कुछ साल पहले एक फिल्म देखी थी. फिल्म का नाम था ‘मृत्युदंड’. सिनेमाघर के अंदर मिडिल क्लास परिवारों के मर्द औरत बैठे थे. फिल्म के एक सीन में तालाब के किनारे 2 औरतें बैठ कर आपस में बातचीत कर रही थीं. पहली औरत ने पूछा, ‘तुझे तेरा मरद मारता है?’
दूसरी औरत बोली, ‘हां, मारता है. अब जब बैल के सींग में खुजली होती है तो सिर हिलाता ही है.’
पहली औरत ने कहा, ‘तुम विरोध नहीं करती हो.’
दूसरी औरत ने बताया, ‘अब क्या है दीदी… मरद कभी कभी हाथ चला देता है. सहना तो पड़ता ही है.’
‘सींग में खुजली’ वाली बात पर आसपास बैठे फिल्म देख रहे दर्शक हंस पड़े. मैं ने गौर किया कि एक भी औरत नहीं हंसी थी. हो सकता है कि डायलौग में मजाक होने की वजह से हंसी आई हो और सिनेमाघर में बैठे दर्शक औरतों के प्रति वैसा नजरिया न रखते हों, जैसा परदे पर दिखाया जा रहा था. पर क्या इस हंसी में कहीं वह न दिखने वाला राज तो नहीं छिपा था जो औरतों पर जोर जुल्म के लिए जाने अनजाने ही सही रजामंदी देता है?
फिल्म का ऐंड एक संदेश के साथ पूरा होता है. साथ ही, इस फिल्म में सालों से समाज में हो रहे जोर जुल्म के खिलाफ विद्रोह को बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया, जिस में जमींदार, सामंत, महंत और ठेकेदार शामिल हैं. पूरे दक्षिण एशिया में औरतों पर जोर जुल्म होता है. गरीबी, पढ़ाईलिखाई की कमी, कुपोषण और ज्यादा आबादी जैसी समस्याएं यहां अपनी हद पर हैं.
सामान्य हालात में देखा जाए तो औरतों पर जोर जुल्म के 2 रूप सामने आते हैं. सरकारी आंकड़े तो 2 बिंदुओं पर सिमट जाते हैं. ये हैं बलात्कार और दहेज. पर समाज में औरतों पर कई स्तरों पर जोर जुल्म फैले हुए हैं.
गांवों के सामाजिक हालात शहरों से अलग हैं या फिर तरक्की भी हुई है तो अधकचरी, बेमतलब और उलटी दिशा में.
यहां के समाज में औरतों की दशा तालाब में जमे पानी जैसी है. उन्हें अपने हकों तक का पता नहीं है. यहां के छोटे किसान और मजदूर समाज के पास अपनी जमीन नहीं है, जो मजदूरी या दूसरे के खेतों के सहारे ही अपनी रोजीरोटी चलाता है. इन घरों की औरतें बहुत मुश्किल हालात में अपनी जिंदगी बिताती हैं. घर और बाहर दोनों मोरचों पर इन्हें काम करना पड़ता है.
बीमार और जिस्मानी तौर पर कमजोर औरतें न सिर्फ घर के सारे काम करती हैं, बल्कि उन्हें खेतों, ईंटभट्ठों या दूसरों के घर बनवाने में मजदूरों की तरह भी काम करना पड़ता है. यहां पर एक सामाजिक बीमारी आसानी से देखी जा सकती है कि मर्द घर के काम नहीं करते हैं.
औरतों पर जोरजुल्म का एक दूसरा रूप छोटे शहरों और गांवों में देखा जा सकता है. देश के कई हिस्सों में आज भी सामंती और जमींदारी प्रथा बरकरार है. चाहे बिहार का मैदानी भाग हो या उत्तर प्रदेश का पूर्वी इलाका या फिर भारत का सब से पढ़ालिखा राज्य केरल.
