकेली रह गईं. पर दादी का मन बेचैन था. उन्हें लगा कि कहीं किसी के साथ कोई अप्रिय घटना न घट जाए, क्योंकि जब से चौराहे में टोनेटोटके पर उन का पैर पड़ा था, वे अपशकुन की आशंका से कांप रही थीं. तभी कुरियर वाला आया और उन से हस्ताक्षर करवा उन्हें एक लिफाफा थमा कर चला गया. अब तो उन का दिल ही बैठ गया. लिफाफे में एक पत्र था जो अंगरेजी में था और अंगरेजी वे जानती नहीं थीं. उन्हें लगा जरूर इस में कोई बुरी खबर होगी.

इसी डर से उन्होंने वह पत्र किसी से नहीं पढ़वाया. दिन भर परेशान रहीं कि कहीं इस में कोई बुरी खबर न हो. शाम को जब संजू और उस की मां घर लौटे, तब दादी कांपते हाथों से संजू की मां जानकी को पत्र देती हुई बोलीं, ‘‘बहू, जरूर कोई बुरी खबर है. अपशकुन तो सुबह ही हो गया था. अब पढ़ो, यह पत्र कहां से आया है और इस में क्या लिखा है? जरूर कोई संकट आने वाला है. हाय, अब क्या होगा?’’

जानकी ने तार खोल कर पढ़ा लिखा था, ‘‘बधाई, संजय ने छात्रवृत्ति परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है.’’

पढ़ कर जानकी खिलखिला उठीं और अपनी सास से बोलीं, ‘‘मांजी, आप बेकार घबरा रही थीं, खबर बुरी नहीं बल्कि अच्छी है. हमारे संजू को छात्रवृत्ति मिलेगी. उस ने जो परीक्षा दी थी, उत्तीर्ण कर ली.’’ तब दादी का चेहरा देखने लायक था. किंतु दादी अंधविश्वास पर टिकी रहीं. वे रोज मंदिर जाया करती थीं. एक रोज सुबहसुबह दादी मंदिर गईं. थाली में नारियल, केला और लड्डू ले गईं. थाली मूर्ति के सामने ही रख दी और आंखें बंद कर के मन ही मन जाप करने लगीं. इसी बीच वहीं पेड़ पर बैठा एक बंदर पेड़ से उतरा और चुपके से केला व लड्डू ले कर पेड़ पर चढ़ गया.

दादी ने जब आंखें खोलीं और थाली में से केला व लड्डू गायब पाया तो खुश हो कर अपनेआप से बोलीं, ‘‘प्रभु, चमत्कार हो गया. आज आप ने स्वयं ही भोजन ग्रहण कर लिया.’’ वे खुशीखुशी मंदिर से घर लौट आईं. घर पर जब उन्हें सब ने खुश देखा तो संजू कहने लगा, ‘‘दादी, आज तो लगता है कोई वरदान मिल गया?’’

दादी प्रसन्न थी, बोलीं, ‘‘और नहीं तो क्या?’’

फिर दादी ने सारा किस्सा कह सुनाया. संजू खिलखिला कर हंस पड़ा तथा यह कहता हुआ बाहर दौड़ गया, ‘‘इस महल्ले में चोरउचक्कों की भी कमी नहीं है. फिर पिछले कुछ समय से यहां काफी बंदर आए हुए हैं लगता है प्रसाद कोई बंदर ही ले गया होगा.’’ सुन कर दादी ने मुंह बिचकाया. फिर सोचने लगीं कि आज शुभ दिन है. आज मेरी मनौती पूरी हुई. मैं चाहती थी कि मेरा बुढ़ापा सुखचैन से बीते. रोज की तरह उस शाम को दादी टहलने निकल गईं. वे पार्क में जाने के लिए सड़क के किनारे चली जा रही थीं. साथ ही सुबह हुए चमत्कार के बारे में सोच रही थीं.

तभी एक किशोर स्कूटी सीखता हुआ आया और दादी को धकियाता हुआ आगे बढ़ गया. दादी को पता ही नहीं चला, वे लड़खड़ा कर हाथों के बल सड़क पर जा गिरीं. हड़बड़ाहट में उठ तो गईं, पर घर आतेआते उन के दाएं हाथ में सूजन आ गई. वे दर्द के मारे कराहने लगीं. उन्हें फौरन डाक्टर को दिखाया गया. एक्सरे करने पर पता चला कि कलाई की हड्डी चटक गई है

एक माह के लिए प्लास्टर बंध गया. दादी ‘हाय मर गई, हाय मर गई’ की दुहाई देती रहीं.संजू चुटकी लेता हुआ दादी से बोला, ‘‘दादी, यही है वह चमत्कार, जिस के लिए आप सुबह से ही खुश हो रही थीं. तुम्हारी दोनों बातें गलत निकलीं. इसलिए भविष्य में ऐसे अंधविश्वासों के चक्कर में मत पड़ना.’’  दादी रोंआसी हो कर बोलीं, ‘‘हां बेटा, तुम ठीक कहते हो. हम ने तो सारी जिंदगी ही ऐसे भ्रमों में बिता दी पर मैं अब कभी शेष जीवन में इन खोखले चमत्कारों के जाल में नहीं पडूंगी.’’

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