किताबें हमें जिंदगी जीने के गुर सिखाती हैं और अगर किसी बड़ी हस्ती ने अपने जिंदगीनामे को ही किताब की शक्ल दे दी हो, तो उस में जानकारी का भंडार छिपा होगा, बस उसे पढ़ने की देर है. हाल ही में अपने जमाने के हैंडसम हीरो कबीर बेदी ने इंगलिश भाषा में अपनी जीवनी ‘स्टोरीज आई मस्ट टैल : द इमोशनल लाइफ औफ एन ऐक्टर’ लिखी है. वही कबीर बेदी, जिन्होंने ‘कच्चे धागे’, ‘नागिन’, ‘खून भरी मांग’, ‘यलगार’, ‘मैं हूं न’ जैसी बहुत सी हिंदी फिल्मों में दमदार किरदार निभाए थे इस जीवनी में कबीर बेदी ने अपने जवान बेटे सिद्धार्थ बेदी की जवानी में हुई मौत के बारे में जिक्र किया कि कैसे उन का बेटा अपने आखिरी दिनों में भूतों से बातें करने लगा था. भूतों से बातें… क्या यह बात आप को हजम हुई
दरअसल, इस किताब के अलावा अपने एक इंटरव्यू में कबीर बेदी ने बेटे सिद्धार्थ बेदी के बारे में बात करते हुए कहा था, ‘‘सिद्धार्थ बहुत समझदार लड़का था. वह अपनी क्षमताओं में बेहतरीन था और फिर एक दिन वह सोच ही नहीं पा रहा था.‘हम ने बहुत कोशिश की यह जानने की कि आखिर उसे हुआ क्या है.
3 सालों तक हम अनजान भूतों से लड़ते रहे. आखिर में मोंट्रियल की गलियों में उस का बहुत हिंसक ब्रेकआउट हुआ. उसे काबू करने के लिए 8 पुलिस वालों ने मशक्कत की थी.’’सिद्धार्थ बेदी कबीर बेदी की पहली पत्नी प्रोतिमा के बेटे थे, जो एक क्लासिकल डांसर थीं. सिद्धार्थ साल 1990 में कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करते थे. उन्होंने 26 साल की कम उम्र में खुदकुशी कर ली थी
प्रोतिमा बेदी की जिंदगी भी बड़ी पेचीदा और बिंदास रही थी. इंगलिश भाषा के ‘बदनाम लेखक’ खुशवंत सिंह ने कई साल पहले अपने एक कौलम में लिखा था, ‘प्रोतिमा ने अपने जीवन में न तो किसी पुरुष से कुछ कहा और न ही जिंदगी में कोई पछतावा पाला. वे अपनी जिंदगी की हर बात हर किसी से कह देती थीं.’जब प्रोतिमा के बेटे सिद्धार्थ बेदी ने जिंदगी खत्म की, तो वे अपने सिर के बाल मुंड़वा कर संन्यासिन बन गई थीं. 18 अगस्त, 1998 को वे कैलाशमानसरोवर की यात्रा पर थीं, जब एक भूस्खलन ने उन की जिंदगी खत्म कर दी थी.
अब बात करते हैं सिद्धार्थ बेदी के उस सच की, जिस में कबीर बेदी के मुताबिक वे अपने आखिरी दिनों में भूतों से बात करने लगे थे. एक होनहार नौजवान, जो विदेश में रह कर पढ़ाई कर रहा हो, वह भूतप्रेत के चक्कर में कैसे पड़ गया? क्या विदेश में भी भारत की तरह ‘ऊपरी हवा’ लोगों पर हावी हो सकती है?
हकीकत तो यह है कि ‘ऊपरी हवा’ एक तरह का अंधविश्वास है, जो असल में मानसिक बीमारी का लक्षण है. इसे डाक्टरी भाषा में सिजोफ्रेनिया कहते हैं. सिद्धार्थ बेदी भी इसी बीमारी से पीडि़त थे. पर अंधविश्वास फैलाने वाले इसे बीमारी से ज्यादा खतरनाक मानते हैं.
उन के मुताबिक, जब कोई इनसान दूध पी कर या कोई सफेद मिठाई खा कर किसी चौराहे पर जाता है, तब ऊपरी हवाएं उस पर अपना बुरा असर डालती हैं. गंदी जगहों पर इन हवाओं का वास होता है, इसीलिए ऐसी जगहों पर जाने वाले लोगों को ये हवाएं अपने असर में ले लेती हैं.
