डिजिटलीकरण के दौर में गायब हुए नुक्कड़ नाटक

साल 1989 का पहला दिन था. तब एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर के व्हाट्सऐप फौरवर्ड भेजने का रिवाज नहीं था. न ही इंस्टाग्राम पर रंगबिरंगी लाइटें लगाने व तंग कपड़े पहन कर रील बनाई जाती थीं. ट्विटर पर हैशटैग जैसी फैंसी चीज नहीं थी. इन बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों के न होने के चलते युवाओं के पास खुद को एक्सप्रैस करने के लिए नुक्कड़ नाटक थे. यानी, स्ट्रीट प्ले सोशल इंटरैक्शन के माध्यम माने जाते थे. नाटक करने वालों के पास कला थी और देखने वालों के पास तालियां. यही उस समय का यूथ कोलैब हुआ करता था.

यही तालियों की गड़गड़ाहट साल के पहले दिन गाजियाबाद के अंबेडकर पार्क के नजदीक सड़क पर बज रही थी उस के लिए जो आने वाले सालों में इम्तिहान के पन्नों में अमर होने वाला था, जिस के जन्मदिवस, 12 अप्रैल, को ‘नुक्कड़ नाटक दिवस’ घोषित किया जाने वाला था. बात यहां मार्क्सवाद की तरफ ?ाकाव रखने वाले सफदर हाशमी की है जो महज 34 साल जी पाए और इतनी कम उम्र में वे 24 अलगअलग नाटकों का 4,000 बार मंचन कर चुके थे.

शहर में म्युनिसिपल चुनाव चल रहे थे. ‘जन नाट्य मंच’ (जनम) सीपीआईएम कैंडिडेट रामानंद ?ा के समर्थन में स्ट्रीट प्ले कर रहा था. प्ले का नाम ‘हल्ला बोल’ था. सुबह के

11 बज रहे थे. तकरीबन 13 मिनट का नाटक अपने 10वें मिनट पर था. तभी वहां भारी दलबल के साथ मुकेश शर्मा की एंट्री हो जाती है. वह मुकेश शर्मा जो कांग्रेस के समर्थन से इंडिपैंडैंट चुनाव लड़ रहे थे. मुकेश शर्मा ने प्ले रोक कर रास्ता देने को कहा. सफदर ने कहा, ‘या तो प्ले खत्म होने का इंतजार करें या किसी और रास्ते पर निकल जाएं.’

बात मुकेश शर्मा के अहं पर लग गई. उस के गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक मंडली पर रौड और दूसरे हथियारों से हमला कर दिया. राम बहादुर नाम के एक नेपाली मूल के मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफदर को गंभीर चोटें आईं. अस्पताल ले तो जाया गया पर दूसरे दिन सुबह, तकरीबन

10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलन के अगुआ सफदर हाशमी ने अंतिम सांस ली. इतनी छोटी सी ही उम्र में सफदर हाशमी ने लोगों के दिलों में कैसी जगह बना ली थी, इस का सुबूत मिला उन के अंतिम संस्कार के दौरान. अगले दिन उन के अंतिम संस्कार में दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग मौजूद थे. कहते हैं, सड़कों पर नुक्कड़ नाटक करने वाले किसी शख्स के लिए ऐसी भीड़ ऐतिहासिक थी.

सफदर की मौत के महज 48 घंटे बाद 4 जनवरी को उसी जगह पर उन की पत्नी मौलीश्री और ‘जनम’ के अन्य सदस्यों ने जा कर ‘हल्ला बोल’ नाटक का मंचन किया. यहां तक बताया जाता है कि उसी साल सफदर की याद में लगभग 25 हजार नुक्कड़ नाटक देशभर में किए गए.

इप्टा का योगदान

नुक्कड़ नाटकों की युवाओं के बीच एक अलग ही जगह रही है. एक समय सड़कों पर दिखाए जाने वाले इन नाटकों की ऐसी आंधी थी कि माना जाता था यदि कोई उभरता कलाकार सड़क पर लोगों के बीच नाटक नहीं दिखा सकता, उन्हें मंत्रमुग्ध नहीं कर सकता, वह असल माने में जन कलाकार है ही नहीं.

