Social Story: अलका औफिस में सब के लिए जिज्ञासा का विषय बनी हुई थी. वह किस से, क्यों, कहां जाती है, इस बारे में सब अटकलें लगाते थे लेकिन असलियत कुछ और ही थी.
अलका को जैसे ही यह खबर लगी कि उस का तबादला फिर भोपाल होने का मेल हैडऔफिस से आया है, तो उस की आंखें छलक पड़ीं. वह तो फिर से भोपाल जाने के लिए जैसे रातदिन बाट ही जोह रही थी.
उस के तबादले पर इंदौर कार्यालय के उस के सहकर्मियों ने उस का बाकायदा विदाई समारोह आयोजित किया. विदाई समारोह के भाषण में वह अपने बारे में बहुतकुछ कहना चाहती थी, लेकिन यह सोच कर उस ने कुछ नहीं कहा कि बनर्जी साहब को सबकुछ पता चल ही गया है, तो अब सारी बात बाकी के लोगों को भी पता चल ही जाएगी. तब, यह सबकुछ जान कर शायद किसी के दिल में यह बात आ जाए कि
‘माफ करना अलका,’ हम तुम्हें समझ नहीं पाए.
वह जल्दी से घर आई. उस ने अपने 2 सूटकेसों में सारा सामान भरा और रेलवे स्टेशन पहुंची. भोपाल जाने के लिए 2 साल पहले किन हालात से गुजर कर उसे भोपाल से इंदौर कार्यालय में आना पड़ा. जब वह इंदौर आई, तब इस शहर से पूरी तरह अनजान थी.
इंदौर कार्यालय में जब वह पहुंची तो उस ने एक मैडम से कहा, ‘मुझे बनर्जी साहब से मिलना है,’ वह मैडम उस के सौम्य रूप को देख कर उस पर एकदम से मुग्ध सी हो गई. फिर बोली, ‘मैडम, आप किसलिए उन से मिलना चाहती हैं?’ जवाब में वह बोली, ‘मैं अलका हूं और भोपाल कार्यालय से ट्रांसफर हो कर यहां आई हूं और मुझे अपनी जौइनिंग रिपोर्ट देनी है.’
‘सामने वाला केबिन बनर्र्जी साहब का है और मैं उन की पीए श्वेता शर्मा हूं. आप उन से जा कर मिल सकती हैं,’ उस के केबिन में जाने के 5 मिनट बाद बनर्र्जी साहब ने अपनी पीए श्वेता को केबिन में बुलाया और कहा, ‘मैडम, ये अलका हैं, आज ही भोपाल दफ्तर से आई हैं. आप इन्हें आज अपने साथ बैठाइए और कविता जोकि मैटरनिटी लीव पर हैं. उन की सीट का काम इन्हें समझा दीजिए.’
‘देखिए अलकाजी, मिसेस कविता की डिलिवरी हुई है, इसलिए शायद वे 6 माह तक अवकाश पर रहेंगी. इस सीट का कार्यभार आप को संभालना है,’ श्वेता ने कहा.
‘देखिए, कृपया आप मुझे अलकाजी और आप वगैरह मत कहिए. हम एक ही दफ्तर में काम करते हैं, इसलिए हम सब एकदूसरे के कलीग हैं. यदि तुम मुझे अलका कहोगी तो ज्यादा अच्छा लगेगा,’ फिर श्वेता ने उसे उस सीट के कार्यभार की पूरी जानकारी दी. अब लंच होने को था, इसलिए उस ने कहा, ‘अलका, लंच के लिए टिफिन लाई हो या रैस्टोरैंट में जाने का इरादा है?’
‘मैं तो भोपाल की बस से उतरी और सीधे यहां औफिस में आ गई, इसलिए मेरे पास लंच की व्यवस्था नहीं है.’
‘‘देखो अलका, आज तुम मेरे साथ लंच लो, फिर कल से व्यवस्था कर लेना.’’
लंच करने के दौरान श्वेता ने सहज ही पूछ लिया, ‘अलका, भोपाल से तुम्हारे साथ कोई आया है और तुम्हारे रहने की क्या व्यवस्था है?’
‘मैं अकेली ही भोपाल से आई हूं और मेरे पास रहने का अभी कोई इंतजाम नहीं है. सोच रही हूं कि आज किसी होटल में स्टे कर लूं और फिर किसी की सहायता से कहीं मकान किराए पर ले लूंगी.’
‘ठीक है, तो फिर आज रात तुम मेरी मेहमान बन कर मेरे घर चलो. कल कहीं तुम्हारे लिए मकान की व्यवस्था कर लेंगे.’
अगले दिन श्वेता ने एक मकान उसे दिखाया, जो उसे पसंद आ गया और वह उसी दिन उस में शिफ्ट भी हो गई. जब अलका उस मकान से शिफ्ट होने के लिए श्वेता के घर से निकली तब वह बोली, ‘अलका, तुम अलग मकान में शिफ्ट हो रही हो, इस का मतलब यह नहीं कि हमारी दोस्ती खत्म हो गई. तुम मेरी एक अच्छी सहेली हो और हमेशा रहोगी. यदि तुम्हें कभी भी मेरी सहायता की जरूरत पड़े तो मुझे जरूर बताना.’
कुछ ही दिनों में अलका को इंदौर कार्यालय का माहौल भा गया. वह रोजाना नियत समय पर दफ्तर जाने लगी. लेकिन उस की एक बात पर दफ्तर के सहकर्मियों की नजर थी कि कभीकभी वह अचानक सीट से उठ कर बाहर जाती है और किसी से मोबाइल पर देर तक बातें करती रहती है. यह सिलसिला तकरीबन रोजाना ही होता है. वह इतनी देर तक किस से, क्या बातें करती है, यह सब के लिए चौंकाने वाली बात थी.
चूंकि वह जवान है, बेहद सुंदर है और कदकाठी बहुत आकर्षक है, इसलिए सब के मन में एक भ्रम यह था कि यह किसी लड़के से प्यार करती है और उसी से इतनी देर तक बातें करती है. दफ्तर में 5 दिन का सप्ताह है और हर शनिवाररविवार अवकाश रहता है, इसलिए वह शनिवाररविवार को अवकाश के दिन क्या करती होगी, यह उन सब के लिए जिज्ञासा का विषय था.
एक दिन रात 11 बजे वह उठी और अपने मकान की बालकनी में जा कर किसी से धीमी आवाज में बातें करने लगी. अब दफ्तर में अचानक अपनी सीट से उठ कर उस का किसी से देर तक बातें करना और देररात एक बालकनी में खड़े हो कर धीमी आवाज में बातें करना कुछ रहस्यमय सा लगने लगा था.
दफ्तर के कुछ सहकर्मियों के मन में यह बात आई भी कि अलका से पूछा जाए कि सीट पर से अचानक उठ कर बाहर जा कर वह इतनी देर तक किस से, क्या बातें करती है? लेकिन किसी से मोबाइल पर बातें करना एक पर्सनल मामला है, इसलिए किसी ने उस से यह पूछने की हिम्मत नहीं की. हां, उस के इस बरताव से सब के मन में एक शंका अवश्य हो गई कि वह किसी लड़के के प्रेमजाल में पड़ी हुई है.
अब अलका हर शनिवाररविवार अवकाश के दिन भोपाल जाने लगी. अकसर शुक्रवार की शाम दफ्तर छूटते ही वह वहां से ही रिकशा पकड़ कर बसस्टैंड चली जाती और भोपाल पहुंच जाती. वह इंदौर में नौकरी अवश्य कर रही थी, लेकिन उस का मन और ध्यान भोपाल में ही लगा रहता था. हर महीने वह अपनी पगार की राशि का अधिकांश हिस्सा भोपाल भिजवा देती थी.
एक दिन जैसे ही वह भोपाल से इंदौर लौटी, कार्यालय में आते ही उस ने कार्यालय की सोसाइटी से 10 हजार रुपए का कर्ज लिया और वे रुपए तत्काल भोपाल भिजवा दिए. वह अपनी पगार की राशि का अधिकांश हिस्सा भोपाल में किसे भेजती है और दफ्तर की सोसाइटी से लिए 10 हजार रुपए के कर्ज की राशि उस ने किसे भेजी, यह रहस्य ही था.
एक दिन वह दफ्तर आई और उस ने अपने भविष्यनिधि खाते में से 20 हजार रुपए निकलवाने के लिए आवेदन दिया. कैशियर ने उसे 20 हजार रुपयों का भुगतान उसी दिन दोपहर को कर दिया. कैशियर से रुपए ले कर सीधे बनर्जी साहब के केबिन में गई और अगले एक दिन का अवकाश स्वीकृत कराते हुए वह भोपाल चली गई.
उस के द्वारा बारबार इतनी बड़ी राशि का इंतजाम करना और फिर तत्काल भोपाल रवाना हो जाने की बात अब एक गहरे रहस्य को जन्म देने लगी थी. दफ्तर के सहकर्मियों के दिल में कई बार यह विचार भी कौंध गया कि जवानी के इस दौर में उस से कोई गलती तो नहीं हो गई? क्योंकि वह दिखने में बहुत सुंदर थी. कहीं कोई उस का एमएमएस (वीडियो) बना कर उसे ब्लैकमेल तो नहीं कर रहा है? क्योंकि कहते हैं न कि जब कहीं प्रकाश होता है तो परछाईं भी उस के साथसाथ रहती है. वह सुंदर है, गोरीचिट्टी है, सो, संभव है कुछ ‘काला’ उस के आसपास मंडरा रहा हो?’
अलका भोपाल से वापस लौटी तो बहुत गुमसुम थी. उस के मन के भीतर का दर्द अब उस के चेहरे पर साफ नजर आने लगा था. वह दफ्तर में अपनी सीट पर बैठी थी. लेकिन उस का मन काम में नहीं लग रहा था. वह ठीक से निर्णय नहीं कर पा रही थी कि ऐसी स्थिति में वह क्या करे? वह तत्काल उठ कर बनर्जी साहब के केबिन में गई और उन से बोली, ‘सर, मैं आज फिर भोपाल जाना चाहती हूं, प्लीज, मेरी कुछ दिनों की छुट्टी स्वीकृत कर दीजिए.’
‘लेकिन मैडम, दफ्तर में औडिट पार्टी आई है, इसलिए किसी को भी छुट्टी नहीं दी जा रही है, तब मैं आप को छुट्टी कैसे दे सकता हूं?’
जब साहब ने उसे छुट्टी देने में असमर्थता व्यक्त की तो वह असमंजस में पड़ गई कि अब क्या करे? वह फिर बनर्जी साहब के केबिन में गई और उस ने सविनय निवेदन किया, ‘सर, मेरा रुपए ले कर भोपाल जाना बहुत जरूरी है. यदि रुपए समय पर भोपाल नहीं पहुंच सके तो मेरे जीने का मकसद ही खत्म हो जाएगा.’
‘सौरी मैडम, मैं आप को छुट्टी नहीं दे सकता, लेकिन मानवीयता के नाते इतना कर सकता हूं कि भोपाल में मेरे एक मित्र हैं, उन को संदेश दे कर आप के रुपए भिजवाने का इंतजाम करवा सकता हूं.’
अलका ने तत्काल एक कागज पर नाम व पता लिख कर बनर्जी साहब के हाथ में दिया और कहा, ‘इस स्थान पर 20 हजार रुपए तत्काल पहुंचाने हैं.’
बनर्जी साहब ने तत्काल मोबाइल पर अपने मित्र से बात की कि ‘मैं तुम को एक मैसेज कर रहा हूं, कृपया उस के अनुसार बताए नियत स्थान पर रुपए तत्काल पहुंचवा दें.’
बनर्जी साहब के मित्र ने भी रुपए तत्काल नियत स्थान पर पहुंचा दिए और फिर मोबाइल पर उन को बताया कि, ‘जहां मैडम ने रुपए पहुंचाने के लिए कहा था, वास्तव में वह एक निजी हौस्पिटल है. जब मैं ने हौस्पिटल के काउंटर पर आप के बताए नाम का जिक्र किया तो उन्होंने मुझे एक प्राइवेट रूम में पहुंचा दिया. उस रूम में पहुंचते ही मैं ने देखा कि 4-5 वार्ड बौय मिल कर एक आदमी को पकड़ कर रस्सी से बांध रहे हैं. मुझे उस रूप में देखते ही एक नर्स ने पूछा, ‘सर, आप को किस से मिलना है, क्या आप अभिषेक से मिलने आए हैं?’ मेरे ‘हां’ कहते ही उस ने मुझे बताया कि इन का 3 वर्षों से यहां इलाज चल रहा है. ये एक भयंकर मानसिक रोगी हैं. सर, अभिषेक की हालत देख कर तो मुझ जैसे पत्थर दिल की आंख भी नम हो गई. डाक्टरों से बात करने पर उन्होंने बताया कि ऐसे मरीज कब ठीक होंगे, यह कहना बहुत मुश्किल होता है.’
यह सारी बात जान कर बनर्जी साहब भी स्तब्ध रह गए.
अगले दिन उन्होंने अलका को अपने केबिन में बुलवाया और कहा, ‘मैडम, आप के बताए हौस्पिटल में मेरे मित्र ने रुपए जमा करा दिए हैं और उस ने अभिषेक की स्थिति के बारे में जो मुझे बताया उसे सुन कर मुझे भी बहुत दुख हुआ,’ बनर्जी साहब उस से कुछ पूछते उस के पहले ही वह बोल पड़ी, ‘सर, अभिषेक और मैं ने लवमैरिज की है. हमारी शादी को 5 साल हो गए. अभिषेक का बिल्ंिडग कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय था. उस का एक पार्टनर था. उस का नाम कैलाश था. उस ने अभिषेक को विश्वास में ले कर चालाकी से सारा व्यवसाय अपने नाम कर लिया और उस को बाहर का रास्ता दिखा दिया.
‘बिल्ंिडग कंस्ट्रक्शन के व्यवसाय में अभिषेक के भी 2 करोड़ रुपए लगे हुए थे. पार्टनर द्वारा इतनी बड़ी रकम अचानक हड़पने का सदमा वह सह नहीं पाया और उस के दिलोदिमाग पर इतना बुरा और गहरा असर हुआ कि वह पागल हो गया. सर, चूंकि मैं ने और अभिषेक ने लवमैरिज की थी, इसलिए हम दोनों के परिवार हम पर नाराज हैं और उन्होंने हम से रिश्ता तोड़ दिया है. ‘वे हैं या नहीं,’ यह हमारे लिए कोई माने नहीं रखता. रही बात मेरे द्वारा मोबाइल पर देर तक बातें करने की, तो मैं अभिषेक के इलाज के लिए पूरी तरह डाक्टरों और वहां की नर्सों पर निर्भर हूं.
‘मैं ने उन को अपना मोबाइल नंबर दे रखा है. जब भी कोई सीरियस बात होती है तो वे मुझे समयअसमय मोबाइल पर सूचित करते हैं और मुझे तत्काल सीट से उठ कर उन से बात करनी पड़ती है. चूंकि अभिषेक का इलाज एक निजी हौस्पिटल में चल रहा है. इसीलिए आप समझ सकते हैं कि निजी हौस्पिटल में इलाज कराना कितना महंगा होता है.
