State Of Siege Temple Attack Review: निराश करती हैं अक्षरधाम हमले पर बनी ये फिल्म

रेटिंगः दो़ स्टार

निर्माता: अभिमन्यू सिंह

लेखकः  विलियम बॉर्थविक और सिमॉन

फैंटाउजो

निर्देशकः केन घोष

कलाकारः अक्षय खन्ना, विवेक दहिया, प्रवीन डब्बास, समीर सोनी, गौतम रोड़े,मीर

सरवर,मंजरी फणनीस, अक्षय ओबेरॉय और अभिमन्यु सिंह

अवधि: एक घंटा पचास मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

2002 में गुजरात के अक्षर धाम मंदिर पर जो आतंकवादी हमला हुआ था, उसी सत्य घटनाक्रम से प्रेरित होकर निर्देशक केन घोष व क्रिएटर अभिमन्यू सिंह एक फिल्म ‘‘स्टेट आफ सीएज’’लेकर आए हैं. यॅूं तो निर्माता व निर्देशक की तरफ से इसे काल्पनिक कहानी बतायी गयी है.

कहानीः

फिल्म की कहानी 2001 से शुरू होती है जहां एनएसजी कमांडो मेजर हनुत सिंह(अक्षय खन्ना) अपनी टीम के साथ मिनिस्टर की बेटी को बचाने जाते हैं. रोहित बग्गा (विवेक दहिया) जो हनुत को खास पसंद नहीं करता, जबकि समीर (गौतम रोड़े) हनुत का अच्छा दोस्त है.यहां मंत्री की बेटी को बचाने की मुहीम में अपने वरिष्ठ कर्नल एम.एस. नागर (प्रवीण डबास) के आदेश को नजरंदाज एनएसजी कमांडो मेजर हनुत सिंह पाकिस्तानी आतंकवादी अबू हाजमा को जिंदा पकड़ने के चक्कर में अपने एक साथी को खोने के साथ ही खुद घायल हो गए थे. अबू हाजमा को पकड़ नही पाए,जबकि बिलाल भारत की जेल पहुंच चुका था.अब अबू हाजमा नए आतंकवादियों को तैयार कर 2002 में फारुख उमर, हनीफ सहित चार लोगों को गुजरात में अहमदाबाद के कृष्णा धाम मंदिर पर हमला करने भेजता है, उसी वक्त वहीं एक होटल में मंत्री चोकसी का कार्यक्रम हो रहा है, जहां सारी एनएसजी फौज लगी हुई है. मंदिर के अंदर पुजारी, सैकड़ों भक्त के साथ साथ मंदिर के ऑडीटोरियम में स्कूल के कई बच्चे व षिक्षक मौजूद हैं. तभी चार आतंकवादी पहुंचकर अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगते हैं. चारों आतंकवादी मंदिर के अंदर अलग अलग जगह पर पहुंचकर लोगों को जीवित बचे लोगों को बंधक बना लेते हैं.

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उसके बाद पाकिस्तान से अबू हाजमा भारत सरकार से बिलाल की रिहाई की मांग करता है. कृष्णा धाम मंदिर में लोगों के मरने की खबरें सुनकर भारत के प्रधानमंत्री बिलाल को छोड़ने का ऐलान कर देते हैं.उधर एनएसजी कमांडों के मेजर हनुत सिंह जिद करके कुछ साथियों के साथ कृष्णा धाम मंदिर पहुॅचकर कुछ लोगों को जिंदा मंदिर से बाहर निकालने में कामयाब होने के साथ ही दो आतंकवादियों को खत्म करने में सफल होते हैं. पर फिर मेजर हनुत सिंह घायल हो जाते है.कर्नल सिंह अब हनुत सिंह की जगह दूसरे कमांडो को नेतृत्व करने की जिम्मेदारी देते है.मगर हालात बिगड़ते देख हनुत सिंह पुनः मंदिर के अंदर जाते हैं.अंततः अन्य दो आतंकवादी मारे जाते हैं, उधर उरी के आसपास के एलओसी पर बिलाल को छोड़ने गए सैनिकों इसकी खबर मिलती है, तो वह बिलाल से वापस चलने के लिए कहते हंै,पर वह पाकिस्तान की तरफ भागता है, तब एक सैनिक उसे मौत के घाट उतार देता है.

