अनसोशल बनाता सोशल मीडिया

दुनिया की आबादी 8.02 अरब के पार हो चुकी है. इन में से 5.3 अरब इंटरनैट यूजर्स हैं. सोशल मीडिया यूजर्स की संख्या सब से ज्यादा चीन में है. लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 में भारत में 1 अरब स्मार्टफोन यूजर्स होंगे. पूरी दुनिया में सोशल मीडिया पर सब से ज्यादा समय इंडिया वाले बिताते हैं. अपनी भूख, प्यास, नींद और रिश्तों को दरकिनार कर भारतीय लोग इस बाबत अमेरिका और चीन को पीछे छोड़ चुके हैं.

दुनिया में इंडियंस के सब से ज्यादा सोशल मीडिया अकाउंट्स

रिसर्च फर्म ‘रेडसियर’ के मुताबिक, इंडियन यूजर्स हर दिन कम से कम 7.3 घंटे अपने स्मार्टफोन पर बिताते हैं. इन में से अधिकतर टाइम वे सोशल मीडिया पर बिताते हैं, जबकि अमेरिकन यूजर्स का औसतन स्क्रीन टाइम 7.1 घंटे है और चीनी यूजर्स 5.3 घंटे सोशल मीडिया पर बिताते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन में एक इंसान के औसतन 7 सोशल मीडिया अकाउंट हैं, जबकि एक भारतीय कम से कम 11 सोशल मीडिया अकाउंट्स पर मौजूद है.

रिसर्च जर्नल पबमेड के मुताबिक, करीब 70 फीसदी लोग बिस्तर पर सोने जाने के बाद भी मोबाइल पर नजरें गड़ाए रहते हैं और सोशल मीडिया पर व्यस्त रहते हैं.

एक स्टडी के अनुसार, एक अमेरिकन व्यक्ति औसतन हर साढ़े 6 मिनट पर अपना फोन चैक करता है और पूरे दिन में तकरीबन डेढ़ 150 बार. वहीं भारतीय दिन में 4.9 घंटे यानी तकरीबन 5 घंटे अपने फोन पर बिताते हैं. यानी, महीने के डेढ़ सौ घंटे और साल के 1,800 घंटे.

जर्नल पबमेड की रिपोर्ट के मुताबिक, सोशल मीडिया पर ज्यादा ऐक्टिव रहने वाले लोगों में नींद की कमी रहती है और जिस का असर उन के मैंटल हैल्थ पर पड़ता है. व्यक्ति में डिप्रैशन और भूलने की बीमारी देखी जा सकती है. साइबर बुलिंग, अफवाहें, नैगेटिव कमैंट्स और गंदी गालियां यूजर्स को डिप्रैशन में ला देती हैं. एक सर्वे के मुताबिक, करीब 60 फीसदी यूजर्स औनलाइन एब्यूज के शिकार होते हैं.

मोबाइल के चलते बिगड़ रहे हैं रिश्ते

साइकैट्रिस्ट डा. राजीव मेहता का कहना है कि सोशल साइट्स पर बिजी रहने वाले लोगों की सामाजिक जिंदगी खत्म सी होने लगती है. आप घर वालों और दोस्तों से बात नहीं करते. आपसी रिश्ते खराब होने लगते हैं. इमोशनल जुड़ाव नहीं रहता. रिश्तों में शेयरिंग, केयरिंग नहीं रहती. व्यक्ति का दायरा सीमित हो जाता है और मन में कुंठाएं घर कर जाती हैं. यहां तक कि नए कपल भी सोशल साइट्स पर इतने खोए रहते हैं कि उन की पर्सनल लाइफ डिस्टर्ब हो जाती है जो एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर की वजह बनती है.

साहिल और प्रियंका की शादी अभी पिछले साल ही हुई थी. दोनों की अरेंज मैरिज थी.  साहिल को सोशल मीडिया की जबरदस्त लत थी. औफिस से आ कर भी वह सोशल मीडिया पर एक्टिव रहता, जिस से प्रियंका को बहुत चिढ़ होती. उस का कहना था कि पूरे दिन वह घर पर अकेली होती है. कोई बात करने वाला भी नहीं होता उस के साथ. तो कम से कम रात में तो वह उसे थोड़ा समय दे. लेकिन पत्नी की बात अनसुनी कर वह मोबाइल पर रील देखदेख कर हंसता रहता. उस के कानों में अपनी पत्नी की बात घुसती ही नहीं थी.