‘सर, मैं भोपाल दफ्तर में काम करते हुए उस का इलाज करा रही थी. मेरी यह कहानी अपने दफ्तर के डिप्टी डायरैक्टर को पता चल गई. एक दिन, रात को वे मेरे घर आए और उन्होंने अपनी बुरी नियत का साया मेरे पर डालने की कोशिश की, तब मैं ने गुस्से में लालपीली होते हुए उन के गाल पर चारपांच थप्पड़ जड़ दिए. उन के गाल पर थप्पड़ों की झड़ी लगते वे बौखला उठे. उन्होंने अपनी जेब से रुपयों की गड्डी निकाली और कमरेभर में रुपए उड़ाते हुए जोरजोर से चिल्लाने लगे कि एक तो धंधा करती है उस पर भी मारपीट करती है.
‘यह सब देख कर मैं बुरी तरह घबरा गई, उस पर भी उन की चिल्लाहट सुन कर हमारी बिल्ंिडग के सारे रहवासी इकट्ठा हो गए और वे मेरे विरुद्ध ही बातें करने लगे कि अब यह पति का इलाज कराने के लिए रुपए जुटाने के चक्कर में धंधा भी करने लगी है.’
‘पुरुषप्रधान व्यवस्था में अकसर लोग पुरुषों का ही साथ देते हैं. सर, मैं चाहती भी थी कि उन डिप्टी डायरैक्टर के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराऊं. लेकिन जब हमारे बिल्ंिडग वाले ही मेरे खिलाफ बोलने लगे तो मैं पुलिस के सामने गवाह या साक्ष्य के रूप में किन लोगों को पेश करती? मैं वहां अकेली पड़ गई. इसीलिए यह बदनामी सह कर मुझे चुप रहना पड़ा. मैं मन ही मन समझ गई थी कि अब भोपाल दफ्तर में काम करना मेरे लिए मुश्किलोंभरा होगा, इसीलिए मैं ने अपना तबादला इंदौर करा लिया. इस के बाद यहां जौइनिंग देने के बाद की सारी कहानी आप के सामने है ही.’
करीब 2 वर्षों बाद भोपाल के उस डिप्टी डायरैक्टर का तबादला नई दिल्ली हो गया. इसलिए अलका ने भी अपना तबादला फिर भोपाल करवा लिया.
अंत में बनर्जी साहब बोले, माफ करना अलका, मैं ने भी तुम्हें गलत समझा था. शायद सारा स्टाफ ऐसा ही गलत समझता था क्योंकि डिप्टी डायरैक्टर के सूत्र यहां हैं जो तुम्हारे बारे में बहुतकुछ बताते रहते थे. तुम्हें अपने ध्येय में सफलता मिले, यही मेरी कामना है.
Social Story, लेखिका- भावना ठाकर
एक शब्द ‘रंडी’, जो कुछ मर्दों की जबान से फिसल कर औरतों की इमेज को गंदगी में तबदील करता हुआ बातोंबातों में तीर की तरह छूटता है, वह कली के पूरे वजूद को भी नासूर की तरह जिंदगीभर चुभता रहा. बचपन से ले कर जिंदगी का आधा सफर कटने तक ‘रंडी’ शब्द पहरन की तरह कली से लिपटा रहा. कली को लगता है कि शायद हर औरत का उपनाम बन गया है यह ‘रंडी’ शब्द.
छोटी सी बात पर 2 परिवारों में झगड़ा होना, गालीगलौच, मारपीट और लड़ाइयां नन्ही कली बचपन से देखती आ रही है. छोटी थी तब वह सहम जाती थी, पर एक शब्द कली के नाजुक मन में घर कर गया… ‘रंडी’. हर मर्द की जबान पर बातबात पर यह शब्द सुन कर कली सोचती, ‘यह ‘रंडी’ का मतलब क्या होता होगा? क्यों झगड़ा करते समय हर कोई इस शब्द का इस्तेमाल करता है?’
एक दिन कली का बापू दारू पी कर आया और कली ने कुछ मांगा, तो ‘हट रंडी, जब देखो कुछ न कुछ मांगती रहती है’ कह कर नकार दिया.
कली को बापू ने डांटा उस का बुरा नहीं लगा, पर ‘रंडी’ शब्द अखर गया. 11 साल की कली ने अपनी मां से पूछा, “मां, यह ‘रंडी’ का मतलब क्या होता है? बताओ न?”
मां ने पहले तो उसे चांटा जड़ दिया और फिर कहा, “खबरदार जो ऐसे शब्दों का जिक्र भी किया. यह शब्द गंदी और धंधा करने वाली औरतों के लिए इस्तेमाल होता है.”
कली को हैरानी हुई कि अगर यह गंदा शब्द है तो हर कोई क्यों एकदूसरे को ‘रंडी की औलाद’ और ‘रंडी’ शब्द को जोड़ कर न जाने क्याक्या कहता रहता है और बापू क्यों बातबात पर मुझे और मां को ‘रंडी’ बोलते हैं? मां तो परिवार के लिए सारे काम करती है, फिर भी वह क्यों सहन कर लेती है? मां तो गंदे काम नहीं करती, फिर क्यों बापू की जबान पर मां के लिए यह शब्द आता है?
कली की उम्र के साथसाथ यह शब्द भी बड़ा होता गया. इतना बड़ा कि हर तबके के मर्दों की जबान की शोभा बन गया. अब तो भाई भी बातबात पर भाभी को या किसी और को ‘रंडी’ शब्द से नवाज देता था.
कली सोचती रहती थी, ‘क्यों कोई औरत ‘रंडी’ शब्द सुन कर विद्रोह नहीं करती? क्यों सब ने खुद को इस शब्द के भीतर ढाल लिया है? औरत तो औरत, कोई मर्द भी इस मुद्दे पर लाठी और मशाल ले कर क्यों नहीं निकलता? वैसे तो लोग हर छोटीबड़ी बात का विरोध करते हुए दंगेफसाद तक करवा लेते हैं, पर क्यों अपनी मां, बहन, बेटी को दिए गए इस उपनाम का विरोध नहीं करते? इस का मतलब तो यह हुआ कि सारी औरतें गंदी और धंधा करने वाली हैं. पर कौन सा धंधा गलत होता है? क्या काम करने पर औरतों को ‘रंडी’ कहा जाता है?’
पर कली को कोई जवाब नहीं मिलता था. इस शब्द को सुनते हुए पलीबढ़ी कली की अब शादी हो गई. थोड़ी समझ भी आ गई थी.
कली का स्वभाव थोड़ा विद्रोही और मुखर था. ससुराल वाले औरतों को दबा कर, चुप करा कर पैरों की जूती समझ कर रखने वाले थे. हर छोटीबड़ी बात का विरोध करने पर पति प्रकाश भी कली को उसी ‘रंडी’ उपनाम से नवाजता. कभी ‘रंडी’ तो कभी ‘छिनाल’ कह कर कली को पीटता.
अब कली की समझ में आ गया ‘रंडी’ शब्द का मतलब. सिर्फ गलत या गंदे काम करने वाली औरत ही ‘रंडी’ नहीं कहलाती, बल्कि जो औरत मर्द की मरजी के खिलाफ जा कर एक कदम भी आगे चलने की कोशिश करती है या खुद को मजबूत कर के मर्द को उस की औकात दिखाती है या फिर अपने हक के लिए लड़ती है, वह कुछ मर्दों कि नजर में ‘रंडी’ होती है.
एक दिन कली की 16 साल की ननद रेवा स्कूल से घर लौट रही थी कि कुछ गुंडों ने उस का अपहरण कर लिया और उसे किसी कोठे पर बेच डाला. घर वालों ने बहुत कोशिश की, पर रेवा का कुछ पता नहीं चला.
कली का पति प्रकाश अपनी बहन के लिए परेशान रहता था और इसी शब्द ‘रंडी’ के साथ सारा गुस्सा कली पर निकालता. कली को यह सब बहुत अखरता. सालों से इस शब्द ने कली के वजूद को झकझोर कर रख दिया था. वह यह सुनसुन कर अब ऊब चुकी थी .
एक दिन प्रकाश का एक दोस्त घर आया और प्रकाश से बोला, “यार, मैं 2 दिन पहले शहर गया था. वहां तेरी बहन को देखा, जो गुलाब बानो के ‘रंडीखाने’ पर धंधा कर रही है.”
कली की आंखों में रेवा के लिए रोते हुए भी चमक उभरी, होंठों पर हंसी आ गई. वह सोचने लगी कि क्या प्रकाश अपनी बहन को ‘रंडी’ बोल पाएगा? क्या आवाज उठा पाएगा अपनी बहन को ‘रंडी’ कहने वालों के खिलाफ या यों ही सदियों से चली आ रही औरतों को ‘रंडी’ शब्द से नवाजने की परंपरा को दोहराते हुए बहन को भी ‘रंडी’ शब्द के उपनाम से बुलाता रहेगा? अब तो इस शब्द ने घर को ही घेर लिया है. शायद ‘रंडी’ शब्द का असली मतलब अब प्रकाश को समझ में आएगा.
प्रकाश अपने दोस्त के दिए हुए पते पर अपनी बहन को ढूंढ़ने गया और गुलाब बानो को पैसे दे कर कहा, “मेरी बहन को छोड़ दीजिए.”
गुलाब बानो को पैसों से मतलब था, तो पैसे ले कर अपने आदमी से बोली, “ओ कलवा, उस नई ‘रंडी’ को इस के हवाले कर, माल आ गया है.”
अपनी बहन के बारे में यह शब्द सुन कर प्रकाश का खून खौल उठा, पर गुस्सा पीते हुए वह रेवा को ले कर घर आ गया.
एक दिन किसी बात पर कली ने कुछ कहना चाहा, तो प्रकाश ने हाथ उठाते कहा, “चुप ‘रं…'”
प्रकाश के हलक में ही यह शब्द अटक गया और उस ने शर्मिंदा होते हुए कली से कहा, “मुझे माफ कर दे… आज तक तुझे मैं इस ‘रंडी’ जैसे घटिया शब्द से तोलता रहा, आज उस शब्द का सही मतलब मेरे तनमन को जला रहा है, तो यह तुम औरतों को कितना जलाता होगा. आज से मैं जहां भी, जिस के भी मुंह से यह शब्द सुनूंगा, तो उस का विद्रोह करूंगा.”
आज कली की रूह से तो पहरन की तरह लिपटा ‘रंडी‘ शब्द उतर गया, पर और न जाने कितनी कलियां इस उपनाम से तिलमिला रही होंगी, छटपटा रही होंगी, कह नहीं सकते. क्या मर्दों की जबान पर मिस्री की तरह चिपके ‘रंडी’ शब्द का कभी अग्निसंस्कार होगा?
Social Story: आज सुबह से ही अविनाश बेहद व्यस्त था. कभी ईमेल पर, कभी फोन पर, तो कभी फेसबुक पर.
‘‘अवि, नाश्ता ठंडा हो रहा है. कब से लगा कर रखा है. क्या कर रहे हो सुबह से?’’
‘‘कमिंग मम्मा, जस्ट गिव मी फाइव मिनट्स,’’ अविनाश अपने कमरे से ही चिल्लाया.
‘‘इतने बिजी तो तुम तब भी नहीं थे जब सीए की तैयारी कर रहे थे. हफ्ता हो गया है सीए कंप्लीट हुए, पर तब से तो तुम्हारे दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं या तो नैट से चिपके रहते हो या यारदोस्तों से, अपने मांबाप के लिए तो तुम्हारे पास समय ही नहीं बचा है,’’ अनुराधा लगातार बड़बड़ किए जा रही थी. उस की बड़बड़ तब बंद हुई जब अविनाश ने पीछे से आ कर उस के गले में बांहें डाल दीं.
‘‘कैसी बात कर रही हो मम्मा, तुम्हारे लिए तो टाइम ही टाइम है. चलो, आज तुम्हें कहीं घुमा लाऊं,’’ अविनाश ने मस्ती की.
‘‘रहने दे, रहने दे. घुमाना अपनी गर्लफ्रैंड को, मुझे घुमाने को तो तेरे पापा ही बहुत हैं, देख न कब से घुमा रहे हैं. अब मेरे साथ 2-3 दिन के लिए भैया के पास चलेंगे. वे लोग कब से बुला रहे हैं, कह रहे थे पिताजी क्या गए कि तुम लोग तो हमें बिलकुल ही भूल बैठे हो. आनाजाना भी बिलकुल बंद कर दिया,’’ अनुराधा ने नाश्ता परोसते हुए शिकायती लहजे में कहा. उसे अच्छे से पता था कि पीछे खड़े पतिदेव मनोज सब सुन रहे हैं.
‘‘बेटे से क्या शिकायतें हो रही हैं मेरी. कहा तो है दिसंबर में जरूर वक्त निकाल लूंगा, मगर तुम्हें तो मेरी किसी बात का भरोसा ही नहीं होता,’’ मनोज मुंह में टोस्ट डालते हुए बोले. टोस्ट के साथ उन के वाक्य के आखिरी शब्द भी पिस गए.
‘‘तो अब आगे क्या प्लान है अवि?’’ डायनिंग टेबल पर मनोज ने अविनाश से पूछा.
‘‘इस के प्लान पूछने हों तो इसे ट्विट करो. यह अपने दोस्तों के संग न जाने क्याक्या खिचड़ी पकाता रहता है. हमें यों कहां कुछ बताएगा.’’ अनुराधा का व्यंग्य सुन कर अविनाश झल्ला गया. उसे झल्लाया देख मनोज ने बात संभाली.
‘‘तुम चुप भी करो जी, जब देखो, मेरे बेटे के पीछे पड़ी रहती हो. कितना होनहार बेटा है हमारा,’’ मनोज ने मस्का मारा तो अविनाश के चेहरे पर मुसकान दौड़ आई.
‘‘हां, तो बेटा मैं पूछ रहा था कि आगे क्या करोगे?’’
‘‘वो पापा… सीए कंप्लीट होने के बाद दोस्त लोग कब से पार्टी के लिए पीछे पड़े हैं, सोच रहा हूं आज उन्हें पार्टी…’’ अविनाश की सवालिया नजरें मनोज से पार्टी के लिए फंड की रिक्वैस्ट कर रही थीं. अविनाश की शौर्टटर्म फ्यूचर प्लानिंग सुन मनोज ने अपना सिर पीट लिया.
‘‘मेरा मतलब है आगे… पार्टी, मौजमस्ती से आगे… कुछ सोचा है… नौकरी के बारे में,’’ मनोज ने जोर दे कर पूछा.
‘‘अ…हां…सौरी…वो… पापा दरअसल… एक कंसलटेंसी फर्म में अप्लाई किया है.
2-3 दिन में इंटरव्यू के लिए काल करेंगे. होपफुली काम बन जाएगा.’’
‘‘गुड.’’
‘‘पापा, वह पार्टी…’’
‘‘ठीक है, प्लान बना लो.’’
‘‘प्लान क्या करना पापा… सब फिक्स्ड है,’’ अविनाश ने खुशी से उछलते हुए कहा तो अनुराधा और मनोज एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.
24 साल का स्मार्ट, चुलबुला अविनाश पढ़ाई में जितना तेज था शरारतों में भी उतना ही उस्ताद था. उस के दोस्तों का बड़ा ग्रुप था, जिस की वह जान था. अपने मातापिता की आंखों का इकलौता तारा जिसे उन्होंने बेहद लाडप्यार से पाला था. वह अपने भविष्य के प्रति अपनी जिम्मेदारियां बखूबी समझता था इसलिए अनुराधा और मनोज उस की मौजमस्ती में बेवजह रोकटोक नहीं करते थे. उस के 2 ही शौक थे, दोस्तों के साथ मौजमस्ती करना और तेज रफ्तार बाइक चलाना. कभीकभी तो वह बाइक पर स्टंट दिखा कर लड़कियों को प्रभावित करने की कोशिश भी करता था.
