वक्त की पाबंदी को ले कर देशदुनिया में रोचक सर्वेक्षण होते रहते हैं. ऐसा एक सर्वेक्षण जून 2016 में औनलाइन गेमिंग वैबसाइट मिस्टर गेम्ज ने 15 देशों में किया था. इस के कई दिलचस्प नतीजे सामने आए थे. जैसे, मैक्सिको में भारत की तरह आधा घंटा विलंब को ले कर कोई नाराज नहीं होता. इसी तरह मोरक्को ऐसा देश है जहां दिए गए समय से यदि कोई एक घंटे से ले कर पूरे एक दिन का विलंब करता है तो भी कोई त्योरियां नहीं चढ़ाता. वहीं, दक्षिण कोरिया में जरा सी भी देरी बरदाश्त नहीं की जाती. मलयेशिया में अगर कोई 5 मिनट में आने को कह कर 1 घंटे में भी नहीं आता है तो इस के लिए क्षमायाचना की जरूरत भी महसूस नहीं की जाती है. इसी तरह यदि चीन में कोई व्यक्ति तय समय से 10 मिनट की देरी से आता है, तो इस से कोई ज्यादा हर्ज नहीं होता है.
लेकिन जिन देशों में काम और वक्त की कीमत को समझा गया है, वहां इस के उलट नजारे मिलते हैं. जैसे, जापान में अगर ट्रेन 1 मिनट से ज्यादा देरी से चलती है, तो इसे लेट की श्रेणी में डाला जाता है. भारत में इस तथ्य को भले ही हैरानी से देखा जाए कि जापान में पिछले 50 वर्षों में एक भी मौका ऐसा नहीं आया है जब कोई ट्रेन डेढ़ मिनट से ज्यादा लेट हुई हो.
अपने देश में तो हर साल सर्दी में कोहरे को एक बड़ी वजह बताते हुए ट्रेनें औसतन 3-4 घंटे की देरी से चल सकती हैं और उस पर रेलवे कोई हर्जाना देने की जिम्मेदारी नहीं लेता. जापान की तरह जरमनी में देरी स्वीकार्य नहीं है और अपेक्षा की जाती है कि कोई भी व्यक्ति तय वक्त से 10 मिनट पहले उपस्थित हो जाए.
वक्त के मामले में भारत जैसी सुस्ती कई अन्य देशों में भी फैली हुई है. जैसे, नाइजीरिया में अगर किसी बैठक की शुरुआत का वक्त दिन में 1 बजे है तो इस का अर्थ यह लगाया जाता है कि मीटिंग 1 से 2 बजे के बीच कभी भी शुरू हो सकती है. इसी तरह सऊदी अरब में वक्त को ले कर ज्यादा पाबंदियां नहीं हैं, वहां लोग आधे घंटे तक आराम से लेट हो सकते हैं. बल्कि वहां आलम यह है कि अगर मीटिंग में वक्त पर पहुंच गया व्यक्ति बारबार अपनी घड़ी देखता है तो इसे लेट आने वालों की अवमानना की तरह लिया जाता है.
सर्वेक्षण के मुताबिक, ब्राजील में देर से आने वालों के लिए मुहावरा ‘इंग्लिश टाइम’ इस्तेमाल किया जाता है, जिस का मतलब है कि वहां भी देरी बरदाश्त नहीं की जाती. इस के उलट घाना में भले ही किसी मीटिंग का वक्त पहले से बता दिया गया हो, पर इस मामले में उदारता की अपेक्षा की जाती है.
इसी सर्वेक्षण के नतीजे में भारत का उल्लेख करते हुए लिखा गया था कि यहां के लोग वक्त पर आने वालों की सराहना तो करते हैं, लेकिन वक्त की पाबंदी को खुद पर लागू किए जाना पसंद नहीं करते यानी भारत में वक्त की पाबंदी को एक अनिवार्यता की तरह नहीं लिया जाता.
