डिजिटलीकरण के दौर में गायब हुए नुक्कड़ नाटक

साल 1989 का पहला दिन था. तब एकदूसरे को हैप्पी न्यू ईयर के व्हाट्सऐप फौरवर्ड भेजने का रिवाज नहीं था. न ही इंस्टाग्राम पर रंगबिरंगी लाइटें लगाने व तंग कपड़े पहन कर रील बनाई जाती थीं. ट्विटर पर हैशटैग जैसी फैंसी चीज नहीं थी. इन बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों के न होने के चलते युवाओं के पास खुद को एक्सप्रैस करने के लिए नुक्कड़ नाटक थे. यानी, स्ट्रीट प्ले सोशल इंटरैक्शन के माध्यम माने जाते थे. नाटक करने वालों के पास कला थी और देखने वालों के पास तालियां. यही उस समय का यूथ कोलैब हुआ करता था.

यही तालियों की गड़गड़ाहट साल के पहले दिन गाजियाबाद के अंबेडकर पार्क के नजदीक सड़क पर बज रही थी उस के लिए जो आने वाले सालों में इम्तिहान के पन्नों में अमर होने वाला था, जिस के जन्मदिवस, 12 अप्रैल, को ‘नुक्कड़ नाटक दिवस’ घोषित किया जाने वाला था. बात यहां मार्क्सवाद की तरफ ?ाकाव रखने वाले सफदर हाशमी की है जो महज 34 साल जी पाए और इतनी कम उम्र में वे 24 अलगअलग नाटकों का 4,000 बार मंचन कर चुके थे.

शहर में म्युनिसिपल चुनाव चल रहे थे. ‘जन नाट्य मंच’ (जनम) सीपीआईएम कैंडिडेट रामानंद ?ा के समर्थन में स्ट्रीट प्ले कर रहा था. प्ले का नाम ‘हल्ला बोल’ था. सुबह के

11 बज रहे थे. तकरीबन 13 मिनट का नाटक अपने 10वें मिनट पर था. तभी वहां भारी दलबल के साथ मुकेश शर्मा की एंट्री हो जाती है. वह मुकेश शर्मा जो कांग्रेस के समर्थन से इंडिपैंडैंट चुनाव लड़ रहे थे. मुकेश शर्मा ने प्ले रोक कर रास्ता देने को कहा. सफदर ने कहा, ‘या तो प्ले खत्म होने का इंतजार करें या किसी और रास्ते पर निकल जाएं.’

बात मुकेश शर्मा के अहं पर लग गई. उस के गुंडों की गुंडई जाग गई. उन लोगों ने नाटक मंडली पर रौड और दूसरे हथियारों से हमला कर दिया. राम बहादुर नाम के एक नेपाली मूल के मजदूर की घटनास्थल पर ही मौत हो गई. सफदर को गंभीर चोटें आईं. अस्पताल ले तो जाया गया पर दूसरे दिन सुबह, तकरीबन

10 बजे, भारत के जन-कला आंदोलन के अगुआ सफदर हाशमी ने अंतिम सांस ली. इतनी छोटी सी ही उम्र में सफदर हाशमी ने लोगों के दिलों में कैसी जगह बना ली थी, इस का सुबूत मिला उन के अंतिम संस्कार के दौरान. अगले दिन उन के अंतिम संस्कार में दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग मौजूद थे. कहते हैं, सड़कों पर नुक्कड़ नाटक करने वाले किसी शख्स के लिए ऐसी भीड़ ऐतिहासिक थी.

सफदर की मौत के महज 48 घंटे बाद 4 जनवरी को उसी जगह पर उन की पत्नी मौलीश्री और ‘जनम’ के अन्य सदस्यों ने जा कर ‘हल्ला बोल’ नाटक का मंचन किया. यहां तक बताया जाता है कि उसी साल सफदर की याद में लगभग 25 हजार नुक्कड़ नाटक देशभर में किए गए.