आज अविनाश के लिए बहुत बड़ा दिन था. उस ने एक प्रतिष्ठित एकाउंटेंसी फर्म में इंटरव्यू क्लीयर कर लिया था. कैरियर की शुरुआत के लिए यह उस की ड्रीम जौब थी. स्वागत कक्ष में बैठे अविनाश को अब एचआर की काल का इंतजार था.
‘‘मि. अविनाश, प्लीज एचआर राउंड के लिए जाइए.’’ काल आ गई थी. एचआर मैनेजर ने अविनाश को उस के जौब प्रोफाइल, सैलरी स्ट्रैक्चर, कंपनी की टर्म और पौलिसी के बारे में समझाया और एक स्पैशल बांड पढ़ने के लिए आगे बढ़ाया, जिसे कंपनी जौइन करने से पहले साइन करना जरूरी था.
‘‘यह कैसा अजीब सा बांड है सर, ऐसा तो किसी भी कंपनी में नहीं होता.’’ बांड पढ़ कर अविनाश सकते में आ गया.
‘‘मगर इस कंपनी में होता है,’’ एचआर मैनेजर ने मुसकराते हुए जवाब दिया. बांड वाकई अजीब था. कंपनी की पौलिसी के अनुसार कंपनी के प्रत्येक कर्मचारी को कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक था. मसलन, अगर कर्मचारी कार चलाता है तो उसे सेफ्टी बैल्ट लगानी अनिवार्य होगी, अगर कर्मचारी टू व्हीलर चलाता है तो उसे हेलमेट पहनना और नियमित स्पीड पर चलना अनिवार्य होगा. जो कर्मचारी इन नियमों का उल्लंघन करता पाया गया उसे न सिर्फ अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, बल्कि जुर्माना भी भरना पड़ेगा.
अविनाश के भीतर उबल रहा गुस्सा उस के चेहरे और माथे की रेखाओं से स्पष्ट दिख रहा था. वह बेचैन हो उठा. यह क्या जबरदस्ती है. अव्वल दरजे की बदतमीजी है. सरासर तानाशाही है. क्यों पहनूं मैं हेलमेट? हेलमेट वे पहनते हैं जिन्हें अपनी ड्राइविंग पर भरोसा नहीं होता, जिन के विचार नकारात्मक होते हैं, जिन्हें सफर शुरू करने से पहले ही दुर्घटना के बारे में सोचने की आदत होती है.
मैं ऐसा नहीं हूं और मेरे बालों का क्या होगा, कितनी मुश्किल से मैं इन्हें सैट कर के रखता हूं, हेलमेट सारी की सारी सैटिंग बिगाड़ कर रख देगा. कितना कूल लगता हूं मैं बाइक राइडिंग करते हुए. हेलमेट तो सारी पर्सनैलिटी का ही कबाड़ा कर देता है और फिर मेरे इंपोर्टेड गौगल्स… उन्हें मैं कैसे पहनूंगा, क्या दिखता हूं मैं उन में.
‘‘कहां खो गए अविनाश साहब… ’’ मैनेजर के टोकने पर अविनाश दिमागी उधेड़बुन से बाहर निकला.
‘‘सर, मैं इस बांड से कनविंस नहीं हूं. ऐसे तो हमारे देश का ट्रैफिक सिस्टम भी हेलमेट पहनने को ऐनफोर्स नहीं करता, जैसे आप की कंपनी कर रही है.’’
‘‘तभी तो हमें करना पड़ रहा है. खैर, यह तो कंपनी के मालिक का निर्णय है, हम कुछ नहीं कर सकते. यह सरकारी कंपनी तो है नहीं, प्राइवेट कंपनी है सो मालिक की तो सुननी ही पड़ेगी. अगर जौब चाहिए तो इस पर साइन करना ही पड़ेगा.’’
अविनाश कुछ नहीं बोला तो उस का बिगड़ा मिजाज देख कर मैनेजर ने उसे फिर कनविंस करने की कोशिश की, ‘‘वैसे आप को इस में क्या समस्या है. यह तो मैं ने भी साइन किया था और यह आप की भलाई के लिए ही है.’’
‘‘मुझे फर्क पड़ता है सर, मैं एक पढ़ालिखा इंसान हूं. अपना बुराभला समझता हूं. भलाई के नाम पर ही सही, आप मुझे किसी चीज के लिए फोर्स नहीं कर सकते.’’
‘‘देखो भई, इस कंपनी में नौकरी करनी है तो बांड साइन करना ही पड़ेगा. आगे तुम्हारी मर्जी,’’ मैनेजर हाथ खड़े करते हुए बोला.
‘‘ठीक है सर, मैं सोच कर जवाब दूंगा,’’ कह कर अविनाश वहां से चला आया, मगर मन ही मन वह निश्चय कर चुका था कि अपनी आजादी की कीमत पर वह यहां नौकरी नहीं करेगा.
‘‘कैसा रहा इंटरव्यू, क्या हुआ,’’ अविनाश का उदास रुख देख कर मनोज ने धीमे से पूछा.
‘‘इंटरव्यू अच्छा हुआ था, एचआर राउंड भी हुआ मगर…’’
‘‘मगर क्या…’’ फिर अविनाश ने पूरी रामकहानी सुना डाली.
‘‘अरे, तो क्या हुआ, तुम्हें बांड साइन करना चाहिए था. इतनी सी बात पर तुम इतनी अच्छी नौकरी नहीं छोड़ सकते.’’
‘‘पर पापा, मुझे नहीं जम रहा. मुझे हेलमेट पहनना बिलकुल पसंद नहीं है और बांड के अनुसार अगर मैं कभी भी बिदआउट हेलमेट टू व्हीलर ड्राइव करता पकड़ा गया तो न सिर्फ मेरी नौकरी जाएगी बल्कि मुझे भारी जुर्माना भी अदा करना पड़ेगा.’’
‘‘देखो, अवि, अब तुम बड़े हो गए, अत: बचपना छोड़ो. तुम्हारी मां और मैं पहले से ही तुम्हारी ड्राइविंग की लापरवाही से काफी परेशान हैं. इस नौकरी को जौइन करने से तुम्हारा कैरियर भी अच्छे से शुरू होगा और हमारी चिंताएं भी मिट जाएंगी,’’ पापा का सख्त सुर सुन कर अविनाश ने बात टालनी ही बेहतर समझी.
‘‘देखूंगा पापा.’’ वह उठ कर अपने कमरे में चला गया, मगर मन ही मन बांड पर किसी भी कीमत पर साइन न करने की ही बात चल रही थी. विचारों में डूबे अविनाश को फोन की घंटी ने सजग किया.
‘‘हाय अवि, रितेश बोल रहा हूं, कैसा है,’’ उस के दोस्त रितेश का फोन था.
‘‘ठीक हूं, तू सुना क्या चल रहा है.’’
‘‘कल सुबह क्या कर रहा है.’’
‘‘तो सुन, कल नोएडा ऐक्सप्रैस हाईवे पर बाइक रेसिंग रखी है. पूरे ग्रुप को सूचित कर दिया है. तू भी जरूर आना. सुबह 6 बजे पहुंच जाना.’’
‘‘ठीक है.’’
बाइक रेसिंग की बात सुन कर अविनाश का बुझा दिल खिल उठा. यही तो उस का प्रिय शौक था. अकसर जिम जाने का बहाना कर वह और उस के कुछ दोस्त बाइक रेसिंग किया करते थे और अधिकतर वह ही जीतता था. हारने वाले जीतने वाले को मिल कर पार्टी देते, साथ ही कोई न कोई प्राइज आइटम भी रखा जाता. अपना नया टचस्क्रीन मोबाइल उस ने पिछली रेस में ही जीता था.
रात को अविनाश ने ठीकठाक सोचा, मगर रात को उसे बुखार ने जकड़ लिया. वह सुबह चाह कर भी नहीं उठ पाया. फलस्वरूप उस की रेस मिस हो गई. सुबह जब वह देर तक बिस्तर पर निढाल पड़ा रहा तो मनोज ने उसे क्रोसीन की गोली दे कर लिटा दिया. थोड़ी देर बाद जब बुखार कम हुआ तो वह थोड़ा फ्रेश फील कर रहा था, मगर सुबह का प्रोग्राम खराब होने की वजह से उस का मूड ठीक नहीं था.
‘‘अरे अवि, जरा इधर आओ, देखो तो अपने शहर की न्यूज आ रही है,’’ ड्राइंगरूम से पापा की तेज आवाज आई तो वह उठ कर ड्राइंगरूम में गया.
टीवी पर बारबार ब्रैकिंग न्यूज प्रसारित हो रही थी. आज सुबह नोएडा ऐक्सप्रैस हाईवे पर बाइक रेसिंग करते हुए कुछ नवयुवकों की एक ट्रक से भीषण टक्कर हो गई. उन में से 2 ने मौके पर ही दम तोड़ दिया तथा 3 गंभीर रूप से घायल हैं. उन की हालत भी नाजुक बताई जा रही थी. घटना की वजह बाइक सवारों की तेज रफ्तार और हेलमेट न पहनना बताई जा रही थी. टीवी पर नीचे नवयुवकों के नाम प्रसारित हो रहे थे. अनिल, रितेश, सुधांशु, एकएक नाम अविनाश के दिलोदिमाग पर गाज बन कर गिर रहा था. ये सब उसी के दोस्त थे. आज उसे अगर बुखार न आया होता तो इस लिस्ट में उस का नाम भी जुड़ा होता. अविनाश जड़ बना टीवी स्क्रीन ताक रहा था.
दिमाग कुछ सोचनेसमझने के दायरे से बाहर जा चुका था. मनोज आजकल की पीढ़ी के लापरवाह रवैए को कोस रहे थे. मां दुर्घटना के शिकार युवकों के मातापिता के हाल की दुहाई दे रही थी और अविनाश… वह तो जैसे शून्य में खोया था. उसे तो जैसे आज एक नई जिंदगी मिली थी.
‘‘अवि, तुम बांड साइन कर कब से नौकरी जौइन कर रहे हो,’’ मनोज ने अविनाश की तरफ घूरते हुए सख्ती से पूछा.
‘‘जी पापा, आज जाऊंगा,’’ नजरें नीची कर अविनाश अपने कमरे में चला गया. आवाज उस की स्वीकृति में जबरदस्ती नहीं, बल्कि उस के अपने दिल की आवाज थी.
Social Story, लेखक- डा. अजय सोडानी
सुबह के 10 बजे अपनी पूरी यूनिट के साथ राउंड के लिए वार्ड में था. वार्ड ठसाठस भरा था, जूनियर डाक्टर हिस्ट्री सुनाते जा रहे थे, मैं जल्दीजल्दी कुछ मुख्य बिंदुओं का मुआयना कर इलाज, जांचें बताता जा रहा था. अगले मरीज के पास पहुंच कर जूनियर डाक्टर ने बोलना शुरू किया, ‘‘सर, ही इज 65 इयर ओल्ड मैन, अ नोन केस औफ लेफ्ट साइडेड हेमिप्लेजिया.’’
तभी बगल वाले बैड पर लेटा एक वृद्ध मरीज (सरदारजी) बोल पड़ा, ‘‘ओए पुत्तर, तू मुझे भूल गया क्या?’’
बड़ा बुरा लगा मुझे. न जाने यह कौन है. नमस्कार वगैरह करने के बजाय, मुझ जैसे सीनियर व मशहूर चिकित्सक को पुत्तर कह कर पुकार रहा है. मेरे चेहरे के बदलते भाव देख कर जूनियर डाक्टर भी चुप हो गया था.
‘‘डोंट लुक एट मी लाइक ए फूल, यू कंटीन्यू विद योअर हिस्ट्री,’’ उस मरीज पर एक सरसरी निगाह डालते हुए मैं जूनियर डाक्टर से बोला.
‘‘क्या बात है बेटे, तुम भी बदल गए. तुम हो यहां, यह सोच कर मैं इस अस्पताल में आया और…’’
मुझे उस का बारबार ‘तुम’ कह कर बुलाना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. मेरे कान ‘आप’, ‘सर’, ‘ग्रेट’ सुनने के इतने आदी हो गए थे कि कोई इस अस्पताल में मुझे ‘तुम’ कह कर संबोधित करेगा यह मेरी कल्पना के बाहर था. वह भी भरे वार्ड में और लेटेलेटे. चलो मान लिया कि इसे लकवा है, एकदम बैठ नहीं सकता है लेकिन बैठने का उपक्रम तो कर सकता है. शहर ही क्या, आसपास के प्रदेशों से लोग आते हैं, चारचार दिन शहर में पड़े रहते हैं कि मैं एक बार उन से बात कर लूं, देख लूं.
मैं अस्पताल में जहां से गुजरता हूं, लोग गलियारे की दीवारों से चिपक कर खड़े हो जाते हैं मुझे रास्ता देने के लिए. बाजार में किसी दुकान में जाऊं तो दुकान वाला अपने को धन्य समझता है, और यह बुड्ढा…मेरे दांत भिंच रहे थे. मैं बहुत मुश्किल से अपने जज्बातों पर काबू रखने की कोशिश कर रहा था. कौन है यह बंदा?
न जाने आगे क्याक्या बोलने लगे, यह सोच कर मैं ने अपने जूनियर डाक्टर से कहा, ‘‘इसे साइड रूम में लाओ.’’
साइड रूम, वार्ड का वह कमरा था जहां मैं मैडिकल छात्रों की क्लीनिकल क्लास लेता हूं. मैं एक कुरसी पर बैठ गया. मेरे जूनियर्स मेरे पीछे खड़े हो गए. व्हीलचेयर पर बैठा कर उसे कमरे में लाया गया. उस की आंखें मुझ से मिलीं. इस बार वह कुछ नहीं बोला. उस ने अपनी आंखें फेर लीं लेकिन इस के पहले ही मैं उस की आंखें पढ़ चुका था. उन में डर था कि अगर कुछ गड़बड़ की तो मैं उसे देखे बगैर ही न चला जाऊं. मेरे मन की तपिश कुछ ठंडी हुई.
सामने वाले की आंखें आप के सामने आने से डर से फैल जाती हैं तो आप को अपनी फैलती सत्ता का एहसास होता है. आप के बड़े होने का, शक्तिमान होने का सब से बड़ा सबूत होता है आप को देख सामने वाले की आंखों में आने वाला डर. इस ने मेरी सत्ता स्वीकार कर ली. यह देख मेरे तेवर कुछ नरम पड़े होंगे शायद.
तभी तो उस ने फिर आंखें उठाईं, मेरी ओर एक दृष्टि डाली, एक विचित्र सी शून्यता थी उस में, मानो वह मुझे नहीं मुझ से परे कहीं देख रही हो और अचानक मैं उसे पहचान गया. वे तो मेरे एक सीनियर के पिता थे. लेकिन ऐसा कैसे हो गया? इतने सक्षम होते हुए भी यहां इस अस्पताल के जनरल वार्ड में.