एक दिन गुस्से में प्रियंका ने भी कह दिया कि जब मोबाइल से इतना ही प्यार है तो उस से शादी क्यों की? उस पर साहिल ने भी कह दिया, ‘हां है, तो क्या कर लोगी?’ और इसी बात पर दोनों में ?ागड़े शुरू हो गए. आज प्रियंका अपने मायके में है और उन के बीच तलाक का मामला चल रहा है.

बात पार्टनर से न कर के, लोग फोन पर नजरें टिकाए होते हैं. पार्टनर कुछ बोल रहा है लेकिन आप फोन पर गेम खेलने और रील देखने में व्यस्त हैं. सामने बैठे व्यक्ति से कोई कनैक्शन नहीं और मीलों दूर बैठे किसी इंसान से फोन पर चैंटिंग चल रही है.

डा. रौबर्ट्स लिखते हैं कि उन की स्टडी में शामिल 92 फीसदी लोगों ने कहा कि पार्टनर की हर वक्त मोबाइल फोन चैक करने की आदत उन के रिश्तों को खराब कर रही है. स्टडी में शामिल लगभग सभी लोगों ने कहा कि पार्टनर का फोन हर वक्त उन के हाथों में ही होता है.

रिसर्चगेट की एक और स्टडी कहती है कि मोबाइल फोन एडिक्शन के कारण कपल के बीच तनाव और दूरियां पैदा हो रही हैं. इस स्टडी में शामिल 70 फीसदी लोगों का कहना था कि मोबाइल फोन के कारण वे अपने पार्टनर से साथ पूरी तरह से कनैक्ट नहीं कर पाते क्योंकि वह 100 फीसदी कभी मौजूद ही नहीं होता.

सिर्फ बड़े ही नहीं, बल्कि हम युवा भी सोशल मीडिया पर ऐक्टिव रहते हैं जिस का असर हमारे रिश्ते पर तो पड़ता ही है, हमारे मैंटल हैल्थ पर भी यह बुरा असर डालता है.

मेरी एक दोस्त की 19 साल की बहन यामिनी का सपना डाक्टर बनने का था. उस के पेरैंट्स ने उस का एडमिशन एक अच्छे मैडिकल कालेज में करवाया भी. मगर उस का मन अब पढ़ाई में बिलकुल नहीं लगता. वह देररात तक मोबाइल पर लगी रहती है. अपनी फोटो क्लिक कर सोशल मीडिया पर अपलोड करती है. जब उस के पेरैंट्स उस से कुछ कहते हैं या सम?ाते हैं तो वह उन से बहस पर उतारू हो जाती है और ?ागड़ने लगती है. अपनी किताबें उठा कर फेंकने लगती है कि उसे कोई डाक्टर नहीं बनना. नहीं चाहिए उसे कुछ.

कई बार उस ने खुद को भी नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है जिस के कारण उस के पेरैंट्स डरेडरे रहते हैं. मोबाइल पर ज्यादा ऐक्टिव रहने के कारण वह चिड़चिड़ी हो गई है. उस का बिहेवियर खराब हो गया है. वह घर में किसी से ज्यादा बात भी नहीं करती.

जब हमें अपेक्षा के अनुरूप अपने पोस्ट किए फोटो पर लाइक्स और कमैंट्स नहीं मिलते हैं तब हम अवसाद में चले जाते हैं. पढ़ाई में अरुचि होने लगती है. हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता. सोशल मीडिया पर ऐप्स के जरिए अपनी तसवीरें फिल्टर कर लोग यह बताने की कोशिश करते हैं कि वे अपनी जिंदगी में बहुत खुशहाल हैं. लेकिन जब उन के उसी फोटो पर लाइक्स और कमैंट्स नहीं आते तो वे तनाव और जलन के शिकार हो कर मैंटल हैल्थ खो बैठते हैं.

