देश में अमीरीगरीबी का मामला बहुत समय से चर्चा में है. दरअसल, यह एक ऐसा मसला है जो जहां एक तरफ सरकार के लिए खास है, वहीं दूसरी तरफ आम जनता में भी देश की अमीरी और गरीबी के बारे में चर्चा का दौर जारी रहता है.
अगर हम साल 2014 के बाद की मोदी सरकार के समय और उस से पहले की मनमोहन सरकार को परखें तो आज का समय आम लोगों के लिए एक बड़ी ट्रैजिडी बन कर सामने आया है. आज अगर बेरोजगारी बढ़ी है तो सीधी सी बात है कि उस के चलते गरीबी में भी बढ़ोतरी हुई है और इस की बुनियादी वजह है नोटबंदी और कोरोना काल.
बेरोजगारी का मतलब है नौजवान तबके के पास काम न होना. इस बात को गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि अब भारत में पढ़ाईलिखाई की दर तो बढ़ी है, पर अगर नौजवानों को नौकरी या दूसरे रोजगार नहीं मिलेंगे, तो फिर यह सरकार की नाकामी ही कही जाएगी.
मगर वर्तमान सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि देश में बेरोजगारी और गरीबी बढ़ गई है. वह अपने तरीके से देशदुनिया के सामने यह बात रखने से गुरेज नहीं करती है कि देश अमीरी की तरफ बढ़ रहा है. आम लोगों की गरीबी के उलट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सोच है कि दुनिया के सामने देश को सीना तान कर खड़ा होना है. चाहे चीन हो, अमेरिका हो या फिर रूस, हम किसी से कम नहीं. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई पिद्दी पहलवान किसी नामचीन पहलवान के सामने ताल ठोंके. यह बात एक कौमेडी सी हो जाती है. आने वाले समय में सचमुच ऐसा हो न जाए, क्योंकि सचाई से मुंह चुराया जाना कतई उचित नहीं होता है.
अरविंद पनगढ़िया बने ढाल
आज जब देश के सामने गरीबी का सच सार्वजनिक है, महंगाई अपनी सीमाओं को तोड़ रही है, और तो और केंद्र सरकार की चाहे घरेलू गैस सिलैंडर वाली स्कीम हो या फिर पैट्रोल पौलिसी, ये दोनों खून के आंसू रुला रही हैं.
ऐसे में सरकार की तरफ से जानेमाने अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया ने मोरचा संभाल लिया है. वे कहते हैं कि कोविड 19 महामारी के दौरान भारत में गरीबी और गैरबराबरी बढ़ने का दावा सरासर गलत है.
अरविंद पनगढ़िया ने एक रिसर्च पेपर में यह भी कहा है कि असल में तो कोविड 19 के दौरान देश में गांवदेहात और शहरों के साथसाथ नैशनल लैवल पर गैरबराबरी कम हुई है.
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर और देश के नीति आयोग में उपाध्यक्ष पद पर रह चुके अरविंद पनगढ़िया और इंटैलिंक एडवाइजर्स के विशाल मोरे ने मिल कर ‘भारत में गरीबी और असमानता : कोविड 19 के पहले और बाद में’ शीर्षक से यह रिसर्च पेपर लिखा है. इस में भारत में कोविड 19 महामारी से पहले और बाद में गरीबी और गैरबराबरी के हालात के बारे में बताया गया है. इस के लिए भारत के राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के निश्चित अवधि पर होने वाले श्रमबल सर्वे में जारी घरेलू खर्च के आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है.
रिसर्च पेपर में कहा गया है कि पीएलएफएस के जरीए जो गरीबी का लैवल निकला है, वह साल 2011-12 के उपभोक्ता व्यय सर्वे से निकले आंकड़ों और उस से पहले के अध्ययन से तुलनीय नहीं है. इस की वजह से पीएलएफएस और सीईएस में जो नमूने तैयार किए गए हैं, वे काफी अलग हैं.
इस के मुताबिक, तिमाही आधार पर अप्रैलजून, 2020 में कोविड 19 महामारी की रोकथाम के लिए जब सख्त लौकडाउन लागू किया गया था, उस दौरान गांवों में गरीबी बढ़ी थी, लेकिन जल्दी ही यह कोविड-19 से पहले के लैवल पर आ गई और उस के बाद से उस में लगातार गिरावट रही.
कोविड 19 के बाद सालाना आधार पर गैरबराबरी शहरी और गांवदेहात दोनों क्षेत्रों में घटी है. देश के 80 करोड़ गरीबों को सस्ता अनाज, सस्ता मकान वगैरह दे कर केंद्र सरकार खुद साबित कर रही है कि देश की जमीनी हकीकत क्या है. मगर दुनिया के चौरास्ते पर खड़े हो कर खुद को अमीर साबित करना सिर्फ छलावा ही तो है. ऐसा महसूस होता है कि हमारे देश में धार्मिकता के चलते आज भी लोग समझते हैं कि उन की बदहाली की असल वजह भगवान ही है, जिस ने उन्हें गरीब बनाया है, जबकि असल में हमारे देश की आर्थिक नीतियां और सरकार का काम करने का तरीका ऐसा है कि लोग गरीबी, बदहाली में जी रहे हैं.
हर सरकार लोगों को भरमा रही है. दिल्ली की केजरीवाल सरकार मुफ्त में महिलाओं को बस में यात्रा कराती है. कर्नाटक में राहुल गांधी बेरोजगारी भत्ते का लौलीपौप दिखाते हैं और नरेंद्र मोदी का दोहरा चेहरा तो देश देख ही रहा है. वे चाहते हैं कि विपक्षी पार्टियां तो कुछ भी न दें और वे खुद लोगों को कुछ न कुछ दे कर तथाकथित मसीहा बन जाएं. यही वजह है कि हमारा देश जापान, चीन जैसे देशों से बहुत पिछड़ गया है जो या तो बहुत छोटे हैं या फिर उन्हें आजादी बाद में मिली है.