इप्टा का योगदान

नुक्कड़ नाटकों की युवाओं के बीच एक अलग ही जगह रही है. एक समय सड़कों पर दिखाए जाने वाले इन नाटकों की ऐसी आंधी थी कि माना जाता था यदि कोई उभरता कलाकार सड़क पर लोगों के बीच नाटक नहीं दिखा सकता, उन्हें मंत्रमुग्ध नहीं कर सकता, वह असल माने में जन कलाकार है ही नहीं.

नुक्कड़ नाटक हमेशा से जन संवाद के माध्यम रहे हैं. ये हर समय लोगों के बीच रहे. मुंबई में इप्टा की संचालक शैली मैथ्यू ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा, ‘‘गुलाम भारत में नुक्कड़ नाटकों का मंचन इतना आसान नहीं होता था. कई बार अभिनेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता था, भीड़ को तितरबितर करने के लिए लाठियां बरसाई जाती थीं. लेकिन नाटक वाले भी तैयारी से निकलते थे. उन का यही मकसद होता- लोगों में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ विरोध को जगाना, उन्हें तमाम सामाजिक-धार्मिक कडि़यों से आजाद कर राजनीतिक लड़ाई के लिए एकजुट करना.’’

दरअसल, भारत में अभिनय को थिएटर, थिएटर से सड़कों, सड़कों से आम जनता के बीच ले जाने में इप्टा यानी ‘इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन’ की बड़ी भूमिका रही है. इप्टा 1943 में ब्रिटिश राज के विरोध में बना एक रंगमंच संगठन था. इस का नामकरण भारत के बड़े वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने किया. आजाद भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित हो कर इप्टा ने भारतीय सिनेमा में अपना गहरा इंपैक्ट छोड़ा. कई नामी कलाकार इस संगठन से निकले. बलराज और भीष्म साहनी, पृथ्वीराज कपूर, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी, फैज अहमद फैज, शैलेंद्र, साहिर लुधियानवी जैसे बड़े नाम शामिल रहे. उर्दू के मशहूर शायर कैफी आजमी के कथन में ‘इप्टा वह प्लेटफौर्म है जहां पूरा हिंदुस्तान आप को एकसाथ मिल सकता है. दूसरा ऐसा कोई तीर्थ भी नहीं, जहां सब एकसाथ मिल सकें.’

देखा जाए तो इप्टा के नाटकों के थीम में विरोध का स्वर ज्यादा मुखर होता था, बल्कि ज्यादातर नाटक तो विशुद्ध राजनीतिक थीम पर ही लिखे गए. उस के बावजूद यह धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों पर चोट करता था. इतनी चोट कि कई बार धर्म प्रायोजित राजनीतिक पार्टियां व धार्मिक संगठनों के बीच यह संगठन अखरने लगता था.

सफदर हाशमी खुद भी इप्टा से जुड़े थे. उन्होंने रंगमंच के सारे पैतरे इप्टा से सीखे पर जब उन्हें लगा कि कला को अब और नीचे सड़कों तक पहुंचाने की जरूरत है और इस के लिए उन के पास ज्यादा फंड नहीं तो ‘जनम’ की नींव डाल कर नक्कड़ नाटक को अपना हथियार बना दिया.

नुक्कड़ नाटक आज कहां

स्ट्रीट प्ले किस तरह युवाओं के बीच एक समय पौपुलर माध्यम हुआ करता था. इस में यूनिवर्सिटी के स्टूडैंट्स की बड़ी भूमिका होती थी. खुद सफदर हाश्मी और उन के साथ के मैंबर्स विश्वविद्यालयों से जुड़े हुए थे. सफदर सेंट स्टीफन कालेज से पढ़े भी थे और बाद में अलगअलग कालेज में पढ़ाने भी लगे.

अधिकतर लोग इसे सिर्फ थिएटर या फिल्मी परदों पर ऐक्ंिटग करने वाले कलाकारों से जुड़ा हुआ सम?ाते हैं पर असल में नुक्कड़ नाटक ही एकमात्र माध्यम था जो समाज के सब से निचले युवाओं, जिन का ऐक्ंिटग से कोई लेनादेना न भी हो, से जुड़ा हुआ था. युवा इस के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुंचाया करते थे. यहां तक कि सरकार की आलोचना करने, अपनी समस्याएं बताने में भी यह एक बड़ा माध्यम था. पर सवाल यह कि आज नुक्कड़ नाटक हमारे इर्दगिर्द से गायब होते क्यों दिखाई दे रहे हैं? क्यों युवा इन के बारे में बात नहीं करते? इस का जवाब देश में तेजी से बदलते पौलिटिकल और सोशल चेंज में छिपा है, जिसे सम?ाना बहुत जरूरी है.