आज से 15 वर्ष पूर्व जब मैं इस शहर में आया था तो मेरे इस मित्र के परिवार ने मेरी बहुत सहायता की. यों कहें कि इन्होंने ही मेरे नाम का ढिंढोरा पीटपीट कर मेरी प्रैक्टिस शहर में जमाई थी. उस दौरान कई बार मैं इन के बंगले पर भी गया. बीतते समय के साथ मिलनाजुलना कम हो गया, लेकिन इन के पुत्र से, मेरे सीनियर से तो मुलाकात होती रहती है. उन की प्रैक्टिस तो बढि़या चल रही थी. फिर ये यहां इस फटेहाल में जनरल वार्ड में, अचानक मेरे अंदर कुछ भरभरा कर टूट गया. मैं बोला, ‘‘पापाजी, आप?’’
‘‘आहो.’’
‘‘माफ करना, मैं आप को पहचान नहीं पाया था.’’
‘‘ओए, कोई गल नहीं पुत्तर.’’
‘‘यह कब हुआ, पापाजी?’’ उन के लकवाग्रस्त अंग को इंगित करते हुए मैं बोला.
‘‘सर…’’ मेरा जूनियर मुझे उन की हिस्ट्री सुनाने लगा. मैं ने उसे रोका और पापाजी की ओर इशारा कर के फिर पूछा, ‘‘यह कब हुआ, पापाजी?’’
‘‘3 साल हो गए, पुत्तर.’’
‘‘आप ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?’’
‘‘कहा तो मैं ने कई बार, लेकिन कोई मुझे लाया ही नहीं. अब मैं आजाद हो गया तो खुद तुझे ढूंढ़ता हुआ आ गया यहां.’’
‘‘आजाद हो गया का क्या मतलब?’’ मेरा मन व्याकुल हो गया था. सफेद कोट के वजन से दबा आदमी बेचैन हो कर खड़ा होना चाहता था.
‘‘पुत्तर, तुम तो इतने सालों में कभी घर आ नहीं पाए. जब तक सरदारनी थी उस ने घर जोड़ रखा था. वह गई और सब बच्चों का असली चेहरा सामने आ गया. मेरे पास 6 ट्रक थे, एक स्पेयर पार्ट्स की दुकान, इतना बड़ा बंगला.
‘‘पुत्तर, तुम को मालूम है, मैं तो था ट्रक ड्राइवर. खुद ट्रक चलाचला कर दिनरात एक कर मैं ने अपना काम जमाया, पंजाब में जमीन भी खरीदी कि अपने बुढ़ापे में वापस अपनी जमीन पर चला जाऊंगा. मैं तो रहा अंगूठाछाप, पर मैं ने ठान लिया था कि बच्चों को अच्छा पढ़ाऊंगा. बड़े वाले ने तो जल्दी पढ़ना छोड़ कर दुकान पर बैठना शुरू कर दिया, मैं ने कहा कोई गल नहीं, दूजे को डाक्टर बनाऊंगा. वह पढ़ने में अच्छा था. बोलने में भी बहुत अच्छा. उस को ट्रक, दुकान से दूर, मैं ने अपनी हैसियत से ज्यादा खर्चा कर पढ़ाया.
‘‘हमारे पास खाने को नहीं होता था. उस समय मैं ने उसे पढ़ने बाहर भेजा. ट्रक का क्या है, उस के आगे की 5 साल की पढ़ाई में मैं ने 2 ट्रक बेच दिए. वह वापस आया, अच्छा काम भी करने लगा. लेकिन इन की मां गई कि जाने क्या हो गया, शायद मेरी पंजाब की जमीन के कारण.’’
‘‘पंजाब की जमीन के कारण, पापाजी?’’
‘‘हां पुत्तर, मैं ने सोचा कि अब सब यहीं रह रहे हैं तो पंजाब की जमीन पड़ी रहने का क्या फायदा, सो मैं ने वह दान कर दी.’’
‘‘आप ने जमीन दान कर दी?’’
‘‘हां, एक अस्पताल बनाने के लिए 10 एकड़ जमीन.’’
‘‘लेकिन आप के पास तो रुपयों की कमी थी, आप ट्रक बेच कर बच्चों को पढ़ा रहे थे. दान करने के बजाय बेच देते जमीन, तो ठीक नहीं रहता?’’
‘‘अरे, नहीं पुत्तर. मेरे लिए तो मेरे बच्चे ही मेरी जमीनजायदाद थे. वह जमीन गांव वालों के काम आए, ऐसी इच्छा थी मेरी. मैं ने तो कई बार डाक्टर बेटे से कहा भी कि चल, गांव चल, वहीं अपनी जमीन पर बने अस्पताल पर काम कर लेकिन…’’
आजकल की ऊंची पढ़ाई की यह खासीयत है कि जितना आप ज्यादा पढ़ते जाते हैं. उतना आप अपनी जमीन से दूर और विदेशी जमीन के पास होते जाते हैं. बाहर पढ़ कर इन का लड़का, मेरा सीनियर, वापस इंदौर लौट आया था यही बहुत आश्चर्य की बात थी. उस ने गांव जाने की बात पर क्या कहा होगा, मैं सुनना नहीं चाहता था, शायद मेरी कोई रग दुखने लगे, इसलिए मैं ने उन की बात काट दी.
‘‘क्या आप ने सब से पूछ कर, सलाह कर के जमीन दान करने का निर्णय लिया था?’’ मैं ने प्रश्न दागा.
‘‘पूछना क्यों? मेरी कमाई की जमीन थी. उन की मां और मैं कई बार मुंबई, दिल्ली के अस्पतालों में गए, अपने इसी लड़के से मिलने. वहां हम ने देखा कि गांव से आए लोग किस कदर परेशान होते हैं. शहर के लोग उन्हें कितनी हीन निगाह से देखते हैं, मानो वे कोई पिस्सू हों जो गांव से आ गए शहरी अस्पतालों को चूसने. मजबूर गांव वाले, पूरा पैसा दे कर भी, कई बार ज्यादा पैसा दे कर भी भिखारियों की तरह बड़ेबड़े अस्पतालों के सामने फुटपाथों पर कईकई रात पड़े रहते हैं. तभी उन की मां ने कह दिया था, अपनी गांव की जमीन पर अस्पताल बनेगा. यह बात उस ने कई बार परिवार वालों के सामने भी कही थी. वह चली गई. लड़कों को लगा उस के साथ उस की बात भी चली गई. पर तू कह पुत्तर, मैं अपना कौल तोड़ देता तो क्या ठीक होता?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘मैं ने बोला भी डाक्टर बेटे को कि चल, गांव की जमीन पर अस्पताल बना कर वहीं रह, पर वह नहीं माना.’’
पापाजी की आंखों में तेज चमक आ गई थी. वे आगे बोले, ‘‘मुझे अपना कौल पूरा करना था पुत्तर, सो मैं ने जमीन दान कर दी, एक ट्रस्ट को और उस ने वहां एक अस्पताल भी बना दिया है.’’
इस दौरान पापाजी कुछ देर को अपना लकवा भी भूल गए थे, उत्तेजना में वे अपना लकवाग्रस्त हाथ भी उठाए जा रहे थे.
‘‘सर, हिज वीकनैस इस फेक,’’ उन को अपना हाथ उठाते देख एक जूनियर डाक्टर बोला.
‘‘ओ नो,’’ मैं बोला, ‘‘इस तरह की हरकत लकवाग्रस्त अंग में कई बार दिखती है. इसे असोसिएट मूवमैंट कहते हैं. ये रिफ्लेक्सली हो जाती है. ब्रेन में इस तरह की क्रिया को करने वाली तंत्रिकाएं लकवे में भी अक्षुण्ण रहती हैं.’’
‘‘हां, फिर क्या हुआ?’’ पापाजी को देखते हुए मैं ने पूछा.
‘‘होना क्या था पुत्तर, सब लोग मिल कर मुझे सताने लगे. जो बहुएं मेरी दिनरात सेवा करती थीं वे मुझे एक गिलास पानी देने में आनाकानी करने लगीं. परिवार वालों ने अफवाह फैला दी कि पापाजी तो पागल हो गए हैं, शराबी हो गए हैं.’’
‘‘सब भाई एक हो कर मेरे पीछे पड़ गए बंटवारे के वास्ते. परेशान हो कर मैं ने बंटवारा कर दिया. दुकान, ट्रक बड़े वाले को, घर की जायदाद बाकी लोगों को. बंटवारे के तुरंत बाद डाक्टर बेटा घर छोड़ कर अलग चला गया. इसी दौरान मुझे लकवा हो गया. डाक्टर बेटा एक दिन भी मुझे देखने नहीं आया. मेरी दवा ला कर देने में सब को मौत आती थी. मैं कसरत करने के लिए जिस जगह जाता था वहां मुझे एक वृद्धाश्रम का पता चला.’’
‘‘आप वृद्धाश्रम चले गए?’’ मैं लगभग चीखते हुए बोला.
‘‘हां पुत्तर, अब 1 साल से मैं आश्रम में रह रहा हूं. सरदारनी को शायद मालूम था, मां अपने बच्चों को अंदर से पहचानती है, एक ट्रक बेच कर उस के 3 लाख रुपए उस ने मुझ से ब्याज पर चढ़वा दिए थे कि बुढ़ापे में काम आएंगे. आज उसी ब्याज से साड्डा काम चल रहा है.’’
‘‘आप के बच्चे आप को लेने नहीं आए,’’ मैं उन का ‘आजाद हो गया’ का मतलब कुछकुछ समझ रहा था.
‘‘लेने तो दूर, हाल पूछने को फोन भी नहीं आता. उन से मेरा मोबाइल नंबर गुम हो गया होगा, यह सोच मैं चुप पड़ा रहता हूं.’’
जिस दिन पापाजी से बात हुई उसी शाम को मैं ने उन के लड़के से बात की. उन को पापाजी का हाल बताया और समझाया कि कुछ भी हो उन्हें पापाजी को वापस घर लाना चाहिए. एक ने तो इस बारे में बात करने से मना कर दिया जबकि दूसरा लड़का भड़क उठा. उस का कहना था, ‘‘पापाजी को हम हमेशा अपने साथ रखना चाहते थे, लेकिन वे ही पागल हो गए. आखिर आप ही बताओ डाक्टर साहब, इतने बड़े लड़के पर हाथ उठाएं या बुरीबुरी गालियां दें तो वह लड़का क्या करे?’’
दवाओं व उपचार से पापाजी कुछ ठीक हुए, थोड़ा चलने लगे. काफी समय तक हर 1-2 महीने में मुझे दिखाने आते रहे, फिर उन का आना बंद हो गया.
समय बीतता गया, पापाजी नहीं आए तो मैं समझा, सब ठीक हो गया. 1-2 बार फोन किया तो बहुत खुशी हुई यह जान कर कि वे अपने घर चले गए हैं.
कई माह बाद पापाजी वापस आए, इस बार उन का एक लड़का साथ था. पापाजी अपना बायां पैर घसीटते हुए अंदर घुसे. न तो उन्होंने चहक कर पुत्तर कहा और न ही मुझ से नजरें मिलाईं. वे चुपचाप कुरसी पर बैठ गए. एकदम शांत.
शांति के भी कई प्रकार होते हैं, कई बार शांति आसपास के वातावरण में कुछ ऐसी अशांति बिखेर देती है कि उस वातावरण से लिपटी प्राणवान ही क्या प्राणहीन चीजें भी बेचैनी महसूस करने लगती हैं. पापाजी को स्वयं के बूते पर चलता देखने की खुशी उस अशांत शांति में क्षणभर भी नहीं ठहर पाई.
‘पापाजी, चंगे हो गए अब तो,’’ वातावरण सहज करने की गरज से मैं हलका ठहाका लगाते हुए बोला.
‘‘आहो,’’ संक्षिप्त सा जवाब आया मुरझाए होंठों के बीच से.
गरदन पापाजी की तरफ झुकाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘पापाजी, सब ठीक तो है?’’
पतझड़ के झड़े पत्ते हवा से हिलते तो खूब हैं पर हमेशा एक घुटीघुटी आवाज निकाल पाते हैं : खड़खड़. वैसे ही पापाजी के मुरझाए होंठ तेजी से हिले पर आवाज निकली सिर्फ, ‘‘आहो.’’
पापाजी लड़के के सामने बात नहीं कर रहे थे, सो मेरे कहने पर वह भारी पांव से बाहर चला गया.
‘‘चलो पापाजी, अच्छा हुआ, मेरे फोन करने से वह आप को घर तो ले आया. लेकिन आप पहले से ज्यादा परेशान दिख रहे हैं?’’
पापाजी कुछ बोले नहीं, उन की आंख में फिर एक डर था. पर इस डर को देख कर मैं पहली बार की तरह गौरवान्वित महसूस नहीं कर रहा था. एक अनजान भय से मेरी धड़कन रुकने लगी थी. पापाजी रो रहे थे, पानी की बूंदों से नम दो पत्ते अब हिल नहीं पा रहे थे. बोलना शायद पापाजी के लिए संभव न था. वे मुड़े और पीठ मेरी तरफ कर दी. कुरता उठा तो मैं एकदम सकपका गया. उन की खाल जगहजगह से उधड़ी हुई थी. कुछ निशान पुराने थे और कुछ एकदम ताजे, शायद यहां लाने के ठीक पहले लगे हों.
‘‘यह क्या है, पापाजी?’’
‘पुत्तर, तू ने फोन किया, ठीक किया, लेकिन यह क्यों बता दिया कि मेरे पास 3 लाख रुपए हैं?’’
‘‘फिर आज आप को यहां कैसे लाया गया?’’
‘‘मैं ने कहा कि रुपए कहां हैं, यह मैं तुझे ही बताऊंगा… पुत्तर जी, पुत्तर मुझे बचा लो, ओए पुत्तर जी, मुझे…’’ पापाजी फूटफूट कर रो रहे थे.
Social Story, लेखिका- डा. संगीता बलवंत
एक दिन एक रिश्तेदार ने बताया, ‘‘एक लड़का पुलिस में है और शहर में उस का मकान है. मातापिता गुजर चुके हैं और भाईबहन हैं नहीं. लड़का अच्छा है, चाहो तो बात कर लो.’’
माधुरी के पिता राम नगीना दूसरे दिन ही लड़के के घर पहुंच गए. लड़का राजन उन्हें पसंद आ गया. राम नगीना ने राजन से लड़की देखने को कहा.
राजन ने माधुरी को देखा और उसे देखते ही रिश्ता मंजूर करते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, आप शादी की तैयारी कीजिए और दहेज की चिंता मत कीजिए. मुझे दहेज में कुछ नहीं चाहिए.’’
दहेज विरोधी राजन की बात सुन कर माधुरी खुशी से निहाल हो गई. उस की लेखनी होने वाले पति के बारे में चल पड़ी :
‘तुम मिले तो जिंदगी से मुहब्बत हो गई,
जो बोझ थी जिंदगी वह जन्नत हो गई.’
शादी के बाद माधुरी ने राजन को अपनी लिखी हुई पंक्तियां भेंट की. राजन ने माधुरी की भावनाएं जान कर उसे गले लगा लिया.
माधुरी के आ जाने से राजन के घर में चहलपहल बढ़ गई. राजन घर का सारा काम खाना, बरतन, झाड़ू सब बड़ी कुशलता से करता था, लेकिन माधुरी ने जब घर का कामकाज अपने हाथों में लिया और घर को अपने तरीके से सजाया, तो घर देखते ही बनता था.
