Story in hindi

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फिर तो दीपक के साथ हमारी भी शामत आ गई. दादीजी गुस्से से तमतमाते हुए बोलीं, ‘‘बहू, इस गंदी नाली के कीड़े को हमेशा के लिए इस घर से निकाल दो. इस ने सारे घर को ‘अपवित्र’ कर दिया है. इतना मारो इस कुत्ते को कि दोबारा कभी इधर मुंह भी न करे… नहीं तो मैं ही यहां से कहीं दूर चली जाऊंगी.’’
मां का पारा भी सातवें आसमान को छूने लगा था. उन्होंने शहतूत की छड़ी ले कर पहले हम दोनों भाईबहन को पीटा. फिर जोरजोर से दीपक को पीटने लगीं. वह रोया, गिड़गिड़ाया और दया की भीख मांगता रहा, परंतु उस की एक न सुनी गई.
मां उसे खींच कर बाहर ले गई और बोलीं, ‘‘भाग जा यहां से, नहीं तो तुझे जिंदा नहीं छोड़ूंगी.’’ मां का ऐसा चेहरा मैं ने पहली बार देखा था. दीपक चिल्लाता हुआ दौड़ कर गेट से बाहर भाग गया था. उस की किताबकापियां, कपड़े और दूसरे सामान कमरे में ही रह गए थे.
पिताजी चुपचाप देखते रहे और चाह कर भी मां को रोक न सके. उस के बाद दीपक कभी भी हमारे घर लौट कर नहीं आया. इतने सालों बाद दीपक को अब मैं अफसर की कुरसी पर बैठे हुए देख रही थी. मुझे बहुत खुशी हो रही थी.
तभी वह लौट आया और मुझे खामोश देख कर बोला, ‘‘आशाजी, आप चुप क्यों हो गई हैं? और सुनाओ, क्या हालचाल हैं? चाचाजी और चाचीजी कैसे हैं?’’ ‘‘सब ठीक हैं,’’ मैं उस से नजर नहीं मिला पाई. इसी बीच चपरासी चाय और बिसकुट ले आया था. हम चाय पीने लगे थे.
‘‘मनोज कहां है और क्या काम करता है?’’ दीपक ने पूछा. ‘‘वह शिमला में बिजली महकमे में इंजीनियर लग गया है,’’ मैं ने उसे बताया. थोड़ी देर बाद अपना काम पूरा कर के मैं घर चली गई. रात को जब मैं ने मां व पिताजी को दीपक के बारे में बताया तो वे भी हैरान रह गए.
मां को तो यकीन ही नहीं हुआ. वह कहने लगीं, ‘‘ऐसा कभी हो ही नहीं सकता. तुम झूठ बोल रही हो.’’ दूसरे दिन मेरे मातापिता भी उस से मिलने गए. दीपक उन से बहुत प्यार से मिला और पिछली किसी भी बात को नहीं कुरेदा.
जब मनोज छुट्टियों में घर आया तो दीपक ने हमारे पूरे परिवार को दावत दी. इसी बीच मुझे नजदीक ही एक कालेज में नौकरी मिल गई थी. दीपक से अकसर मेरी मुलाकात होती रहती थी. एक दिन दीपक ने मेरे सामने शादी की बात रखी तो मैं गदगद हो गई.
दीपक ने मेरे दिल की बात छीन ली थी, परंतु घर आ कर जब मैं ने मातापिता से बात की तो वे मेरे खिलाफ हो गए. मां कहने लगीं, ‘‘पागल हो गई हो? लोग क्या कहेंगे? अपनी जातबिरादरी वाले क्या कम हैं?’’ दादीजी भी भड़क उठीं, ‘‘उस से कहना कि वह अपनी औकात में रहे.
क्या वह अपनी जात को भूल गया है?’’ पिताजी समझाने लगे, ‘‘बेटी, मैं ने तुम्हारे लिए एक काबिल वर की तलाश कर ली है.’’ शायद वे लोग नहीं चाहते थे कि वही लड़का उन के घर में दामाद बन कर आए, जिसे बचपन में उन्होंने दुत्कारा और सताया था.
परंतु दीपक जैसा जीवनसाथी मुझे कहीं मिल नहीं सकता था, इसलिए मैं हिम्मत कर के गुस्से में बोल उठी, ‘‘आप लोग मेरी शादी दूसरी जगह जबरदस्ती नहीं कर सकते. मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई हूं और यह फैसला मैं ने सोचसमझ कर लिया है.
अगर आप जबरदस्ती करेंगे, तो आज के बाद मैं इस घर में कभी कदम भी नहीं रखूंगी.’’ ‘‘पिताजी, आशा ने अपने लिए एक अच्छा जीवनसाथी चुना है. आप को इस मामले में दखल देने की कोई जरूरत नहीं है,’’ मनोज भी मेरी तरफदारी करता हुआ बोला. अब सभी खामोश हो गए थे. उन्होंने अपनी हार मान ली थी.
सहसा सुकांत को फाइलों के नीचे एक किताब सी नजर आई. खींच कर निकाला तो देखा कि यह तो वही डायरी है जो उस ने बाबूजी को वहां से आते समय दी थी. सुकांत अपनी उत्सुकता न रोक पाया. फाइलें बंद कर दी और डायरी हाथ में लिए नीचे आ गया. लगभग आधी डायरी भरी हुई थी, जिसे वह आराम से पढ़ना चाहता था. डायरी का पहला पृष्ठ बाबूजी ने हवाई जहाज में ही लिखा था:
19 जनवरी : बेटे, सुकांत, मैं जानता हूं, तुम नहीं चाहते थे कि मैं अकेले रहने के लिए भारत वापस जाऊं. लेकिन मेरे लिए तुम्हारा सुखी जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण है. मैं तो बीता समय हूं, आने वाला कल तुम हो. मेरे यहां होने से तुम्हारी गृहस्थी में जो दरार पड़ती जा रही थी, वह मेरे लिए शर्म की बात थी. क्या मैं इतना अक्षम हूं कि अपने इस अकेले जीवन का बोझ भी नहीं उठा सकता?
22 जनवरी : वापस तो आ गया हूं, सुकांत, लेकिन घर मानो काटने को दौड़ रहा है. तुम्हारी मां के बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता यहां. पड़ोस के योगेश साहब ने अपना नौकर भेज कर साफसफाई तो करवा दी है, खाना भी भिजवाया है, किंतु जीवन की आवश्यकताएं क्या केवल यही हैं?
25 जनवरी : सुकांत, बहुत याद आ रही है तुम्हारी. इस तरह अकेले रहना कितना कठिन है, यह रह कर ही जान सका हूं. इच्छा होती है कि वापस लौट जाऊं, किंतु शांता को मेरा वहां रहना पसंद नहीं. क्या करूं? कुछ सोच नहीं पाता. बहू में अपनी एक बेटी पाने का सपना था मेरा, जो नियति ने पूरा नहीं होने दिया.
