
दहेज की कोई भी खबर पढ़ कर लोगों खासतौर से औरतों को तमाम मर्द मारपीट करने वाले नजर आने लगते हैं. आम राय यह बनती है कि मर्द समुदाय पैसों के लिए पत्नियों को परेशान करता है.
दहेज कानून की बनावट चाहे ऐसी हो कि अगर एक बार कोई पत्नी अपने पति के जुल्म की शिकायत कर दे, तो पति वाकई कुसूरवार है या नहीं, यह देखनेसम झने के पहले ही उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है, पर इस से औरतों को कुछ नहीं मिलता, क्योंकि वे न तो ससुराल की रहती हैं, न ही मायके की.
मगर भोपाल के नजदीक सीहोर जिले के परिवार परामर्श केंद्र के अफसर और सदस्य इस बात को ले कर हैरानपरेशान हैं कि पिछले 5 सालों से औरतों के मुकाबले मर्र्द ज्यादा तादाद में अपना रोना रोते आ रहे हैं. औरतों की लड़ाई के खिलाफ इतनी सख्ती बरतने को कोई कानून ऐसा नहीं है, जो उन्हें सबक सिखा सके. परिवार परामर्श केंद्रों का अहम मकसद घरेलू झगड़ों को निबटाना है.
पति कुसूरवार होता है या उस के खिलाफ शिकायत आती है, तो तुरंत उसे दहेज और प्रताड़ना कानूनों का हौआ दिखा कर यह सम झाया जाता है कि सम झौता कर लो, नहीं तो पहले हवालात और फिर जेल जाना तय है. आरोप कितना सच्चा है और कितना झूठा, इस की जांच की जहमत आमतौर पर नहीं उठाई जाती. आम मर्द अपने को जेल से बचाने के लिए राजीनामा कर लेता है, पर घोड़े को पानी तक ले जाया जा सकता है, उसे पानी नहीं पिलाया जा सकता. घर में रह कर वह बीवी की धौंस सहता है, पर प्यार नहीं करता.
मध्य प्रदेश सीहोर के हालात पत्नियों की हैवानियत की दास्तां कहते नजर आते हैं. आंकड़ों पर गौर करें, तो एक साल में सीहोर परिवार परामर्श केंद्र में 90 अर्जी आई थीं, जिन में से 62 पतियों की थीं. इस के एक साल पहले कुल 99 अर्जियों में से 46 पतियों की थीं. ज्यादातर मामलों में मर्दों की शिकायत यह थी कि बीवियां उन्हें परेशान करती हैं, डांटतीडपटती हैं और मायके चली जाती हैं.
गौरतलब है कि परिवार परामर्श केंद्र पुलिस महकमे द्वारा चलाए जाते हैं. सीहोर परिवार परामर्श केंद्र के अध्यक्ष के मुताबिक, ज्यादातर मामलों में पतियों ने हिफाजत की गुहार लगाई है.
पतिपत्नी में विवाद होना आम बात है, मगर पत्नी जब शिकायत करती है, तो उसे जरूरत से ज्यादा हमदर्दी औरत होने की वजह से मिलती है. पति शिकायत दर्ज करा रहे हैं तो इस पर एक वकील का कहना है, ‘‘मुमकिन है कि पत्नियों पर जोरजुल्म करने से पहले ही वे बचाव का रास्ता अख्तियार कर रहे हों, मगर इतने मामले देख कर ऐसा लगता नहीं कि सभी ऐसा करते होंगे.’’
न परेशान शौहरों की खास मदद परिवार परामर्श केंद्र नहीं कर पा रहा है. वजह, पत्नियों को बुलाने के लिए सख्त कानून नहीं है. वे आ भी जाएं, तो बजाय अपनी गलती मानने के पति की ही शिकायत करने लगती हैं. इस से मामला बजाय सुल झने के और उल झता है.
लेकिन अच्छी बात यह है कि पति अपनी बात कहने में हिचक नहीं रहे. एक समाजसेविका मानती हैं कि पत्नियां भी पति को परेशान करती हैं, मगर इज्जत बचाने की खातिर पति खामोश रह जाते हैं.
एक पीडि़त पति दयाराम (बदला हुआ नाम) का कहना है कि पत्नी जबतब बेवजह कलह करने लगती है. सम झाता हूं, तो वह मायके चली जाती है. वह तलाक नहीं चाहता, बल्कि घर की सुखशांति बनाए रखने में पत्नी का सहयोग चाहता है. उस के पास इतने पैसे भी नहीं कि वह कोई नौकरानी रख सके या बाहर का खाना ला कर खा सके. इस हालत के लिए उन टैलीविजन खबरों को कुसूरवार ठहराया जाता है, जिन में उन्हें थप्पड़ मारते दिखाया जाता है, जिन्हें आप पसंद नहीं करते.
आजकल समाज में धर्म और जाति के नाम पर हर कोई लट्ठ ले कर खड़ा होने लगा है. सच कुछ भी हो, मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पति का सुखचैन बीवी जरा सी कलह से छीन सकती है.
कलह और तानों से परेशान पति या तो शराब पीने लगता है या दूसरी औरतों के चक्कर में फंस जाता है. दरअसल, अब बुलडोजर संस्कृति चलने लगी है कि जरा सी बात पर पूरा घर ढहा दो, जो सरकार कर रही है वही बीवियां अपने मर्दों के साथ कर रही हैं.
एक लंबे अरसे से गांवभर में 3 जनों का बड़ा भारी नाम रहा है. बौहरे चंद्रपाल भड़सार गल्ले की भराई और लेनदेन के लिए मशहूर रहे हैं. पुरबिया गांव में नौकरीपेशा और पढ़ाईलिखाई के लिए पहले नंबर के गिने जाते रहे हैं, तो ठाकुर जाति के प्यारेलाल अपनी जमीनजायदाद के लिए गांव में सब से ऊपर हैं. उन के बराबर जमीन गांवभर में किसी के पास भी नहीं है. गांव के सिवाने से ले कर बंबा (छोटी नहर) तक उन की खेती फैली हुई है. आखिर 225 बीघा जमीन कोई कम नहीं होती.
ठाकुर प्यारेलाल की खेती हमेशा से नौकरों के बलबूते पर होती आई है. घर पर 3 ट्रैक्टर और 8 दुधारू भैंसें उन्होंने हमेशा अपने पास रखी हैं. अच्छे पशु को खरीदने का चाव उन में इतना जबरदस्त रहा है कि जिस भैंस को ज्यादा कीमत के चलते मेले में कोई भी खरीदने को तैयार न होता हो, उसे वे जरूर ही खरीद कर लाते.
ठाकुर प्यारेलाल का काम दोपहरी में पंडित भूरी सिंह से कथावार्ता सुनते रहना और सुबहशाम खेतों का चक्कर लगाना रहा है. जब से राम मंदिर की बात चली है, उन का हिंदूधर्म का प्रेम और बढ़ गया है. पिछले 40 साल से वे ही घर के सोलह आना मालिक रहे हैं. उन्होंने अपने बेटे रामलाल को मालिकी के लिए हमेशा नाकाबिल सम झ कर इधर 4-6 साल से अपने लाड़ले नाती को घरगृहस्थी की थोड़ीबहुत जिम्मेदारियां सौंपनी शुरू कर दी हैं.
ठाकुर प्यारेलाल बड़े दिलेर आदमी रहे हैं. कोई शादी या कर्ज होने पर उन्होंने कभी भी हाथ सिकोड़ना नहीं जाना. जब उन्होंने अपनी छोटी लड़की की शादी की, तो उन के समधी ने वैसे ही उन से पूछा, ‘‘आप में कितनी बरात बुलाने की हैसियत है?’’
‘हैसियत’ शब्द ठाकुर प्यारेलाल को बहुत अखर गया और इस पर उन्होंने समधी को तपाक से जवाब दिया, ‘‘समधीजी, आप उतनी बरात लाएं, जितनी बरात लाने की आप में हैसियत है.’’
फिर क्या था, उस बरात में पूरे 600 आदमी आए. साथ ही, एक किराए की ओपन कार, 4 बसें, 20 गाडि़यां आईं सो अलग.
आज भी गांव में चंपा की शादी की जिक्र करकर के नई पीढ़ी के लड़के उसी तरह की लड़की को ढूंढ़ने में लगे रहते हैं.
अपनी जिंदगी को पूरी तरह से जी कर (80 साल की उम्र भोग कर) ठाकुर प्यारेलाल 10 रोज के कोरोना बुखार में ही इस दुनियाको हमेशा के लिए छोड़ गए. शव यात्रा निकाली ही नहीं जा सकी. रातोंरात लाश को 2 लोगों के सामने जला दिया गया. लेकिन कोरोना खत्म होने पर रस्में पूरी की गईं, नकली लाश बना कर अर्थी बनाई गई.
कसबे से बैंडबाजे वाले लाए गए. विमान का शंख झालर, खड़तालमंजीरे और बैंडबाजों के साथ आसपास के 5 गांवों में जुलूस निकला. घी, चंदन की भरमार के साथ नकली ठाकुर प्यारेलाल की अंत्येष्टि की गई. देखादेखी उस समय श्मशान घाट पर बहुत सारे लोग मौजूद थे. बाद में मृत्युभोज में 16 तरह का खाना भी तो था न.