माधुरी को सुबहसुबह पढ़ाने के लिए स्कूल जाना था. शादी से पहले मायके से स्कूल की दूरी कम थी, अब शादी के बाद शहर में आ जाने पर स्कूल की दूरी बढ़ गई थी. माधुरी और राजन दोनों ने शादी के लिए कुछ दिनों की छुट्टी ले ली थी.
माधुरी घर का कोई काम करती तो राजन उस में हाथ जरूर बंटाता. माधुरी के मना करने पर राजन कहता, ‘‘तुम घरगृहस्थी संभालने के साथसाथ अगर नौकरी कर सकती हो तो मैं नौकरी के साथसाथ घरगृहस्थी की जिम्मेदारी क्यों नहीं संभाल सकता?’’
राजन के ऐसे प्यार भरे जवाब से माधुरी के दिल में उस के प्रति प्यार और बढ़ जाता. कुछ दिन बाद शादी के लिए ली गई छुट्टियां खत्म हो गईं. राजन ने तय किया कि माधुरी के स्कूल के समय में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता, इसलिए माधुरी सुबहसुबह स्कूल जाएगी और वह घर की देखरेख करेगा और पहले की तरह नाइट ड्यूटी जाएगा.
सुबह उठ कर माधुरी झाड़ूपोंछा और खाना बनाने की तैयारी में लग गई. राजन ने माधुरी को काम करने से रोकते हुए कहा, ‘‘सुबह का सारा काम मैं करूंगा, तुम अपने स्कूल जाने की तैयारी करो.’’
‘‘मैं स्कूल की तैयारी भी कर लूंगी और घर का सारा काम भी कर लूंगी.’’
‘‘इन नाजुक हाथों को इतना काम करने की जरूरत नहीं?है.’’
‘‘फिर मैं क्या करूंगी?’’
‘‘तुम चुपचाप बैठ कर मुझे देखती रहना. जितने अपनेपन से तुम मुझे देखोगी, उतना ही स्वादिष्ठ खाना मैं तुम्हारे लिए बनाऊंगा.’’
‘‘इतना प्यार करते हो मुझ से?’’
‘‘कोई शक?’’
‘‘कोई शक नहीं.’’
‘‘यानी मैं और मेरा प्यार दोनों पसंद आए हैं तुम्हें…’’
राजन के इतना कहते ही माधुरी शरमा गई और बात बदलते हुए बोली, ‘‘छोड़ो ये सब बातें, यह बताओ कि स्कूल जाने के लिए मुझे कौन सा साधन मिलेगा?’’
‘‘तुम्हारे पास तुम्हारा पति है, तुम्हें कोई साधन खोजने की जरूरत नहीं हैं. मैं तुम्हें रोज अपनी मोटरसाइकिल से सुबह स्कूल ले जाऊंगा और शाम को स्कूल से ले भी आऊंगा.’’
‘‘अरे वाह, आटोरिकशा खोजने का कोई झंझट नहीं. यह तो बहुत अच्छी बात है,’’ खुश होते हुए माधुरी बोली.
‘‘यह खुशी आटोरिकशा के झंझट से बचने की है या स्कूल आतेजाते समय उतनी देर और साथसाथ रहने की है?’’ राजन बोला.
बात तो यही थी, पर माधुरी मन के बाहर से इस बात को अस्वीकार करते हुए बोली, ‘‘तुम को तो बस यही सब समझ में आता है,’’ और मन के अंदर से राजन की बात पर सहमत होते हुए मन ही मन मुसकराते हुए वह दूसरे कमरे में चली गई.
इस तरह की प्यारभरी बातें अब घर में रोज ही होने लगीं. राजन और माधुरी एकदूसरे को पा कर बहुत खुश थे. हंसीखुशी कब शादी का एक साल हो गया, पता ही नहीं चला.
शादी की सालगिराह वाले दिन राजन माधुरी को रोजाना की तरह स्कूल छोड़ आया. माधुरी स्कूल आ तो गई, पर उस का मन स्कूल में नहीं लग रहा था. उस ने आधे दिन के बाद स्कूल से छुट्टी ले ली. राजन को खुशी देने के लिए वह बिना बताए घर पहुंची. बाजार से राजन के लिए एक खूबसूरत सा गिफ्ट भी पैक करवाया.
राजन उस के बिना अकेला कैसे रहता है? वह क्या करता है? इस उत्सुकता से माधुरी सामने वाला दरवाजा खुलवा कर अंदर नहीं गई, बल्कि पिछले दरवाजे से चुपचाप घर में घुसी. उस ने मन ही मन सोचा कि राजन को पहले गिफ्ट दे कर फिर गले लगूंगी या पहले गले लग कर फिर गिफ्ट दूंगी. उस ने फैसला ले लिया कि पहले गिफ्ट देगी, ताकि उस के दोनों हाथ खाली हो जाएं और वह अच्छे से गले लग सके.
जोश से भरी माधुरी धीरे से दरवाजे को धक्का दिया. तो दरवाजा खुल गया. सामने उस का पति राजन तो था, पर वह अकेला नहीं था. माधुरी के हाथों से गिफ्ट जमीन पर गिर गया. राजन अपनी प्रेमिका के साथ बिस्तर पर था.
‘इतना बड़ा धोखा? कौन है यह? कब से चल रहा है यह सब? मुझ से प्यार का झूठा नाटक?
‘तुम्हारे बारे में इस तरह की बातें कोई मुझ से कसम खा कर भी कहता तो मैं यकीन नहीं मानती. पर, मैं अपनी आंखों से सबकुछ देख चुकी हूं. काश, मैं अंधी होती और तुम सिर्फ मेरे हो इस भरम में मैं अपनी पूरी जिंदगी सुकून से गुजार लेती. लेकिन तुम्हारा सच देखने के बाद मैं तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी. मुझे तलाक चाहिए…’
पर माधुरी ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा. वह चुपचाप बगल वाले कमरे में चली गई. कमरा अंदर से बंद कर लिया. कमरे में एक राजन की तसवीर रखी थी. रोज स्कूल के लिए घर से निकलने के पहले माधुरी राजन की तसवीर देखती. आज उस ने उस तसवीर को उठा कर कूड़ेदान में फेंक दिया.
राजन के सामने जिन आंसुओं को माधुरी ने रोक लिया था, अब जब कमरे में अकेली हुई तो खूब रोई. राजन माधुरी से माफी मांगने की कोशिश करता रहा, पर माधुरी ने उसे देखना भी बंद कर दिया था.
2 दिन से माधुरी स्कूल भी नहीं गई. तीसरे दिन राजन जब बाथरूम में नहा रहा था. माधुरी कमरे से निकल कर छत पर गए और छत पर गई और वहां से कूद गई.
राजन थोड़ी देर में नहाने के बाद कपड़े फैलाने छत पर गया. उस की नजर अचानक छत से नीचे गई. वह दौड़ता हुआ माधुरी के पास गया. माधुरी का सिर फट गया था और बहुत तेजी से खून बह रहा था. माधुरी की सांसें चल रही थीं, लेकिन वह बेहोश थी.
राजन एंबुलैंस से उसे अस्पताल ले गया. वहां माधुरी को जब होश आया और राजन को अपने पास देखा तो नफरत से चेहरा दूसरी तरफ घुमा लिया और जोरजोर से चिल्लाचिल्ला कर रोने लगी.
डाक्टर को लगा कि वह दर्द से चिल्ला कर रो रही है. पर राजन समझ रहा था कि उस का यह रोना शरीर के दर्द के चलते नहीं है, बल्कि उस दर्द के चलते है, जिसे उस ने माधुरी के दिल को तोड़ कर रख दिया था.
कुछ देर तक माधुरी चीखचीख कर चिल्लाई, फिर अचानक चुप हो गई. डाक्टर ने राजन को बताया कि वह अब इस दुनिया में नहीं है.
माधुरी राजन से बिना बोले, उसे बिना देखे नाराज ही चली गई.
डाक्टर ने राजन को एक और बात बताई, ‘‘माधुरी पेट से थी.’’
माधुरी की खुदकुशी करने जैसी बड़ी घटना के बाद राजन की प्रेमिका किसी बवाल में फंसने के डर से शहर छोड़ कर चली गई.
अब वह बिलकुल अकेला था.
Social Story: रोली बहुत देर तक अपनी मम्मी की बात पर विचार करती रही. कुछ गलत तो नहीं कह रही थी उस की मम्मी. परंतु रोली को अच्छे से पता था कि शिखर और उस के मातापिता रोली की बात को पूरी तरह से नकार देंगे. तभी बाहर ड्राइंगरूम में शिखर ने न्यूज लगा दी. चारों तरफ कोरोना का कहर मचा हुआ था. हर तरफ मृत्यु और बेबसी का ही नजारा था, तभी पापाजी चिंतित से बाहर निकले और शिखर से बोले, ‘‘वरुण को कंपनी ने 2 महीने का नोटिस दे दिया है.‘‘
वरुण शिखर की बहन का पति था. शिखर बोला, ‘‘पापा, चिंता मत कीजिए, वरुण टैलेंटेड लड़का है. कुछ न कुछ हो जाएगा, मैं 1-2 जगह बात कर के देखता हूं.‘‘
रोली रसोई में चाय बनाते हुए सोच रही थी, ‘आज वरुण हैं तो कल शिखर भी हो सकता है,’ चाय बनातेबनाते रोली ने दृढ़ निश्चय ले लिया था.
जब सभी लोग चाय की चुसकियां ले रहे थे, तो रोली बोली, ‘‘अगले हफ्ते मेरठ वाले गुरुजी यहीं पर आ रहे हैं. मैं चाहती हूं कि हम भी अपने घर पर यज्ञ करवाएं.
‘‘यज्ञ करवाने के पश्चात न केवल हमारा परिवार कोरोना के संकट से बचा रहेगा, बल्कि शिखर की नौकरी पर भी कोई आंच नहीं आएगी.‘‘
‘‘बस 50,000 रुपए का खर्च है, पर ये कोरोना पर होने वाले खर्च से तो बहुत सस्ता है शिखर.”
रोली की सास अपनी पढ़ीलिखी बहू के मुंह से ये बात सुन कर हक्कीबक्की रह गईं और बोलीं, ‘‘रोली, ये तुम क्या कह रही हो? चारों तरफ कोरोना का कहर है और तुम ऐसे में घर में यज्ञ करवाना चाहती हो?‘‘
रोली तुनकते हुए बोली, ‘‘हां मम्मीजी, आप को तो मेरी सब चीजों से दिक्कत है.’‘
‘‘आप खुद जपतप करें सब ठीक, पर अगर मैं परिवार की भलाई के लिए कुछ करवाना चाहूं तो आप को उस में भी दिक्कत है.‘‘
रोली के ससुर बोले, ‘‘रोली बेटा, ऐसी बात नहीं है, पर ये संभव नहीं है.
‘‘तुम्हें तो मालूम ही है कि हम ऐसे भीड़ इकट्ठी नहीं कर सकते हैं.‘‘
शिखर उठते हुए बोला, ‘‘रोली, मेरे पास ऐसे यज्ञपूजन पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं और शायद हम अब कोरोना से बच भी जाएं, परंतु उस यज्ञ के कारण हमारा पूरा परिवार जरूर कोरोना के कारण स्वाहा हो जाएगा.‘‘
रोली गुस्से में पैर पटकती हुई अपने कमरे में चली गई. रात के 8 बज गए, लेकिन रसोई में सन्नाटा था. शिखर कमरे में गया और प्यार से बोला, ‘‘रोली गुस्सा थूक दो, आज खाना नहीं खिलाओगी क्या?‘‘
रोली चिल्लाते हुए बोली, ‘‘क्यों नौकरानी हूं तुम्हारी और तुम्हारे मम्मीपापा की?‘‘
‘‘अपनी इच्छा से मैं घर में एक काम भी नहीं कर सकती, पर जब काम की बारी आती है तो बस वह ही याद आती है.’‘
शिखर रोली को प्यार से समझाता रहा, परंतु वह टस से मस नहीं हुई.
शिखर और उस के मम्मीपापा की सारी कोशिशें बेकार हो गई थीं. रोली की आंखों पर गुरुजी के नाम की ऐसी पट्टी बंधी थी कि वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी.
रोली के मन में कोरोना का डर इस कदर हावी था कि वह किसी भी तरह कोरोना के पंजे से बचना चाहती थी.
रोली की मम्मी उसे रोज फोन पर बताती कि कैसे गुरुजी ने अपने तप से रोली के मायके में पूरे परिवार को कोरोना से पूरी तरह सुरक्षित कर रखा है.
रोली की मम्मी यह भी बोलतीं, ‘‘अरे, हम लोग न तो मास्क लगाते हैं और न ही सेनेटाइजर का प्रयोग करते हैं. बस गुरुजी की भभूति लगा लेते हैं.‘‘
‘‘सारी कंपनियों में छंटनी और वेतन में कटौती हो रही है, पर तेरे छोटे भाई का तो गुरुजी के कारण ऐसे संकट काल में भी प्रमोशन हो गया है.‘‘
आज गुरुजी रोली के शहर देहरादून आ गए थे. रोली को पता था कि शिखर गुरुजी का यज्ञ घर पर कभी नहीं कराएगा और न ही कभी पैसे देगा.
रोली ने गुरुजी के मैनेजर से फोन पर बात की, तो उन्होंने कहा, ‘‘आप यहीं पर आ जाएं. तकरीबन 500 भक्त और भी हैं. गुरुजी के भक्तों ने ही गुरुद्वारा रोड पर एक हाल किराए पर ले लिया है…
‘‘आप बेझिझक यहां चली आएं,‘‘ गुरुजी के मैनेजर ने कहा.
रोली मन ही मन खुश थी, परंतु 50,000 रुपयों का इंतजाम कैसे करे? वह यही सोच रही थी, तभी रोली को ध्यान आया कि क्यों न वह अपने मायके से मिला हुआ सेट इस अच्छे काम के लिए दान कर दे.
सुबह काम करने के बाद रोली तैयार हो गई और शिखर और उस के मम्मीपापा से बोली, ‘‘मैं 2 दिन के लिए गुरुजी के शिविर में जा रही हूं.‘‘
‘‘मैं ने पैसों का बंदोबस्त कर लिया है. परिवार की खुशहाली के लिए यज्ञ कर के मैं परसों तक लौट आऊंगी.‘‘
शिखर की मम्मी बोलीं, ‘‘रोली, होश में तो हो ना…‘‘
‘‘हम तुम्हें कहीं नहीं जाने देंगे. तुम्हें मालूम है ना कि ये महामारी है और इस का वायरस बड़ी तेजी से फैलता है.‘‘
रोली गुस्से में बोली, ‘‘आप भी भूल रही हैं मम्मी कि मैं एक बालिग हूं. आप को शायद मालूम नहीं है कि जिस तरह का व्यवहार आप मेरे साथ कर रही हैं, वो घरेलू हिंसा के दायरे में आता है. यह एक तरह की मानसिक और भावनात्मक हिंसा है.‘‘
शिखर ने अपने मम्मीपापा से कहा, ‘‘जब रोली ने कुएं में छलांग लगाने का निर्णय ले ही लिया है, तो आप उसे रोकिए मत.‘‘
शिखर बिना कुछ बोले रोली को उस हाल के गेट तक छोड़ आया. हाल के गेट पर भीड़ देख शिखर ने रोली से कहा, ‘‘रोली, एक बार और सोच लो.‘‘
रोली मुसकराते हुए बोली, ‘‘मैं तो गुरुजी को घर पर बुलाना चाहती थी, पर तुम्हारी और तुम्हारे परिवार की जिद के कारण मैं यहां पर हूं.‘‘
रोली जैसे ही हाल के अंदर पहुंची, बाहर गेट पर खड़े युवकों ने उस का मास्क उतरवा दिया और फिर गंगाजल से उस के हाथ धुलवाए.