ऐसी बात नहीं है कि मर्द सिर्फ बाहरी औरतों के साथ ही ऐसा बरताव करते हैं, बल्कि अपने घर की औरतों के साथ भी कोई बेहतर सुलूक नहीं करते हैं.
औरतें जागरूक नहीं
इन इलाकों में औरतों पर जोरजुल्म के लिए जाति प्रथा की जकड़ भी कम कुसूरवार नहीं है. ऊंची जाति वालों के तथाकथित नियम निचली जाति की औरतों से जिस्मानी संबंध तो बनाते हैं, पर शादी उन की शान में रुकावट होती है. दलितों पर जोरजुल्म को ऊंची जाति वाले अपना हक मानते हैं.
इसी तरह औरतों को भोग की चीज, बच्चा जनने और पालने के लायक ही मानते हैं, इसलिए यह साफ है कि औरतों की हालत आज के दलितों से अलग कर के नहीं देखी जा सकती है.
तरक्की के इस बदलाव के दौर में कई नए तरह के हालात सामने आए हैं. इलैक्ट्रौनिक मीडिया के चलते इस की पहुंच गांवगांव तक हो गई है. टैलीविजन और अखबार नए रूप में हमारे सामने हैं.
गांव के गरीब और निचले तबके के परिवार काम की तलाश में शहरों में आते हैं और न बयां करने वाली मुसीबतें झेलते हैं. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि झुग्गीझोंपडि़यों में रहने वाली औरतों का क्या हश्र होता होगा.
यहां जोरजुल्म के कई रूप देखने को मिलते हैं. गांव की गरीब औरतें पढ़ाईलिखाई की कमी, कुपोषण के चलते पिसती हैं तो शहर की औरतें खुलेपन के खौफ में.
यहां अपराध के नएनए रूप भी देखने को मिलते हैं. ‘समाज में खुलापन आया है’ इस वाक्य को न जाने हम कितना दोहराते हैं, पर यह खुलापन किसलिए?
राष्ट्रीय महिला आयोग ने औफिसों में औरतों पर हो रहे जोरजुल्म को काफी गंभीरता से लिया है. जिन औफिसों में औरतों का यौन शोषण या दूसरी तरह के जोरजुल्म होते हैं, इस को रोकने के लिए कई तरह के नियम बनाए गए हैं.
उदारीकरण यानी खुलेपन के इस दौर में यह भरम फैल गया है कि अगर औरत माली तौर पर आजाद हो जाएगी तो ऐसे जोरजुल्म बंद हो जाएंगे. पर ऐसी आजादी औरतों पर हो रहे जोरजुल्म को कम नहीं करती. औफिसों में हो रहा जोरजुल्म तो महज एक उदाहरण है.
हमारे समाज में तो ज्यादातर हुनर इसलिए कुंद हो जाते हैं कि यहां शादी सब से बड़ी बात होती है. कई लड़कियों का ‘कैरियर’ अगर शादी के नाम पर कुरबान कर दिया जाता है, तो इस के पीछे वही छिपी हुई साजिश होती है जो औरतों पर जोरजुल्म करने को मंजूरी दिए हुए है.
जरूरत है सोच बदलने की
खुलेपन ने जहां निजी आजादी और शख्सीयत को बनाने के मौके दिए हैं, वहीं परंपरागत सोच को बदलने का कोई उपाय नहीं बताया. असल समस्या की जड़ यही है. औरत एक ‘शख्सीयत’ के रूप में ताकतवर हो, यह हमें गवारा नहीं. हम नहीं चाहते कि औरत अपने तर्क के सहारे दुनिया की रचना करे.
यहां हमें उदारीकरण या खुलापन कोई सहयोग नहीं देता, बल्कि जोरजुल्म करने के लिए उकसाता है, इसलिए सामाजिक तौर पर उदारीकरण ‘अफीम की गोली सा’ लगता है, जो हमें नशे में रखता है.