तालिबान: नरेंद्र मोदी ने महानायक बनने का अवसर खो दिया!

अफगानिस्तान पर  लाखों करोड़ों रुपए का निवेश करने और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद दोस्ती का  नया गठबंधन करने के लिए जाने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जिस तरह अफगानिस्तान पर तालिबान का रातों-रात कब्जा हो गया और मौन देखते रहे यह देशभर में चर्चा का विषय बना हुआ है.

अगरचे, नरेंद्र दामोदरदास मोदी जिन्होंने अपनी छवि दुनिया में एक प्रभावशाली नेता के रूप में बनानी थी तो यह उनके पास एक सुनहरा अवसर था.

दरअसल, नरेंद्र दामोदरदास मोदी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति से बातचीत करके उनकी मदद का हाथ बढ़ा देते तो दुनिया में मोदी और भारत की छवि कुछ अलग तरह से निखर कर सामने आ सकती थी.कहते हैं, संकट के समय ही आदमी की पहचान होती है यह एक पुरानी भी कहावत है.

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सभी जानते हैं कि भारत और अफगानिस्तान वर्षों वर्षों पुराने मित्र हैं और हाल में इस मित्रता का रिन्यूअल मोदी जी ने अफगानिस्तान को हर संभव सहयोग करके और वहां जाकर के किया था. उनके भाषण गूगल पर उपलब्ध हैं, ऐसे में  दृढ़ता का परिचय देते हुए नरेंद्र मोदी ने आगे बढ़कर के तालिबान का मुकाबला किया होता तो शायद राजीव गांधी की तरह उनकी छवि भी दुनिया में प्रभावशाली बन करके सामने आ सकती थी.

क्या आपको स्मरण हैं प्रधानमंत्री पद पर रहते राजीव गांधी ने श्रीलंका में लिट्टे के खिलाफ शांति सेना भेजी थी. जिसके परिणाम स्वरूप श्रीलंका और भारत के संबंध और भी मजबूत हुए थे और दुनिया में एक संदेश गया था कि भारत अपने आस-पड़ोस जहां भी अशांति फैलती है और मदद की आवश्यकता होती है तो आगे आ जाता है.

इसका दुनिया की राजनीति और मिजाज पर गहरा असर पड़ता यह दुनिया की महा शक्तियों के लिए भी एक सबक होता अमेरिका जब अफगानिस्तान को छोड़कर नौ दो ग्यारह हो रहा था सारी दुनिया आतंक के सामने नतमस्तक थी, ऐसे में नरेंद्र दामोदरदास मोदी का एक्शन दुनिया के लिए एक नजीर बन जाता.

आतंक का सफाया हो जाता

अफगानिस्तान पर जब तालाबानियों लड़ाकों ने आक्रमण किया, उस समय उनकी संख्या 75 हजार बताई गई है. और अफगानिस्तान के सैनिकों की थी संख्या 3 लाख.और तो और अफगानिस्तान के  पास हवा से आक्रमण करने के सैन्य साधन भी थे जो तालाबानी आतंकियों के पास नहीं थे.

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हमारा मानना है-  पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की नीति के अनुरूप श्रीलंका में जैसे उन्होंने शांति सेना भेजी थी अगर तालाबानियों के हमले के समय भारत अपनी “शांति सेना” भारत में उतार देता अथवा   बंगला देश निर्माण के समय की तरह सामने आता तो निश्चित रूप से 75 हजार तालाबानियों को आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता. और पूरी बाजी नरेंद्र दामोदरदास मोदी और भारत के हाथों में होती.

हमारा आकलन यह है कि…

तालाबानियों के आत्मसमर्पण के लिये भारत को बड़ा बलिदान भी नहीं देना पड़ता और चीन,पाकिस्तान तथा रूस जो तालाबानियों के खैरख्वाह बने हुए हैं उनको बोलने का कोई अवसर ही नहीं मिलता. राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार  आर के पालीवाल के मुताबिक ऐसी स्थिति में  पूर्व से स्थापित राष्ट्रपति  और अफगानिस्तान सरकार जिससे भारत का मित्रवत सम्बन्ध है,उसी सरकार का अस्तित्व में रहता. अफगानिस्तान की सरकार ने भारत सरकार से मदद की गुहार न भी लगाई हो,उसके उपरांत भी भारत विश्व मंच पर बड़ी दृढ़ता के साथ अपनी बात रख सकता था कि पदस्थ सरकार पर आतंकियों के हमले को रोकने और पड़ोसी देश होने के कारण उसने ये कदम उठाया है.

अगरचे, आज भारत की जो ऊहापोह की स्थिति नहीं रहती और भारत की पूरे विश्व मे एक नई छवि भी बनती.

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