नुक्कड़ नाटक हमेशा से जन संवाद के माध्यम रहे हैं. ये हर समय लोगों के बीच रहे. मुंबई में इप्टा की संचालक शैली मैथ्यू ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘‘गुलाम भारत में नुक्कड़ नाटकों का मंचन इतना आसान नहीं होता था. कई बार अभिनेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता था, भीड़ को तितरबितर करने के लिए लाठियां बरसाई जाती थीं. लेकिन नाटक वाले भी तैयारी से निकलते थे. उन का यही मकसद होता- लोगों में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ विरोध को जगाना, उन्हें तमाम सामाजिक-धार्मिक कडि़यों से आजाद कर राजनीतिक लड़ाई के लिए एकजुट करना.’’

दरअसल, भारत में अभिनय को थिएटर, थिएटर से सड़कों, सड़कों से आम जनता के बीच ले जाने में इप्टा यानी ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ की बड़ी भूमिका रही है. इप्टा 1943 में ब्रिटिश राज के विरोध में बना एक रंगमंच संगठन था. इस का नामकरण भारत के बड़े वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया. आजाद भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित हो कर इप्टा ने भारतीय सिनेमा में अपना गहरा इंपैक्ट छोड़ा. कई नामी कलाकार इस संगठन से निकले. बलराज और भीष्म साहनी, पृथ्वीराज कपूर, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी, फैज अहमद फैज, शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी जैसे बड़े नाम शामिल रहे. उर्दू के मशहूर शायर कैफी आजमी के कथन में ‘इप्टा वह प्लेटफौर्म है जहां पूरा हिंदुस्तान आप को एकसाथ मिल सकता है. दूसरा ऐसा कोई तीर्थ भी नहीं, जहां सब एकसाथ मिल सकें.’

देखा जाए तो इप्टा के नाटकों के थीम में विरोध का स्वर ज्यादा मुखर होता था, बल्कि ज्यादातर नाटक तो विशुद्ध राजनीतिक थीम पर ही लिखे गए. उस के बावजूद यह धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों पर चोट करता था. इतनी चोट कि कई बार धर्म प्रायोजित राजनीतिक पार्टियां व धार्मिक संगठनों के बीच यह संगठन अखरने लगता था.

सफदर हाशमी खुद भी इप्टा से जुड़े थे. उन्होंने रंगमंच के सारे पैतरे इप्टा से सीखे पर जब उन्हें लगा कि कला को अब और नीचे सड़कों तक पहुंचाने की जरूरत है और इस के लिए उन के पास ज्यादा फंड नहीं तो ‘जनम’ की नींव डाल कर नक्कड़ नाटक को अपना हथियार बना दिया.

नुक्कड़ नाटक आज कहां

स्ट्रीट प्ले किस तरह युवाओं के बीच एक समय पौपुलर माध्यम हुआ करता था. इस में यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट्स की बड़ी भूमिका होती थी. खुद सफदर हाश्मी और उन के साथ के मैंबर्स विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए थे. सफदर सेंट स्टीफन कालेज से पढ़े भी थे और बाद में अलगअलग कालेज में पढ़ाने भी लगे.

अधिकतर लोग इसे सिर्फ थिएटर या फिल्मी परदों पर ऐक्ंिटग करने वाले कलाकारों से जुड़ा हुआ सम?ाते हैं पर असल में नुक्कड़ नाटक ही एकमात्र माध्यम था जो समाज के सब से निचले युवाओं, जिन का ऐक्ंिटग से कोई लेनादेना न भी हो, से जुड़ा हुआ था. युवा इस के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुंचाया करते थे. यहां तक कि सरकार की आलोचना करने, अपनी समस्याएं बताने में भी यह एक बड़ा माध्यम था. पर सवाल यह कि आज नुक्कड़ नाटक हमारे इर्दगिर्द से गायब होते क्यों दिखाई दे रहे हैं? क्यों युवा इन के बारे में बात नहीं करते? इस का जवाब देश में तेजी से बदलते पौलिटिकल और सोशल चेंज में छिपा है, जिसे सम?ाना बहुत जरूरी है.

गरीब छात्र गायब, बढ़ता सरकारी दखल

हायर एजुकेशन में सरकारी नीतियों के चलते कमजोर तबकों के छात्रों का यूनिवर्सिटीज तक पहुंचना बेहद मुश्किल हो गया है. यहां तक कि दलित और पिछड़े तबकों के क्रीमी छात्र ही यूनिवर्सिटी तक पहुंच पा रहे हैं, जिन का अपने समुदायों से खास सरोकार रहा नहीं. 4 साल की डिग्री, बढ़ती कालेज फीस और लिमिटेड सीट्स ने छात्रों के लिए मुश्किल बना दिया है.