गरीब छात्र गायब, बढ़ता सरकारी दखल

हायर एजुकेशन में सरकारी नीतियों के चलते कमजोर तबकों के छात्रों का यूनिवर्सिटीज तक पहुंचना बेहद मुश्किल हो गया है. यहां तक कि दलित और पिछड़े तबकों के क्रीमी छात्र ही यूनिवर्सिटी तक पहुंच पा रहे हैं, जिन का अपने समुदायों से खास सरोकार रहा नहीं. 4 साल की डिग्री, बढ़ती कालेज फीस और लिमिटेड सीट्स ने छात्रों के लिए मुश्किल बना दिया है.

लगभग सभी विश्वविद्यालयों में थिएटर ग्रुप जरूर होते हैं. खालसा, हिंदू, सेंट स्टीफन, रामजस, किरोड़ीमल, गार्गी, दयाल सिंह सभी कालेजों में ऐसे ग्रुप्स हैं. इन ग्रुप्स से जुड़ने वाले अधिकतर छात्र पैसे वाले घरानों से हैं, जिन का आम लोगों से कोई लेनादेना नहीं. न उन से जुड़े मुद्दे ये सम?ा पाते हैं. ऐसे कई सरकारी कालेज हैं जो अपने एलीट कल्चर के लिए जाने जाते हैं. सेंट स्टीफन में छात्र इंग्लिश में ही बात करते हैं. यहां कोई गरीब छात्र गलती से पहुंच जाए तो वह इन के बीच रह कर अवसाद से ही भर जाए. प्राइवेट यूनिवर्सिटी का हाल और भी बुरा है. गलगोटिया यूनिवर्सिटी चर्चा में है. वहां छात्रों के बीच सम?ादारी का अकाल होना चिंताजनक स्थिति दिखाता है.

एनएसडी और एफटीआईआई जैसे संस्थानों में पढ़ने वाले छात्र भी अब बड़ेबड़े घरानों से आने लगे हैं. यहां सरकार का दखल भी बढ़ गया है. एसी से लैस प्यालेलाल भवन व कमानी औडिटोरियम इन के अड्डे हैं. कभीकभार टास्क के नाते नुक्कड़ों पर निकल पड़ते हैं पर मंडी हाउस के 2 किलोमीटर के दायरे से बाहर नहीं जा पाते.

ऐसा नहीं है कि ये थिएटर ग्रुप्स बिलकुल ही अपने वजूद से अनजान हैं. मगर पिछले कुछ सालों में यूनिवर्सिटी स्पेस में सरकार का दखल हद से ज्यादा बढ़ा है. कैंपस में सेफ्टी के नाम पर पुलिस का हर समय मौजूद रहना, लगातार हर घटनाक्रम को रिकौर्ड करना व छात्रों की हर सोशल व पौलिटिकल एक्टिविटी के लिए परमिशन लेना व नजर रखना अनिवार्य हो गया है. इस से नाटकों का मंचन करने वालों को दिक्कतें आ रही हैं. पर इस के बावजूद यह तो सोचा ही जा सकता है इमरजैंसी के समय में जब सब चीजों पर सरकार ने पहरे बैठा दिए थे तब भी ‘जनम’ जैसे नुक्कड़ नाटक सड़कों पर विरोध जताने वालों के रूप में मौजूद थे तो आज क्यों नहीं?

सोशल मीडिया का पड़ता प्रभाव

इसे सम?ाने के लिए आज युवाओं के लाइफस्टाइल को सम?ाना जरूरी है. युवाओं के हाथ में  आज 5जी की स्पीड से चलने वाला इंटरनैट है. सुबह उठने के साथ वह अपने फोन को स्क्रोल कर रहा है. आतेजाते, खाना खाते वह मोबाइल से ही जुड़ा हुआ है. मैट्रो, बसों में युवा अपना सिर गड़ाए फोन में घुसे रहते हैं. एंटरटेनमैंट के नाम पर 16 सैकंड की रील्स से संतुष्ट हो रहे हैं. अधकचरी जानकारियां सोशल मीडिया में फीड की गईं मीम्स से ले रहे हैं, जो बहुत बार प्रायोजित प्रोपगंडा होती हैं.

