हमारे पुराणों में भाइयों की हुई लड़ाई को आज धर्म की लड़ाई बताया जा रहा है, अपनी पत्नी को छुड़ाने की लड़ाई को सच की लड़ाई बताया जा रहा है, अपनी पत्नी को छुड़ाने की लड़ाई को सच की लड़ाई बताया जाता है, अमृत को निकालने पर बंटवारे में बेहमानी को देवताओं का कार्य बताया जाता है, कुंआरियों का मां बना देने को लीला बना दिया जाता है, अपने रिश्तेदारों को मारने की महिमा गाई जाती है, वहां सरकार को छलने वालों की कमियों, बेइमानियों को बताने वालों की अगर पार्टी और उस के नेता आने को देश मानना शुरू कर दिया जाए तो बड़ी बात नहीं है.
गांवों में आज भी सरपंच को परमेश्वर मानने की आदत डली हुई है. लोग विधायकों, सांसदों के पैर पूजते हैं क्योंकि वे तो साक्षात ईश्वर हैं, देश हैं. नरेंद्र मोदी जो कह रहे हैं वह मानसिकता हमारे यहां कूटकूट कर भरी है कि जो ऊंचा हैं, ऊंचे स्थान पर बैठा है, ऊंचे कुल में पैदा में हुआ है, उस की सही गलत हर बात माने, खुद को देश के बराबर मान कर नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि सरकार का जो भी फैसला उन्होंने लिया वह देश का फैसला है और इस में कमियां निकालने या उस के पीछे नीयत का पर्दाफाश करना देशद्रोह, समाज द्रोह है, धर्मद्रोह है.
सत्ता इस तरह कुछ हाथों में सिमटती जा रही है कि किसी दूसरे की कोई पूछ ही न हो, कोई शंबूक न हो, कोई एकलव्य न हो. सारी समस्याओं के लिए पुराणों में देवता या वो इंद्र के पास पहुंचते थे या ब्रह्मïा, विष्णु, महेश के पास. आज भी क्या वही दोहराने की वकालत की जा रही है. दूसरी पाॢटयां, प्रेस, जज अगर सरकार की हां में हां न मिलाएं तो क्या वे देश के खिलाफ हैं. यह उस डैमोक्रेसी के खिलाफ है जिस का सपना गांधी ने देखा था, उन आजादी के परवानों ने देखा था जिन्होंने अपने घर परिवार कुरवान किए.
आजादी के 75 साल वे जश्न में आजादी को सिर्फ मूॢत की तरह पूजने के उकसाना आजादी आम आदमी के हाथों से छीन कर सरकारके हाथों में सौंपना है.