अंदर धीमाधीमा संगीत चल रहा था. रोली ने देखा कि तकरीबन 300 लोग वहां थे. हर कोई गुरुजी के आगे सिर झुका कर श्रद्धा के साथ दान कर रहा था.
रोली भी गुरुजी के आगे हाथ जोड़ते हुए बोली, ‘‘गुरुजी, मेरे पास तो बस ये गहने हैं देने के लिए.‘‘
गुरुजी शांत स्वर में बोले, ‘‘बेटी, दान से अधिक भाव का महत्व है. तुम जो भी पूरी श्रद्धा से भेंट करोगी, वह हमें स्वीकार है.‘‘
सात्विक भोजन, सात्विक माहौल, न कोई महामारी का डर और न ही चिंता. रोली को इतना हलका तो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था. उस का गुस्सा भी काफूर हो गया था. अब तो रोली को अपने परिवार की बुद्धि पर तरस आ रहा था कि वो ऐसे अच्छे आनंदमय वातावरण से वंचित रह गए हैं.
पूरा दिन गुरुजी के प्रवचन और यज्ञ में बीत गया था. रात में जब रोली सोने के लिए कमरे में गई तो देखा कि उस छोटे से कमरे में 8 महिलाओं के बिस्तर लगे हुए थे.
रोली पहले तो हिचकिचाई, पर फिर उसे गुरुजी की कही हुई बात याद आई कि कैसे हम ने डरडर कर इस वायरस को अपने ऊपर हावी कर रखा है. ये वायरस मनुष्य को मनुष्य से दूर करना चाहता है. दरअसल, ऐसे पूजाहवन से ही इस महाकाल वायरस का सफाया हो जाएगा. ये ऊपर वाले का इशारा है हम मूर्ख मनुष्यों के लिए कि हम उन की शरण में जाएं. अगर विज्ञान कुछ करने में सक्षम होता, तो क्यों पूरे विश्व मे त्राहित्राहि मची रहती.
ये सब बातें याद आते ही रोली शांत मन से आंखें बंद कर के सो गई. सुबह 6 बजे रोली की आंखें खुलीं तो उसे लगा, जैसे वह रूई की तरह हलकी हो गई है.
गुरुजी को स्मरण कर के रोली ने सब से पहले अपनी मम्मी को फोन लगाया और फिर शिखर को फोन कर अपना हालचाल बताया.
अगला दिन भी भजन, प्रवचन और ध्यान में ऐसे बीत गया कि रोली को पता भी नहीं चला कि कब शाम हो गई. तकरीबन 500 लोग इस पूजा में सम्मलित थे, परंतु न तो कोई आपाधापी थी, न ही कोई घबराहट.
शाम के 7 बजे रोली ने गुरुजी को प्रणाम किया, तो गुरुजी ने उसे भभूति देते हुए कहा, ‘‘बेटी, ये भभूति तुम्हारी हर तरह से रक्षा करेगी.‘‘
जब रोली बाहर निकली तो देखा कि शिखर कार में बैठा उस की प्रतीक्षा कर रहा था.
रोली बिना कोई प्रतिक्रिया किए कार में बैठ गई. घर आ कर भी वह बेहद शांत और संभली हुई लग रही थी. रोली ने किसी से कुछ नहीं कहा और न ही उस के सासससुर ने उस से कुछ पूछा.
अगले रोज सुबहसुबह शिखर ने रोली को खुशखबरी सुनाई कि बहुत दिनों से जिस कंपनी में उस की बात अटकी हुई थी, वहां से बात फाइनल हो गई है. 1 अगस्त को उसे पूना में ज्वाइनिंग के लिए जाना है.
रोली नाचते हुए बोली, ‘‘ये सब गुरुजी की कृपा है.‘‘
शिखर बोला, ‘‘अरे वाह, मेहनत मैं करूं और क्रेडिट तुम्हारे गुरुजी ले जाएं.‘‘
जब से रोली गुरुजी के पास से आई थी, उस ने सावधानी बरतनी छोड़ दी थी. शिखर की नौकरी के कारण रोली का विश्वास और पक्का हो गया था.
और फिर एक हफ्ते बाद रोली को वह खुशखबरी भी मिल गई, जिस का पिछले 5 साल से इंतजार कर रही थी. वह मां बनने वाली थी. घर में ऐसा लग रहा था, चारों ओर खुशियों की बरसात हो रही है. रोली को पक्का विश्वास था कि देरसवेर ही सही, शिखर और उस का परिवार भी गुरुजी की भक्ति में आ जाएगा. पर, जब 5 दिन बाद रोली को बुखार हो गया, तो रोली के सासससुर और शिखर के होश उड़ गए थे. परंतु रोली ने कोई दवा नहीं ली, बल्कि गुरुजी के यहां से लाई भभूति चाट ली.
शिखर ने रोली को टेस्ट कराने के लिए भी कहा, परंतु रोली ने कहा, ‘‘मैं ने गुरुजी से फोन पर बात की थी. मुझे वायरल हुआ है. गुरुजी ने कहा है कि परसों तक सब ठीक हो जाएगा.‘‘
पर, उसी रात अचानक ही रोली को सांस लेने में दिक्कत होने लगी. रोली को महसूस हो रहा था, जैसे पूरे वातावरण में औक्सीजन की कमी हो गई हो.
शिखर रात में ही रोली को ले कर अस्पताल भागा. बहुत मुश्किलों से रोली को किसी तरह अस्पताल में दाखिला मिला. पुलिस ने पूछताछ की, तो एक के बाद एक लगभग 500 लोगों की एक लंबी कोरोना चेन बन गई.
गुरुजी का फोन स्विच औफ आ रहा था. यज्ञ में शामिल हुए परिवारों का जब कोरोना टेस्ट हुआ तो ऐसा लगा, कोरोना बम का विस्फोट हो गया है. जहां पहले शहर में बस गिनती के 50 मामले थे, वे अब सीधे 500 पार कर गए थे.
रोली शर्म के कारण आंख नहीं उठा पा रही थी. काश, उस ने शिखर और उस के परिवार की बात मान ली होती. रोली को अपने से ज्यादा पेट में पल रहे बच्चे की चिंता हो रही थी. उधर शिखर को रोली के साथसाथ अपने डायबिटिक मातापिता की भी चिंता हो रही थी.
शिखर को समझ नहीं आ रहा था कि क्यों रोली की इस अंधभक्ति का नतीजा रोली के साथसाथ पूरे परिवार को भुगतना पड़ेगा. आखिर कब तक हम पढ़ेलिखे लोग भी अपनेआप को इस तरह अंधविश्वास के कुएं में धकेलते रहेंगे? आखिर क्यों हम आज भी हर समस्या का शार्टकट ढूंढ़ते हैं? आखिर क्यों…?
रवि को फ्लैट अच्छा लगा. हवादार, सारे दिन की धूप, बड़े कमरे, बड़ी रसोई, बड़े बाथरूम. पहली नजर में ही रवि को पसंद आ गया. दाम कुछ अधिक लग रहा है, दूसरे ब्रोकर्स कम कीमत में फ्लैट दिलाने को कह रहे थे परंतु रवि मनपसंद फ्लैट, जैसे उस की कल्पना थी वैसा, पा कर कुछ अधिक कीमत देने को तैयार हो गया. पत्नी रीना और बच्चों को भी फ्लैट पसंद आया. लोकेशन औफिस के पास होने के कारण रवि ने उस फ्लैट को खरीदने के लिए ब्रोकर से कहा. फ्लैट के मालिक से शाम को डील फाइनल करने के लिए समय तय हो गया.
रवि ने ब्रीफकेस में चैकबुक रखी और कैश निकालने के लिए बैंक गया. कार को बैंक के बाहर पार्क कर रवि ने बैंक से कैश निकाला. लगभग 10 मिनट बाद रवि जब बैंक से बाहर आया तब उस समय बहुत सी कारें आड़ीतिरछी पार्क थीं.
रवि सोचने लगा कि कार पार्किंग से कैसे बाहर आए. 2 कारों के बीच जगह थी. रवि कार को वहां से निकालने के लिए कार को उन 2 कारों के बीच में करने लगा, परंतु तेजी से एक बड़ी सी महंगी कार उन 2 कारों के बीच खाली जगह पर गोली की रफ्तार से दनदनाती हुई आई और रवि की कार के सामने तेजी से ब्रेक मार कर रुक गई.
कार में बैठा नवयुवक कीमती मोबाइल फोन पर बात कर रहा था और हाथ से कुछ इशारे कर रहा था जो रवि समझ नहीं सका. नवयुवक मोबाइल पर बात करता हुआ इशारे करता जा रहा था. रवि ने कार से उतर कर नवयुवक से अनुरोध किया कि उसे अपनी कार को निकालना है, सो प्लीज, उसे निकलने दीजिए, फिर आप इसी जगह पार्क कर लीजिए.
तभी वह युवक ताव में आ कर कहने लगा, ‘‘बुड्ढे, कार यहीं खड़ी होगी, इतनी देर से इशारा कर रहा हूं, कार पीछे कर. मेरी कार यहीं खड़ी होगी. समझा बुड्ढे या दूसरे तरीके से समझाना पड़ेगा. मेरे से बहस कर रहा है. पीछे हटा मच्छर को, नहीं तो मसल दूंगा, जरा सी आगे की तो उड़ जाएगी, पीछे हट. मेरी कार यहीं पार्क होगी.’’
इतना सुन कर रवि ने किसी अनहोनी से घबरा कर कार पीछे की और नवयुवक ने कार वहां पार्क की और गोली की रफ्तार से कार को लौक कर के मोबाइल पर बात करता हुआ चला गया. महंगी कार, सिरफिरा नवयुवक शायद कोई चाकू, पिस्तौल जेब में हो, चला दे. आजकल कुछ पता नहीं चलता. छोटीछोटी बातों पर आपा खो कर नवयुवक गोलीचाकू चला देते हैं. यही सोच कर रवि ने कार पीछे कर ली और लुटेपिटे खिलाड़ी की तरह होंठ पर हाथ रख कर सोचने लगा.
एक आम व्यक्ति की कोई औकात नहीं है. माना अमीर नहीं है, नौकरी करता है, मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखता है. एक छोटी सी कार उस की नजर में बड़ी संपति है, मगर एक मगरूर इंसान ने उसे मच्छर बना दिया. कोई कीमत नहीं है छोटी कार की. अमीर आदमी की नजर में वह और उस की कार की कोई कीमत नहीं. न सही, किसी के बारे में वह क्या कर सकता है. उस नवयुवक के घमंड को देख कर उस ने दांतों तले उंगली दबा ली.
वह इंतजार करने लगा कि आसपास खड़ी कोई कार हिले, तो वह अपनी कार को हिलाए. लगभग 20 मिनट बाद उस के पास खड़ी कार हटी, तब रवि को शांति मिली. उस का दिमाग, जो अब तक कई सौ मील दूर तक की कल्पना कर चुका था, जमीन पर आया, कार स्टार्ट की और घर वापस आया.शाम को रवि, रीना ब्रोकर सतीश के साथ फ्लैट मालिक ओंकारनाथ के औफिस पहुंचे. सतीश ने सेठ ओंकारनाथ का गुणगान शुरू किया. ‘‘सेठजी का क्या कहना, धन्ना सेठ हैं. प्रौपर्टी में निवेश करते हैं. पूरे देश में, हर कोने में सेठजी की प्रौपर्टी मिलेगी. बस, शहर का नाम लो, प्रौपर्टी हाजिर है. 100 से अधिक प्रौपर्टी हैं सेठजी की.’’
‘‘आज इस समय 140 प्रौपर्टीज हैं,’’ सेठजी ने पुष्टि की. ‘लोन मेरा पास हो गया है. आप प्रौपर्टी के कागजों की कौपी दे दें. मुझे पेमैंट की कोई चिंता नहीं है. अधिक से अधिक एक सप्ताह में पूरी पेमैंट हो जाएगी. प्रौपर्टी के कागज बैंक में दिखा कर लोन की पेमैंट हो जाएगी. बयाना मैं अभी दे देता हूं. सौदा पक्का कर लेते हैं. बस, आप एक बार कागज दिखा दीजिए,’’ रवि ने सेठजी से कहा.
‘‘ठीक है. अलमारी की चाबी मेरे लड़के के पास है. फोन कर के बुलाता हूं,’’ कह कर सेठजी ने फोन किया. 2 मिनट बाद सेठजी के लड़के ने औफिस में प्रवेश किया. मोबाइल पर बात करतेकरते अलमारी खोली और फाइल टेबल पर रखी. रवि ने लड़के को देखा. लड़का वही सुबह वाला नवयुवक था, जिस की महंगी कार ने उस की कार को निकलने नहीं दिया और घमंड में रवि का उपहास किया. रवि ने उसे पहचान लिया. बुड्ढा, मच्छर, उड़ा दूंगा, कार यहीं पार्क करूंगा, नहीं निकलने दूंगा कार, ये शब्द उस के कानों में बारबार गूंज रहे थे. रवि उस लड़के को लगातार देखता रहा. सतीश ने फाइल रवि की ओर करते हुए चुप्पी तोड़ी.
‘‘तसल्ली कर लीजिए और बयाना दे कर सौदा पक्का कीजिए.’’
‘‘सतीशजी, अब इस की कोई जरूरत नहीं है. आप कोई दूसरा सौदा बताना.’’
‘‘क्या बात है, रविजी, आप के सपने का फ्लैट आप को मिल रहा है, जिस की तलाश कर रहे थे, वह आप के सामने है.’’ रवि ने ब्रीफकेस को बंद किया और सौदा न करने पर खेद व्यक्त किया और जाने के लिए कुरसी से उठा, ‘‘रीना, कोई दूसरा फ्लैट देखेंगे, अब चलते हैं.’’
‘‘मिस्टर रवि, कोई बात नहीं, आप फ्लैट खरीदना नहीं चाहते, यह आप का निर्णय है. परंतु मैं इस का कारण जानना चाहता हूं, क्योंकि आप इस फ्लैट के लिए उत्सुक थे. फाइल देखना चाहते थे. जब फाइल सामने रखी, तो बिना फाइल देखे इरादा बदल लिया,’’ सेठजी ने रवि से बैठने के लिए कहा.
‘‘सेठजी, यह मत पूछिए.’’
‘‘कोई बात नहीं. यदि कोई कड़वी बात है, वह भी बताओ. कारण जानना चाहता हूं.’’ ‘‘सेठजी, बात आत्मसम्मान की है. आज सुबह बहुत गालियां सुनी हैं. ठेस पहुंची है. कलेजे को चीर गई हैं बातें,’’ कह कर सुबह का किस्सा सुनाया, ‘‘वह नवयुवक और कोई नहीं, आप के सुपुत्र हैं. इसी कारण मैं ने अपने सपने को तोड़ा. जिस तरह के फ्लैट की चाह थी, जिस के लिए अधिक रकम देने को तैयार था, वही सौदा तोड़ रहा हूं. मेरा आत्मसम्मान मुझे सौदा करने की इजाजत नहीं देता. आप के सामने आर्थिक रूप में मेरी कोई औकात नहीं है. परंतु अमीरों का गरीबों की बिना बात के तौहीन करना उचित नहीं है. सिर्फ विनती की थी, कार निकालने के लिए, 10-15 सैकंड में क्या फर्क पड़ता. कार मुझे तो निकालनी थी, पार्क तो आप की कार ही होती, परंतु आप के बरखुरदार ने मेरी खूब बेइज्जती की.’’ उठतेउठते रवि ने एक बात कही, ‘‘सेठजी, आप ने रुपएपैसों से अपने लड़के की जेबें भर रखी हैं. थोड़ी समझदारी, दुनियादारी की तालीम दीजिए. संयम रखना सिखाइए. इज्जत दीजिए और इज्जत लीजिए.’’