युवा न तो सही जानकारी जुटा पा रहा है, न लंबीचौड़ी चीजें पढ़लिख पा रहा है. उस के पास किसी स्टोरी को डैवलप करने का टैलेंट तक नहीं है. आज अच्छे नाटक दिखाने वाले बहुत कम ग्रुप्स बचे हैं. और ये ग्रुप्स भी अपनी मेहनत सड़कों पर करने के बजाय एसी औडिटोरियम में कर रहे हैं. वहीं सड़क पर नाटक दिखाने को एनजीओ वाले रह गए हैं, जिन के नुक्कड़ नाटकों में न तो तीखापन है, न कोई विरोध.

सोशल मीडिया युवाओं के बीच का एंटरटेनमैंट और जागरूकता का साधन छीन रहा है. हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि इन की जरूरत खत्म हो गई है, जबजब सवाल पूछने का चलन समाज में बढ़ेगा, नुक्कड़ नाटक सड़कों पर फिर से जगह बनाते दिखेंगे.

कुश्ती में घमासान: नफरत का तूफान

साल 2022 में हुए टोकियो ओलिंपिक खेलों में भारतीय महिला पहलवान विनेश फोगाट ने वहां के खेलगांव में रहने और दूसरे भारतीय खिलाडि़यों के साथ ट्रेनिंग करने से मना कर दिया था. इस के साथ ही उन्होंने भारतीय दल के आधिकारिक प्रायोजक ‘शिव नरेश’ की जर्सी पहनने से भी इनकार कर दिया था. उन्होंने अपनी बाउट्स के दौरान ‘नाइक’ के लोगो वाली ड्रैस पहनी थी.

इस के बाद भारतीय कुश्ती महासंघ ने विनेश फोगाट को अस्थाई रूप से निलंबित और सभी रैसलिंग ऐक्टिविटी से प्रतिबंधित कर दिया था. तब यह भी कहा गया था कि विनेश फोगाट जब तक इस पर अपना पक्ष नहीं रखती हैं और भारतीय कुश्ती महासंघ इस पर आखिरी फैसला नहीं लेता है, तब तक वे किसी भी नैशनल या डोमैस्टिक इवैंट में हिस्सा नहीं ले सकेंगी.

इस पूरे मामले पर भारतीय कुश्ती महासंघ को इंडियन ओलिंपिक एसोसिएशन की ओर से फटकार का सामना करना पड़ा था कि वह अपने खिलाडि़यों को कंट्रोल में क्यों नहीं रख पाता है? अब सीधा 18 जनवरी, 2023 पर आते हैं. दिल्ली के ऐतिहासिक जंतरमंतर पर बुधवार को भारत के कई नामचीन पहलवान जमा हुए और उन्होंने भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ मोरचा खोल दिया.

धरना देने वाले खिलाडि़यों में बजरंग पुनिया, विनेश फोगाट, साक्षी मलिक समेत 30 नामीगिरामी पहलवान शामिल थे. छरहरे बदन और तीखे नैननैक्श की 28 साला विनेश फोगाट हरियाणा की पहलवान हैं. बचपन में ही उन के पिता राजपाल सिंह फोगाट का देहांत हो गया था. मां प्रेमलता फोगाट ने ही उन का लालनपालन किया था.

5 फुट, 3 इंच कद की विनेश फोगाट ने साल 2014 में हुए कौमनवैल्थ गेम्स में कुश्ती के 48 किलोग्राम भारवर्ग और साल 2018 के कौमनवैल्थ गेम्स में 50 किलोग्राम भारवर्ग में गोल्ड मैडल अपने नाम किया था. विनेश फोगाट ने साल 2019 में नूर सुलतान वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी कांसे का तमगा जीता था. वे 2 बार की एशियन गेम्स पदक विजेता भी रह चुकी हैं.