पंडित राम सिंह, एक सत्ता पक्ष का खास भगवाधारी नेता चंद्रपाल और गंगा प्रसाद बैठेबिठाए नेता बन बैठे.
उन सब ने कहा कि ठाकुर प्यारेलाल की याद में एक बड़ा सा मंदिर उन की जमीन पर बनना चाहिए. लोगों ने लाल सिंह के पूछे बिना जमीन भी तय कर ली. शहर से एक पंडित बुलवा कर जमीन शुद्ध करवा ली.
ठाकुर आदमी नहीं, देवता थे. सारी बीसी (आसपास के 20 गांव) में ऐसा नेक आदमी ढूंढ़ने पर भी नहीं मिल सकता. अब बात तो तब रहे, जब मंदिर में सफेद पत्थर लगे, ताजमहल सी कारीगरी हो.
ठाकुर लाल सिंह लोगों की बातें सुन कर बड़ी गुदगुदी और खी झ का अनुभव करते. आज उन के पास 10-20 लाख की नकदी होती, तो वह गांव वालों की आरजू को जरूर पूरा कर देते. वे बड़े लाचार थे, क्योंकि उन का घर नामीगिरामी लोगों में तो जरूर गिना जाता रहा है, पर हकीकत वे ही अच्छी तरह से जानते थे.
50 साल की बाबा की मालिकी में इस समय घर में नकदी के नाम पर ज्यादा नहीं था. हां, बाहरी कवर जरूर बना हुआ था और मौका पड़ने पर बिना किसी को पता चले 10-20 हजार रुपए इधरउधर से जमा कर खर्च कर डालने की उन में हैसियत थी.वह रुपया बैशाख में फसल आते ही निकाल दिया जाता.
छठे दिन ये शुभचिंतक (बौहरे वगैरह) उन की बैठक पर आए और उन्होंने ठाकुर को अंदर घर से बुलवा लिया. तब बैठक में बिछे गलीचे पर सभी बैठे.
पहले तो बौहरे, पंडित और पुरबिया घंटों तक बाबा के गुणों का बखान करते रहे, फिर बैनई के शंकरदयाल के मंदिर बनाने की बातें बड़ी रस लेले कर चलीं. इस के बाद कार्ज संबंधी ठाकुर द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी को बहुत झं झटबाजी का काम जतलाते हुए उन महानुभावों ने कार्ज का सारा मामला ठाकुर लाल सिंह पर ही छोड़ दिया.
हालांकि मंदिर बनाने का फैसला पहले से ही हो चुका था. पूरा गांव सोच रहा था कि तब ठाकुर लाल सिंह ने बड़े धर्मसंकट में पड़ कर अपनी पैसे की लाचारी प्रकट की. इस पर पंडित राम सिंह ने उन्हें सहलाते हुए निवेदन किया, ‘‘ठाकुर साहब, आप क्या खेती की 2 साल की बचत भी मंदिर के नाम पर नहीं लगा सकते? आप के लिए यह कौन सी बड़ी बात है.’’
पुरबिया ने पंडित की बात का पूरी तरह समर्थन किया. फिर बौहरे ने रुपयों के इंतजाम की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए कहा, ‘‘ठाकुर साहब, आप अगर हुक्म दें, तो बाबा के नाम पर आज ही अकेले बरहन में से ही 5 लाख रुपए ला कर आप के हाथ पर रख दूं.’’
वैसे तो लाल सिंह मंदिर के ज्यादा वजन को बिलकुल भी ओटना नहीं चाहते थे और न उन में इतनी औकात ही थी, पर उन जानेमाने लोगों की बात का खंडन करने की हिम्मत भी उन में नहीं थी, इसलिए उन्होंने चुप्पी साध ली.
ऐसे मौकों पर चुप्पी का मतलब खामोशी मान लिया जाता है. उन्हें लग रहा था कि उपजाऊ जमीन में कटौती होगी, पर मंदिर के चढ़ावे की बात भी मन में थी.
उसी दिन सारे गांव में ठाकुर प्यारेलाल के नाम पर मंदिर बनने का हल्ला मच गया.
अगर कहीं एकता और भाईचारा देखना है, तो वह गांव की जिंदगी में और खासकर धर्म के मौके पर देखने को मिलेगी. इस समय सारे गांव में बौहरे, पंडित और पुरबिया की तूती बोल रही है. पंडितजी ने मंदिर से संबंधित सभी तरह की खरीदारी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी. ठेकेदार तय कर लिया था, जो 30 फीसदी पंडित को देता था.
श्यामू पांडे के उस बड़े से घर से ढोलक और गीतों की आवाज आनी बंद हो गई. गांव की रिश्ते की औरतें गाबजा कर अपनेअपने घर जा चुकी थीं. घर में शांति छाती जा रही थी. मेहमानों में आई हुई औरतें थक कर चूर थीं. पांडेजी के बेटे प्रकाश की बरात को गए 2 दिन बीत चुके थे. उन के पीछे घर में रह गई थीं औरतें और चौकीदार चिम्मन.
चिम्मन दिनभर इधरउधर घूमता और रात को सिरहाने बंदूक रख कर सोता. आसपास के गांवों में उन दिनों गैंगस्टरों का बड़ा जोर था. ये गैंगस्टर राजनीतिक पार्टी से भी जुड़े थे. एक पत्रकार को भी धमका चुके थे. रोजाना किसी न किसी कांड की खबर मिलती थी कि अमुक दुकानदार को लूट लिया. अमुक के लड़के को दिन में ही घर से गैंगस्टर उठा ले गए. नदी पार गैंग ने एक आदमी को मोटरसाइकिल से बांध कर जिंदा जला दिया वगैरह. चिम्मन ऐसी बातें बहुत दिनों से सुन रहा था और हंस कर उड़ा देता था. उसे अपनी बंदूक पर बड़ा भरोसा था. फौज में जो रहा था. कारगिल में भी था. मोरचे पर कभी पीठ न दिखाई. एक बार वापस होने का हुक्म मिला.
सारी टुकड़ी मिनटों में खाई में जा छिपी, पर चिम्मन वहीं डटा रहा. आखिर में कहनेसुनने पर लौटा भी तो दुश्मन की ओर सीना ताने और खाई की ओर पीठ किए हुए. चलते समय पांडेजी ने उसे ही घर सौंपा था, क्योंकि उस पर उन्हें पूरा भरोसा था. उस ने भी गर्व से कह दिया था, ‘‘मजे से बरात कर आइए सरकार. यहां कोई गैंगस्टर आया तो जिंदा वापस नहीं जा सकता.’’ और उस ने गर्व से अपनी प्यारी ‘मुंहतोड़’ पर हाथ फेरा. उस ने अपनी बंदूक का नाम ‘मुंहतोड़’ रखा था, जो उसे इनाम में मिली थी. बाद में 2 दिन बड़ी मुस्तैदी से काटे. घर की औरतें भी उस की देखरेख में निश्चिंत थीं. बिना किसी खटके के गानेबजाने में शामिल होने वाली औरतों के सामने अपने गहनों का प्रदर्शन करतीं, उन की लागत बतातीं और रात को गहने पहने ही सो जातीं. चिम्मन पौर में बिस्तर लगाए था. सिरहाने भरी बंदूक. हवेली में 15-20 औरतें छत पर सो रही थीं. उस रात बिजली चली गई थी.
यह आम बात थी. हर 4-5 दिन में कोई ट्रांसफौर्मर फेल हो जाता था. चांद चढ़ आया था. गांव और आसपास के जंगल में रोशनी फैल गई. चारों ओर सुनसान था. कभीकभी कोई सियार बोल उठता था या किसी खेत के मचान से थोड़ा सा शोरगुल होता था. कहींकहीं डीजल पंप की आवाज जरूर आ रही थी. राजू भी अपने आम के बाग में अधसोया सा चौकसी कर रहा था. अंदर झोंपड़ी में अंधी मां सो रही थी. हफ्तेभर से बुखार से पीडि़त थी. राजू ही उस का सहारा था. मेहनती और नेक बेटा. बाप के मर जाने के चलते चाहते हुए भी न पढ़ सका. बागबानी करता था. मरमिटने का शौकीन और रसिक था. गांव में एक बार रक्षक दल आया. लाठी के पैंतरे और तरहतरह की कसरतें उस से सीख लीं. शाम को नदी के किनारे बांसुरी भी खूब बजाता. उस के मोबाइल में भी ढेरों रैप म्यूजिक थे. घर में कम बैठता. कुंआरा जो ठहरा. आज दिनभर मां की सेवा में लगा रहा.