लेखन व निर्देशन:

लेखन व निर्देशन की अति कमजोर कड़ियों के चलते फिल्म अपनी दमदार शुरूआत के चंद मिनटों बाद ही फुसफुसा पटाखा हो जाती है. फिल्म में निर्देशक केन घोष पूरी तरह से भ्रमित है,ऐ सा नहीं कहा जा सकता बल्कि उन्होंने जानबूझकर ऐसे दृष्य गढ़े हैं. कहानी जब गुजरात पहुंचती है, तो लेखक व निर्देषक ने दिखाया है कि मंदिर के अंदर आतंकवादियों के चंगुल से अपने बेटे को बचाने के लालच में मंदिर प्रांगण के पास दुकान चला रहा एक हिंदू पिता आतंकवादियों को एनसीजी कमांडों की हर गतिविधि की जानकारी फोन पर देते हैं.

आखिर इस तरह के दृश्यों से वह क्या संकेत देना चाहते हैं? इतना ही नही भारत के किसी भी एनएसजी कमांडो के शौर्य के सामने एक भी आतंकवादी ठहर नही सकता, मगर फिल्मकार ने एक आतंकवादी के सामने मेजर हनुत सिंह को कमजोर दिखाया,क्या इस पर हर किसी को आपत्ति होनी चाहिए? फिल्म में भारत व पाकिस्तान की राजनीति को भी गलत अंदाज में पेष किया गया है. 19 वर्ष पहले अक्षरधाम पर हुए आतंकवादी हमले ने पूरे देष में भूकंप ला दिया था,मगर केन घोष ने उस पर फिल्म तो बनायी,मगर डरकर ‘अक्षरधाम’को ‘कृष्णधाम’ कर दिया. ऐसा क्यो?इसकी एक मात्र वजह यह है कि वर्तमान समय में हमारे फिल्मकार सच कहने की हिम्मत खो चुके हैं.2002 के आतंकवादी हमले मे तीस लोगो ने अपनी जिंदगी खोयी थी, ऐसे में कोई भी फिल्मकार इसे कमतर कैसे आंका सकता है. तभी तो केन घोष ने मध्य का रास्ता चुनते हुए फिल्म में ‘अच्छा मुस्लिम’और ‘देषद्रोही हिंदू’को मिश्रित कर दिया. फिल्म में मंदिर का एक मुस्लिम सफाई कर्मी मोहसिन (चंदन रॉय), का आतंकवादियो के सामने दिया गया मानवता का भाषण सिर्फ निराष ही करता है. मोहसिन, एक हत्यारे (अभिलाष चैधरी) से कहता है- ‘‘मैं एक मुसलमान हूं लेकिन मैं आपके जैसा नहीं हूं,’’ फिल्म ‘‘स्टेट आफ सीजः मंदिर अटैक’’की षुरूआत में जब एक वतन परस्त कमांडो मेजर हनुत सिंह अपने वरिष्ठ के आदेष का उल्लंघन कर अपने चंद साथियों के सेाथ मिशन पर आगे बढ़ता है, तो लगता है कि फिल्म सही दिशा में जा रही है. मगर दस मिनट बाद कहानी गुजरात पहुंचते ही फिल्म धीरे धीरे बिखरती चली जाती है.

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फिल्म का क्लायमेक्स बहुत ढीला है. फिल्म के कुछ दृश्य अविश्वसनीय है. मसलन-एनएसजी कमांडो जब अपनी ड्यूटी पर है, तब वह अपना मोबाइल फोन साथ में ले जाते हैं और अपनी पत्नी से मोबाइल पर बात करते हैं. पर क्या ऐसा संभव है? कहानी सत्य घटनाक्रम पर आधारित होने के बावजूद उसका पूरा मुंबई मसाला फिल्मीकरण कर दिया गया है. लेखक व निर्देशक ने हनुत सिंह सहित कई किरदारों को सही ढंग से गढ़ा ही नही है.फिल्म में लोग मरते हैं,गोलियां चलती हैं, मगर दर्शकों के मन में आतंकवादियों के प्रति गुस्से का भाव नही पैदा कर पाती.

फिल्म में मानवता का संदेष भी दिया गया है.मंदिर का ही एक पुजारी अंत में मृत आतंकवादियों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हुए एक संवाद कहते हैं-‘‘हिंसा हर समाज को तोड़ने का काम करती है.’’मगर यह फिल्म सांप्रदायिका संघर्ष रोकने का कोई संदेश नहीं देती.

अभिनयः

एनएसजी कमांडो हनुत सिंह के किरदार में अक्षय खन्ना ने बेहतरीन अभिनय किया है.मगर लेखक व निर्देषक ने उनके चरित्र को सही ढंग से गढ़ा ही नही. अक्षय खन्ना उत्कृष्ट कलाकार हैं.ऐसे में उन्हे किरदार चयन करते समय सावधानी बरतनी चाहिए. अक्षय खन्ना के अलावा फिल्म के सभी कलाकारों ने महज अपनी ड्यूटी ही निभायी है.

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