उन्होंने साल 2018 के जकार्ता एशियन गेम्स में गोल्ड मैडल और साल 2014 के इंचियोन एशियन गेम्स में कांसे का तमगा जीता था. नाटे कद की तेजतर्रार पहलवान साक्षी मलिक का जन्म 3 सितंबर, 1992 को हरियाणा के रोहतक में हुआ था. उन के पिता सुखबीर मलिक डीटीसी में बस कंडक्टर और माता सुदेश मलिक एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं.

साल 2016 में ब्राजील के रियो ओलिंपिक खेलों में साक्षी मलिक कांसे का मैडल अपने नाम कर के भारत के लिए ओलिंपिक मैडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बनी थीं. साल 2016 के बाद से साक्षी मलिक के कैरियर में एक लंबा ब्रेक आ गया था. साल 2020 में वे टोकियो ओलिंपिक खेलों के लिए क्वालिफाई करने से भी चूक गई थीं, लेकिन साल 2020 और 2022 की एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने कांसे के 2 मैडल अपने नाम किए थे.

साल 2022 की शुरुआत में ही साक्षी मलिक ने यूडब्ल्यूडब्ल्यू रैंकिंग सीरीज में गोल्ड मैडल जीता था. विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बजरंग पुनिया ने जंतरमंतर पर मोरचा संभाला था. ओलिंपिक मैडलिस्ट बजरंग पुनिया ने भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर बेहूदा शब्दों का इस्तेमाल कर के गाली देने का आरोप लगाया. कई पहलवानों ने उन्हें ‘तानाशाह’ तक करार दिया. विनेश फोगाट ने तो भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों का यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगा दिया.

उन्होंने यह भी कहा कि कई और कोच भी यौन उत्पीड़न करते हैं. जंतरमंतर पर जमा हुए पहलवानों का कहना था कि वे इस लड़ाई को आखिर तक लड़ेंगे और बृजभूषण शरण सिंह को पद से हटाने तक चुप नहीं बैठेंगे. विनेश फोगाट ने रोते हुए कहा था, ‘‘प्रैसिडैंट ने मुझे ‘खोटा सिक्का’ बोला. फैडरेशन ने मुझे मैंटली टौर्चर किया. मैं इस के बाद सुसाइड करने की सोच रही थी.’’ बजरंग पुनिया ने कहा, ‘‘महासंघ द्वारा हमें मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा है.

फैडरेशन द्वारा एक दिन पहले ही नियम बना लिए जाते हैं. सारी भूमिका प्रैसिडैंट निभा रहे हैं. प्रैसिडैंट हम से गालीगलौज करते हैं. उन्होंने प्लेयर्स को थप्पड़ तक मार दिया था.’’ कुश्ती जगत में हुए इस धमाके से यह साफ हो गया है कि जिस तरह से भारतीय कुश्ती महासंघ का संचालन बृजभूषण शरण सिंह कर रहे हैं, उस से कुश्ती खिलाड़ी तंग आ चुके हैं.

वैसे, बता दें कि बृजभूषण शरण सिंह उत्तर प्रदेश की कैसरगंज लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं. बृजभूषण शरण सिंह अपने इलाके के वे एक दबंग नेता माने जाते हैं. आज की तारीख में उन का असर गोंडा के साथसाथ बलरामपुर, अयोध्या और आसपास के जिलों में काफी बढ़ा है. उन के बेटे प्रतीक भूषण भी गोंडा से भाजपा विधायक हैं.

बृजभूषण शरण सिंह साल 2011 से ही कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष हैं. साल 2019 में वे कुश्ती महासंघ के तीसरी बार अध्यक्ष चुने गए थे. उन्होंने 2 साल पहले रांची में भरे मंच पर एक पहलवान को थप्पड़ मार दिया था. भारतीय कुश्ती महासंघ का चुनाव एक निर्वाचक मंडल से होता है.