अब कहीं जा कर उस की आंख लगी थी. न चाहते हुए भी राजू की नींद भरी आंखें मुंदी जा रही थीं. घंटाभर भी न बीता होगा कि श्यामू पांडे की हवेली से शोर सुनाई दिया. आवाज घबराई हुई औरतों के गलों की थी. 2-3 हवाई फायरों के धमाकों ने तो गांवभर को हिला दिया. पौर में चिम्मन ने, बाग में राजू ने, गांव में रामबली, जग्गू, नोखे वगैरह सब ने सुना. पलभर में सब कुछ साफ हो गया. डाका पड़ा है. गैंगस्टर राजू के बाग से हो कर पांडे की हवेली में पीछे से चढ़ आए थे. चिम्मन 1-2 पल बौखलाया. ऊपर से आती हुई धमाचौकड़ी की आहट ने उसे हिला दिया. डाका पड़ गया. दूसरे ही पल उस की हिम्मत लौटी और साथ में फौजी सतर्कता भी. दबे पैर उठा. हाथ में बंदूक संभाली. धीरे से घबराए लोगों के लिए दरवाजा खोल दिया और खुद जीने से ऊपर जाने को लपका. जोश में उबल पड़ रहा था. जाते ही 1-2 को उड़ा देने का निश्चय किया. ‘पांडेजी भी देख लेंगे, ऐसे ही गप नहीं हांकता था.’ जीने की आखिरी सीढ़ी पार कर के दरवाजे के बाहर छत पर पैर रखा. दरवाजे के बगल में एक डाकू पहले से ही स्वागत करने के लिए तैयार खड़ा था. उस ने झट से चिम्मन की टांगों में लाठी का अड़ंगा लगाया. चिम्मन इस के लिए बिलकुल तैयार न था. भरभरा कर औंधे मुंह गिरा और बंदूक छिटक कर दूर जा गिरी. तुरंत ही 2 डाकुओं ने उस की मुश्कें कस दीं और मुंह में कपड़ा ठूंस कर कोने में डाल दिया. चिम्मन की आंखें अब खुलीं. यह कारगिल का मोरचा नहीं, गैंगस्टर का हमला था. ऐंठ कर रह गया. छत पर तकरीबन 15 लोग थे. सब हथियारबंद. औरतों के होश गायब. चिम्मन को इस तरह धरती सूंघते देख वे सिट्टीपिट्टी भूल गईं. रहीसही उम्मीद भी जाती रही. भगवती चाची, जानकी जीजी, छोटी माई और पांडेजी की बेटियां सब जड़ हो गईं. भगवती चाची सारे शरीर पर जेवर लादे थीं. सारे दिन गांव की औरतों ने उन्हें जलन भरी आंखों से देखा था. क्या मालूम था, निगोड़े गैंगस्टर आ टपकेंगे. काटो तो देह में खून नहीं.
जीजी ने अपना निश्चय सुनाया, ‘‘प्राण दे दूंगी, पर इन निगोड़ों को एक छल्ला भी न ले जाने दूंगी. हराम की कमाई सम झी है…’’ कांपती हुई भगवती चाची में भी दम आया, ‘‘क्या पता था, दुष्ट कभी न मानेंगे. अब क्या होगा कम्मो?’’ कामिनी पांडेजी की बड़ी बेटी थी. सम झदार थी और पढ़ीलिखी थी. पेचीदा मामलों में पांडेजी भी उस से सलाह लेते थे. अभी तक हाथ पीले न कर पाए थे. कोई काबिल लड़का आंखों न चढ़ा था. ‘‘अब वही होगा जो होना था. तुम सब से कितना कहा, गहने लादे न घूमो. आखिर में गैंगस्टर चढ़ ही आए. चुपचाप गहने हवाले कर देने में ही खैर है. अटकने से कोई फायदा नहीं. कील तक छीन ले जाएंगे. दुर्गति होगी सो अलग,’’ कामिनी ने कहा. गैंगस्टर भी मोरचा बांध चुके थे. औरतें बीच में घेर लीं. उन के अगुआ ने कहा, ‘‘सब औरतें पास वाली दरी पर जेवर रख दें. किसी ने गड़बड़ की, तो उस का भी ऐसा ही हाल होगा,’’ कह कर उस ने पास पड़े चिम्मन को ठोकर लगाई. चिम्मन मजबूर था. फुफकारा और तड़फड़ा कर रह गया. जानकी जीजी भी कुछ बड़बड़ाईं.
अगुआ ने फिर डपटा, ‘‘क्या होश ठिकाने नहीं हैं? दलन मर्दऔरत किसी को नहीं देखता है.’’ दलन. दलन के नाम में जादू था. गांव के क्या, जिलेभर के लोग इस नाम से कांपते थे. घोर अत्याचारी, गजब का फुरतीला और परले सिरे का बदचलन. उस ने पुलिस के भी दांत खट्टे कर रखे थे. सरकार ने उसे पकड़ने वाले के लिए 5,000 रुपए का इनाम बोला था. पर क्या मजाल कि उस की छांह भी हाथ आ जाती. रात ही रात में इस जिले से उस जिले में जा लगता था. जानकी जीजी, रज्जो दादी, रानी, कमला, सरला सब के देवता कूच कर गए. जेवर तो गए भाड़ में, उन्हें अपनी इज्जत बचाने की पड़ गई. दूसरे ही पल दरी पर गहनों का ढेर लग गया. शोरगुल और धमाका सुन कर राजू को मेंड़ से गुजरते आदमियों की बात याद आ गई. निश्चय हो गया कि गैंगस्टर ही थे. लाठी कंधे पर साधे हुए वह मिनट भर में बाग की मेंड़ पर जा पहुंचा. यहां हवेली से आता हुआ शोरगुल साफ सुनाई देता था.
उस ने मन में कहा, ‘पांडे की हवेली में ही डाका पड़ा है.’ तुरंत ही दोहराया, ‘पांडे के यहां अच्छा हुआ…’ आगे बढ़ते पैर रुक गए. पिछले साल का घाव पलभर में हरा हो गया. उसे याद आई अपनी बेइज्जती. चिम्मन के धक्के, श्यामू पांडे की गालियां. कम्मो का करुणा भरा चेहरा. कितना जलील किया गया था वह.
इस डर से कस्तूरी कांप उठती थी. इस मुए ने कहीं उसे वापस फार्म पर भेज दिया, तो वह मुसीबत में पड़ जाएगी. वहां दूसरी मजदूरनियों की तरह उसे भी सारा दिन गारेमिट्टी के काम में खटना पड़ेगा.
अभी यहां बंगले पर होने से वह हाड़तोड़ काम से बची रहती है. यहां चूल्हेचौके का काम कर दिया. मेमसाहबों के नाजनखरे उठा लिए. बच्चों को बहला दिया. साहब को खुश कर दिया. बस, फिर मौज करो. साहब के चौके में जो पके वह खाओ. मेमसाहबों के उतरे हुए कपड़े पहनो. साहब के यहां आए हुए मेहमानों से इनाम, बख्शीश पाओ. साहब के परिवार के साथ सैरसपाटे के भी मौके मिल जाते हैं.
इसीलिए कस्तूरी यही कोशिश करती रहती थी कि उस की नौकरी यहीं साहबों के बंगलों पर लगी रहे. हाजिरी वहां फार्म पर लगती रहे और काम वह यहां करती रहे. बंगलों में इठलाती फिरे.
कस्तूरी को अभी भी वह दिन याद था, जब वह पहलेपहल बंगले पर फार्म से भेजी गई थी. उस समय वह कितनी घबराई थी, क्योंकि इन शहरी लोगों की बोली भी उस समय उस की समझ में नहीं आती थी. अपनी आदिवासी बोली के सिवा वह और कुछ नहीं जानती थी. इन साहबों का रहनसहन, खानपान सबकुछ उस के लिए अजीब सा था.
इसीलिए दूसरे दिन यहां से भाग खड़ी हुई थी. मुखिया से उस ने साफ कह दिया था कि वह तो फार्म पर ही भली है. बंगले का काम उस से नहीं होगा. यह उस के बस का नहीं है.
पर मुखिया और दूसरे अफसरों ने उसे बंगले पर ही जाने को मजबूर किया था. एक तरह से धक्के देदे कर उसे फार्म से भगाया गया था.
इस मौके पर दीतरी ने उस के कान में कहा था, ‘‘जा कस्तूरी, यह साहब तेरे पर रीझ गया है… मौज कर.’’
कस्तूरी कांप उठी थी. उस ने फार्म के मैनेजर से हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘इस दीतरी को ही वापस बंगले पर भेज दो. यह बंगले के काम की जानकार है. मैं अनाड़ी हूं… मुझे यहीं रहने दो.’’
पर मैनेजर ने कस्तूरी की एक नहीं सुनी थी. डांट कर उसे भगा दिया था.
फिर तो कुछ दिनों में ही कस्तूरी को बंगले का चसका लग गया था. इन शहरी लोगों की बोली, खानपान, रहनसहन सभी से वह वाकिफ हो गई थी. अच्छा खाने और अच्छा पहनने से उस का हुलिया ही बदल गया था. उस के रूपरंग, चालढाल, बातचीत में जैसे निखार सा आ गया था. उस के पास घर में कपड़ों का अंबार लगा था. उस के भाई, पिता उस के पैसे को पाने के लिए न जाने कितनी खुशामद करते थे.
साहब लोग भी अब कस्तूरी को जरूरी समझने लगे थे. जो भी साहब यहां से जाता था, वह नए आए साहब को कह जाता था, ‘‘यह कस्तूरी बड़ी समझदार है. इस बियाबान में इस से समझदार नौकर मिलना मुश्किल है.’’
इस साहब को भी उस लंबू साहब ने जातेजाते कहा था, ‘‘यह कस्तूरी शहरी सांचे में पूरी तरह ढल गई है. इसे बंगले पर रखोगे, तो खुद के लिए भी जंगल में मंगल रहेगा और भाभीजी को एक ऐक्सपर्ट नौकरानी मिल जाएगी.’’