लगभग सभी विश्वविद्यालयों में थिएटर ग्रुप जरूर होते हैं. खालसा, हिंदू, सेंट स्टीफन, रामजस, किरोड़ीमल, गार्गी, दयाल सिंह सभी कालेजों में ऐसे ग्रुप्स हैं. इन ग्रुप्स से जुड़ने वाले अधिकतर छात्र पैसे वाले घरानों से हैं, जिन का आम लोगों से कोई लेनादेना नहीं. न उन से जुड़े मुद्दे ये सम?ा पाते हैं. ऐसे कई सरकारी कालेज हैं जो अपने एलीट कल्चर के लिए जाने जाते हैं. सेंट स्टीफन में छात्र इंग्लिश में ही बात करते हैं. यहां कोई गरीब छात्र गलती से पहुंच जाए तो वह इन के बीच रह कर अवसाद से ही भर जाए. प्राइवेट यूनिवर्सिटी का हाल और भी बुरा है. गलगोटिया यूनिवर्सिटी चर्चा में है. वहां छात्रों के बीच सम?ादारी का अकाल होना चिंताजनक स्थिति दिखाता है.

एनएसडी और एफटीआईआई जैसे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र भी अब बड़ेबड़े घरानों से आने लगे हैं. यहां सरकार का दखल भी बढ़ गया है. एसी से लैस प्यालेलाल भवन व कमानी औडिटोरियम इन के अड्डे हैं. कभीकभार टास्क के नाते नुक्कड़ों पर निकल पड़ते हैं पर मंडी हाउस के 2 किलोमीटर के दायरे से बाहर नहीं जा पाते.

ऐसा नहीं है कि ये थिएटर ग्रुप्स बिलकुल ही अपने वजूद से अनजान हैं. मगर पिछले कुछ सालों में यूनिवर्सिटी स्पेस में सरकार का दखल हद से ज्यादा बढ़ा है. कैंपस में सेफ्टी के नाम पर पुलिस का हर समय मौजूद रहना, लगातार हर घटनाक्रम को रिकौर्ड करना व छात्रों की हर सोशल व पौलिटिकल एक्टिविटी के लिए परमिशन लेना व नजर रखना अनिवार्य हो गया है. इस से नाटकों का मंचन करने वालों को दिक्कतें आ रही हैं. पर इस के बावजूद यह तो सोचा ही जा सकता है इमरजैंसी के समय में जब सब चीजों पर सरकार ने पहरे बैठा दिए थे तब भी ‘जनम’ जैसे नुक्कड़ नाटक सड़कों पर विरोध जताने वालों के रूप में मौजूद थे तो आज क्यों नहीं?

सोशल मीडिया का पड़ता प्रभाव

इसे सम?ाने के लिए आज युवाओं के लाइफस्टाइल को सम?ाना जरूरी है. युवाओं के हाथ में  आज 5जी की स्पीड से चलने वाला इंटरनैट है. सुबह उठने के साथ वह अपने फोन को स्क्रोल कर रहा है. आतेजाते, खाना खाते वह मोबाइल से ही जुड़ा हुआ है. मैट्रो, बसों में युवा अपना सिर गड़ाए फोन में घुसे रहते हैं. एंटरटेनमैंट के नाम पर 16 सैकंड की रील्स से संतुष्ट हो रहे हैं. अधकचरी जानकारियां सोशल मीडिया में फीड की गईं मीम्स से ले रहे हैं, जो बहुत बार प्रायोजित प्रोपगंडा होती हैं.

युवा न तो सही जानकारी जुटा पा रहा है, न लंबीचौड़ी चीजें पढ़लिख पा रहा है. उस के पास किसी स्टोरी को डैवलप करने का टैलेंट तक नहीं है. आज अच्छे नाटक दिखाने वाले बहुत कम ग्रुप्स बचे हैं. और ये ग्रुप्स भी अपनी मेहनत सड़कों पर करने के बजाय एसी औडिटोरियम में कर रहे हैं. वहीं सड़क पर नाटक दिखाने को एनजीओ वाले रह गए हैं, जिन के नुक्कड़ नाटकों में न तो तीखापन है, न कोई विरोध.

सोशल मीडिया युवाओं के बीच का एंटरटेनमैंट और जागरूकता का साधन छीन रहा है. हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि इन की जरूरत खत्म हो गई है, जबजब सवाल पूछने का चलन समाज में बढ़ेगा, नुक्कड़ नाटक सड़कों पर फिर से जगह बनाते दिखेंगे.

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