इस महासंघ की वैबसाइट पर दी गई जानकारी के आधार पर कार्यकारी समिति के पदाधिकारियों और सदस्यों के चुनाव के लिए निर्वाचक मंडल होता है. इस में 26 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 51 सदस्य शामिल होते हैं. धरने पर बैठे बजरंग पुनिया ने साफ किया, ‘‘पहलवान इस तानाशाही को बरदाश्त नहीं करना चाहते हैं. हम चाहते हैं कि भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रबंधन में बदलाव किया जाए. हमें उम्मीद है कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री हमारा समर्थन करेंगे.’’ खिलाडि़यों और भारतीय कुश्ती महासंघ के बीच हुए इस घमासान को खेल मंत्रालय ने बहुत गंभीरता से लिया है.

मंत्रालय ने फैडरेशन से 72 घंटे के भीतर इन आरोपों पर जवाब मांगा और ऐसा नहीं करने पर सख्त कार्यवाही की चेतावनी दी. इसी बीच बहुत से पहलवान भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह के पक्ष में भी खड़े दिखाई दिए. साल 2010 में कौमनवैल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीतने वाले नरसिंह यादव ने बृजभूषण शरण सिंह की तारीफ की और उन का पक्ष लिया. केरल की पहलवान रोज मार्या और उन की बहन शालिनी भी बृजभूषण शरण सिंह के समर्थन में सामने आईं. उन का कहना था, ‘हम दोनों नैशनल मैडलिस्ट हैं.

हम साल 2014 में लखनऊ के सांईं सैंटर में हुए नैशनल कैंप का हिस्सा थीं. हम वहां पूरी तरह से सेफ थीं. हमें वहां कोई समस्या नहीं हुई. इस के लिए हम रैसलिंग फैडरेशन औफ इंडिया की शुक्रगुजार हैं.’ इस पूरे मसले पर कौन कितना सच्चा या झूठा है, यह तो जांच समिति की रिपोर्ट आने से पता चलेगा. हालांकि जब तक रिपोर्ट आएगी, तब तक कुश्ती मैट फट चुके होंगे.

सोशल मीडिया पर बवाल भारत के मुक्केबाज विजेंदर सिंह ने धरने पर बैठे पहलवानों का समर्थन करते हुए फेसबुक पर एक फोटो डाला था, तो उस के एक कमैंट में एक यूजर ने लिखा, ‘बृजभूषण बोल रहा है कि एक जाति विशेष के पहलवान धरने पर बैठे हैं, उस को बोलो कि मैडल भी तो जाति विशेष के पहलवान ही लाए थे.’ यहां जाति विशेष का मतलब जाट से है.

इस कमैंट के जवाब में दूसरे यूजर ने लिखा, ‘विनेश फोगाट, बजरंग पुनिया, साक्षी मलिक जैसे खिलाडि़यों को शर्म आनी चाहिए, जो नए खिलाडि़यों की चुनौतियां स्वीकार करने के बजाय बेबुनियाद आरोप संघ अध्यक्ष पर लगा रहे हैं. एक और यूजर का कहना था, ‘हर खेल का नियम है कि नए खिलाड़ी आने पर पुराने खिलाडि़यों को रिटायर होना पड़ता है. अपनी कमजोरी छिपाने के लिए अनावश्यक दबाव बनाने के लिए भारतीय कुश्ती संघ को बदनाम कर रहे हैं.

मेरा इन खिलाडि़यों के प्रति सम्मान है, किंतु इन्हें अपने स्वार्थ के लिए संघ को बदनाम नहीं करना चाहिए…’ किसी यूजर ने लिखा, ‘खास वर्ग को तकलीफ है. जय राजपुताना.’ एक यूजर ने इस तरह अपनी भड़ास निकाली, ‘ब्रजभूषण के बयान से जाहिर है, उन्हें परेशानी एक खास वर्ग से ही है. उन का बयान उन की मानसिकता का साफ चित्रण करता दिख रहा है. जब हम मैडल ले कर आते हैं तो हिंदू और अब सिर्फ जाट. वाह रे, ब्रजभूषण.’ ये तो चंद उदाहरण हैं, जबकि सोशल मीडिया पर ऐसी न जाने कितनी अनर्गल बातें चल रही थीं, जो हमारी जनता की सोच को सामने ले आईं. यह एक खतरनाक ट्रैंड है.

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