रवि चला गया. औफिस में रह गए सेठजी और उन के सुपुत्र. सेठजी कुछ कह नहीं सके. लड़के ने मोबाइल से फोन मिलाया और दनदनाता हुआ औफिस से बाहर चला गया.
रमा चाची की उम्र 60 के करीब हो चुकी थी, पर उन के पूजापाठ में, गांव में जैसा उन की मां करती थीं, उस में शहर आने पर भी कोई फेरबदल नहीं हुआ था. जमाना तो बदला, लोगों के रीतिरिवाज भी बदले, पुरानी बातें छूटती चली गईं और नई बातें लोगों के दिलोदिमाग में जगह बनाती चली गईं. पर रमा चाची 5वीं पास होने और बीए पास बेटी की मां के बावजूद वहीं की वहीं रहीं. रमा चाची का असली नाम बहुत कम लोग ही जानते थे. उन से बड़ी उम्र के लोग भी उन्हें ‘चाची’ कह कर ही पुकारते थे.
चाची जब से इस शहर में इस घनी बस्ती के टेढ़ेसीधे 5-6 मंजिले मकान के 2 कमरे के घर में आई थीं, तभी से उन का पूजापाठ का सिलसिला शुरू हो गया था.
बीचबीच में भगवाधारी जुलूस निकलते थे. उन से रमा चाची को बहुत बल मिलता था कि देवीदेवताओं की पूजा करने से ही उन को पैसा मिले.
शुरूशुरू में रामेसर यादव चाचा ने इन ढकोसलों के लिए चाची को कई बार डांटाफटकारा था, पर बाद में वे भी इन्हीं के गुलाम हो गए. अब यह पता नहीं कि उन्हें किसी भगवाधारी ने समझाया या घर में झगड़ा न हो, इसलिए वे पूजापाठ में लग गए. वैसे, रामेसर एक नंबर के झगड़ालू थे. रमा चाची भी पड़ोसनों को अकसर गाली देती दिख जाती थीं.
चाची के घर में भी कमरों की दीवारों पर तमाम देवीदेवताओं के फ्रेम वाले फोटो और मूर्तियां लगी हुई थीं. एक कमरे में उन्होंने एक मंदिर भी बनाया हुआ था. अलगअलग देवीदेवताओं की पूजा करने का तरीका भी अलगअलग था. हर बार कोई पंडितनुमा जना आ कर उन्हें अलग से सिखा जाता. कितनी ही देवियों, हनुमान, शनि देवता भरे हुए थे. किस को किस चीज का भोग लगाया जाना चाहिए, यह बात चाची अच्छी तरह जानती थीं. हर पंडित आता और दक्षिणा ले जाता.
चाची के दोनों बच्चे जब छोटे ही थे, तब वे बाहर जाते तो चाची उन्हें रोक लेतीं. चुटकी भर राख उठातीं और बारीबारी से दोनों को चटा देतीं. इस के लिए वे गोबर के उपले खरीद कर लातीं और उन्हें बाहर जला कर राख कटोरे में बुझा देतीं. उन को मां की तरह उपलों पर खाना नहीं बनाना होता था, क्योंकि अब तो गैस का सिलैंडर लाया जाता था. बच्चों के माथे पर काला टीका लगाना वे कभी न भूलतीं. बच्चों के हाथों में हमेशा 4-5 रंगों के धागे बंधे रहते थे.
कभीकभी जब चाची चाचा पर बिगड़ जातीं, तब उन के तेवर देखने लायक होते. वे चाचा को आड़े हाथों लेतीं और निकम्मा, नामर्द, अधर्मी होने का उलाहना देतीं. कामकाजी चाचा अपनी हार मान लेते और चुप हो जाते. यह तब होता था, जब चाची को आएदिन होने वाली यात्राओं के लिए पैसा देने से चाचा इनकार कर देते थे.
वक्त के साथसाथ दोनों बच्चे बड़े हो गए. लड़की का नाम शामी था, जो वक्त के साथ जवानी की ओर बढ़ रही थी. वह 20 साल की हो चुकी थी. उसे एक फैक्टरी में काम मिला था.
चाची का ध्यान लड़की की शादी की ओर था, जिस से वे बहुत परेशान थीं. बेटी ने अपनी पसंद के एक जाटव लड़के से शादी की थी और जाति में चाची की खूब छीछालेदर हुई थी. उन की बेटी ने अपनी जिंदगी का जो फैसला कर लिया था. यह फैसला भी चाची की देवीदेवताओं की पूजा के बावजूद उलटा रहा. पर आज भी वे शामी की गृहस्थी को ले कर बहुत दुखी थीं. शामी और उस का मर्द अच्छा कमा कर लाते थे और बिना पूजापाठ किए रहते थे.
चाची को डर लगता था कि इस का बुरा नतीजा होगा. कई पंडित कह कर जा चुके थे. उन के यहां ब्राह्मण पंडित तो नहीं आते थे, पर जो आते वे 100-200 रुपए लिए बिना नहीं जाते थे.
चाची का बेटा अपनी बहन शामी से बड़ा था और उस समय लड़की की शादी के बाद चाची और पूजापाठी हो गईं कि कहीं लड़का किसी ईसाई या मुसलमान लड़की को न ले आए. उस की फैक्टरी में कई लड़केलड़कियां काम करते थे. बेटी के दूसरी जाति में शादी करने के बाद चाची के दिल में एक कसक पैदा हो गई थी. चाची ने जीतोड़ कोशिशें भी कीं. कितने ही तीर्थ किए, साधुसंतों से मिलीं, मंदिरों में गईं, देवीदेवताओं के आगे नाक रगड़ी. पर अभी तक सुबोध की अपनी जाति में शादी नहीं हो सकी थी.
सुबोध एक दिन भगवती नाम की लड़की को ले कर आया, तब उन्हें लगा कि उन की ‘तपस्या’ पूरी हो गई?है. साक्षात ‘देवी’ ही बहू बन कर उन के घर हमेशा के लिए आ सकती है.
पर वह खुशी भी चाची की वजह से ज्यादा दिनों तक कायम न रह सकी. चाची ने भगवती की पत्री आने वाले पंडित को दिखाई. उस ने कहा कि 50,000 रुपए खर्च कर के ही इस लड़की के ग्रह ठीक हो सकते हैं.
सुबोध ने बहुत सिर पटके, पर चाची टस से मस नहीं हुई थीं. भगवती किसी और की हो गई. भगवती पढ़ीलिखी थी. वह ढकोसलों का भार क्यों सहन करती. अब सुबोध हमेशा उदास रहता या फिर रोने लगता.
कुछ महीनों बाद सुबोध ने दूसरे शहर में नौकरी कर ली. चाची अकेली रह गईं.
चाची अब फिर से बिना किसी रोकटोक के पूजापाठ में लग गईं कि सुबोध की शादी हो जाए और वह उन्हीं के साथ रहने लगे.
इस दौरान रमा चाची ने दानदक्षिणा में काफीकुछ बांटा था. पर पड़ोस में उन की किसी से बनती नहीं थी, इसलिए सब पड़ोस के किसी बाबा की समाधि पर बांट आतीं और उन के घर में न कोई आता न वे किसी के घर में जातीं, जबकि उस घर की 5 मंजिलों में कोई 12 परिवार रहते थे.
एक दिन राजस्थान के एक बाबा के मंदिर के पुजारी आए. चाची उस बाबा को बहुत मानती थीं. हजारों लोग वहां जाते थे. कुछ तो जमीन पर लोट कर जाते थे. पिछड़ों के ये बाबा देवता बन चुके थे, पर पुजारी ऊंची जाति वालों की तरह ही रहते, मौज करते. उन्होंने
चाची को कहा कि खास पूजा करोगी, तो सुबोध भी घर लौट आएगा और शादी भी हो जाएगी. एक दिन तय कर दिया गया.
चाची उस दिन सवेरे ही उठ गई थीं. पहले वे भैंस का दूध लाईं और फिर नाश्ता बनाने में लग गईं. उस के बाद उन्होंने रामेसर चाचा को सामान की लिस्ट ले कर भेज दिया.
चाची पूजापाठ में लग गईं. उन्होंने स्नान किया और फिर कपड़े बदल कर गोबर से सवा हाथ जमीन लीप दी. लीपी गई जगह पर ही पूजा के लिए आग जलाई जानी थी.
चाची ने पूजा का सारा सामान वहां ला कर रख दिया, फिर पीतल के लोटे को पानी से भर लाईं. रूई से एक बत्ती बना कर दीए में डाल दी और दीया घी से भर दिया.
अब चाची ने गैस से कागज की बत्ती बना कर एक दीया जलाया और लीपी हुई जगह पर रख दिया. फिर चिमटे की मदद से उस को फोड़ कर उसी के ऊपर गाय का घी डाल दिया व हवन की सामग्री डालने लगीं. साथ ही साथ वे एक मंत्र भी बुदबुदा रही थीं.
कुछ पलों के बाद दिए से एक हलकी सी लौ निकली, पर हवन कुंड वहां से कुछ दूर पर रखा था. वह तो जला नहीं. वह दीप माचिस से जलाया जा सकता था, पर चाची के खयाल से उसे बाबा की शक्ति से जलना था.
चाची ने दीए से घी निकाल कर कुंड पर छींटे लगाए, ताकि वह दीए की लौ अपनेआप पकड़ ले. दीए में भी लबालब घी भर दिया. वह घी बहने लगा और हवन कुंड तक भी पहुंच गया और साथ ही गोबर और घी की वजह से आग भी हवन कुंड में पहुंच गई.
चाची की कामना पूरी हो गई. फिर उन्होंने पीछे खिसक कर पास रखी बाबा की मूर्ति के चरणों में सिर झुका दिया. बोतल से घी निकाल कर चारों तरफ छींटे लगाए. बाबा की प्यास बुझाने के बाद ‘जय बाबा की’ कहते हुए पानी की एक बोतल उठाई, जो सूरज को चढ़ानी थी.
चाची ने पहले दरवाजा बंद किया और सूरज को पानी चढ़ाने 5 मंजिल ऊपर चढ़ने लगीं. पर बोतल का पानी एक लोटे में डाला और फिर लोटा टिका कर चाची सूरज की ओर मुंह कर के एकएक बूंद पानी कंजूसी के साथ जमीन पर गिराने लगीं. वे कुछ बुदबुदाती जा रही थीं.
उधर चाची ने जो घी हवन कुंड के चारों ओर गिराया था, वह गरम होने पर पिघल कर बह निकला था. ज्योंज्यों घी पिघलता गया, आग भड़कती गई. पलंग पर पड़े कंबल का किनारा कुछ थोड़ा नीचे लटक रहा था. आग ने ज्यों ही उसे पकड़ा भयानक रूप धारण कर के पलंग पर चढ़ बैठी. वहां फैले कपड़ों में बाबा की शक्ति तेजी से दौड़ने लगी.
पलंग के कपड़ों को झुलसाने के बाद शक्ति ने चारों ओर नजर दौड़ाई. पलंग की एक तरफ दीवार पर एक रस्सी बंधी थी, जिस के ऊपर खेस, दरी, लिहाफ और दूसरे कपड़े टंगे थे.
अब बाबा की शक्ति की नजर रस्सी पर टंगे कपड़ों पर पड़ी, तो वह तेजी से उसी ओर बढ़ गई. बिजली की तेजी से वह कपड़ों को झुलसाती हुई सरपट दौड़ती चली जा रही थी मानो बड़ी कोशिशों के बाद उसे यह मौका मिला हो. वह अपना एक पल भी बेकार नहीं करना चाहती थी.
रस्सी के ऊपर ही छींका टंगा था. इसी छींके पर खाने के तेल से भरी प्लास्टिक की बोतल रखी थी. देवी ने एक झपट्टा इस ओर भी मारा. रस्सी जलने के बाद तेल की भरी बोतल जमीन पर गिर कर टूट गई थी. तेल चारों ओर फैल गया और जमीन पर पड़ते ही अग्नि देवता और भी भड़क उठे.
आग धधक कर जल उठी. जिस ओर वह करवट बदलती, सबकुछ चौपट करती चली जाती. लकड़ी का संदूक, जो कपड़ों और गहनों से लदा था, धूधू कर के जल उठा. प्लास्टिक की कुरसी में आग लग गई. देवी के तेवर अब भयंकर रूप ले चुके थे. घर के किसी भी सामान को वह छोड़ना नहीं चाहती थी. वह तो सबकुछ स्वाहा करने पर तुली थी.
चाची उधर सूर्य देवता को पूरी तरह खुश करने में मगन थीं, इधर घर में बाबा की शक्ति का यह हाल था कि वह एकएक सामान को ढूंढ़ढूंढ़ कर राख करती चली जा रही थी.
चाची जब उतरीं तो देखा कि जंगले से हो कर धुआं निकल रहा है. वे जल्दीजल्दी आगे बढ़ीं और दरवाजा खोला. वहां का नजारा देखते ही वे गिरतेगिरते बचीं. उन्होंने पड़ोसियों को चीखते हुए आवाजें दीं. चारों ओर धुआं फैलने लगा था.
सारे मकान के लोग अपनेअपने घरों से निकलते हुए बाहर भागे. दरवाजा खुलने पर पवन देवता घर के अंदर दाखिल हुए तो बौखलाई हुई शक्ति पवन के ऊपर सवार हो कर आग बुझाने वालों को भी झुलसाने लगी. लोग आग के ऊपर पानी डाल रहे थे. शहरों में पानी होता कितना है हर घर में. 2-4 बालटी पानी से कोई आग बुझती है क्या?
आदमी, औरतें और बच्चे सभी आग बुझाने में लगे हुए थे. कई लोग आग की चपेट में आ गए थे. अचानक देवी ने तेवर बदले. वह जंगले के रास्ते से जीभ लपलपाती घर की पहली मंजिल के मकान पर पहुंच गई. आग की शक्ति अब बंद कमरे से निकल कर दूसरीतीसरी मंजिल पर लपलपाने लगी, फायर ब्रिगेड को फोन किया गया, पर उन्होंने कह दिया कि वे उस गली में घुस तो नहीं सकेंगे, उन्हें पहुंचने में भी आधा घंटा लगेगा, क्योंकि सड़कों पर भारी भीड़ है.
आग बेकाबू को गई थी, जबकि लोग उसे बुझाने की कोशिश कर रहे थे.
अब लोग आग बुझाना भूल गए थे, क्योंकि वे खुद को, बच्चों को और कीमती सामान को घर से निकाल पाना ही उन्हें मुश्किल हो रहा था.
आग की लपटें आसमान छूने लगी थीं. 3 घंटे तक देवी भयानक तांडव करती रही. औरतें दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. मर्द मुंह बंद किए रो रहे थे.