26 जनवरी : आज सारा दिन योगेश साहब के साथ बैठ कर टीवी देखता रहा. 3 दिनों बाद उन के बेटे की शादी है, बड़े खुश थे. पत्नी के निधन के बाद आज पहली बार उन्हें दिल खोल कर हंसते देखा.
2 फरवरी : यह सप्ताह योगेश साहब के बेटे की शादी के हंगामे में कैसे बीत गया, पता भी न चला. पड़ोसी होने के नाते मेरा कर्तव्य भी था कि उन के कार्यों में हाथ बंटाऊं. वे भी तो हर समय मेरा ध्यान रखते हैं. लेकिन अब बड़ी थकान हो रही है. आज कहीं नहीं जाऊंगा.
4 फरवरी : अभीअभी मिठाई का डब्बा पकड़ा गए योगेश साहब. कहने लगे कि बहू के घर से आई है. बड़े ही खुश, खिलेखिले से दिखते हैं वे आजकल. पत्नी की मृत्यु उन्हें भी मेरी ही तरह अकेला कर गई थी. अब बहू ने आ कर घर में रौनक कर दी है. सचमुच, सुशील लड़की है, सगे पिता जैसा प्यार देती है योगेशजी को.
5 फरवरी : अब मैं होटल का खाना खा कर ऊब गया हूं. घर का बना खाना खाने की इच्छा होती है. कहा तो है कई लोगों से, शायद कोई नौकर मिल जाए. कोई छोटा सा लड़का भी मिल जाए तो मैं सब संभाल लूंगा. कभी सोचा भी न था कि यों अकेले रहना पड़ेगा मुझे. अनुभा के बिना यह घर कितना बेरौनक है.
8 फरवरी : अभीअभी सुकांत ने फोन पर बताया कि मैं दादा बन गया हूं. अकेले संभाल ही नहीं पा रहा इतनी खुशी. काश, आज अनुभा जीवित होती तो दादी बनने पर कितनी खुश होती. सुकांत के बच्चों को गोद में खिलाने की अदम्य लालसा मन में लिए ही इस दुनिया से चली गई. प्रकृति की इच्छा के आगे हम कितने विवश हैं. अब मुझे ही देखो, मैं तो जीवित हूं, फिर भी कितनी दूर हूं अपनी पोती से. तड़प रहा हूं उस नन्हीं गुडि़या को एक नजर देखने के लिए. किंतु नहीं, जब तक शांता स्वयं अपने मुंह से आने को न कहे, मुझे वहां नहीं जाना चाहिए. सबकुछ तो चला गया, केवल मुट्ठीभर स्वाभिमान ही तो शेष है. कैसे छोड़ दूं इसे भी?
11 फरवरी : अब रहा नहीं जाता, सुकांत की बच्ची को देखे बिना. कैसी होगी वह गुडि़या. जाने किस पर गई होगी. अनुभा का भी कोई गुण होगा उस में या नहीं? आज ही खत लिखता हूं सुकांत को कि आने के लिए छुट्टी का प्रबंध करे. मैं नहीं जा सकता वहां, लेकिन वे तो यहां आ कर रह सकते हैं न?
13 फरवरी : कल से लिफाफा ला कर रखा है, लेकिन सोच नहीं पा रहा कि क्या सुकांत को आने के लिए कहना ठीक होगा? इतने छोटे बच्चे के साथ सफर करना क्या कोई समझदारी होगी भला? अनुभा भी सदा यही कहती थी कि मैं हर काम में जल्दबाजी करता हूं. उस की कही सब बातें, सारी नसीहतें याद आती रहती हैं. नहीं, मुझे सब्र करना ही होगा. अभी सुकांत को आने के लिए खत लिखना ठीक नहीं.
16 फरवरी : अनुभा, तुम नहीं हो, इसलिए इस डायरी का सहारा लेना पड़ता है. इस बार के अमेरिका प्रवास ने मेरे हृदय पर जो मुहर लगाई, वह अमिट है. किंतु किस से कहूं यह सब? कैसे अपना मन हलका करूं? जो कुछ किसी से भी नहीं कह सकता, उसे कागज के इन कोरे पन्नों पर उतार कर मन को बड़ा चैन मिलता है. तुम होती तो…
अब सुकांत से और अधिक न पढ़ा गया. आंखों में आंसुओं की बाढ़ सी आ गई थी. अपने बड़ों के प्रति किया गया अपनी पीढ़ी का यह अन्याय उस के समक्ष एक चुनौती बन कर खड़ा हो गया कि क्या हक है उसे या उस की पीढ़ी को इस तरह अपने बुजुर्गों को बेसहारा छोड़ने का, उन के स्वाभिमान को ललकारने का, जिन के प्यार का खजाना अभी भी चुका नहीं है, जो बेचैन हैं किसी पर अपना प्यार लुटाने को.
क्यों इस सच को उस की पीढ़ी स्वीकार करने से कतराती है कि वे लोग नहीं जी सकते अकेले? किसी छांह की तलाश अब इन्हें भी है, थके कदमों को किसी बांह का सहारा इन्हें भी चाहिए. कहां गए वे दिन जब बच्चे अपने मातापिता की लंबी आयु की दुआएं मांगा करते थे?
और सहसा सुकांत को लगने लगा कि किसी को तो उदाहरण बनना ही है, तो फिर वही क्यों नहीं? क्या कमी है यहां उस के लिए? इस घर में रह कर तो उसे सदा यही लगेगा कि मां और बाबूजी अभी भी उस के साथ हैं, उन की निश्छल सांसों से महक रहा है सारा घर. आज तक वह कर ही क्या पाया है मां व बाबूजी के लिए?
अब यदि वह उन के यत्न से बसाए इस घर को आ कर संभाल लेगा तो क्या उन के मन को शांति नहीं मिलेगी? मराणोपरांत भी बाबूजी उस के लिए इतना पैसा बैंक में छोड़ गए हैं कि थोड़ी सी लगन व मेहनत से वह यहां दोबारा जम सकता है, अपना नया कारोबार शुरू कर सकता है. अच्छाभला घर है, पैसा भी है. फिर सोचना कैसा?
इन विचारों से प्रभावित होते ही विदेश की उस मिट्टी से सुकांत को न जाने कैसी वितृष्णा हो उठी. उसे लगा अपनी नन्हीं बच्ची को जल्दी से जल्दी अपनी धरती पर ले आए. नहीं तो संबंधों की यह मधुरिमा उस के रक्त में घुल नहीं सकेगी. उस पराए देश में पलबढ़ कर शायद वह भी सुकांत के साथ कल यही करेगी, जो सुकांत ने अपने मातापिता के साथ किया. सुकांत कांप उठा कि नहीं, ऐसा अनर्थ नहीं होने देगा वह.
ऊपर जा कर सुकांत ने अलमारी खोली और बड़े यत्न से बाबूजी की डायरी संभाल कर वापस उस में रख दी. यह उस के लिए अब बाबूजी की दी हुई वह अनमोल निशानी थी जिस ने उस का सही मार्गदर्शन किया.