कस्तूरी ने अपने कानों से साफ सुना था. उस लंबू साहब ने कस्तूरी की ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘‘बड़ी करारी है. यहां की मिट्टी की तरह सख्त, मगर चट्टानों के भीतर बह रहे किसी सोते की ही तरह ठंडी, मीठी और आरामदायक. यहां के आमों की तरह लजीज, रसीली.’’
यह अनोखा साहब उस समय भी खोखली हंसी के साथ बेवकूफों की तरह खड़ा रहा था. नजर भर कर उस ने तब भी कस्तूरी को नहीं देखा था. तकरीबन 6 महीने बीत जाने के बाद भी वह वैसा का वैसा ही था. दूसरे नौकरों में और कस्तूरी में वह कोई फर्क ही नहीं कर रहा था.
नए साहब के इस बरताव से कस्तूरी को कभीकभी एक दूसरी तरह का शक भी हुआ था. मगर उसे खुद को भी यह शक बेबुनियाद सा लगा था, क्योंकि साहब के 3 बच्चे थे. अपनी मेमसाहब से भी वह झिझकता नहीं था.
इसीलिए तो यह साहब कस्तूरी की समझ में नहीं आ रहा था. रहरह कर उस के दिल में यही सवाल उठता रहता था कि यह साहब क्या किसी दूसरी मिट्टी का ही बना हुआ है? यह क्या ऐसा ‘सतयुगी’ है, जो अपनी ब्याहता के सिवा किसी दूसरी औरत पर नजर ही नहीं डालता है? मरदों की जात तो ऐसी होती नहीं. ढोरों की तरह मौका लगते ही यहांवहां मुंह मारना तो मरदों की आदत होती है. फिर इसे क्या हो गया है?
लेकिन कस्तूरी को मालूम था कि यह साहब दिनोंदिन मुटियाती अपनी मेमसाहब से नाखुश सा है. जब देखो, तब मेमसाहब को कम खाने, पैदल घूमने, कसरत करने की सलाह देता रहता है.
किंतु फिर भी एक कांटा सा कस्तूरी के दिल में चुभता रहता था. इस नए साहब की लापरवाही उसे खलने लगती थी. वह उस की ओर नजर नहीं डाल रहा था. इस का उसे इतना मलाल नहीं था. मलाल अगर था तो इस बात का कि वह क्यों नजर नहीं डाल रहा है?
यह गुत्थी कस्तूरी से सुलझ नहीं
रही थी. अगर यह अपनी मेमसाहब के अलावा किसी दूसरी औरत पर नजर न डालने वाला मरद तो सतजुग में भी नहीं थे. तब भी हरेक किसी न किसी को पकड़े रहना था. उस ने कितने ही लोगों से सुना है. तो वह उस के पैर पूजने को भी तैयार हो सकती है, क्योंकि उसे आज तक ऐसा कोई आदमी मिला ही नहीं था. जितने भी मिले थे, वे सब उस के जिस्म को नोचने वाले ही निकले थे.
राइटर- चंद्रशेखर
चटनी यह नया अफसर कस्तूरी की समझ में ही नहीं आ रहा था. पिछले 5 बरसों में 6-7 अफसरों से उस का पाला पड़ चुका था, पर इस नए अफसर जैसा अभी तक एक भी नहीं मिला था. इसे यहां आए 4-5 महीने हो गए थे, पर यह अभी भी पहले दिन जैसा ही था.
इस के पहले वाला वह लंबू अफसर भी शुरूशुरू में चुपचाप ही रहा, पर जैसजैसे दिन बीतते गए थे, वह खुलता गया.
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. अफसर लोग और उन के घर वाले आते ही कस्तूरी में दिलचस्पी लेने लगते थे. मेमसाहबों से छिप कर वे उसे निहारा करते और जब तक मेमसाहब घर में न हों, हर तरह की छेड़छाड़ करते थे.
एक ने पूछा था, ‘‘क्यों री कस्तूरी, तू ने कितने आदमी करे अभी तक?’
कस्तूरी मुसकराते हुए नजरें झुकाए काम किए जाती थी, मगर साहब काम बंद करवा कर उस के पीछे ही पड़ जाते थे, ‘‘बता, कितने आदमी करे तू ने अभी तक?’’
कस्तूरी को जवाब देना ही पड़ता था, ‘‘3…’’
‘‘और साहब लोग कितने?’’ एक ने पूछ लिया था.
‘‘साहब, जितने साहब पिछले
6 सालों में आए, सभी के साथ मैं ने वही किया, जो 3 के साथ किया था.’’
आमतौर पर साहब लोग रस लेले कर कस्तूरी की लीलाओं को सुनते थे. कस्तूरी मुसकरा कर किस्से सुनाती रहती कि कौन साहब कैसा था.
एक बार वह एक आदमी के साथ पकड़ी गई. पुलिस वाले ने जो करना था, किया.
साहब ने पूछा था, ‘‘कहां गिरफ्तार किया था तुम को?’’
कस्तूरी को अपनी रासलीला के बारे में बताना ही पड़ता था. वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘सिनेमा में. उस में नंगी वाली फिल्म लगी थी न.’’
‘‘तो तुम दोनों ऐसावैसा सिनेमा देखने गए थे?’’
‘‘हां, मेला देखने के बाद सिनेमा देखने चले गए थे.’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
‘‘थाने में ले गई पुलिस… सभी लोगों को वहीं रातभर बंद रखा.’’
‘‘क्यों री, उस रात पुलिस ने तुझे क्या छोड़ा होगा? तेरी इज्जत भी पुलिस ने ली होगी?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘क्यों झूठ बोल रही हो? ऐसे में पुलिस कहीं छोड़ती है? सच बता?’’
‘‘बच गई… एक तो हमजैसी 4-5 साथ थीं और फिर होटल वाले और सिनेमा वाले ने पैसे दिए. वह होटल वाला साथ था न.’’
‘‘अच्छा, फिर क्या हुआ?’’
‘‘फिर क्या… मेरे मांबाप आए सुबह और मुझे छुड़ा कर ले गए.’’
‘‘पुलिस ने यों ही छोड़ दिया…?’’
‘‘यों ही कैसे…? होटल वाले ने 500 रुपए दिए, तब छोड़ा.’’
‘‘ये 500 रुपए तो पुलिस वालों ने ले लिए. पर तेरे मांबाप ने भी कुछ रुपए लिए होंगे न?’’
‘‘हां, लिए थे.’’
‘‘वह क्या कहते हैं इस को… तुम लोगों में?’’
‘‘इज्जत के पैसे.’’
‘‘हां, इज्जत के पैसे… इज्जत गई उस का मुआवजा.’’
साहब ने कहसुन कर मामला बंद करवाया. वह कस्तूरी को कहां छोड़ना चाहते थे. मेमसाहब भी उस से खुश थीं.
लेकिन यह नया साहब तो इन मामलों में कोई दिलचस्पी ही नहीं लेता था. हां, मेमसाहब ही कभीकभार कस्तूरी से उस की जिंदगी के बारे में पूछ लेती थीं. पर ऐसे समय भी वह भला आदमी कभी इधर कान नहीं देता था.
शुरूशुरू में कस्तूरी ने यह सोचा कि यह नया साहब भी शायद अपनी मेमसाहब से डरता होगा, इसीलिए वह उस की तरफ नजर नहीं डालता. पहले भी एक साहब ऐसा आया था. उस की मेमसाहब जब तक बंगले में रहीं, तब तक उस ने कस्तूरी पर आंख उठा कर नहीं देखा था, पर मेमसाहब के भीतर जाते ही वह भूखे भेडि़ए की तरह कस्तूरी पर टूट पड़ा था.
पर इस मुए नए साहब में तो कस्तूरी को यह बात भी नजर नहीं आई थी. इस की मेमसाहब 2 बार अपनी रिश्तेदारी में गई थीं. यह बंगले में अकेला ही रह गया था, पर फिर भी इस में कुछ बदलाव नहीं आया था. पहले की तरह यह बस इतनी बातें करता रहा था कि कस्तूरी, कौफी लाओ… कस्तूरी, खाना लगाओ… वगैरह.
इसीलिए तो कस्तूरी को यह नया साहब कुछ अजीब सा लग रहा था. यह किस मिट्टी का बना है, उस की समझ में नहीं आ रहा था. ऐसा साहब उसे आज तक नहीं मिला था. जितने भी साहबों से उस का पाला पड़ा था, वे सभी उसे तकरीबन एकजैसे लगे थे. स्वाद बदलने के लिए वे लोग चटनी की तरह कस्तूरी का इस्तेमाल करते रहते थे.
इस अनोखे साहब से पहले जो साहब यहां था, उस ने तो इसीलिए उस का नाम ‘चटनी’ रख दिया था. वह मुआ अपनी मेमसाहब के सामने ही पुकारता था, ‘चटनी.’
इस नाम से कस्तूरी खुश ही हुई थी. दूसरे साहबों की तरह वह नाटक तो नहीं करता था. अपनी मेमसाहब तक से उस ने कुछ नहीं छिपाया था.
मगर यह नया साहब तो जाने कैसा था, अपनी मेमसाहब के सिवा कस्तूरी पर भरपूर नजर भी नहीं डालता था. अपने चश्मे के पीछे से उड़ती नजर ही कस्तूरी पर डाल कर हुक्म दे देता था. दूसरे नौकरों में और कस्तूरी में उस के लिए जैसे कोई फर्क ही नहीं था.