भयानक आग ने सबकुछ राख कर दिया था. तकरीबन 8 घंटे बाद बाबा की आग शांत हुई. औरतें गोदी में लिए छोटे बच्चों को चुप कराने की नाकाम कोशिशें कर रही थीं. कौए देख रहे थे कि कहीं कोई कुत्ता, बिल्ली मिले तो उस पर झपट्टा मारें.
हर जगह खामोशी छा गई थी. चाची गली में बैठी सिर पकड़ कर रो रही थीं. कुछ लोग उन से आग लगने की वजह पूछ रहे थे, क्योंकि आग उन्हीं के घर से शुरू हुई थी.
चाची अपने आंसू पोंछते हुए रोरो कर बता रही थीं कि बाबा शायद नाराज हो गए थे. अब किस मुंह से किस घर में वे सुबोध को लाएंगी. अब तो उन्हें खुद अपने गांव लौटना होगा, जहां छप्पर भी नहीं बचा. शायद कोई नहीं रहने दे उन्हें.
मुनिया तो बहुत देर पहले ही मर चुकी थी, लेकिन अर्जुन अपनी पत्नी सुगंधी को बता नहीं रहा था और चुपचाप बेटी की लाश को कंधे पर लादे चल रहा था. वह सोच रहा था कि जैसे ही वह बताएगा, सुगंधी रास्ते में ही हिम्मत हार बैठेगी.
अर्जुन मुनिया का पिता जरूर था, लेकिन मुनिया की रगों में तो लाल बाबू का खून था. इन बातों को नजरअंदाज कर के वह बस चलता चला जा रहा था. पीछेपीछे सुगंधी भी बेतरतीब आंचल और बिखरे हुए बालों को समेटते हुए दौड़ने के अंदाज में चलती जा रही थी.
रोहुआ गांव को पहले ‘मिनी चंबल की राजधानी’ कहा जाता था. अनुमंडल मुख्यालय से 150 किलोमीटर दूर. आज भी न वहां बिजली है, न लैंडलाइन फोन और न मोबाइल का टावर. ये तमाम सुविधाएं अबतब पहुंचने ही वाली हैं, लेकिन फिलहाल तो चारों तरफ बीहड़ों से घिरा यह गांव आज भी दुनिया की अनेक सुविधाओं और बदलते सामाजिक माहौल से कोसों दूर है.
लाल बाबू अर्जुन का बड़ा भाई था. अर्जुन की भाभी भरी जवानी में ही गुजर गई थीं, तब से लाल बाबू ने दूसरी शादी नहीं की थी. ब्रह्म स्थान पर बैठ कर ताश खेलने और पानी भरने के लिए आने वाली बहनबेटियों को घूरने में ही उस का सारा दिन गुजरता था.
सुगंधी की उम्र तब 22 साल थी, जब अर्जुन उसे ब्याह कर लाया था. अर्जुन सूरत की एक कपड़ा फैक्टरी में सुपरवाइजर का काम करता था.
शादी के ठीक एक दिन पहले उस फैक्टरी में आग लग गई. पोस्ट औफिस से एक टेलीग्राम आया कि ‘फौरन चले आओ. बरबाद हो चुके कारखाने को संवारने में तुम्हारी मदद की जरूरत है.’
चूंकि अगले दिन ही शादी थी, इसलिए अर्जुन का जाना मुमकिन न हो सका.
शादी की अगली सुबह मेहमानों से भरा घर और नईनवेली दुलहन को छोड़ कर अर्जुन को जाना पड़ा. वह मुश्किल से सुगंधी का चेहरा भर देख पाया था. बिलकुल चांद का टुकड़ा थी वह, लेकिन फिलहाल उन दोनों का मिलन नहीं लिखा था.
सुगंधी की आंखों में तैरते आंसू छोड़ कर उस ने अपना बैग उठाया और सूरत के सफर पर रवाना हो गया.
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. इधर दिन गिनगिन कर सुगंधी कैद में बुलबुल की तरह फड़फड़ाती रही और उधर अर्जुन घर लौटने के लिए बेचैन रहा.
हजारों अरमान संजोए तकरीबन अर्जुन 4 महीने बाद जब घर वापस लौटा, तो उस पर मानो बिजली सी गिर गई. पति के परदेश से लौटने की खुशी में तो सुहागनें मोर की तरह नाचती हैं, लेकिन सुगंधी का चेहरा बिलकुल धुआंधुआं सा था.
अर्जुन को शक हुआ. उस ने सुगंधी को अपने आगोश में जकड़ते हुए पूछा, ‘‘क्यों उदास हो सुगंधी? क्या मेरे आने से तुम खुश नहीं हो?’’
सुगंधी ने रोते हुए अर्जुन को सबकुछ सहीसही बता दिया, ‘‘मेरे पेट में पाप पल रहा है. मैं आप को मुंह दिखाने के लायक नहीं रही. जब आप को जाना ही था, तो मुझे मेरे घर छोड़ आते. आप की सुगंधी वहां अपवित्र होने से बची तो रहती.’’
झन्न से कुछ टूटा अर्जुन के भीतर और उस ने वहशत भरी आवाज में पूछा, ‘‘कौन है वह?’’
सुगंधी ने रोते हुए बताया, ‘‘जेठजी महीनों से मेरे साथ जबरदस्ती करते आ रहे हैं. मैं 2 महीने के पेट से हूं. अब आप आ गए हैं… या तो मुझे मार डालें या उस पापी को मार डालें.’’
अर्जुन माथा पकड़ कर बैठ गया. वह सोच रहा था कि काश, फैक्टरी में आग न लगी होती और उसे जाना न पड़ता. उस के मुंह से इतना भर निकला, ‘‘सबकुछ अचानक हुआ जो मुझे जाना पड़ा… उफ…’’
सुगंधी की सास तो बहुत पहले ही मर चुकी थीं. ससुरजी चलनेफिरने में लाचार थे. घर में दूसरा कोई सदस्य था नहीं, इसलिए लाल बाबू को मुंह काला करने का भरपूर मौका और माहौल मिला था.
नईनवेली दुलहन सिसकती रही और कुछ न कर सकी. गांव में न मोबाइल, न लैंडलाइन फोन. 150 किलोमीटर दूर मायका और 1,500 किलोमीटर दूर साजन परदेश में. आखिर अपने लुटने का संदेश भेजे भी तो कैसे भेजे.
अचानक अर्जुन की आंखें लाल हो गईं, दांत पर दांत बजने लगे, ‘‘इतना बड़ा अनर्थ…’’ इतना कह कर वह कुछ सोचने लगा और देर तक सोचता रहा, फिर धीरेधीरे शांत होने लगा.
अर्जुन सीधासादा नौजवान था. शहर में रह कर भी गांव की मासूमियत को अपने अंदर संजोए हुए था. बड़े भाई की इस घिनौनी करतूत पर किसी हिंसक कार्यवाही के बजाय वह रोने लगा और भाई से कुछ न पूछ कर खामोशी की चादर ओढ़ कर पलंग पर बैठ गया. न कुछ खाया, न कुछ पीया.
देर रात तक दोनों पतिपत्नी विपरीत दिशा में मुंह कर के सोने की नाकाम कोशिश करते रहे. दोनों तरफ से सिर्फ सिसकियों की आवाजें आती रहीं.
सुबह होने से पहले चुपके से मुंहअंधेरे बिना किसी को कुछ बताए अर्जुन सुगंधी को ले कर सूरत के लिए निकल गया.
सूरत में इस घटना को जानने वाला कोई नहीं था. अर्जुन ने सोचा कि न तो सुगंधी कहीं से कुसूरवार है और न ही इस के पेट में पलने वाला बच्चा ही गुनाहगार है. फिर इन्हें सजा क्यों? किसलिए? लिहाजा, उस ने सुगंधी के पेट में पल रहे बच्चे को गिराने के बजाय उसे जन्म देने का फैसला किया.
छोटी सी नन्ही परी जब उन के घर में आई, तो उन की खुशियों का ठिकाना न रहा. इस तरह नाजुक, दूध की धुली, खूबसूरत इतनी ज्यादा कि क्या कहने.
बच्ची को देख कर अर्जुन के मन में एक पल के लिए कराह सी महसूस तो हुई, लेकिन अगले ही पल उस ने अपने खयाल को यह कहते हुए दरकिनार कर दिया कि यह मासूम तो फरिश्ता है, और फिर खून मेरा न सही, मेरे ही भाई का तो है.
बहरहाल, देखतेदेखते 4 साल गुजर गए. बीती बातें भूल कर वे दोनों अपनी नई दुनिया में खुश थे.
सूरत में जिंदगी बड़े आराम से कट रही थी कि अचानक लौकडाउन घोषित हो गया. हर तरफ कोरोना की दहशत फैल गई. फैक्टरियां बंद. दुकानें बंद. बाजार बंद. सवारियां बंद और काम बंद. फिर तो गांव लौटने के सिवा कोई चारा न बचा.
अर्जुन का छोटा सा परिवार, जो अपने गांव कभी वापस नहीं लौटने की कसमें खा चुका था, अब गांव लौटने के लिए सवारियों की तलाश करने लगा, पर तमाम सवारियां बंद थीं. बीमारी फैलने के डर से सरकार ने बिना किसी सूचना के अचानक सबकुछ बंद कर दिया था.
मां, बाप और बेटी, तीनों 21 दिनों तक सवारी खुलने के इंतजार में बैठे रहे. बाहर देखने में न कहीं बीमारी नजर आ रही थी और न ही कोई मर रहा था. सबकुछ सामान्य होते हुए भी, सबकुछ बंद था.
21वें दिन चलने के लिए वे अपना बैगबक्सा समेट ही रहे थे कि फिर से लौकडाउन लग गया और उन्हें फिर रुक जाना पड़ा.
4 दिन बाद फैक्टरी में काम करने वाले बिहार के एक मजदूर ने अर्जुन को बताया, ‘‘आज रात में चुपकेचुपके 2 ट्रक कपड़ा गोरखपुर जाने वाला है. एक ट्रक ड्राइवर से बात हुई है. वह हमें छिपा कर ले जाने के लिए तैयार है, लेकिन एक सवारी के 1,000 रुपए लेगा.’’
अंधे को क्या चाहिए दो आंखें… अर्जुन फौरन तैयार हो गया. फिर इन के साथ 5 और मजदूर भी तैयार हो गए और दोनों ट्रकों में छिपछिपा कर सभी लोग गोरखपुर तक पहुंचे. लेकिन वहां से भी आगे जाने के लिए कोई सवारी नहीं थी. अलबत्ता, सैकड़ों लोग पैदल ही बिहार जा रहे थे.
फिर इस तरह ये लोग भी पैदल जा रहे मजदूरों के जत्थे में शामिल हो गए. कुछ दूर तक तो साढ़े 3 साल की मुनिया भी फुदकफुदक कर चलती रही, उस के बाद वह थक कर चूर हो गई. फिर कभी मम्मी, तो कभी पापा के कंधे पर सवार हो कर सफर करती रही.
तकरीबन 40 किलोमीटर तक चलने के बाद सारे मुसाफिर थकहार कर बैठ गए. अब किसी में आगे जाने की हिम्मत न रही. सब के पैरों में छाले पड़ चुके थे. शाम ढलने लगी थी. फिर एक सुनसान जगह पर तकरीबन 20-22 मजदूर अपनीअपनी चादर बिछा कर सो गए.
अचानक सुगंधी बोली, ‘‘अरे, मुनिया का शरीर तो बुखार से तप रहा है…’’
अर्जुन ने उस का माथा छू कर देखा. आग की तरह गरम था. मुनिया हांफ भी रही है.
अब क्या किया जाए. इस सुनसान जगह पर डाक्टर तो दूर दवा की दुकान भी मिलना नामुमकिन था. मजदूरों ने राय दी कि यहां पड़े रहने से अच्छा है कि इसे ले कर भागो. जितनी जल्दी डाक्टर के पास पहुंच जाओगे, उतना ही अच्छा होगा. 20 किलोमीटर बाद गंगाजी पर पुल पड़ेगा और उस के बाद कुछ दूर तक जंगल. सुबह होने तक अपने ठिकाने पर पहुंच ही जाओगे.
सुगंधी हायहाय करते हुए बोली, ‘‘बैगबक्सा इन लोगों के हवाले करो… छोड़ो… और चलो जल्दी, मुनिया को ले कर चलते हैं.’’
फिर सामान का मोह त्याग कर मुनिया को बारीबारी अपने कंधों पर लादलाद कर पतिपत्नी चलने लगे. चलने क्या लगे, तकरीबन दौड़ने लगे.
सुगंधी हांफतेकांपते बोलती जा रही थी, ‘‘बस, किसी तरह मेरी बच्ची ठीक हो जाए…’’
चलतेचलते भोर होने लगी. जैसे ही पुल पर पहुंचे कि उन्हें पुलिस वालों ने रोक लिया.
पुलिस वालों की तफतीश में वह राज खुल गया, जो अर्जुन छिपाए हुए चल रहा था… मुनिया मर चुकी थी… तकरीबन घंटेभर पहले.
यह देखते ही सुगंधी बेहोश हो कर गिर पड़ी. अर्जुन ने मुनिया को पुल के पास जमीन पर लिटाया और सुगंधी को संभालने लगा. एक पुलिस वाले ने बोतल का पानी दिया. अर्जुन उस के चेहरे पर पानी की छींटें मारने लगा.
कुछ देर बाद ‘मुनियामुनिया’ कहते हुए सुगंधी होश में आ गई.
‘‘मुनिया मर चुकी है सुगंधी,’’ इतना कह कर अर्जुन भी रोने लगा.
सुगंधी बावली सी हो कर मुनिया को सीने से लगा कर ‘मुनियामुनिया’ बुलाती रही, लेकिन मुनिया अब कहां बोलने वाली थी.
पुल के ऊपर मांबाप की दर्दभरी चीखें और पुल के नीचे गंगाजी की फुफकार, दोनों उफान पर थे. चारों तरफ गम का साया पसर चुका था.
थोड़ी देर बाद सुगंधी के होश बहाल हुए, तो अर्जुन ने कहा, ‘‘उठो सुगंधी, मुनिया को गंगाजी बुला रही हैं.’’
सुगंधी टुकुरटुकुर मुनिया का मुंह निहारती रही और अपने पति की बातों का मतलब निकालती रही.
अर्जुन ने मुनिया को गोद में उठाया और पुल पर किनारेकिनारे चलने लगा. सुगंधी पीछेपीछे अर्जुन के कंधे पर झूल रही मुनिया की लट को संवारती चलती रही, उसे जीभर कर देखती रही.
फिर उफान मारती गंगाजी की बीच धारा में दोनों ने अपने कंपकंपाते हाथों से मुनिया को जल समाधि दे दी और बेसुध हो कर पुल पर गिर गए.
2 दिन बाद लुटेपिटे पतिपत्नी अपने घर पहुंचे. घर पर ताला लटका हुआ था. पड़ोसियों ने बताया कि उन के बाबूजी तो उसी महीने गुजर गए थे, जिस दिन दोनों घर छोड़ कर गए थे, जबकि लाल बाबू को सालभर पहले एक औरत के साथ जबरदस्ती करते गांव वालों ने पकड़ लिया था और लाठीडंडों से पीटपीट कर मार डाला था.
यह सब सुन कर उन दोनों के चेहरों पर कोई मलाल नहीं दिखा. फिर सपाट चेहरों के साथ वे घर में दाखिल हुए और घर की मिट्टी को माथे से लगा कर रोने लगे.