कल को उस की अपनी बेटी बड़ी हो कर अगर उस से यह सवाल करेगी कि वह अमेरिका छोड़ कर भारत में रहने के लिए वापस क्यों आया, तो वह डायरी उसे पढ़ने के लिए देगा. तब अपने दादादादी को खो कर उस का बचपन अधूरा रह गया, यह दुख उसे भी सालेगा और तब शायद सुकांत अपनी बेटी की बांहों में मुंह छिपा कर रो सकेगा. अपने हृदय पर सालोंसाल चढ़ती दुख की परतों को एकएक कर उतार फेंकेगा.
सुकांत जानता था कि उस के इस फैसले को शांता आसानी से स्वीकार नहीं करेगी, अपनी ताकत से पूरा विरोध करेगी. किंतु सुकांत का निश्चय अब अटल था कि नहीं, वह नहीं बेचेगा इस मकान को, यहीं वापस आएगा वह, जल्दी से जल्दी हमेशाहमेशा के लिए. यही सच्चा आदरसम्मान होगा उस का अपने मातापिता के प्रति.
‘‘और यदि दोनों ही न रूठें तो?’’ दादू के दिमाग में खिचड़ी पक रही थी. उन्होंने बृजलाल से अपना आइडिया बांटा. उन के कहने पर झूमुर ने उसी शाम परिवार वालों के लिए फिल्म की टिकटें मंगवा दीं. जब सभी खुशीखुशी फिल्म देखने चल पड़े तो अचानक दादू ने तबीयत नासाज होने की बात कर अपने संग राधेश्याम और बृजलाल को घर में रोक लिया. अब सब जा चुके थे. सो, दादू चैन से अपने दोनों बेटों से बात कर सकते थे. ‘‘देखो भाई, मुझे तुम दोनों से एक बहुत ही गंभीर विषय में बात करनी है. मेरी एक समस्या है और इस का उपाय तुम दोनों के पास है,’’ कहते हुए उन्होंने पूरी बात राधेश्याम और बृजलाल के समक्ष रख दी. दोनों मुंह खोले एकदूसरे को ताकने लगे. इस से पहले कि कोई कुछ बोलता, दादू आगे बोले, ‘‘मैं पहले ही एक पोती को अपनी जिंदगी से खो चुका हूं सिर्फ इसी सिलसिले में. झूमुर मेरी सब से प्यारी पोती है और सब जानते हैं सूद असल से प्यारा होता है. मैं नहीं चाहता हूं कि झूमुर को भी खो दूं या हमारी झूठी शान और इज्जत के चक्कर में झूमुर अपनी हंसीखुशी खो बैठे. इस परेशानी का हल तुझे निकालना है राधे, और वह भी ऐसे कि किसी को कानोंकान खबर न हो.’’
‘‘मैं, पिताजी?’’ राधेश्याम हतप्रभ रह गए. एक तो विधर्म विवाह की बात से वे परेशान थे, ऊपर से पिताजी इस का हल निकालने का बीड़ा उन्हें ही दे बैठे थे.
‘‘बस, यह समझ ले कि मेरे परिवार के हित में मेरी यह आखिरी इच्छा है. मेरी पोती की खुशी और घरपरिवार की इज्जत-दोनों का खयाल रखना है,’’ पिताजी की आज्ञा सर्वोपरि थी.
राधेश्याम ने बहुत सोचा-पहले तो बृजलाल से आंखोंआंखों में मूक शिकायत की लेकिन उस की झुकी गरदन के आगे वे भी बेबस थे. दोनों भाइयों ने मिल कर सोचा कि रिदम के परिवार से मिला जाए और आगे की बात तय की जाए. परिवार के बाकी सदस्यों को बिना खबर किए दोनों दूसरे शहर रिदम के घर चले गए. वहां बातचीत वगैरा हो गई और अपने घर लौट कर दोनों भाइयों ने बताया कि एक अच्छा रिश्ता मिल गया. सो, बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां आरंभ हो गईं.
किंतु रिश्तेदारों से कोई बात छिपाना ऐसे है जैसे धूप में बर्फ जमाना. रिश्तेनाते मकड़ी के जालों की भांति होते हैं. बड़े ताऊजी ने बूआ को कह डाला, साथ ही ताकीद की कि वह आगे किसी से कुछ नहीं बताएगी. बूआ के पेट में मरोड़ उठी तो उन्होंने अपनी बेटी को बता दिया. और सब रिश्तेदारों में बात फैल गई कि यह रिश्ता झूमुर की पसंद का है, तथा लड़का ईसाई है लेकिन सभी चुप थे. यह बवाल अपने सिर कौन लेता कि बात किस ने फैलाई.
बड़े संयुक्त परिवारों की यह खासीयत होती है कि मुंह के सामने ‘हम साथसाथ हैं’ और पीठ फिरते ही ‘हम आप के हैं कौन?’ सभी रिश्तेदार शादी वाले घर में एकदूसरे का काम में हाथ बंटवाते, स्त्रियां बढ़चढ़ कर रीतिरिवाज निभाने में लगी रहतीं, कोई न कोई रिवाज बता कर उलझउलझाती रहतीं परंतु जहां मौका पड़ता, कोई न कोई कह रहा होता, ‘‘अब हमारे बच्चों पर इस का क्या असर होगा, आखिर हम कैसे रोक पाएंगे आगे किसी को अपनी मनमानी करने से. ऐसा ही था तो छिपाने की क्या आवश्यकता थी. बेचारी रेणु के साथ ऐसा क्यों किया था फिर…’’
दादू के कानों में भी खुसुरफुसुर पड़ गई. यह तो अच्छा नहीं है कि पता सब को है, सब पीठ पीछे बातें भी बना रहे हैं किंतु मुंह पर मीठे बने हुए हैं. दादू को पारिवारिक रिश्तों में यह दोगलापन नहीं भाया. उन के अनुभवी मस्तिष्क में फिर एक विचार आया किंतु इस बार उन्होंने स्वयं ही इसे परिणाम देने की ठानी. न किसी दूसरे को कुछ करने हेतु कहेंगे, न वह किसी और से कहेगा, और न ही बात फैलेगी.
नियत दिन पर बरात आई. धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. फिर कुछ ऐसा हुआ जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. अचानक विवाह समारोह में एक व्यक्ति आए हाथ में रजिस्टर कलम पकड़े. उन के लिए एक कुरसी व मेज लगवाई गई. और दादू ने हाथ में माईक पकड़ घोषणा करनी शुरू कर दी, ‘‘मेरी पौत्री के विवाह में पधारने हेतु आप सब का बहुतबहुत आभार…आप सब ने मेरी पौत्री को पूरे मन से आशीष दिए. हम सब निश्चितरूप से यही चाहते हैं कि झूमुर तथा रिदम सदैव प्रसन्न रहें. इस अवसर पर मैं आप सब को एक खुशखबरी और देना चाहता हूं. मेरा परिवार इस पूरे शहर में, बल्कि आसपास के शहरों में भी काफी प्रसिद्ध श्रेणी में आता है किंतु मेरे परिवार के ऊपर एक कलंक है, अपनी एक बेटी की इच्छापालन न करने का दोष. आज मैं वह कलंक धोना चाहता हूं. हम कब तक अपनी मर्यादाओं के संकुचित दायरों में रह कर अपने ही बच्चों की खुशियों का गला घोंटते रहेंगे? जब हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षादीक्षा प्रदान करते हैं तो उन के निर्णयों को मान क्यों नहीं दे सकते?’’