इस नए साहब के ऐसे अनोखे बरताव से कस्तूरी को डर सा लगने लगा था. डर इस बात का कि इस साहब ने कहीं उसे नापसंद तो नहीं कर दिया. यह उसे वापस फार्म तो नहीं भेज रहा है? फार्म की कोई दूसरी मजदूरनी कहीं इस की नजरों में नहीं चढ़ गई है? उसे यहां ला कर कस्तूरी को हटाने का इरादा तो नहीं है इस का?
राइटर- चंद्रशेखर
बंगले वाले इन साहबों ने भी उस के गंदे लिबास, गंदी आदतें, गंदे जिस्म के बावजूद चटनी की तरह उसे भोगा था. पर यह मुआ नया साहब ही जाने कैसा मरद था, जो उसे चटनी भी नहीं बना रहा था.
कस्तूरी इस गांठ को खोलने के लिए परेशान सी हो उठी थी, पर इस साहब की उसे थाह ही नहीं मिल पा रही थी.
आखिरकार वह एक दिन ऐसा आ ही गया. कस्तूरी की जैसे दिल की मुराद पूरी हो गई. बंद किताब जैसे खुल गई.
उस दिन सुबह से ही घनघोर बारिश हो रही थी. चारों तरफ पानी ही पानी हो गया था. बंगले के सामने सड़क पानी में डूब रही थी. खेतों के उस पार पहाडि़यां भी छिप सी गई थीं.
घर के दोनों नौकर अपने घरों की सुध लेने चले गए थे. मेमसाहब 2 दिन पहले ही अपने भाई के यहां गई हुई थीं. बंगले में केवल कस्तूरी और साहब
ही थे.
कस्तूरी दौड़दौड़ कर बौछार से सामान को बचा रही थी. कभी वह खिड़की बंद कर रही थी, तो कभी दरवाजा बंद कर रही थी.
साहब अपने आसपास बिखरी हुई फाइलों को निबटाते रहे थे. पर जब बिजली चली गई, तो वह खिड़की में से एकटक बाहर के नजारों को देखने लगे. सामने के पहाड़ से उन की नजरें हट ही नहीं रही थीं.
कस्तूरी ने 2-3 बार झांक कर देखा था, पर उन्हें लगातार उधर ही देखते पाया था. कस्तूरी जब चाय की प्याली उन के सामने रखने आई, तब भी पहाड़ की ओर से उन की नजरें नहीं हटी थीं.
कस्तूरी ने हौले से कहा, ‘‘साहब, चाय में मक्खी गिर जाएगी.’’
साहब ने पहाड़ की ओर से नजरें हटाईं. सामने तरबतर कस्तूरी को खड़ी देखते ही उन के मुंह से निकल गया, ‘‘सामने वाले पहाड़ के साथसाथ तू भी नहा ली इस बरखा में?’’
कस्तूरी चौंकी. साहब इस तरह पहली बार बोले थे.
साहब ने चाय की प्याली उठाते हुए कहा, ‘‘पूरी भीग गई?है तो अब अच्छी तरह से नहा ले.’’
कस्तूरी को लगा कि साहब जैसे पहाड़ की बुलंदी पर से नीचे उतर रहे हैं, इसीलिए थाह लेने के लिए उस ने कह दिया, ‘‘घर जा कर नहा लूंगी.’’
‘‘नहीं… अभी नहा ले. सारा दिन क्या इसी तरह गीले कपड़ों में रहेगी?’’
‘‘रह लूंगी… हमें तो आदत है.’’
‘‘पर, अभी नहाने में क्या परेशानी है?’’
‘‘परेशानी तो कुछ नहीं… पर मेरे पास दूसरे कपड़े नहीं हैं.’’
‘‘मेमसाहब के पहन ले.’’
‘‘मेमसाहब नाराज होंगी.’’
कस्तूरी को यकीन होने लगा कि साहब में आज कुछ बदलाव जरूर आया है, इसीलिए वह इठलाती सी जाने लगी.
साहब ने तभी उस से कहा, ‘‘साबुन लगा कर अच्छी तरह से नहाना. नाखून भी काट लेना.’’
कस्तूरी के भीतर लड्डू से फूटने लगे. वह दौड़ीदौड़ी गुसलखाने में गई. दरवाजा जानबूझ कर पूरी तरह बंद नहीं किया, पर साहब उधर देख ही नहीं रहे थे.
मेमसाहब की तरह सारे कपड़े फेंक कर वह खूब मलमल कर नहाई. नहानतेनहाते वह गीत भी गुनगुनाती रही कि शायद साहब उस की ओर आएं.
नहाधो कर मेमसाहब की साड़ी, ब्लाउज पहन कर कस्तूरी अपनी लटों को फैलाए चाय की ट्रे उठाने आई. वह अपने पर्स में इत्र की शीशी रखती थी, वह भी लगा रखी थी.
साहब ने एक उड़ती सी नजर उस पर डालते हुए कहा, ‘‘ट्रे रख कर
यहां आना.’’
ट्रे रख कर कस्तूरी फौरन आ गई. उसे लग रहा था कि आज जरूर कुछ न कुछ होगा. साहब के मन की गांठ आज जरूर खुलेगी. बंद किताब का भेद आज उस पर जरूर उजागर होगा.
सांस रोके कस्तूरी इंतजार करने लगी. साहब ने सामने वाले पहाड़ पर नजरें टिकाए हुए ही कहा, ‘‘जा, बाहर बैठ जा और बारिश बंद होने का
इंतजार कर.’’
जैसे सांप पर कस्तूरी का पैर पड़ गया हो, इस तरह वह चौंकी, ‘‘क्या?’’
साहब ने पहाड़ पर से नजरें हटाए बिना ही कहा, ‘‘हां, बाहर बैठ जा. अभी जाएगी तो फिर कपड़े गीले हो जाएंगे.’’
इस हुक्म में कस्तूरी को महसूस हुआ, जैसे साहब ने अभी उस पहाड़ की चोटी पर से उसे धकेल दिया है. वह हैरानी से साहब को देखती रही.
साहब ने जब इधर मुंह फेरा, तो कस्तूरी के मुंह से जैसे अनजाने ही निकल गया, ‘‘देखिए साहब, आप लोगों की दालरोटी तो बनाते ही हैं, पर पहले वाले सब हमें चटनी ही बनाते रहे हैं. पर, आप तो मुझे पराया मान रहे हैं. यह मुझ से साहब नहीं होगा. आप मुझे फार्म पर भेज दें.
‘‘कस्तूरी ने अपने दंभ से जिया है और वह जिंदगी को अपनी तरह जीना चाहती है, सती सावित्री की तरह नहीं.’’
मेमसाहब के कपड़े उतार कर कस्तूरी ने अपने भीगे कपड़े फिर से पहन लिए और उस बरसते पानी में बंगले से बाहर हो गई. जातेजाते उस ने एक बार मुड़ कर भी नहीं देखा था.
कस्तूरी को खुद को चटनी बनते देखने की इतनी आदत हो गई थी कि अब वह घासफूस बन कर नहीं रह सकती. हां, उसे फिक्र थी कि जो अलग से पैसे मिलते थे, वे कहां से आएंगे? लेकिन उसे यह गवारा भी नहीं था कि थाली में रखी चटनी के बिना कोई साहब सिर्फ दालरोटी और सब्जी खा ले और चटनी को छुए भी नहीं.
राइटर- चंद्रशेखर
सुबह सुबह रमेश की साली मीता का फोन आया. रमेश ने फोन पर जैसे ही ‘हैलो’ कहा तो उस की आवाज सुनते ही मीता झट से बोली, ‘‘जीजाजी, आप फौरन घर आ जाइए. बहुत जरूरी बात करनी है.’’
रमेश ने कारण जानना चाहा पर तब तक फोन कट चुका था. मीता का घर उन के घर से 15-20 कदम की दूरी पर ही था. रमेश को आज अपनी साली की आवाज कुछ घबराई हुई सी लगी. अनहोनी की आशंका से वे किसी से बिना कुछ बोले फौरन उस के घर पहुंच गए. जब वे उस के घर पहुंचे, तो देखा उन दोनों पतिपत्नी के अलावा मीता का देवर भी बैठा हुआ था. रमेश के घर में दाखिल होते ही मीता ने घर का दरवाजा बंद कर दिया. यह स्थिति उन के लिए बड़ी अजीब सी थी. रमेश ने सवालिया नजरों से सब की तरफ देखा और बोले, ‘‘क्या बात है? ऐसी क्या बात हो गई जो इतनी सुबहसुबह बुलाया?’’
मीता कुछ कहती, उस से पहले ही उस के पति ने अपना मोबाइल रमेश के आगे रख दिया और बोला, ‘‘जरा यह तो देखिए.’’
इस पर चिढ़ते हुए रमेश ने कहा, ‘‘यह क्या बेहूदा मजाक है? क्या वीडियो देखने के लिए बुलाया है?’’
मीता बोली, ‘‘नाराज न होएं. आप एक बार देखिए तो सही, आप को सब समझ आ जाएगा.’’
जैसे ही रमेश ने वह वीडियो देखा उस का पूरा जिस्म गुस्से से कांपने लगा और वह ज्यादा देर वहां रुक नहीं सका. बाहर आते ही रमेश ने दामिनी (सलेहज) को फोन लगाया.