ये ‘ऊपरी हवाएं’ पीडि़त पर भारी पड़ती हैं. उन्हें भूतप्रेत का एहसास होने लगता है और वे अपनी ही दुनिया में जीने लगते हैं. उन का शरीर कंपकंपाने लगता है. कभीकभार तो वे दूसरे लोगों के लिए खतरा बन जाते हैं.
जिस तरह ‘ऊपरी हवा’ के बारे में भ्रमजाल फैलाया गया है, इस से छुटकारा पाने के तरीके भी अंधविश्वास से भरे हैं और बहुत सारे होते हैं, पर एक तरीके से बात को समझ लेते हैं. ऐसी बाधा के लिए एक मुट्ठी पिसा हुआ नमक ले कर शाम को पीडि़त के सिर के ऊपर से 3 बार उतार लें और उसे दरवाजे के बाहर फेंकें. ऐसा 3 दिन लगातार करें. अगर आराम न मिले, तो नमक को सिर के ऊपर वार कर शौचालय में डाल कर फ्लश चला दें. यकीनन, फायदा होगा. पर, अगर हम ‘ऊपरी हवा’ को सिजोफ्रेनिया के नजरिए से समझें, तो मरीज असली दुनिया से कट जाते हैं. इस बीमारी से पीडि़त 2 मरीजों के लक्षण हर बार एकजैसे नहीं होते.
सिजोफ्रेनिया के मरीजों में कुछ खासतौर से दिखने वाले लक्षण ‘कैटेटोनिक’ कहे जाते हैं. इस में मरीज ज्यादा चलताफिरता नहीं है और किसी भी निर्देश का पालन नहीं कर पाता है. जब बीमारी ज्यादा बढ़ जाती है, तो मरीज मोटर की गतिविधियों की बहुत ज्यादा और अजीब सी आवाज निकाल कर नकल उतारते हैं. इसे ‘कैटेटोनिक उत्साह’ कहा जाता है.
रिसर्च करने वालों का मानना है कि दिमाग के कुछ कैमिकल इस बीमारी की वजह बनते हैं, जिस के चलते सिजोफ्रेनिया के मरीजों की भावनाओं और बरताव में बदलाव आता है. ये कैमिकल ही डिसऔर्डर पैदा करते हैं. फैमिली हिस्ट्री वालों में यह बीमारी होने का डर ज्यादा होता है. सिजोफ्रेनिया के मरीज कुछ भी सामान्य तरीके से नहीं कर पाते हैं. उन्हें अपने रोजाना के काम करने में भी दिक्कत महसूस होती है. उन्हें अपने आसपास कुछ भी अच्छा नहीं लगता है सिजोफ्रेनिया के मरीज खुद को सताए जाने या अमीर होने या फिर ताकतवर होने का भरम पाल लेते हैं. उन्हें भी महसूस हो सकता है कि उन में दैवीय शक्तियां हैं. बस, यहीं से अंधविश्वास की शुरुआत होती है और मरीज को डाक्टर के बजाय किसी ओझातांत्रिक या मंदिरमसजिद या फिर चर्च की शरण में ले जाया जाता है.
भारत में तो कई मंदिर ऐसे बताए जाते हैं, जहां ‘ऊपरी हवा’ के मारों को ले जाया जाता है और उन का भूत उतारा जाता है इस के बजाय अगर मरीज को डाक्टर या साइकोलौजिस्ट के पास ले जाया जाए, तो बीमारी पर कुछ काबू पाने की उम्मीद बंध जाती है
सिजोफ्रेनिया के मरीजों को आमतौर पर एंटीसाइकोटिक दवाएं दी जाती हैं. कुछ मरीजों की खास थैरेपी की जाती है, ताकि उन्हें तनाव से छुटकारा मिल सके. कुछ लोगों को इस से बाहर लाने के लिए सोशल ट्रेनिंग दी जाती है. वहीं कुछ गंभीर मामलों में मरीज को अस्पताल में भरती कर के इलाज करना पड़ता है.
इस के अलावा परिवार और दोस्तों को मरीज की भावनाओं को नए सिरे से समझना पड़ता है. उन पर किसी ‘ऊपरी हवा’ का असर होने की सोच को पूरी तरह मन से निकाल देना चाहिए और मरीज की दिमागी चुनौतियों को हल करने में मदद करनी चाहिए.