‘‘मेरी झूमुर ने एक ईसाई लड़के को चुना. हमें भी वह लड़का व उस का परिवार बहुत पसंद आया. और सब से अच्छी बात यह है कि न तो झूमुर अपना धर्म बदलना चाहती है और न ही रिदम. दोनों को अपने संस्कारों, अपनी संस्कृतियों पर गर्व है. कितना सुदृढ़ होगा वह परिवार जिस में 2-2 धर्मों, भिन्न संस्कृतियों का मेल होगा. लेकिन कानूनन ऐसी शादियां सिविल मैरिज कहलाती हैं जिस के लिए आज यहां रजिस्ट्रार साहब को बुलाया गया है.’’
दादू के इशारे पर झूमुर व रिदम दोनों रजिस्ट्रार के पास पहुंचे और दस्तखत कर अपने विवाह को कानूनी तौर पर साकार किया.
इस प्रकार खुलेआम सारी बातें स्पष्ट रूप से कहने और स्वीकारने से रिश्तेदारों द्वारा बातों की लुकाछिपी बंद हो गई तथा आगे आने वाले समय के लिए भी बात खुलने का डर या किसी प्रकार की शर्मिंदगी का प्रश्न समाप्त हो गया. दादू की दूरंदेशी और समझदारी ने न केवल झूमुर के निर्णय की इज्जत बनाई बल्कि परिवार में भी एकरसता घोल दी. पूरे शहर में इस परिवार की एकता व हौसले के चर्चे होने लगे. विदाई के समय झूमुर सब के गले मिल कर रो रही थी. किंतु दादू के गले मिलते ही, उन्होंने उस के कान में ऐसा क्या कह दिया कि भीगे गालों व नयनों के बावजूद वह अपनी हंसी नहीं रोक पाई. जब मियांबीवी राजी तो क्यों करें रिश्तेदार दखलबाजी.
एक दिन मां ने हमें दीपक के साथ गेंद खेलते देख लिया. वे उसी समय अपने पास बुला कर पूछने लगीं, ‘‘उधर क्यों गए थे? क्या कर रहे थे?’’ ‘‘कुछ नहीं मां, हमारी गेंद वहां गिर गई थी,’’ मैं ने बहाना बनाया. ‘‘अच्छा… इधर थोड़ा आंगन है खेलने को?’’ मां ने हमें झिड़क दिया था. फिर समझाते हुए बोलीं, ‘‘चलो, अच्छे बच्चे उधर नहीं जाते.’’
दीपक सहम गया था और हैरानी से मां को देखने लगा था. मुझे भी उन की बातें समझ में नहीं आ रही थीं कि आखिर ये जातपांत है क्या बला? समाज में यह ऊंचनीच, यह भेदभाव की दीवार क्यों है? दीपक पढ़ाई में बहुत तेज था, इसलिए मैं हमेशा उस की तारीफ करती.
मैं उस से दोस्ती तोड़ नहीं पाई. घर वालों की मुखालफत के बावजूद हम गहरे दोस्त बन गए. दीपक के पास फटीपुरानी किताबें होती थीं. वह अपना काम करने के लिए कई बार मुझ से किताबें मांगता और मैं उसे खुशी से दे देती.
कभीकभी मैं भी चोरीछिपे उस के कमरे में चली जाती और हम दोनों इकट्ठे पढ़ते रहते.सर्दी के दिनों में दीपक पतले कपड़ों में ठिठुरता रहता. तब उस की मां मेरे मातापिता से मनोज के पुराने कपड़े मांगती. मां मनोज के कपड़े उसे दे देतीं.
उन ढीलेढाले कपड़ों को पहन कर दीपक की सुंदरता में और भी निखार आ जाता था. उस की जरूरत की थोड़ीबहुत चीजें मैं भी चोरीछिपे उसे दे देती, तब वह बारबार मेरा शुक्रिया अदा करता. एक बार मैं उसे अपने कमरे में ले आई, तभी दादीजी पता नहीं उधर कहां से निकल आईं.
दीपक को वहां देख कर वे आगबबूला हो गईं और उसे डांटती हुई बोलीं, ‘‘अरे, यहां तेरा क्या काम है? यहां क्यों आया है?’’ दीपक की घिग्घी बंध गई. वह डर गया. दादीजी उस के कान मरोड़ते हुए बोलीं, ‘‘चल, भाग यहां से… दोबारा कभी इस कमरे में आया तो तेरी टांगें तोड़ दूंगी.’’ दादीजी उसे कान से खींचते हुए बाहर तक ले गईं, जहां पार्वती काम कर रही थी.
उस से जा कर बोलीं, ‘‘अरे पार्वती, अपने इस लाड़ले को समझा कर रखा करो, ऐसे ही कमरों में घुस जाता है.’’ पार्वती ने दीपक को झिड़का, फिर दादीजी से हाथ जोड़ कर कहने लगी, ‘‘बीबीजी, माफी दे दो, अभी बच्चा है. समझता नहीं…’’ ‘‘आगे से ऐसी गुस्ताखी नहीं होनी चाहिए,’’ दादीजी ने चेतावनी दी थी. ‘‘जी, अच्छा…’’ पार्वती ने अपनी जान छुड़ाई थी.
दादीजी ने फिर मुझे भी लताड़ा था, ‘‘तू क्यों आने देती है री इसे? खबरदार जो इसे यहां घुसने दिया.’’ उस दिन के बाद से दीपक दादीजी और मां से डरने लगा. खुद तो हमारे कमरों में कदम नहीं रखता था, परंतु जब कभी मैं उस के कमरे में जाती तो डरते हुए कह उठता, ‘‘आशा, तुम यहां न आया करो. तुम्हें मेरी वजह से दादीजी से मार पड़ जाएगी.’’ मैं हंस कर उस की बात टाल देती थी.
धीरेधीरे वक्त गुजरता रहा. हम दोनों 8वीं क्लास में पहुंच गए. दीपक की मां पार्वती बहुत मेहनत करती. वह सुबह से ले कर देर रात तक काम करती रहती. एक दिन अचानक ही दिल का दौरा पड़ने से वह चल बसी. दीपक के लिए यह गहरा सदमा था.
वह दीवार से टक्करें मारमार कर रोया था. हम सभी उसे तसल्ली दे रहे थे कि वह हमारे घर में ही रहेगा. दीपक पूरे जिले में अव्वल आया था, इसलिए उसे अब वजीफा मिलने लगा था. कुछ रुपया उस की मां ने भी उस के नाम पर बैंक में जमा कर रखा था.