दामिनी की आवाज सुनते ही रमेश की आवाज भर्रा गई, ‘‘तुम सही थी. मैं एक अच्छा पिता नहीं बन पाया. ननद तो तुम्हारी इस लायक थी ही नहीं. जिन बातों पर एक मां को गौर करना चाहिए था, पर तुम ने एक पल में ही गौर कर लिया. तुम ने तो मुझे होशियार भी किया और हम सबकुछ नहीं समझे. यहीं नहीं, दीपा पर अंधा विश्वास किया. मुझे अफसोस है कि मैं ने उस दिन तुम्हें इतने कड़वे शब्द कहे.’’
‘‘अरे जीजाजी, आप यह क्या बोले जा रहे हैं? मैं ने आप की किसी बात का बुरा नहीं माना था. अब आप बात बताएंगे या यों ही बेतुकी बातें करते रहेंगे. आखिर हुआ क्या है?’’
रमेश ने पूरी बात बताई और कहा, ‘‘अब आप ही बताओ मैं क्या करूं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.’’ और रमेश की आवाज भर्रा गई.
‘‘आप परेशान मत होइए. जो होना था हो गया. अब यह सोचने की जरूरत है कि आगे क्या करना है? ऐसा करिए आप सब से पहले घर पहुंचिए और दीपा को स्कूल जाने से रोकिए.’’
‘‘पर इस से क्या होगा?’’
‘‘क्यों नहीं होगा? आप ही बताओ, इस एकडेढ़ साल में आप ने क्या किसी भी दिन दीपा को कहते हुए सुना कि वह स्कूल नहीं जाना चाहती? चाहे घर में कितना ही जरूरी काम था या तबीयत खराब हुई, लेकिन वह स्कूल गई. मतलब कोई न कोई रहस्य तो है. स्कूल जाने का कुछ तो संबंध हैं इस बात से. वैसे भी यदि आप सीधासीदा सवाल करेंगे तो वह आप को कुछ नहीं बताएगी. देखना आप, स्कूल न जाने की बात से वह बिफर जाएगी और फिर आप से जाने की जिद करेगी. तब मौका होगा उस से सही सवाल करने का.’’
‘‘क्या आप मेरा साथ दोगी? आप आ सकती हो उस से बात करने के लिए?’’ रमेश ने पूछा.
‘‘नहीं, मेरे आने से कोई फायदा नहीं. दीदी को भी आप जानते हैं. उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. इस बात के लिए मेरा बीच में पड़ना सही नहीं होगा. आप मीता को ही बुला लीजिए.’’
घर जा कर रमेश ने मीता को फोन कर के घर बुला लिया और दीपा को स्कूल जाने से रोका,’’ आज तुम स्कूल नहीं जाओगी.’’
लेकिन उम्मीद के मुताबिक दीपा स्कूल जाने की जिद करने लगी,’’ आज मेरा प्रैक्टिकल है. आज तो जाना जरूरी है.’’
इस पर रमेश ने कहा,’’ वह मैं तुम्हारे स्कूल में जा कर बात कर लूंगा.’’
‘‘नहीं पापा, मैं रुक नहीं सकती आज, इट्स अर्जेंट.’’
‘‘एक बार में सुनाई नहीं देता क्या? कह दिया ना नहीं जाना.’’ पर दीपा बारबार जिद करती रही. इस बात पर रमेश को गुस्सा आ गया और उन्होंने दीपा के गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया. हालांकि? दीपा पर हाथ उठा कर वे मन ही मन दुखी हुए, क्योंकि उन्होंने आज तक दीपा पर हाथ नहीं उठाया था. वह उन की लाड़ली बेटी थी.
तब तक मीता अपने पति के साथ वहां पहुंच गई और स्थिति को संभालने के लिए दीपा को उस के कमरे में ले कर चली गई. वह दीपा से बोली, ‘‘यह सब क्या चल रहा है, दीपा? सचसच बता, क्या है यह सब फोटोज, यह एमएमएस?’’
दीपा उन फोटोज और एमएमएस को देख कर चौंक गई, ‘‘ये…य…यह सब क…क…ब …कै…से?’’ शब्द उस के गले में ही अटकने लगे. उसे खुद नहीं पता था इस एमएमएस के बारे में, वह घबरा कर रोने लगी.
‘‘शुरूशुरू में खाना बनाते समय ऐसा ही होता है,’’ फिर आनंदजी की पत्नी रामेश्वरी ने आपबीती सुनाई.
मंजरी ने मेज पर नमकीन, मिठाई और चाय रखी. कमलनाथ कह रहे थे, ‘‘तो समीर कल का पक्का है न? भाभीजी, कल सवेरे 7 बजे पिकनिक पर चलना है आप दोनों को. 30-40 मील की दूरी पर एक बहुत सुंदर जगह है. वहां रेस्ट हाउस भी है. सब इंतजाम हो गया है. मैं आप दोनों को लेने 7 बजे आऊंगा.’’
समीर और मंजरी ने एकदूसरे की तरफ देखा. फिर उसी क्षण समीर बोला, ‘‘ठीक है, हम लोग चलेंगे.’’
थोड़ी देर बाद जब सब चले गए तो समीर ने मंजरी से कहा, ‘‘तुम इतना अच्छा खाना बनाती हो, फिर भी सब के सामने झूठ क्यों बोलीं?’’
‘‘आप को मेरा बनाया खाना अच्छा लगता है?’’
‘‘बहुत,’’ समीर ने कहा.
दोनों की नजरें एक क्षण के लिए एक हो गईं. फिर दोनों अपनेअपने कमरे में चले गए.
लेकिन थोड़ी ही देर बाद तेज आंधी के साथ मूसलाधार बारिश होने लगी. बिजली चली गई. समीर को खयाल आया कि मंजरी अकेली है, कहीं डर न जाए.
वह टार्च ले कर मंजरी के कमरे के सामने गया और उसे पुकारने लगा. मंजरी ने दरवाजा खोला और समीर को देख राहत की सांस ले बोली, ‘‘देखिए न, ये खिड़कियां बंद नहीं हो रही हैं. बरसात का पानी अंदर आ रहा है.’’
समीर ने टार्च उस के हाथ में दे दी और खिड़कियां बंद करने लगा. खिड़कियों के दरवाजे बाहर खुलते थे. तेज हवा के कारण वह बड़ी कठिनाई से उन्हें बंद कर सका.
‘‘तुम्हारा बिस्तर तो गीला है. सोओगी कैसे?’’
‘‘मैं गद्दा उलटा कर के सो जाऊंगी.’’
‘‘तुम्हें डर तो नहीं लगेगा?’’
मंजरी कुछ नहीं बोली. समीर ने अत्यंत मृदुल आवाज में कहा, ‘‘मंजरी.’’ और उस ने उस की तरफ बढ़ने को कदम उठाए. फिर अचानक वह मुड़ा और अपने कमरे में चला गया.
दूसरे दिन सवेरे 7 बजे दोनों नहाधो कर पिकनिक के लिए तैयार थे. इतने में कमलनाथ भी जीप ले कर आ पहुंचे. समीर उन के पास बैठा और मंजरी किनारे पर. मौसम बड़ा सुहावना था. समीर और कमलनाथ में बातें चल रही थीं. मंजरी प्रकृति का सौंदर्य देखने में मगन थी.
अब रास्ता खराब आ गया था और जीप में बैठेबैठे धक्के लगने लगे थे.
‘‘तुम इतने किनारे पर क्यों बैठी हो? इधर सरक जाओ,’’ समीर ने कहा.
लज्जा से मंजरी का चेहरा आरक्त हो उठा. उसे सरकने में संकोच करते देख समीर ने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से उसे अपने पास खींच लिया. मंजरी ने भी अपना हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की.
शाम 7 बजे घर लौटे तो दोनों खुश थे. पिकनिक में खूब मजा आया था. दोनों ने आ कर स्नान किया और गरमगरम चाय पीने हाल में बैठ गए. समीर बातचीत करने के लिए उत्सुक लग रहा था. ‘‘रात के खाने के लिए क्या बनाऊं?’’ मंजरी ने पूछा तो उस ने कहा, ‘‘बैठो भी, जल्दी क्या है? आमलेटब्रेड खा लेंगे.’’ फिर उस ने अचानक गंभीर हो कर कहा, ‘‘मंजरी, मुझे तुम से कुछ पूछना है.’’
‘‘पूछिए.’’
‘‘मंजरी, इस शादी से तुम सचमुच खुश हो न?’’
‘‘मैं तो बहुत खुश हूं. खुश क्यों न होऊं, जब मेरे हाथ आप जैसा रत्न लगा है.’’
खुशी से समीर का चेहरा खिल उठा, ‘‘और मेरे हाथ भी तो तुम जैसी लक्ष्मी लगी है.’’
दोनों ही आनंदविभोर हो कर एकदूसरे को देखने लगे. शंका के
सब बादल छंट चुके थे. तनाव खत्म हो गया था.
इतने में कालबेल बजी. समीर उठ कर बाहर गया.
मंजरी सोच रही थी कि अगले दिन सवेरे वह सासससुर को फोन कर के यह खुशखबरी देगी.