भारत जैसा हाल यूनान (ग्रीस) का है जहां समय की बंदिश को लोग नहीं मानते. लेकिन विदेशियों से उम्मीद करते हैं कि उन्हें निश्चित समय पर किसी जगह पर उपस्थित रहना चाहिए.
कजाकिस्तान में तो वक्त की पाबंदी पर चुटकुले सुनाए जाते हैं और समारोहों में देरी से पहुंचने को स्वीकार्यता हासिल है. इस के विपरीत रूस के नागरिक वैसे तो हर मामले में सहनशीलता अपनाने की बात कहते हैं लेकिन वक्त की पाबंदी के मामले में कोई छूट नहीं देते. हालांकि वहां विदेशियों से तो वक्त पर उपस्थित रहने को कहा जाता है पर यदि किसी रूसी व्यक्ति से इस नियम का पालन करने को कहा जाए तो वह नाराज हो सकता है.
कुल मिला कर मिस्टर गेम्स नामक वैबसाइट ने सर्वेक्षण के आधार पर जो नतीजे निकाले थे, वे शब्ददरशब्द सही साबित हुए हैं.
जापान से लें सबक
वैसे तो अब जापान में भी वक्त की पाबंदी के कायदों में विचलन आने की बात कही जा रही है, खासतौर से युवाओं में इस नियम को ले कर बेरुखी देखने को मिलने लगी है पर मोटेतौर पर जापान अभी भी वक्त के पाबंद देश के रूप में देखा और सराहा जाता है.
समय की पाबंदी को जापानियों ने एक आदत के रूप में अपनाया है और इस के लिए उन्हें किसी आदेशनिर्देश की जरूरत नहीं होती है. निजी जलसों में लोगों को इस नियम से छूट हासिल होती है, लेकिन वहां भी वे विलंब की जानकारी मोबाइल, एसएमएस या व्हाट्सऐप से अवश्य देते हैं.
ट्रेनों के मामले में जापान में नियम यह है कि अगर कोई ट्रेन एक मिनट से ज्यादा लेट होती है, तो जापानी रेलवे कंपनियां इस के लिए सार्वजनिक क्षमायाचना करती हैं. बुलेट ट्रेनों के आवागमन में 15 सैकंड से ज्यादा की देरी नहीं होती है.
समय की इतनी बंदिश को ले कर जापान में बसे विदेशी काफी हैरान होते हैं. उन्हें लगता है कि वक्त को ले कर जापानी कुछ ज्यादा ही कठोर हैं. जापान में समय की पाबंदी को ले कर इतनी ज्यादा सतर्कता बरतने के पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं.
एक कहानी के मुताबिक, मेइजी दौर में ट्रेनें अकसर आधा घंटे की देरी से चलती थीं, जिस से फैक्टरियों में काम करने वाले लोग कभी भी समय पर नहीं पहुंच पाते थे. इसी के फलस्वरूप करीब 80 साल पहले शोआ युग में जापान में ट्रेनों के लिए साइंटिफिक मैनेजमैंट सिस्टम लागू किया गया. इस सिस्टम की शुरुआत अमेरिका में हुई थी जिस का इस्तेमाल टाइमकीपिंग के जरिए फैक्टरियों में उत्पादन बढ़ाने का प्रयास किया गया था.
जापान में यह सिस्टम अपना असर छोड़ने में कामयाब रहा. सचाई तो यह है कि आज के जापान में भी पार्कों से ले कर बाजारों और विज्ञापनपट्टों तक पर वक्त को ले कर जापानियों की सख्ती के दर्शन होते हैं और लोगों की निगाह घड़ी से कभी भी हटती नहीं दिखाई देती.
भले ही अब जापानी युवा इस नियम में कुछ छूट की मांग करने लगे हैं पर जापानी संस्कृति का असर वहां काम करने वाली अमेरिकी कंपनियों पर भी हुआ है जो वक्त की पाबंदी को जापान के बाहर अन्य मुल्कों में लागू करने लगी हैं.