इस तरह उस की पढ़ाई का खर्च चल पड़ा. दादीजी और मां का 2 बरस तक उस के साथ ठीक बरताव रहा, परंतु जैसेजैसे वह बड़ा होता जा रहा था, उन के बरताव में बदलाव होता चला गया. उन्हें अब दीपक एक आंख नहीं भाता था. वे चाहती थीं कि वह हमारा घर छोड़ कर कहीं और चला जाए, ताकि कमरा खाली करवाया जा सके.
एक दिन सभी लोग घूमने के लिए बाजार चले गए थे. घर में मैं और मनोज ही थे. मैं दीपक को अपने कमरे में ले आई. हम तीनों काफी देर तक बातचीत करते रहे, उस के बाद हम उसे खाना खिलाने के लिए रसोई में ले गए. उसी समय दादीजी, मां और पिताजी जल्दी ही बाजार से घर लौट आए और हमें इकट्ठे खाना खाते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया.
‘तो मैं क्या करूं? मुझे भी तो घूमने के कभीकभी ही अवसर मिलते हैं,’ शांता का रोषपूर्ण स्वर था.
और अधिक सुनने का साहस न था दीनानाथजी में. सो, कमरे का दरवाजा बंद कर हाथ की किताब रख दी और बत्ती बुझा कर सोने की चेष्टा करने लगे. किंतु कहां थी नींद आंखों में? बंद भीगी पलकों में वे सुनहरे छायाचित्र तैर रहे थे, जो पत्नी के साथ बिताए 40 वर्षों की देन थे.
अपना एकाकीपन आज उन्हें बुरी तरह झकझोर गया. फिर भी स्वाभिमान के धनी थे. इसलिए सुबह होते ही सुकांत से अपने वापस जाने की इच्छा प्रकट की. किंतु सुकांत अटल था अपने निश्चय पर कि बाबूजी यहीं रहेंगे. सो, वे वहीं रहे. सुकांत अकेला ही जरमनी गया. सुकांत के बिना वह पूरा 1 महीना दीनानाथजी ने लगभग मौनव्रत रख कर ही काटा.
और फिर एक दिन उन के दांत में बेहद दर्र्द होने लगा. सारा दिन दर्द से तड़पते रहे. अपने देश में तो दंतचिकित्सक था, जो एक फोन करते ही उन्हें आ कर देख जाता था. दवा तक खरीदने जाना नहीं पड़ता था. वही खरीद कर भिजवा देता था. किंतु यहां? यहां तो वे असहाय से मफलर से मुंह लपेटे दफ्तर से सुकांत के घर लौटने का इंतजार करते रहे. यहां न तो वे गाड़ी चला सकते थे और न ही उन्हें किसी डाक्टर का पता मालूम था.
शाम को सुकांत लौटा तो बाबूजी का सूजा हुआ गाल देख कर सब समझ गया. पिता को गाड़ी में बिठा कर तुरंत दंतचिकित्सक के पास ले गया. 80 डौलर ले कर डाक्टर ने उन्हें देखा और फिर आगे के स्थायी इलाज के लिए लगभग 3,000 डौलर का खर्चा सुना दिया. दवा आदि ले कर जब सुकांत बाबूजी के साथ घर लौटा तो उस का चेहरा खिलाखिला सा था कि बाबूजी को अब आराम आ जाएगा.
किंतु रात को खाने की मेज पर बैठे दलिया खा रहे दीनानाथजी से शांता कह ही उठी, ‘बाबूजी, आप को भारत से स्वास्थ्य संबंधी बीमा पौलिसी ले कर ही आना चाहिए था. अब देखिए न, अभी तो डाक्टर ने 80 डौलर सिर्फजांच करने के ही ले लिए, इलाज में कितना खर्च होगा, कुछ पता नहीं.’
‘बस करो शांता,’ सुकांत कड़े स्वर में बोला, ‘यह मत भूलो कि बाबूजी अपना टिकट खुद खरीद कर आए हैं, तुम से नहीं मांगा है…’
‘तुम भी यह मत भूलो सुकांत कि जो पैसा बाबूजी पर खर्च हो रहा है, वह आखिरकार हमारा है,’ तलवार की धार जैसे इस एक ही वाक्य से दीनानाथजी का सीना चीर कर बहू उठ खड़ी हुई और अपने कमरे में जा कर झटके से दरवाजा बंद कर लिया.
सुकांत स्तब्ध रह गया. शांता के इस लज्जाजनक व्यवहार की तो उस ने कभी कल्पना भी न की थी. दीनानाथजी खामोश, मुंह झुकाए अपमानित से बैठे रहे. बात का रुख यह मोड़ लेगा, उन्हें उम्मीद न थी.
दूसरे दिन सुकांत को अकेला पा कर दीनानाथजी ने उस से अपने वापस लौटने की इच्छा जाहिर की. न चाहते हुए भी सुकांत को उन के निश्चय के आगे झुकना पड़ा. सो, भारत जा रहे अपने एक मित्र के साथ उन के वापस लौटने का प्रबंध कर दिया.
70 वर्ष की आयु में दीनानाथजी ने अपने इस एकाकी जीवन का एक नया अध्याय शुरू किया. घर में सबकुछ यथास्थान था. पत्नी घर को सदा ही सुव्यवस्थित रखती थी. बैंक में पैसा था और पैंशन भी आती थी. फिर किसी बात की दिक्कत क्यों होगी भला?
यही सब सोचते हुए उन्होंने यारदोस्तों से एक छोटे नौकर के लिए भी कह छोड़ा. किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था.
6 महीने भी न निकल पाए, वे अकेले टूट से गए थे. बहुत सालता था यह एकाकी जीवन. पढ़नेलिखने के शौकीन थे, सो, किताबें पढ़ कर कुछ समय कट जाता था. किंतु आखिर कोई बोलने वाला भी तो होना चाहिए घर में. आखिरकार उन्होंने डायरी लिखनी शुरू की और डायरी के पहले पन्ने पर लिखा, ‘सुकांत व शांता के नाम.’
अंत्येष्टि के सारे कामों से फुरसत पाने के बाद सुकांत को ध्यान आया कि बैंक व घर के कागजों को भी संभालना है. सभी चीजें बड़ी वाली अलमारी में बंद होंगी, वह जानता था. सारे कागज संभालना मां की जिम्मेदारी थी और बाबूजी उन के द्वारा रखी चीजों की जगह को कभी नहीं बदलते थे, यह भी वह जानता था. अलमारी की चाबी उसे पहले की ही तरह एक कागज के लिफाफे में लिपटी मिली. ‘कुछ भी तो नहीं बदला यहां,’ सुकांत सोचता रहा कि सबकुछ वैसा ही है. उस की मां नहीं बदली, बाबूजी नहीं बदले. बदल गया तो केवल वह खुद. और अब पहली बार सुकांत अकेले में फूटफूट कर रोया. घर की सूनी दीवारों ने मानो उसे अपने सीने में समेट लिया.