‘‘मंजरी…मंजरी,’’ कहते हुए खुशी से उछलता समीर अंदर आया.
‘‘इधर आओ, मंजरी, देखो, तुम्हारा एम.ए. का नतीजा आया है.’’
दौड़ कर मंजरी उस के पास गई. लेकिन समीर ने आसानी से उसे तार नहीं दिया. मंजरी को छीनाझपटी करनी पड़ी. तार खोल कर पढ़ा :
‘‘हार्दिक बधाई. योग्यता सूची में द्वितीय. चाचा.’’
खुशी से मंजरी का चेहरा चमक उठा. तिरछी नजर से उस ने पास खड़े समीर की तरफ देखा.
समीर ने आवेश में उसे अपनी ओर खींच लिया और मृदुल आवाज में कहा, ‘‘मेरी ओर से भी हार्दिक बधाई. तुम जैसी होशियार, गुणी और सुंदर पत्नी पा कर मैं भी आज योग्यता सूची में आ गया हूं, मंजरी.’’
इस सुखद वाक्य को सुनते ही मंजरी ने अपना माथा समर्पित भाव से समीर के कंधे पर रख दिया. उस की तपस्या पूरी हो गई थी.
कानपुर रेलवे स्टेशन पर परिवार के सभी लोग मुझ को विदा करने आए थे, मां, पिताजी और तीनों भाई, भाभियां. सब की आंखोें में आंसू थे. पिताजी और मां हमेशा की तरह बेहद उदास थे कि उन की पहली संतान और अकेली पुत्री पता नहीं कब उन से फिर मिलेगी. मुझे इस बार भारत में अकेले ही आना पड़ा. बच्चों की छुट्टियां नहीं थीं. वे तीनों अब कालेज जाने लगे थे. जब स्कूल जाते थे तो उन को बहलाफुसला कर भारत ले आती थी. लेकिन अब वे अपनी मरजी के मालिक थे. हां, इन का आने का काफी मन था परंतु तीनों बच्चों के ऊपर घर छोड़ कर भी तो नहीं आया जा सकता था. इस बार पूरे 3 महीने भारत में रही. 2 महीने कानपुर में मायके में बिताए और 1 महीना ससुराल में अम्मा व बाबूजी के साथ.
मैं सब से गले मिली. ट्रेन चलने में अब कुछ मिनट ही शेष रह गए थे. पिताजी ने कहा, ‘‘बेटी, चढ़ जाओ डब्बे में. पहुंचते ही फोन करना.’’ पता नहीं क्यों मेरा मन टूटने सा लगा. डब्बे के दरवाजे पर जातेजाते कदम वापस मुड़ गए. मैं मां और पिताजी से चिपट गई. गाड़ी चल दी. सब लोग हाथ हिला रहे थे. मेरी आंखें तो बस मां और पिताजी पर ही केंद्रित थीं. कुछ देर में सब ओझल हो गए. डब्बे के शौचालय में जा कर मैं ने मुंह धोया. रोने से आंखें लाल हो गई थीं. वापस आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. मेरे सामने 3 यात्री बैठे थे, पतिपत्नी और उन का 10-11 वर्षीय बेटा. लड़का और उस के पिता खिड़की वाली सीटों पर विराजमान थे. हम दोनों महिलाएं आमनेसामने थीं, अपनीअपनी दुनिया में खोई हुईं.
‘‘आप दिल्ली में रहती हैं क्या?’’ उस महिला ने पूछा.
‘‘नहीं, लंदन में रहती हूं. दिल्ली में मेरी ससुराल है. यहां पीहर में इतने सारे लोग हैं, इसलिए बहुत अच्छा लगता है. दिल्ली में सासससुर के साथ रहने का मन तो बहुत करता है पर वक्त काटे नहीं कटता. वहां बस खरीदारी में ही समय खराब करती रहती हूं,’’ अब मेरा मन कुछ हलका हो गया था, ‘‘आप मुझे आशा कह कर पुकार सकती हैं,’’ मैं ने अपना नाम भी बता दिया.
‘‘मेरा नाम करुणा है और यह है हमारा बेटा राकेश, और ये हैं मेरे पति सोमेश्वर.’’ करुणा के पति ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया. राकेश अपनी मां के कहने पर नमस्ते के बजाय केवल मुसकरा दिया. लेकिन सोमेश्वर ने नमस्ते के बाद उस से आगे बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं ने अनुमान लगाया कि शायद वे दक्षिण के थे. करुणा और मैं तो हिंदी में ही बातें कर रही थीं. शायद सोमेश्वर को हिंदी में बातें करने में परेशानी महसूस होती थी, इसलिए वे चुप ही रहे. ‘‘गाड़ी दिल्ली कब तक पहुंचेगी?’’ मैं ने पूछा, ‘‘वैसे पहुंचने का समय तो दोपहर के 3 बजे का है. अभी तक तो समय पर चल रही है शायद?’’ ‘‘यह गाड़ी आगरा के बाद मालगाड़ी हो जाती है. वहां से इस का कोई भरोसा नहीं. हम तो साल में 3-4 बार दिल्ली और कानपुर के बीच आतेजाते हैं, इसलिए इस गाड़ी की नसनस से वाकिफ हैं,’’ करुणा बोली, ‘‘शायद 5 बजे तक पहुंच जाएगी. आप दिल्ली में कहां जाएंगी?’’
‘‘करोलबाग,’’ मैं बोली.
‘‘आप को स्टेशन पर कोई लेने आएगा?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘हमें तो टैक्सी करनी पड़ेगी, हम छोड़ आएंगे आप को करोलबाग, अगर कोई लेने नहीं आया तो…’’ ‘‘मुझे लेने कौन आएगा. बेचारे सासससुर के बस का यह सब कहां है,’’ मैं ने संक्षिप्त उत्तर दिया. सोमेश्वर ने अंगरेजी में कहा, ‘‘आप फिक्र न कीजिए, हम छोड़ आएंगे.’’
‘‘हम तो हौजखास में रहते हैं. कभी समय मिला तो आप से मिलने आऊंगी,’’ करुणा बोली. न जाने क्यों वह मुझे बहुत ही अच्छी लगी. ऐसे लगा जैसे बिलकुल अपने घर की ही सदस्य हो. ‘‘हांहां, जरूर आ जाना…परसों तो इंदू भी आ जाएगी. हम तीनों मिल कर खरीदारी करेंगी.’’ करुणा की आंखों में प्रश्न तैरता देख कर मैं ने कहा, ‘‘इंदू मेरी ननद है. मेरे पति से छोटी है. कलकत्ता में रहती है.’’
‘‘कहीं इंदू के पति का नाम वीरेश तो नहीं?’’ करुणा जल्दी से बोली.
‘‘हांहां, वही…तुम कैसे जानती हो उसे?’’ मैं उत्साह से बोली. अचानक शायद कोई धूल का कण सोमेश्वर की आंखों में आ गया. उस ने तुरंत चश्मा उतार लिया और आंख रगड़ने लगा.
करुणा बोली, ‘‘आप से कितनी बार कहा है कि खिड़की के पास वाली सीट पर मत बैठिए. खुद बैठते हैं, साथ ही राकेश को भी बिठाते हैं. अब जाइए, जा कर आंखों में पानी के छींटे डालिए.’’ सोमेश्वर सीट से उठ खड़ा हुआ. उस के जाने के बाद करुणा ने राकेश को पति की सीट पर बैठने को कहा और खुद मेरे पास आ कर बैठ गई.
‘‘आशाजी, आप मुझे नहीं पहचानतीं, मैं वही करुणा हूं जिस की शादी हरीश से हुई थी.’’
‘‘अरे, तुम हो करुणा?’’ मेरे मुंह से चीख सी निकल गई. करुणा ने मेरी ओर देखा फिर राकेश को देखा. वह अपने में मस्त बाहर खिड़की के नजारे देख रहा था. करुणा का नाम लेना भी हमारे घर में मना था. हम सब के लिए तो वह मर गई थी. मेरे देवर से उस की शादी हुई थी, 12 वर्ष पहले. शादी अचानक ही तय हो गई थी. हरीश 2 वर्ष के लिए रूस जा रहा था, प्रशिक्षण के लिए. साथ में पत्नी को ले जाने का भी खर्चा मिल रहा था.अम्मा और बाबूजी तो हमारे आए बिना शादी करने के पक्ष में नहीं थे. इन का औ?परेशन हुआ था, डाक्टरों ने मना कर दिया था यात्रा पर जाने के लिए, इसलिए हम में से तो कोई आ नहीं पाया था. शादी के कुछ दिनों बाद हरीश और करुणा रूस चले गए. लेकिन 2 महीने के भीतर ही हरीश की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. मेरे पति लंदन से मास्को गए थे हरीश का अंतिम संस्कार करने. बेचारी करुणा भी भारत लौट गई. दुलहन के रूप में भारत से विदा हुई थी और विधवा के रूप में लौटी थी.