साइकैट्रिस्ट का कहना है कि फिल्टर्स फन के लिए तो ठीक है लेकिन जब इन का इस्तेमाल ?ाठे दिखावे के लिए होने लगे तो यह समस्या की वजह बन जाता है. फोटो, वीडियो और पोस्ट पर आने वाले कमैंट्स, लाइक्स और शेयर यूजर के लिए रिवार्ड पौइंट्स की तरह काम करते हैं. इस से लोगों को अजीब सी खुशी मिलती है जिस से ब्रेन का रिवार्ड सैंटर एक्टिवेट हो जाता है और यही कारण है कि यूजर सोशल साइट्स पर ज्यादा समय बिताते हैं. उन्हें लगता है कि उन की पोस्ट लोगों को पसंद आएगी और खूब वायरल होगी. लेकिन जब ऐसा नहीं होता तब वे तनाव और डिप्रैशन के शिकार होने लगते हैं.

देररात तक जागने से पैदा हो रही है समस्या

विशेषज्ञों का कहना है कि मस्तिष्क में रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम होता है जिस में कई तरह के न्यूरोट्रांसमीटर निकलते हैं जो सरकाडियम रिद्म को संतुलित करते हैं. देररात तक जागने से ये असुंलित हो जाते हैं जो हमारी दिनचर्या को प्रभावित करते हैं.

स्टैनफोर्ड मैडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंस डिपार्टमैंट की एक रिसर्च के मुताबिक, मोबाइल फोन हमारे मस्तिष्क के डोपामाइन सैंटर्स को एक्टिव करता है. यही कारण है कि हम कोई जरूरी काम न होने पर भी हर थोड़ी देर में अपना फोन उठा लेते हैं. अगर फोन पास न हो तो हमें घबराहट और बेचैनी होने लगती है.

नशे की तरह सोशल मीडिया

सोशल मीडिया की लत लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही है. एक फोन हाथ में न हो तो हम बेचैन हो उठते हैं. सोशल मीडिया हमारे जीवन में ज्यादा ही दखल देने लगा है. आज लोग वर्चुअल दुनिया में इतने ज्यादा खो गए हैं कि अपनों से और दुनियादारी से दूर हो गए हैं, लेकिन बता दें कि वक्त पड़ने पर यह वर्चुअल दुनिया आप का साथ नहीं देने वाली.

सोशल मीडिया एक नशे की तरह बन गया है जिस के बिना लोगों का दिन शुरू नहीं होता. लेकिन यह शौक स्वास्थ्य के लिए खतरा बनता जा रहा है जो न केवल लोगों के शारीरिक, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा रहा है. रिसर्च के अनुसार, वीडियो गेम खेलने के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले हैडफोन, ईयरबड और म्यूजिक वैन्यू का प्रभाव कानों में पड़ता है जो लोगों की सुनने की क्षमता को कम कर रहा है.

सोशल मीडिया का नैगेटिव असर इतना खतरनाक हो जाता है कि लोग जान देने के बारे में सोचने लगते हैं. सोशल मीडिया के सुसाइड कनैक्शन पर जब जर्नल औफ यूथ एंड एडोलसैंस ने रिसर्च की तो डरावने वाले फैक्ट सामने आए. इस में पता चला कि सोशल मीडिया पर कोई जितना ज्यादा वक्त बिताता है, उस के खुद को नुकसान पहुंचाने का खतरा उतना ही बढ़ जाता है.

सोशल मीडिया के दुष्परिणाम

-इस की लत से छुटकारा मिलना मुश्किल होता है.

-इस से उदासी बढ़ती है और सेहत इग्नोर होती है.

-खुद में हीनभावना पैदा होती है.

-लोगों की हैल्थ पर बुरा असर पड़ता है.

-रिश्तों में दूरियां पैदा होती हैं.

यूनिवर्सिटी औफ पेन्सिलवेनिया की एक स्टडी के मुताबिक, लोग अपना अकेलापन दूर करने के लिए सोशल मीडिया की तरफ भागते हैं. लेकिन वे जितना ज्यादा वक्त सोशल मीडिया पर बिताते हैं, उन का अकेलापन उतना ही बढ़ता जाता है. स्टडी में यह भी पाया गया कि जैसे ही लोग सोशल मीडिया यूज करना कम कर देते हैं, उन का अकेलापन कम होने लगता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ ) के एक हालिया अध्ययन में सामने आया है कि लंबे समय तक तेज शोर में रहने से सुनने की क्षमता इस कदर प्रभावित हो रही है कि उस से उबरने की संभावना भी घट रही है. इस के साथ ही, इन वीडियो गेमर्स में टिनिटस की समस्या भी देखी गई है. टिनिटस से पीडि़तों को अकसर कान में रहरह कर घंटी, सीटी और सनसनाहट जैसी आवाजें सुनाई पड़ती हैं.