दूसरे दिन सुबह शांता का फोन आ गया, ‘‘कैसे हो? सब ठीक तो है न? फोन भी नहीं किया तुम ने?’’
‘‘सब ठीक है,’’ सुकांत का दोटूक जवाब था.
‘‘अरे, बोल कैसे रहे हो?’’ आदत के मुताबिक झल्ला उठी शांता, ‘‘हुआ क्या है तुम्हें?’’
‘‘कुछ नहीं,’’ सुकांत अपनेआप पर नियंत्रण रखे था.
‘‘तो फिर,’’ शांता के स्वर में बेचैनी थी, ‘‘जल्दी ही सब काम निबटा कर वापस आने की कोशिश करो. बैंक के खाते और मकान के कागज तुम्हारे नाम हुए कि नहीं? बाबूजी की वसीयत तो होगी?’’
सुकांत ने बिना उत्तर दिए फोन रखदिया. विरक्ति से भर उठा वह. उस का हृदय मानो हाहाकार कर रहा था कि कैसी है यह स्त्री, जिसे पैसे के सिवा कुछ और दिखाई ही नहीं देता और क्यों वह स्वयं इतना कमजोर बन गया कि उस ने कभी शांता के इन विचारों पर अंकुश नहीं लगाया. इस भयावह स्थिति का जिम्मेदार वह खुद को मान रहा था.
सुकांत का सिर दर्द से फट रहा था. रिश्तेदार सब अपनेअपने घर चले गए थे, बल्कि सच तो यह था कि सुकांत ने ही हाथ जोड़ कर उन से विनती की थी कि उसे अकेला छोड़ दिया जाए. कुछ को बुरा भी लगा, किंतु विरोध नहीं किया किसी ने भी. विदेश में बसे लोगों की मानसिकता कुछ भिन्न हो जाती है और यदि साफ शब्दों में कहें तो कुछ ऐसा कि उन का खून सफेद हो जाता है, यही मान कर चुपचाप चले गए सब.
जातेजाते चाची ने खाने के लिए भी पूछा, किंतु सुकांत ने मना कर दिया. पर अब एक प्याला चाय या कौफी चाहिए थी उसे, सो रसोई में चला गया. कौफी तो थी ही नहीं, क्योंकि मांबाबूजी चाय ही पीते थे. चीनी व चाय की पत्ती 2 डब्बों में मिल गई. दूध नहीं था. सो, बिना दूध की चाय ही बना ली. फिर रसोई में पड़े स्टूल पर बैठ गया.
उसे अच्छी तरह याद था कि मां रसोई में काम करती रहती थीं और बाबूजी इसी स्टूल पर बैठे उन से बातें करते हुए उन का हाथ बंटाने की कोशिश करते रहते. एक हूक सी उठी सुकांत के हृदय में… कितने अच्छे थे वे दिन…अपनेआप में परिपूर्ण और जीवंत. उसे लगा कि अब वह एक बनावटी जिंदगी जी रहा है.
चाय पी कर सुकांत का मन कुछ हलका हुआ तो उस ने यह सोच कर अलमारी खोली कि आखिर कागजों का काम तो निबटाना ही होगा. बड़ीबड़ी 2 फाइलों में बाबूजी ने सारे कागज सिलसिलेवार लगा रखे थे. उन्हीं कागजों में उन की वसीयत भी थी. वैसे वसीयत की कोई खास आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि सुकांत अपने मातापिता की अकेली संतान था. किंतु दीनानाथजी की आदत हर काम को पक्के तौर पर करने की थी. आगेपीछे बहुत रिश्तेदार थे और सुकांत उतनी दूर विदेश में…किसी का क्या भरोसा?
दीपक को सरकारी अफसर की कुरसी पर देख कर आशा हैरान रह गई. वह जाति से दलित था और उन के यहां काम करने वाली नौकरानी का बेटा. आशा की दादी को दीपक एक आंख नहीं भाता था. उसे देखते ही उन का धर्म भ्रष्ट हो जाता था.
आज दीपक ने आशा से ऐसी बात कह दी कि… उन दिनों मैं नौकरी के लिए दौड़धूप कर रही थी. इसी सिलसिले में कचहरी में मुझे एक अफसर से मिलना था. मैं जब उन के कमरे में गई तो सामने कुरसी पर एक गोरेचिट्टे, हैंडसम आदमी को बैठे हुए पाया. मैं ने उन्हें नमस्कार किया और अपने कागज उन की मेज पर रख दिए.
मैंने देखा, उन की नजर मुझ पर ही टिकी थी, जैसे मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हों. गौर से देखने पर खुद मुझे भी उन का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा, जैसे हम बहुत समय तक एकसाथ रहे हों, परंतु मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था. ‘‘आप… आप आशाजी हैं न?’’ उन्होंने हैरानी और खुशी भरी आवाज में पूछा. ‘‘हां,’’ मुझे अब कुछकुछ याद आने लगा था, ‘‘और… तुम शायद दीपक हो,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया था.
मैं हैरानी से उसे देख रही थी. गुजरे वक्त की कई बातें मुझे याद आने लगी थीं. तभी दीपक किसी से मिलने बाहर चला गया और मैं सोच में डूब गई. दीपक हमारी नौकरानी का लड़का था, जो कई सालों तक हमारे साथ रहा था. मैं अपने दिमाग पर जोर दे कर याद करने लगी.
उस दिन दीपक पहली बार हमारे घर आया था. सर्दियों के दिन थे. उस दिन दोपहर को मैं, मेरा भाई मनोज, मां और दादीजी बाहर बैठे धूप का मजा ले रहे थे, तभी एक अधेड़ औरत अपने 7-8 साल के लड़के के साथ हमारे घर आई. उस ने हाथ जोड़ते हुए मां से कहा, ‘‘मुझे साहब ने भेजा है.’’ ‘‘किसलिए…?’’ मां के साथ हम सब की सवालिया नजरें उस की ओर उठ गई थीं. ‘‘बीबीजी, मुझे अपने घर में नौकरानी रख लो. मैं बहुत गरीब हूं,’’ उस ने गुजारिश की. सचमुच हमें एक नौकरानी की जरूरत थी, इसलिए पिताजी ने उसे घर भेजा था.
सांवले से रंग की वह औरत ईमानदार और मेहनती लग रही थी. मां और दादीजी ने उस का अच्छी तरह जायजा लिया. फिर दादीजी ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ ‘‘पार्वती,’’ उस ने जवाब दिया. ‘‘जात क्या है?’’ ‘‘दलित.’’ यह सुन कर दादीजी ने नाकभौं सिकोड़ ली थी और मां से कहने लगी थीं, ‘‘इनकार कर दे बहू… और बहुत मिल जाएंगी…’’ यह सुनते ही पार्वती मां के चरणों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगी थी, ‘‘बीबीजी, मुझ पर दया करो. मैं कहां दरदर ठोकरें खाती फिरूंगी.