अम्मा और बाबूजी के ऊपर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा था. उन का बेटा भरी जवानी में ही उन को छोड़ कर चला गया था. वे करुणा को अपने पास रखना चाहते थे, लेकिन वह नागपुर अपने मातापिता के पास चली गई. कभीकभार करुणा के पिता ही बाबूजी को पत्र लिख दिया करते थे. अम्मा और बाबूजी की खुशी की सीमा नहीं रही, जब उन्हें पता चला कि उन के बेटे की संतान करुणा की कोख में पनप रही है. कुछ महीनों बाद करुणा के पिता ने पत्र द्वारा बाबूजी को उन के पोते के जन्म की सूचना दी. अम्मा और बाबूजी तो खुशी से पागल ही हो गए. दोनों भागेभागे नागपुर गए, अपने पोते को देखने. लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि करुणा ने बेटे को जन्म अपने पीहर में नहीं बल्कि अपने दूसरे पति के यहां बंबई में दिया था. दोनों तुरंत नागपुर से लौट आए. बाद में करुणा के 1 या 2 पत्र भी आए, परंतु अम्मा और बाबूजी ने हमेशाहमेशा के लिए उस से रिश्ता तोड़ लिया. हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी करुणा ने दूसरी शादी कर ली, इस बात के लिए वे उसे क्षमा नहीं कर पाए. जब उन्हें इस बात का पता चला कि करुणा का दूसरा पति उस समय मास्को में ही था, जब हरीश और करुणा वहां थे तो अम्माबाबूजी को यह शक होने लगा कि क्या पता करुणा के पहले से ही कुछ नाजायज ताल्लुकात रहे हों. क्या पता यह संतान हरीश की है या करुणा के दूसरे पति की? कहीं जायदाद में अपने बेटे को हिस्सा दिलाने के खयाल से इस संतान को हरीश की कह कर ठगने तो नहीं जा रही थी करुणा? ‘‘राकेश एकदम हरीश पर गया है. एक बार अम्माबाबूजी इस को देख लें तो सबकुछ भूल जाएंगे,’’ मुझ से रहा न गया. ‘‘भाभीजी, आप ने मेरे मुंह की बात कह दी. यह बात कहने को मैं बरसों से तरस रही थी लेकिन किस से कहती. बेचारा सोमेश्वर तो राकेश को ही अपना बेटा मानता है. शायद हरीश भी कभी राकेश से इतना प्यार नहीं कर पाता जितना सोमेश्वर करता है.’’
करुणा ने बात बीच में ही रोक दी. सोमेश्वर लौट आया था. उस के बैठने से पहले ही राकेश उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलिए पिताजी, भोजनकक्ष में. कुछ खाने को बड़ा मन कर रहा है.’’ सोमेश्वर का मन तो नहीं था, परंतु करुणा द्वारा इशारा करने पर वह चला गया. उन के जाने पर करुणा ने चैन की सांस ली. हम दोनों चुप थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करें. ‘‘करुणा, अम्मा और बाबूजी को बहुत बुरा लगा था कि तुम ने हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी दूसरी शादी कर ली,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ने के विचार से कहा. शायद करुणा को इस प्रश्न का एहसास था. वह धीरे से बोली, ‘‘क्या करती भाभीजी, सोमेश्वर हमारे फ्लैट के पास ही रहता था. वह उन दिनों बंबई की आईआईटी में वापस जाने की तैयारी कर रहा था. उस ने हरीश की काफी मदद की थी. हर शनिवार को वह हमारे ही यहां शाम का खाना खाने आ जाया करता था. जिस कार दुर्घटना में हरीश की मृत्यु हुई थी, उस में सोमेश्वर भी सवार था. संयोग से यह बच गया.
‘‘भाई साहब तो हरीश का अंतिम संस्कार कर के तुरंत लंदन वापस चले गए थे परंतु मैं वहां का सब काम निबटा कर एक हफ्ते बाद ही आ पाई थी. सोमेश्वर भी उसी हवाई उड़ान से मास्को से दिल्ली आया था. वह अम्मा और बाबूजी का दिल्ली का पता और हमारे घर का नागपुर का पता मुझ से ले गया,’’ कहतेकहते करुणा चुप हो गई. ‘‘तुम दिल्ली भी केवल एक हफ्ता ही रहीं और नागपुर चली गईं?’’ मैं ने पूछा.‘‘क्या करती भाभी, सोमेश्वर दिल्ली से सीधा नागपुर गया था, मेरे मातापिता से मिलने. उस से मिलने के बाद उन्होंने तुरंत मुझे नागपुर बुला भेजा, भैया को भेज कर. फिर जल्दी ही सोमेश्वर से मेरी सिविल मैरिज हो गई,’’ करुणा की आंखों में आंसू भर आए थे. ‘‘तुम ने सोमेश्वर से शादी कर के अच्छा ही किया. राकेश को पिता मिल गया और तुम्हें पति का प्यार. तुम्हारे कोई और बालबच्चा नहीं हुआ?’’
‘‘भाभीजी, राकेश के बाद हमारे जीवन में अब कोई संतान नहीं होने वाली. कानूनी तौर पर राकेश सोमेश्वर का ही बेटा है. सोमेश्वर ने तो मुझ को पहले ही बता दिया था कि युवावस्था में एक दुर्घटना के कारण वह संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया था. मेरे मातापिता ने यही सोचा कि इस समय उचितअनुचित का सोच कर अगर समय गंवाया तो चाहे उन की बेटी को दूसरा पति मिल जाएगा, परंतु उन के नवासे को पिता नहीं मिलने वाला. मैं शादी के बाद बंबई में रहने लगी. जब राकेश हुआ तो किसी को तनिक भी संदेह नहीं हुआ.’’ वर्षों से करुणा के बारे में हम लोगों ने क्याक्या बातें सोच रखी थीं. अम्मा और बाबूजी तो उस का नाम आते ही क्रोध से कांपने लगते थे. परंतु अब सब बातें साफ हो गई थीं. बेचारी शादी के बाद कितनी जल्दी विधवा हो गई थी. पेट में बच्चा था. फिर एक सहारा नजर आया, जो उस की जीवननैया को दुनिया के थपेड़ों से बचाना चाहता था. ऐसे में कैसे उस सहारे को छोड़ देती? अपने भविष्य को, अपनी होने वाली संतान के भविष्य को किस के भरोसे छोड़ देती? मैं ने करुणा के सिर पर हाथ रख दिया. वह मेरी ओर स्नेह से देखने लगी. अचानक वह झुकी और मेरे पांवों को हाथ लगाने लगी, ‘‘आप तो रिश्ते में मेरी जेठानी लगती हैं. आप के पांव छूने का अवसर फिर पता नहीं कभी मिलेगा या नहीं.’’
मैं ने उस को अपने पांवों को छूने दिया. चाहे अम्मा और बाबूजी ने करुणा को अपनी पुत्रवधू के रूप में अस्वीकार कर दिया था, परंतु मुझे अब वह अपनी देवरानी ही लगी. कुछ ही देर में सोमेश्वर और राकेश लौट आए. भोजनकक्ष से काफी सारा खाने का सामान लाए थे. हम सभी मिलजुल कर खाने लगे. दिल्ली जंक्शन आ गया. सामान उठाने के लिए 2 कुली किए गए. सोमेश्वर ने मुझे कुली को पैसे देने नहीं दिए. टैक्सी में सोमेश्वर आगे ड्राइवर के साथ बैठा था. मैं, करुणा और राकेश पीछे बैठे थे. कुछ ही देर बाद हमारा घर आ गया. सोमेश्वर डिक्की से मेरा सामान निकालने लगा. ‘‘बेटा, ताईजी को नमस्ते करो, पांव छुओ इन के,’’ करुणा ने कहा तो राकेश ने आज्ञाकारी पुत्र की तरह पहले हाथ जोड़े फिर मेरे पांव छुए. मैं ने उन दोनों को सीने से लगा लिया. सोमेश्वर ने मेरा सामान उठा कर बरामदे में रख कर घंटी बजाई. मैं ने करुणा और राकेश से विदा ली. चलतेचलते मैं ने 100 रुपए का 1 नोट राकेश की जेब में डाल दिया. अम्मा और बाबूजी तो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे, तुरंत दरवाजा खोल दिया. मेरे साथ सोमेश्वर को देख कर तनिक चौंके, परंतु मैं ने कह दिया, ‘‘अम्माजी, ये अपनी टैक्सी में मुझे साथ लाए थे, कार में इन की पत्नी और बेटा भी हैं.’’
‘‘चाय वगैरा पी कर जाइएगा,’’ बाबूजी ने आग्रह किया.
‘‘नहीं, अब चलता हूं,’’ सोमेश्वर ने हाथ जोड़ दिए. अम्मा और बाबूजी मुझ को घेर कर बैठ गए. वे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे, सफर के बारे में, मेरे पीहर के बारे में परंतु मेरा मन तो कहीं और भटक रहा था. लेकिन उन से क्या कहती.
मैं कहना तो चाहती थी कि आप यह सब मुझ से क्यों पूछ रहे हैं? अगर कुछ पूछना ही चाहते हैं तो पूछिए कि वह आदमी कौन था, जो यहां तक मुझे टैक्सी में छोड़ गया था? टैक्सी में बैठी उस की पत्नी और पुत्र कौन थे? शायद मैं साहस कर के उन को बता भी देती कि उन के खानदान का एक चिराग कुछ क्षण पहले उन के घर की देहरी तक आ कर लौट गया है. वे दोनों रात के अंधेरे में उसे नहीं देख पाए थे. शायद देख पाते तो उस में उन्हें अपने दिवंगत पुत्र की छवि नजर आए बिना नहीं रहती.