ब्रिटिश मैडिकल जर्नल (बीएमजे) पब्लिक हैल्थ में प्रकाशित रिसर्च के मुताबिक, सोशल मीडिया और वीडियो गेमर्स अकसर कई घंटों तक तेज आवाज में मोबाइल देखते हैं. इस से ध्वनि का स्तर कानों के लिए निर्धारित सुरक्षित सीमा के करीब या उस से अधिक होता है.

शोधकर्ताओं ने उत्तर अमेरिका, यूरोप, दक्षिणपूर्व एशिया, आस्ट्रेलिया और एशिया के 9 देशों में 53,833 लोगों पर किए गए

14 अध्ययनों की समीक्षा की है. रिसर्च में पाया गया कि मोबाइल में ध्वनि का औसत स्तर 43.2 डेसिबल (डीबी) से 80-89 डीबी के बीच था. गेमिंग की अवधि घटा कर जोखिम कम किया जा सकता है.

शोध के मुताबिक, दुनियाभर में वीडियो गेम्स आज खाली समय को भरने का बेहद लोकप्रिय साधन बन गए हैं. कहना गलत न होगा कि तकनीकी का इस्तेमाल आज पढ़ाई के लिए कम और मनोरंजन के लिए ज्यादा होने लगा है. एक अनुमान के अनुसार, 2022 के दौरान दुनियाभर में इन गेमर्स का आंकड़ा 300 करोड़ से ज्यादा था.

वयस्क के लिए कितनी ध्वनि सीमा निर्धारित

रिपोर्ट के मुताबिक, सप्ताह में किसी वयस्क को 86 डेसिबल (डीबी ) शोर में केवल 10 घंटे, 90 डेसिबल में 4 घंटे, 92 डेसिबल में ढाई घंटे, 95 डेसिबल में एक घंटा और 98 डेसिबल में 38 मिनट से ज्यादा नहीं रहना चाहिए. यदि वे इस से ज्यादा समय इस शोर में रहते हैं तो उन के सुनने की क्षमता प्रभावित होने की ज्यादा आशंका है.

युवा ज्यादा खेलते हैं वीडियो गेम

तीन अलगअलग अध्ययनों में देखा गया है कि लड़कियों की तुलना में लड़के ज्यादा वीडियो गेम खेलते हैं. एक अध्ययन में सामने आया है कि अमेरिका में एक करोड़ से ज्यादा लोग वीडियो या कंप्यूटर गेम खेलते समय तेज या बहुत तेज शोर के संपर्क में आ सकते हैं.

स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, 60 वर्ष से अधिक उम्र के लगभग 30 फीसदी लोगों में सुनने की क्षमता कम होने लगती है. हालांकि, जिस प्रकार से कम उम्र के लोगों में भी इस का जोखिम देखा जा रहा है वह काफी चिंताजनक है.

कोरोनाकाल में जब लोग एकदूसरे से दूर थे, अकेले थे, तब यही एक फोन ही सहारा था मन बहलाने के लिए और एकदूसरे को आपस में जोड़े रखने के लिए. बच्चे भी औनलाइन पढ़ाई करते थे, आज भी करते हैं. लेकिन अब लोग सोशल मीडिया में आकंठ तक डूब चुके हैं.

कहते हैं, सुविधाएं अपने साथ समस्याएं भी ले कर आती हैं. आज मोबाइल और इंटरनैट की वजह से इंसान की जिंदगी आसान तो हुई है लेकिन दूसरी तरफ बड़ी समस्याएं भी पैदा हुई हैं. कुछ समस्याएं आर्थिक नुकसान पहुंचा रही हैं तो कई जानलेवा बन रही हैं. इंटरनैट के बढ़ते प्रसार के साथ साइबर क्राइम में तेजी से इजाफा हुआ है. इस की चपेट में पुरुष महिला, बच्चे, युवा सब हैं. भारत समेत समूचे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में डिजिटलाइजेशन जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसी तेजी से साइबर अपराध बढ़ने की भी आशंका है.