जब से दीपक के बापू इस दुनिया से गए हैं, तब से ये बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं. ‘‘मैं आप के घर में पूरी मेहनत से काम करूंगी और कभी भी आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी. मेरे इस बच्चे पर तरस खाओ, हम भूखे मर जाएंगे…’’ मां को पार्वती पर दया आ गई थी.
उसे घर में नौकरानी रख लिया गया और रहने के लिए पीछे वाला कमरा दे दिया गया. उसी दिन से पार्वती ने घर का काम अपने हाथों में संभाल लिया था. परंतु दादीजी जातपांत के मामलों में बहुत सख्त थीं और उसी तरह की सीख दे कर उन्होंने मां को भी अपने जैसा बना लिया था, इसलिए पार्वती सिर्फ निचली मंजिल पर ही काम करती थी.
दादीजी ऊपर की दोनों मंजिल पर उसे फटकने तक नहीं देती थीं. अगर कभी गलती से वहां उस का पैर पड़ जाता तो फर्श को दोबारा पानी से साफ करतीं और कमरे में इत्र वगैरह छिड़कतीं. पार्वती से शरीर छू जाने पर दादीजी दोबारा नहातीं. जब पार्वती जूठे बरतन धो कर रखती तो उन्हें दोबारा साफ पानी से धो कर रसोई में रखतीं.
दादीजी ने मुझे और मनोज को भी अपने सख्त कायदेकानूनों की कैद में जकड़ रखा था. दीपक को तो हमारे घर के भीतर आने की सख्त मनाही थी, परंतु हमें भी उन के कमरे की ओर नहीं जाने दिया जाता था, इसलिए दीपक वहां अकेला, गुमसुम सा बैठा रहता और बेचारगी से हमारी ओर ताकता रहता. हम भी उसे नफरत भरी नजरों से देखते.
3-4 दिन के बाद मनोज ने मुझे बताया था, ‘‘आशा, यह पढ़ता भी है…’’ ‘‘किस क्लास में?’’ मैं ने पूछा. ‘‘दूसरी में… इस की मां आज इसे हमारे स्कूल में दाखिल करा आई है…’’ मैं हैरान रह गई थी. मैं भी दूसरी क्लास में ही पढ़ती थी. दीपक मुझ से तकरीबन एक साल बड़ा था. अब मनोज मुझे बारबार चिढ़ाता और छेड़ता रहता, ‘‘आशा, अब मेरे साथ स्कूल न जाया करो. वह तेरे साथ पढ़ता है, उसी के साथ चली जाया करो. मैं अपने दोस्तों के संग जाया करूंगा.’’
जब मैं कभीकभी उस की इस बात पर रोने लग जाती तो वह कहता, ‘‘अरी आशा, मेरी प्यारी बहन, मैं तो मजाक कर रहा था.’’ दीपक गोलमटोल चेहरे वाला खूबसूरत लड़का था. अगर उसे मनोज की तरह अच्छे कपड़े पहनने को मिलते तो लोग उसे नौकरानी का नहीं, किसी बड़े अफसर का लड़का समझते. पढ़ने में भी वह बहुत अच्छा था, क्लास में सब से पहले सवाल हल कर के मास्टरजी को दिखाता था. हम दीपक से दोस्ती करना चाहते थे, परंतु कोई तरीका नहीं सूझ रहा था.
एक दिन जब मैं और मनोज आंगन में गेंद खेल रहे थे तो मैं ने जानबूझ कर गेंद को दीपक के कमरे की ओर उछाल दिया. दीपक ने कमरे के अंदर से गेंद को ला कर मुझे लौटा दिया. मैं ने मुसकरा कर उस का शुक्रिया अदा किया. उस के बाद यह रोज का ही काम हो गया.
हम आंगन में जब गेंद खेलते, तो उसे उठा कर दीपक के कमरे की ओर फेंक देते और छिपछिप कर उस के कमरे के भीतर देखने की कोशिश करते. कुछ दिनों के बाद दीपक भी हमारा साथी बन गया. स्कूल में भी हम इकट्ठे ही रहते थे.
15 वर्ष हो चुके थे उसे विदेश में रहते. इसलिए इन खोखली औपचारिकताओं से उसे सख्त परहेज था. चाचा से मालूम हुआ कि अंतिम संस्कार के लिए रुपयों का प्रबंध करना है, दीनानाथजी की जेब से कुल 270 रुपए मिले हैं और अलमारी में ताला बंद है, जिसे खोलने का हक केवल सुकांत को है.
पड़ोस के घर से चाय बन कर आ गई थी, किंतु सुकांत ने पीने से मना कर दिया. अपने बाबूजी के मृतशरीर के पास खामोश बैठा उन्हें देखता रहा. उन के ढके चेहरे को खोलने का उस में साहस नहीं हो रहा था. जिस जीवंत पुरुष को सदा हंसतेहंसाते ही देखा हो, उस का भावहीन, स्पंदनहीन चेहरा देखने की कल्पना मर्मांतक थी. सुकांत ने अपने बटुए से 200 डौलर निकाल कर चाचा के हाथ में रखते हुए कहा, ‘‘इन्हें आप बैंक से रुपयों में भुना कर अंतिम संस्कार के सामान का इंतजाम कर लीजिए.’’
‘‘तुम नहीं चलोगे सामान लेने?’’
‘‘आप ही ले आइए, चाचा,’’ सिर झुकाए धीमे स्वर में बोला सुकांत.
‘‘ठीक है,’’ कह कर चाचा पड़ोस के व्यक्तियों को साथ ले कर चले गए.
घर में घुसने के बाद से ले कर अब तक पलपल सुकांत को मां का चेहरा हर ओर नजर आ रहा था. अपने बचपन को यहीं छोड़ कर वह जवानी की जिस अंधीदौड़ में शामिल हो विदेश जा बसा था, वह उसे बहुत महंगी पड़ी. लेकिन कभीकभी अपने ही लिए फैसलों को बदलना कितना कठिन हो जाता है.
पास ही बैठी चाची बीचबीच में रो पड़ती थीं. किंतु सुकांत की आंखों में आंसू नहीं थे. वह एक सकते की सी हालत में था. 2 वर्षों पूर्व जब मां का देहांत हुआ था तो वह आ भी न पाया था. अंतिम बार मां का मुख न देख पाने की कसक अभी भी उस के हृदय में बाकी थी. उस समय वह ट्रेनिंग के सिलसिले में जरमनी गया हुआ था. पत्नी भी घूमने के लिए साथ ही चली गई थी. दीनानाथजी फोन पर फोन करते रहे. घंटी बजती रहती पर कौन था जो उठाता. खत और तार भी अनुत्तरित ही रहे.
पत्नी के शव को बर्फ की सिल्लियों पर रखे 2 दिनों तक दीनानाथजी प्रतीक्षा करते रहे कि शायद कहीं से सुकांत का कोई संदेश मिले. फिर निराश, निरुपाय दीनानाथजी ने अकेले ही पत्नी का दाहसंस्कार किया और खामोशी की एक चादर सी ओढ़ ली.