दूर बैठे अपराधी अलगअलग तरकीबों के जरिए लोगों को लूट रहे हैं. कई बार धोखे से तो कई बार सीनाजोरी करते हुए ब्लैकमेल कर के. सैक्सटोर्शन भी उन में से एक है. इस की वजह से बहुत लोगों ने अपनी जान दे दी.

पिछले दोतीन वर्षों के आंकड़ों पर नजर डालें तो अकेले मुंबई में सैक्सटोर्शन के केस में तेजी से उछाल आया है. साल 2021 में सैक्सटोर्शन के 54 केस दर्ज हुए थे, जिन में से 24 ऐसे थे जिन में पीडि़त से 10 लाख से ज्यादा पैसे वसूले गए थे. साल 2022 में सैक्सटोर्शन के कुल 77 केस दर्ज हुए थे. इन 77 मामलों में से 22 में पीडि़तों से आरोपियों ने 10 लाख से ज्यादा पैसे वसूले थे. 71 वर्षीय मुंबई के एक व्यापारी से सैक्सटोर्शन रैकेट चलाने वालों ने 51 लाख रुपए वसूले थे. इस तरह गैंग के लोग सोशल मीडिया के जरिए लोगों को टारगेट कर के अपना शिकार बनाते हैं.

पिछले सालभर में गुजरात में सैक्सटोर्शन के मामलों में शिकायतों की संख्या एक साल में ही 85 फीसदी तक देखी गई. देश के दूसरे हिस्सों में भी सैक्सटोर्शन के मामले आते रहे हैं.

कैसे फंसते हैं लोग

सैक्सटोर्शन रैकेट चलाने वाले गैंग में कई लोग एकसाथ मिल कर काम करते हैं. इन में महिलाएं और लड़कियां भी होती हैं. ये लोग सोशल मीडिया के जरिए अपना शिकार खोजते हैं. जो लोग हाईप्रोफाइल दिखते हैं, उन को गैंग की लड़कियां फेसबुक पर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजती हैं.

इस के बाद धीरेधीरे वे उन से संपर्क बढ़ाती हैं. उस के बाद मोबाइल नंबर ले कर उन से बात करने लगती हैं. मौका देख कर व्हाट्सऐप कौल के जरिए अश्लील बातचीत भी करती हैं. इस तरह से सामने वाला

उस के जाल में फंस जाता है. दुख की बात तो यह है कि बच्चे और युवा भी इस

गंदे खेल का शिकार बन रहे हैं. इसलिए पेरैंट्स को चाहिए कि वे बच्चों को गाइड करें और खुद के स्क्रीन टाइम को भी नियंत्रित करें.

सैक्सटोर्शन 2 शब्दों से मिल कर बना है. ‘सैक्स’ और ‘एक्सटोर्शन’. यह एक साइबर क्राइम है, जिस का शिकार कोई भी बन सकता है. साइबर क्राइम से बचने के लिए सब से पहला मंत्र यही है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल कम से कम किया जाए और इसे इस्तेमाल करते समय सावधानी बरती जाए क्योंकि ‘सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी.’

सोशल मीडिया से कैसे बनाएं दूरी

डा. मैक्सवेल लिखते हैं कि इस लत को छोड़ना सिगरेट, शराब छोड़ने जितना चुनौतीपूर्ण काम है. इस से छुटकारा पाने के लिए सब से पहले जरूरी है लत से नजात पाने का इरादा और यह इरादा तब तक नहीं हो सकता जब तक हमें यह न सम?ा आ जाए कि यह लत भले ही हमारा थोड़ा मनोरंजन करती है पर लौंग टर्म में यह हमारी हैल्थ और रिलेशन, दोनों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है.

एक्सपर्ट का कहना है कि सोशल मीडिया के बुरे असर से बचने के लिए सब से पहले अपनी प्राथमिकताएं तय करना जरूरी है. अकेलापन और डिप्रैशन से बचना है तो सोशल मीडिया का इस्तेमाल कम से कम करना होगा.

रोज 30 मिनट से कम इन ऐप्स को यूज करने से फोमो के साथ ही दूसरे बुरे असर से भी बच सकते हैं. गिल्फर्ड जर्नल की रिपोर्ट भी यही बताती है कि सोशल मीडिया से दूरी बना कर उदासी, डिप्रैशन और अकेलेपन से नजात पाई जा सकती है.

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