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जरमनी से वापस आ कर जब सुकांत को अपने बाबूजी का पत्र मिला तो वह दुख के आवेग में मानो पागल हो उठा कि यह क्या हो गया, कैसे हो गया. उस के दिमाग की नसें मानो झनझना उठीं. मां के प्रति बेटा होने का अपना फर्ज भी वह पूरा न कर पाया. उस का हताश मन रो उठा. किंतु अब भारत जाने का कोई अर्थ नहीं बनता था. सो, एक मित्र को उस के घर पर फोन कर के सुकांत ने उस से आग्रह किया कि वह वापसी में बाबूजी को अपने साथ ले आए. न चाहते हुए भी दीनानाथजी चले गए.
बेटे का आग्रह ठुकरा न सके. पत्नी के इस आकस्मिक निधन पर अपनेआप को बहुत असहाय सा पा रहे थे. बेटे के पास पहुंच उस की बांहों में मुंह छिपा कर रो लेने का मन था उन का. बेटे के सिवा और कौन बांट सकता था उन के इस दुख को?
चले तो गए, किंतु वहां अधिक दिन रह न सके. बुढ़ापे की कुछ अपनी समस्याएं होती हैं, जिस तरह बच्चों की होती हैं. पहले तो हमेशा पत्नी साथ होती थी, जो उन की हर जरूरत का ध्यान रखती थी. किंतु अब कौन रखता? सुबह 4 बजे जब आंख खुलती और चाय की तलब होती तो चुपचाप मुंह ढांप कर सोए रहते.
पत्नी साथ आती थी तो बिना आहट किए दबे पांव जा कर रसोई से चाय बना कर ले आती थी. किंतु अब जब एक बार उन्होंने खुद सुबह चाय बनाने की कोशिश की थी तो बरतनों की खटपट से बेटाबहू दोनों जाग कर उठ आए थे और दीनानाथजी संकुचित हो कर अपने कमरे में लौट गए थे. फिर दोपहर होते न होते बड़े तरीके से बहू ने उन्हें समझा भी दिया, ‘बाबूजी, मैं उठ कर चाय बना दिया करूंगी.’
और उस के बाद दीनानाथजी ने दोबारा रसोई में पांव नहीं रखा. बहू कितनी भी देर से सो कर क्यों न उठे, वे अपने कमरे में ही चाय का इंतजार करते रहते थे.
सुकांत अपने काम में अत्यधिक व्यस्त रहता था. घर में दीनानाथजी बहू के साथ अकेले ही होते थे. उन की इच्छा होती कि बेटी समान बहू उन के पास बैठ कर दो बातें करे क्योंकि पत्नी की मृत्यु का घाव अभी हरा था और उसे मरहम चाहिए था, किंतु ऐसा न हो पाता. 2-4 मिनट उन के पास बैठ कर ही बहू किसी न किसी बहाने से उठ जाती और दीनानाथजी अपनेआप को अखबार व किताबों में डुबो लेते. वे परिमार्जित रुचियों के व्यक्ति थे. बेटे ने भी उन से विरासत में शालीन संस्कार ही पाए थे. सो, किताबों से कितनी ही अलमारियां भरी पड़ी थीं.
अपने दफ्तर की ओर से सुकांत को फिर 1 महीने के लिए जरमनी जाना था और सदा की तरह इस बार भी उस की पत्नी शांता साथ जाना चाहती थी. वह सुकांत के बिना 1 महीना रहने को तैयार न थी. रात की निस्तब्धता में दीनानाथजी के कानों में बहू एवं सुकांत के बीच चल रही तकरार के कुछ शब्द पड़े, ‘बाबूजी को इस अवस्था में यहां अकेले छोड़ना उचित है क्या?’ सुकांत का स्वर था.
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बंद कमरे में हुई बाबू दीनानाथ की मृत्यु रिश्तेदारों व महल्ले वालों को आश्चर्य व सदमे की हालत में छोड़ गई थी. स्वभाव से ही हंसमुख व्यक्ति थे दीनानाथ. रोज सुबहसुबह ही घर के सामने से निकलते हर जानपहचान वाले का हालचाल पूछना व एकाध को घर ले आ कर पत्नी को चाय के लिए आवाज देना उन की दिनचर्या में शामिल था. पैसे से संपन्न भी थे. किंतु 2 वर्ष पूर्व पत्नी के निधन के बाद वे एकदम खामोश हो गए थे. महल्ले वाले उन का आदर करते थे. सो, कोई न कोई हालचाल पूछने आताजाता रहता. किंतु सभी महसूस करते थे कि बाबू दीनानाथ ने अपनेआप को मानो अपने अंदर ही कैद कर लिया था. शायद पत्नी की असमय मृत्यु के दुख से सदमे में थे. 70 वर्ष की आयु में अपने जीवनसाथी से बिछुड़ना वेदनामय तो होता ही है, स्मृतियों की आंधी भी मन को मथती रहती है. पीड़ा के दंश सदा चुभते रहते हैं.
जब तक पत्नी जिंदा थी, बेटे के बुलाने पर वे अमेरिका भी जाते थे, किंतु वापस लौटते तो बुझेबुझे से होते थे. जिस मायानगरी की चमकदमक औरों के लिए जादू थी, वह उन्हें कभी रास न आई. वापस अपने देश पहुंच कर ही वे चैन की सांस लेते थे. अपने छोटे से शांत घर में पहुंच कर निश्ंिचत हो जाते. किंतु अब यों उन का आकस्मिक निधन, वह भी इस तरह अकेले बंद कमरे में, सभी अपनेअपने ढंग से सोच रहे थे. सब से अधिक दुखी थे योगेश साहब, जो दीनानाथजी के परममित्र थे.
दीनानाथजी के छोटे भाई ने फोन पर यह दुखद समाचार अपने भतीजे को दिया. फिर मृतशरीर को बर्फ पर रखने की तैयारी शुरू कर दी. वे जानते थे कि उन के भतीजे सुकांत को तुरंत चल पड़ने पर भी आने में 2 दिन लगने ही थे.
हवाईअड्डे पर हाथ में एक छोटी अटैची थामे सुकांत इधरउधर देख रहा था कि शायद उस के घर का कोई लेने आया होगा, लेकिन किसी को न पा कर वह टैक्सी ले कर चल पड़ा. घर के सामने काफी लोग जमा थे. कुछ उसे पहचानते थे, कुछ नहीं. आज 7 वर्षों के बाद वह आया था. अंदर पहुंच कर नम आंखों से उस ने चाचा के पांव छुए.
‘‘बहू और बिटिया को नहीं लाए बेटा?’’ चाचा ने पूछा.
‘‘जी, नहीं. इतनी जल्दी सब का आना कठिन था,’’ सुकांत ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.
आंखों से पल्लू लगाए रोने का अभिनय सा करती चाची ने आगे आ कर सुकांत को गले लगाना चाहा, किंतु वह उन के पांव छू कर पीछे हट गया.
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